सरकार की बढ़ती असुरक्षा
जब देश की सरकार खुलेआम बर्बर हो जाए…
♦ चंद्रिका
छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में माओवादीयों द्वारा किया गया हमला अब तक का सबसे बड़ा हमला है। कुछ महीने ही बीते हैं राजनांद गांव के उस हमले को, जिसे सबसे बड़ा हमला माना गया था। उसके पहले गढ़चिरौली में हुआ हमला सबसे बड़ा हमला था और उससे पहले बिहार का जहानाबाद जेल ब्रेक… शायद हम इस तरह से 1967 के उस अप्रैल माह तक पहुंच सकते हैं। अब शायद हम स्थान के लिहाज से सिलीगुड़ी के नक्सलबाड़ी गांव तक पहुंच सकते हैं और शायद तेलंगाना से भी इसकी शुरुआत कर सकते हैं या फिर वहां से जब आदिवासी बंदूकों और बारूदों से अनभिज्ञ रहे होंगे। जब संसद में भगत सिंह द्वारा बम फेंका गया था। शायद भारत में यह वामपंथ का पहला हमला था, जो हताहत करने के लिहाज से नहीं बल्कि किसान-मजदूर के खिलाफ बन रहे कानून का विरोध करने के लिए था जो अब आसानी से हर साल बनाये जाते हैं।
सबसे बड़ा और सबसे पहला… इसका चुनाव हम आप पर छोड़ते हैं, पर सवाल सबसे बड़े हमले या सबसे छोटे हमले का नहीं है। यह भाषा बोलते हुए हम सिर्फ व्यावसायिक मीडिया की बात अपनी जुबान में डाल लेते हैं। इसके अलावा और कुछ नहीं। जब ये घटनाएं घट चुकती हैं और सनसनी की आवाजें हमारे कानों में दस्तक देती हैं तो हम स्तब्ध रह जाते हैं… "साक्ड"… हमारे गृहमंत्री पी चिदंबरम की तरह। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की तरह – जो हर बार कम-अज-कम मुंह से संवेदना और अफसोस जरूर जाहिर करते हैं। खेद प्रकट करना, श्रद्धांजलि देना, यह हमारे सरकार की रस्म अदायगी है। मौत के बाद की रस्म अदायगी और इस रस्म अदायगी में शामिल होते हैं हम सब लोग।
दिल्ली व अन्य शहरों में बैठकर हमारी भूमिका दूसरे दिन सब कुछ भूल जाने वाले दर्शक से ज्यादा और कुछ नहीं होती कि हम भूल चुके हैं कल की घटनाओं को और आज शोएब और सानिया की शादी को लेकर चिंतित हैं। कल ये चिंताएं किन्हीं और चीजों में शुमार होंगी और इतने बड़े देश में परसों तक कोई और घटना तो घटित ही हो जाएगी। न भी हो तो समाचार चैनल घटित करवा ही देते हैं और ईश्वर व प्रेत अंततः हमारे देश के समाचार चैनलों की रीढ़ हैं ही। कि इन पर प्रतिबंध इसलिए लग जाना चाहिए कि ये चैनल घटना घटित होने के बाद मारे गये लोगों की संख्या गलत बताते हैं और बाबाओं को बैठाकर एक वर्ष पहले लोगों का भविष्य नापते रहते हैं।
बहरहाल, यह युद्ध है। "ग्रीन हंट आपरेशन"। पिछले 6 महीनों से जारी युद्ध किसी और देश में नहीं हमारे ही देश के उन जंगलों में जहां के आदिवासी माओवादी बन गये हैं। लालगढ़, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा के पहाड़ों और जंगलों में चलाया जा रहा एक अघोषित युद्ध। शुक्र है कि आप महफूज हैं, इतने महफूज कि इनकी खबरें भी आप तक नहीं पहुंचती। शुक्र है कि आप इन जंगलों में नहीं पैदा हुए कि इस युद्ध का अभिशाप आपको भी झेलना पड़ता कि जब इन छह महीनों में मारे गये सैकड़ों लोगों के चेहरे आपके सपनों में आते और उनके घायल होने की खबरें बिना अखबारों के पहुंचतीं।
खबर मिलती कि अभिषेक मुखर्जी, जो लड़का जादवपुर विश्वविद्यालय से आया था, जिसे 13 भाषाओं और बोलियों की जानकारी थी, जिसने आईएएस का इंटरव्यू देकर देश का प्रतिष्ठित आधिकारी बनने का रास्ता छोड़ दिया था, उसे ग्रीनहंट आपरेशन में पुलिस ने मार दिया… कि पिछले कई दिनों से उसके अध्यापक पिता अपने बच्चे का फोटो लेकर थाने में घूम रहे हैं… कि वे पूछ रहे हैं अगर वह मारा गया हो तो उसकी लाश सौंप दी जाए। इस लोकतंत्र में एक पिता को उसके बेटे की लाश पाने का अधिकार होना ही चाहिए। एक माओवादी के पिता को भी। आखिर वह माओवादी बना ही क्यों? हमारे समय का यह अहम सवाल है। शायद इसे उस तरह नहीं भूलना चाहिए, जैसे चुनाव के बाद नेताओं के जेहन से लोग भुला दिये जाते हैं, जैसे सुबह भुला दी जाती हैं रात सोने के पहले देखी गयी खबरें।
शांति अभियानों के नाम पर सलवा-जुडुम का सच निश्चित तौर पर आप तक पहुंच चुका होगा। छह लाख लोगों का बार-बार विस्थापन, उनके घरों का जलाया जाना, उनकी स्त्रियों के स्तन का काटा जाना और वे पांच साल के बच्चे, जिनकी उंगलियां इसलिए काट ली गयी कि ये तीर-कमान पकड़ने लायक हो जाएंगी – फिर तो यह देशद्रोही हो जाएगा। यह हमारे सरकार की क्रूरता थी, हमारे उस लोकतांत्रिक सरकार की जिसने समता, समानता, बंधुत्व को एक मोटी किताब में दर्ज कर 60 साल पहले रख दिया और जिसकी मूल प्रस्तावना को शायद दीमक चाट चुके हैं। आदिवासियों ने इसे अपनी सरकार मानना बंद कर दिया और अपने लोगों की एक सरकार बना ली "जनताना सरकार"।
"एक देश में दो सरकारें"
यह देश की सम्प्रभुता को खंडित करना था। लिहाजा देशद्रोह भी। पर भला ऐसे देश से कोई देशप्रेम क्यों करेगा, जो जीवन जीने के मूलभूत अधिकार तक छीनता हो। यकीनन आप भी नहीं और गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री भी नहीं। बशर्ते वे गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री न होकर उन जंगलों के आदिवासी होते जिनके घरों को 12 बार जलाया गया। जिनके बेटों का कत्ल उनके सामने इसलिए कर दिया गया कि उन्होंने माओवादियों को रास्ता बताया।
कुछ वर्ष पूर्व तक यह कयास लगाये जाते रहे कि माओवादियों के पास 1000-1500 या उससे कुछ अधिक सशस्त्र कार्यकर्ता होंगे पर सलवा-जुडुम की क्रूर हरकतों से इनमें कई गुना इजाफा हुआ क्योंकि मुख्यमंत्री रमन सिंह का बयान था, जो सलवा-जुडुम के कैंप में नहीं हैं, वे माओवादी हैं। अब जंगल के आदिवासियों को जीने के लिए माओवादी होना जरूरी था और वे सब जो कैंपों में नहीं आये माओवादी बन गये। शायद सब नहीं भी बने हों पर मुख्यमंत्री ने यही माना और उन पर कहर जारी रहा। धीरे-धीरे कैंप भी खाली होते गये और कैंपों से भागकर भी आदिवासी जंगलों में और अंदर चले गये। यह सरकारी संरक्षण से भागकर आदिवासियों का माओवादी बनना था। पर यह सब हुआ क्यों? क्यों उन्हें कैंपों में लाया जाता रहा? क्यों उन्हें विस्थापित होने के लिए मजबूर किया जाता रहा? क्योंकि टाटा, एस्सार और जिंदल को उन जमीनों पर कब्जा करना था। छत्तीसगढ़ की सरकार ने उनसे समझौते किये थे। सिर्फ जमीन देने के नहीं, आदिवासियों को विस्थापित करने के भी। इन समझौतों में लाखों आदिवासियों की जिंदगी के लिए जुल्म और बेघरी लिखी गयी थी। स्याही से नहीं सरकारी बंदूकों से। बारूद और बंदूक की पहचान आदिवासियों को यहीं से हुई। ये तीर-कमान के परिवर्धित रूप थे। अपनी सुरक्षा के लिए और अपनी सरकार के लिए। जैसा कि हर बार होता है – जीत या हार सरकारों की होती है। सिपाही सिर्फ मरने के लिए होते हैं। बस तंत्र का फर्क है।
ग्रीनहंट ऑपरेशन में मारे गये सैकड़ों आदिवासी और माओवादियों के हमले में मारे गये सैकड़ों जवान, जो इनके विस्थापन के लिए लगाये गये थे – किसके लिए मर रहे थे। क्या इसे इस रूप में देखना गलत होगा कि इन दोनों की मौत के जिम्मेदार टाटा, एस्सार, जिंदल के साथ सरकार है। क्या सरकार के लिए देश का मतलब टाटा, एस्सार, जिंदल हैं? क्या इन तीनों के लिए लाखों आदिवासियों को उनके जंगलों से विस्थापित किया जाना चाहिए? और उस विस्थापन के लिए युद्ध छेड़ देना चाहिए जिसमें सैकड़ों आदिवासी और जवान मारे जाएं। यदि अपनी जमीनों से विस्थापन के खिलाफ लड़ना देशद्रोह है तो देश के 2011 की जनगणना में इन्हीं तीनों को देशप्रेमी के तौर पर शामिल कर लिया जाना चाहिए और देश का नाम पुराना पड़ चुका है – इसे बदल देना चाहिए – टाटा, एस्सार और जिंदल – इनमें से कुछ भी रख देना चाहिए, इस देश का नाम।
(चंद्रिका। पत्रकार, छात्र। फ़ैज़ाबाद (यूपी) के निवासी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के बाद फिलहाल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अध्ययन। आंदोलन। मशहूर ब्लॉग दखल की दुनिया के सदस्य। उनसे chandrika.media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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