Tuesday, December 2, 2025
मेरा खून आदिवासी का है,मिजाज से मैं योद्धा हूं और मेरी अंतरात्मा स्त्री है
मेरे पिताजी पुलिनबाबू को बेहद अफसोस था कि इस महादेश के करोड़ों वंचितों की आपबीती कहीं दर्ज नहीं होती।
उन्हें अफसोस था कि उन्हें पढ़ने लिखने का मौका नहीं मिला। भारत विभाजन के बाद दो सौ साल का वंचितों का अखंड अनवरत शिक्षा आंदोलन खंडित हो गया।
विस्थापन के अलावाआजादी की यह भी बड़ी भारी कीमत हमारे लोगों ने चुकाई कि विषम अमानवीय परिस्थितियों में सिर्फ जैविक रूप में जीने के लिए हम पीढ़ी दर पीढ़ी वजूद के लिए लड़ते रहे।
पीढ़ी दर पीढ़ी हम मातृभाषा से वंचित रहे।
वे कहते थे कि मनुस्मृति राज में वंचितों को पढ़ने लिखने का हक नहीं था। जो हक हमने दो सौ सालों की निरंतर लड़ाई से हासिल किया वह खंडित हो गया।
वे कहते थे कि दो सौ साल हीं नहीं, हजारों साल के महासंग्राम के बाद हम फिर इतिहास, भूगोल,भाषा, साहित्य,कला संस्कृति ,विरासत और मनुष्यता से से बेदखल छिन्नमूल मूक जनता है।
यही विभाजन विभीषिका है कि हमें आदिम अंधकार में फिर धकेल कर नामानुष बना दिया गया।
#पुलिनबाबू कहते थे कि हमारे करोड़ों लोगों की आवाज बुलंद करने के लिए भाषा,साहित्य, संस्कृति,विरासत, हक हकूक और सभ्यता मनुष्यता की बहाली के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है ताकि हम अपने करोड़ों वंचित छिन्नमूल लोगों की अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz
बुलंद कर सके।
हमारे पास कुछ नहीं था। फिरभी उन्होंने सबकुछ दांव पर लगाकर मुझे उच्च शिक्षा के लिए नैनीताल में रखकर पढ़ाया। ताकि उनकी लड़ाई जारी रख सकूं।
हम क्या कर सके! क्या हम वह कर पा रहे हैं जो वे चाहते थे?
वे चाहते थे कि जो हमारे लोग हजारों साल से लिख न सके,उसे हम डंके की चोट की तरह लिख दूं।
मेरे पिता सड़क पर रहे हमेशा। धोती और चादर उनकी संपत्ति थी।
मैं भले ही सड़क पर नहीं हूं। लेकिन जमीन कीचड़ पानी में अब भी धंसे हैं मेरे पांव। अब भी मैं खुले आसमान के नीचे हूं। मेरा कोई दांव नहीं है। जैसे मेरे पिता के लिए खोने को कुछ नहीं था। मेरे पास भी खोने को कुछ नहीं है।
हम किसी को खुश करने के लिए नहीं लिखते पढ़ते। हम सिर्फ मनुष्यता की अनसुनी आवाज़ बुलंद करते हैं।
वैसे भी मेरा खून आदिवासी का है।
मेरा मिजाज योद्धा का है।
मेरी अंतरात्मा स्त्री है।
सविताजी ने गृहस्थी जमा रखी है। उन्हीं के कारण सभ्य, पढ़ा लिखा मनुष्य जैसा दिखता हूं।
मैं फिर पिता की तरह सड़क पर आ गया या हमारे पुरखों की तरह लड़ते हुए खेत हो गए, तो इतिहास भूगोल और मनुष्यता को क्या फर्क पड़ेगा?
हमारे पुरखे शिक्षा से वंचित लोग थे।
इसीलिए हम पढ़ने लिखने की संस्कृति की बहाली को सबसे जरूरी मानते हैं।
क्या आप हमारे साथ हैं?
सड़क पर आपका भी स्वागत है।मेरा खून आदिवासी का है,मिजाज से योद्धा जिन और मेरी अंतरात्मा स्त्री है
बच्चों को उनका साहित्य क्यों नहीं देते?
नमस्कार।
प्रेरणा अंशु का बाल विशेषांक दो, दिसंबर अंक प्रकाशित हो गया है। रचनाकारों और देशभर के सहयोगियों को स्पीड पोस्ट से पत्रिका भेज दी जाएगी। रचनात्मक सहयोग के लिए रचनाकारों का आभार।
विशेष तौर पर अतिथि संपादक Shiv Mohan Yadav और आवरण चित्रकार #राजकुमार_घोष का बहुत बहुत आभार।
बड़ी संख्या में देश के कोने कोने से रचनाएं आईं हैं।दोनों अंकों में सौ से ज्यादा नए पुराने बाल साहित्यकारों के लिए हम जगह बना सके।सीमित संसाधनों के कारण हम मोटे विशेषांक नहीं निकाल सकते। आप सभी के आर्थिक सहयोग से ही पत्रिका निकलती है। सबको मुद्रित प्रति भी नियमित भेज नहीं सकते। पीडीएफ भी अब सबको भेजना संभव नहीं है।
पीडीएफ जारी कर दी गई है और यथासंभव अधिकतम लोगों तक पहुंच सके इसके लिए जरूरी है कि आप भी अपने नेटवर्क को पीडीएफ शेयर करें।
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मार्च में प्रकाशित हो रहे स्त्री विशेषांक के लिए आपसे खास सहयोग का अनुरोध है। इस अंक में किशोरियों की रचनात्मकता और उनकी समस्याओं पर फोकस करें। आप लिखें तो स्वागत।लेकिन अपने परिवार, शिक्षा संस्थान, परिचित अध्यापिकाओं के माध्यम से इस अंक में देशभर की किशोरियों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने में हमारी जरूर मदद करें।
जनवरी और फरवरी अंक सामान्य होंगे।
*प्रेरणा अंशु का मार्च 2026 अंक स्त्री विशेषांक होगा।*
इस अंक की अतिथि संपादक होंगी *अध्यापिका, कथाकार, चिंतक डॉ ऋचा पाठक जी।* रचनाओं पर अंतिम निर्णय उनका ही होगा। उन्हें सीधे मेल से रचनाएं भेज सकते हैं। उनका मेल:
dr.richapathak5@gmail.com
हमें कैसी सामग्री चाहिए और आपको क्या लिखना है इस पर ऋचा जी से कृपया सीधे उनके मोबाइल नंबर
+91 89232 03995 पर बात की जा सकती है।
आप हमें भी मेल कर सकते हैं। हमारा mail- prernaanshu@gmail.com
रचना भेजने की अंतिम तिथि 15 जनवरी 2026 है।
यह अंक सभी तबके की स्त्रियों और विशेष तौर पर किशोरी कन्याओं की समस्याओं और उनके संघर्ष पर केंद्रित होगा।
कथा रिपोर्ताज को प्राथमिकता दी जाएगी। लघुकथा, कहानी, ग़ज़ल और काव्य विधाओं में रचनाएं आमंत्रित हैं। आलेख की शब्दसीमा डेढ़ हजार शब्द है।
स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं की रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। वे अपने स्कूल कॉलेज, कक्षा का उल्लेख जरूर करें।
पुरुष रचनाकारों की रचनाओं का भी इन मुद्दों पर स्वागत है। अस्मिता, स्त्रीवाद, स्त्री विमर्श के अलावा स्त्रियों की जो व्यवहारिक समस्याएं, मुद्दे और उनकी रचनात्मकता है,उसकी गहन पड़ताल के लिए आप सभी का स्वागत है।
कृपया सहयोग बनाए रखें।
पलाश विश्वास
कार्यकारी संपादक
प्रेरणा अंशु,
दिनेशपुर, उत्तराखंड
Wednesday, November 26, 2025
हरिचांद, गुरुचांद,हेमलता और एक अदद शुतुरमुर्ग
#हरिचांद_गुरुचांद की वंशज मेरी ताई #हेमलता और एक अदद # शुतुरमुर्ग
कल अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz के रुद्रपुर दफ्तर से लौटकर हरिदासपुर में बेटी गायत्री की दुकान पर बैग रखकर खड़े ही हुए थे कि तीन चार कुत्ते लड़ते हुए मेरे पैरों से पीछे से टकरा गए।संतुलन खोकर गिर गए हम और मामूली सी चोट लगी। आवारा घुमंतू पशुओं के कारण सड़क दुर्घटनाएं अब रोजमर्रा की आम बात है।
आगे कोई किताब लिखने की किंचित संभावना नहीं है। प्रिंट में छपने के लिए कहीं स्पेस नहीं है। जिंदगी में इतना प्यार मिला है हर कहीं देशभर में कि इस प्यार का कर्ज और फर्ज दोनों मेरे वजूद पर भारी है। इसके बारे में कहीं कुछ दर्ज न कर सकूं तो ठीक नहीं होगा।
हमारी जिंदगी को शक्ल देने वाले लोगों के बारे में अब कुछ लिखने की कोशिश करूंगा।
सबसे पहले मेरी ताई, हरिचांद गुरु चांद की वंशज हेमलता जी के बारे में। उनकी मां यानी हमारी नानी प्रभा देवी प्रमथ नाथ ठाकुर की बहन थी। जो 1964 के दंगों के बाद अपनी इकलौती बेटी के पास रहने आई। वह पूर्वी पाकिस्तान में ठाकुर परिवार के गांव ओडाकांदी से आई थी।उनके आने के बाद ठाकुरनगर ,पश्चिम बंगाल से केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर की दादी और हमारी नानी की भाभी ,पीआर ठाकुर की पत्नी वीणा पानी देवी अपने बड़े बेटे और शांतनु के ताऊ कपिल कृष्ण ठाकुर के साथ उत्तराखंड के हमारे गांव हमारे घर होकर गए। हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम 1973 में ठाकुरनगर जाकर पिताजी पुलिनबाबू के साथ तत्कालीन सांसद पीआर ठाकुर से भी मिलकर आए। मतुआ संघ अधिपति सांसद कपिल कृष्ण ठाकुर जो बसंतीपुर आए थे और सांसद भी थे तृणमूल के,पहले माकपा में थे और उनसे हमारी कोलकाता में अंतरंगता थी।
मातु आ आंदोलन के लड़ाके और मातबर थे हमारे दादा, चारों भाई। जमींदारों के खिलाफ घर में मोर्चा संभालती थी स्त्रियां। हमारी दादी शांतिदेवी भी किसान योद्धा थीं।
बसंतीपुर में उनका निधन हुआ।
प्रभा देवी ने गुरु चांद ठाकुर को देखा था और ठाकुर परिवार के शिक्षा आंदोलन के तहत पढ़ी लिखी भी थी। हमने हरिचांद गुरुचांद के किस्से और संस्मरण अपनी नानी से बचपन में सुने थे। आंदोलन के बारे में तो बहुत बाद में जन सका।
मुझे सही मायने में मेरी सीधी सादी नाबालिग सी मां बसंती देवी ने नहीं, मेरी ताई हेमलता ने पाला। मैं उन्हीं की देख रेख में बड़ा होता गया। तराई का जंगल तब आबाद हो रहा था। गांव के भीतर और बाहर जंगल और दलदल थे। पलाश के पेड़ बहुत थे।दहकते हुए पलाश को देखकर ताई जी यानि जेठी मां ने मेरा नाम भी पलाश रख दिया। हमारे महकने की कोई संभावना नहीं थी,लेकिन वे शायद मुझे दहकते हुए देखना चाहती होंगी।
जेठी मां घर की मुखिया थी।घर से बाहर सबकुछ पिताजी थे।गांव,घर और इलाके के लिए।खेती बाड़ी संगीतकार जेठमशाय के जिम्मे थी और घर जेठी मां की जिम्मेदारी में था।उनका फैसला ही अंतिम थी।बहुत आजाद थी। अकेली रुद्रपुर आती जाती थी साठ के दशक में।
साझा परिवार था हमारा। दादी,नानी, छोटो काका,काकी मां, बुआ सरला देवी ,जिन्होंने 1954 के आंदोलन के दौरान तराई के जंगल में पुनर्वास के लिए पहलीबार भूख हड़ताल की थी,जेठा मशाय,पिताजी,मीरा दीदी, वीणा और सुभाष। घर में बच्चों को पढ़ानेवाले गृह शिक्षक और संगीत शिक्षक अलग थे। कचहरी घर में मेला लगा रहता था। तीन भाइयों की खेती साझा होती थी। हर मौसम में दासियों कामगार होते थे जो ज्यादातर पूरब से आते थे।
गांव बसंतीपुर और बंगाली विस्थापित समाज का साझा परिवार और साझा चूल्हा भी हमारे परिवार के साथ ही थे। एक विराट साझा परिवार में हमारा बचपन बीता।
अपने गांव ही नहीं, दिनेशपुर ही नहीं, पूरी तराई में बंगाली, पंजाबी, पहाड़ी, पुरबिया,देशी घरों में मेरे बचपन की कितनी ही स्मृतियां बिखरी पड़ी है। अनगिनत स्त्रियों के अंचलभरे प्यार की छांव में पला है मेरा बचपन। वे नहीं होती तो इतनी संवेदनाओं की सुनामी में जिंदगीभर न फंसा रहता। स्त्री मेरे लिए विमर्श नहीं, अस्मिता नहीं, साक्षात् मनुष्यता है। सभ्यता और संस्कृति हैं।विमर्श भी अंततः स्त्री को स्त्री अस्तित्व में समाहित कर देता है। जबकि सामाजिकता का प्रारंभ स्त्री की कोख से और विस्तार उसके आंचल से होता है।
यह अहसास मुझे मेरी मां,ताई, छोटो काकी मां,मेरी गांव की सभी औरतों और तराई की हर स्त्री के सान्निध्य में हुआ कि यह सरासर गलत है कि स्त्री सिर्फ देह है।मन अगर है तो स्त्री मन। पुरुष का कोई मन होता है क्या? संवेदनाएं, सहानुभूति, दया,करुणा, सहायता , स्नेह और प्रेम सारे मानवीय तत्व हर स्त्री में है,चाहे वह जहां हो,जैसी भी हो।
डोडो के साथ रात दिन ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजरते हुए हजारों हजारों साल की धारावाहिक स्मृतियों की अनंत नदी समुंदर की तरह मेरे सारे वजूद पर छा जाती है। बच्चों की वे सुनहली झांकियां बिजली की तरह मेरे मानस आकाश को व्याप जाती हैं।
तब घर में, गांव में जंगली जानवर और जहरीले सांप अक्सर घुस आते थे। तराई आबाद होने से पहले कोटद्वार से लेकर टनकपुर खटीमा और चंदिया हजारा टाइगर प्रोजेक्ट, माला टाइगर प्रोजेक्ट का समूचा इलाका विश्व प्रसिद्ध जिम कार्बेट पार्क से जुड़ा हुआ था।बच्चे खूब होते थे, जिंदा बचते थे बहुत कम।कुपोषण,बीमारी,महामारी, गरीबी, भूख, सर्पदंश और जंगली जानवरों की भेट चढ़ जाते थे।तराई आबाद होते वक्त जन्मे जो बच्चे जिंदा रह गए,जिनमें हम भी एक हैं,अगर आज जिंदा हैं तो इन्हीं अदम्य स्त्रियों के अनंत स्नेह,प्रेम और नेतृत्व से।
डोडो की आंखों से जेठी मां और उन सभी दिवंगत स्त्रियों की छवियां साफ नजर आती हैं। आपदाओं के बीच हमर बच्चों बहुत आजाद था। दिन में जंगल,खेत और पेड़ों पर बसेरा, चरवाहा बनकर पढ़ना लिखना,अनिवार्य कृषि के अलावा असंख्य पहाड़ी नदियों में छलांग लगाकर तैरना सीखना और इन सबके बावजूद जो भी इक्के दुक्के स्कूल थे,उनके शिक्षकों के निरंतर प्रयास से मनुष्य होने का अभ्यास करते थे हम। जिंदगी बीत चली,लेकिन पता नहीं चला अभीतक कि कितना मनुष्य हो सका अंततः
जेठी मां कहती थी कि पलाश का मन बहुत नरम है। किसी का दुख दर्द कष्ट देख नहीं सकता। रोग शोक मृत्यु की स्थिति में मुझे बहुत कष्ट होता था बचपन में। इन स्थितियों में गांव घर से दूर खेत और जंगल में भाग कर हरियाली की शरण लेता था।
डोडो भी अत्यंत संवेदनशील है। शायद बचपन में मैं भी इतना ही संवेदनशील रहा हूं। वक्त की मार ने संवेदनाओं के समुंदर को सूखा कर दिया।अब वह जंगल, वे खेत और हरियाली भी नहीं है,जहां आत्मा को चैन मिल सके।
एक उजाड़ रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग की जिंदगी जी रहा हूं।
यह जिंदगी भी कोई जिंदगी है?
महकना था नहीं।
दहकना था, दहक नहीं सके।
शुतुरमुर्ग बन गया आखिरकार।
Tuesday, November 25, 2025
व्हील चेयर वाले बाल साहित्यकार अनुभव राज
#मुजफ्फरपुर,#बिहार में #प्रेरणा_अंशु
ये चित्र बहुत खास हैं।
जुलाई 2025 में #दिनेशपुर_उत्तराखंड में प्रेरणा अंशु और अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz की ओर से आयोजित #लघु #पत्र_पत्रिकाओं के अस्तित्व संकट पर राष्ट्रीय संवाद में कोई लेखक संगठन शामिल नहीं हुआ।क्योंकि हमने #बुक_पोस्ट सेवा बहाल करने के लिए स्थानीय #जनप्रतिनिधि के मार्फत #भारत सरकार को हर जिले से ज्ञापन देने का प्रस्ताव रखा था।
इस सम्मेलन में पढ़ने लिखने की संस्कृति बहाल करने के लिए बड़े पैमाने पर बच्चों को शामिल किया गया था।रंगयात्रा आयोजित की गई थी।
#देशभर से प्रतिनिधि आए थे।
Pankaj Bisht जी आए थे। #बंगाल,#बिहार और #त्रिपुरा से भी साहित्यकार आए थे। बड़ी संख्या में स्त्रियों की भागेदारी थी और #उत्तर_प्रदेश #उत्तराखंड से नए युवा रचनाकार आए।#रंगकर्मी भी।#ऑपरेशन_सिंदूर के दौरान अनेक राज्यों के साथ ट्रेन विमान और बस सेवा बंद होने से नहीं आ पाए।
चार पांच दशक पुराने हमारे #वैचारिक_मित्र नहीं आए।
ऐसी स्थिति में मुजफ्फरपुर से किशोर बाल साहित्यकार Anubhav Raj wheel chair पर पिता के साथ दिनेशपुर आए और छ गए।
हम उसे बचपन से छापते रहे हैं।व्हील चेयर में सीमाबद्ध यह अत्यंत मेधावी किशोर #हिंदी_भाषा और #साहित्य में चमकता हुआ सितारा है।
उसने हम सभी को रोशन कर दिया।उसकी रचनाएं परिपक्व हैं और विषयवस्तु आधुनिक है। उसमें शारीरिक सीमाओं के बावजूद संवाद की जबरदस्त चाह है।जबकि बोलने में उसे तकलीफ होती है।वह खूब लिखता है।
ये चित्र अनुभव ने भेजे हैं।जो हमें भावुक किए जाते हैं। मेरी पत्रकारिता अविभाजित मुजफ्फरपुर से हुई #झारखंड के #धनबाद से। लेकिन पूरे बिहार में हमारे अनेक मित्र हैं चार पांच दशक के।खासकर #पटना और #मुजफ्फरपुर से। Madan Kashyap ,#विजयकांत ,# #नचिकेता और कितने ही मित्र हैं।
अब अनुभव के अलावा मुजफ्फरपुर में मेरा कोई मित्र नहीं है। जबकि झारखंड के हर कोने से हमें सहयोग और समर्थन मिलता है।
इन चित्रों में अनुभव अपने कॉलेज के प्राध्यापकों को प्रेरणा अंशु की प्रतियां दे रहे हैं।साथ में दिनेशपुर सम्मेलन की कुछ तस्वीरें भी हम साझा कर रहे हैं।
इस युवा पीढ़ी के सहारे हैं हम अब।
Monday, November 24, 2025
विस्थापित अपने पुरखों को भूल गए,डोडो को याद हैं पुलिनबाबू
कोई याद करें, न करें, #डोडो #पुलिनबाबू को याद ही नहीं करता,उनसे मिलता भी है
डोडो का जन्म महामारी के दौरान 6 जून 2022 को हुआ तो मेरे पिताजी पुलिनबाबू का निधन इससे ठीक इक्कीस साल पहले 14 जून 2001 को हो गया था।
डोडो ने पुलिनबाबू को नहीं देखा, फिर भी वह अक्सर पुलिनबाबू को याद करता है।
स्मृति व्यक्तिगत नहीं है।
स्मृति एक सतत् प्रवाहमान अनंत नदी है जो अनंतकाल से बहती है।यही विरासत है। यही इतिहास है। यही मनुष्यता है।यही सभ्यता है।
देश भर में और सरहद के उसपार भी इस महादेश के करोड़ों विस्थापितों के पुनर्वास की लड़ाई आखिरी सांस तक लड़ते रहे पुलिनबाबू।विस्थापन के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे। हमेशा सोचा कि हम रहें या न रहें, हम सही सलामत रहे या न रहे, हमारे लोग हमेशा सही सलामत रहे।हमारे करोड़ों आत्मीय जन। कभी अपने लिए नहीं सोचा। हर विस्थापित की चिंता उन्हें थी।
इसीलिए उत्तराखंड की कड़ाके की सर्दी में बिना कमीज धोती और चादर में उन्होंने आधी सदी का पुनर्वास संग्राम किया। रुद्रपुर से रानाघाट, बंगाल, ओडिशा से लेकर समूचे दंडकारण्य और अंडमान तक हजारों लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था संवाद और संघर्ष के रास्ते की।
पूर्वोत्तर भारत से मध्यभारत में विस्थापितों के संकट के दौरान उनके साथ खड़े रहे।जैसे असम में।किसान आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे।
हमने उनके संबंधों को नकदी नहीं बनाया और न उन्होंने अपने लिए कुछ किया या बनाया।
उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के विस्थापितों के साथ तो वे हर वक्त रहे।उन्हें कितने लोग याद करते हैं?
परिजनों और नाते रिश्तेदारों को हमेशा अफसोस रहा कि उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया। इन लोगों में से किसी की पुलिनबाबू की संघर्ष महागाथा, विभाजनपीड़ितों के नए जीवन के महासंग्राम में वैसे ही कोई दिलचस्पी नहीं है,जैसे शक्तिफार्म और दिनेशपुर के विस्थापित समाज की नहीं है।विस्थापितों के किसी नेता ने पुलिनबाबू पर लिखी मेरी किताब देखने तक की जहमत नहीं उठाई।
डोडो ने पुलिनबाबू को नहीं देखा।लेकिन उन पर लिखी किताब पढ़ना चाहता है।वह बेहद चंचल है। मेरे साथ बैठकर लिखने पढ़ने की कोशिश जरूर करता है। उसके माता पिता के पास वक्त नहीं है। स्कूल में शिक्षक भी उसकी कोई मदद नहीं करते।
लेकिन डोडो को मेरा लिखा पढ़ना जरूर है। उसे जैसा भी हूं मैं मुझ जैसा बनना है और अपने बूढ़े बाबा का जैसा बनना है।उन्हें जानना समझना है।
यह उसका कहना है।
उसने मुझसे वायदा किया है कि वह खूब लिखेगा।खूब पढ़ेगा।खूब सीखेगा। लेकिन उसका साथ कौन देगा? मुझे सबसे बड़ी चिंता यह है।
स्मृतियां की हजारों सालों की अनंत नदी जो उसके मांस में उमड़ घुमड़ रही है,हिंसा,घृणा और स्वार्थ के जहरीले परिवेश में कब तक बची रहेगी?
स्मृतियां उनके लिए सहेजने, अपने पुरखों की विरासत से उन्हें जोड़ने और आगे की लड़ाई के योग्य बनाने के लिए क्या हम कुछ कर पाते हैं।
रविवार को मैं घर पर हुआ तो वह नदी या खेतों के पास जाने की जिद करता है।
कल दोपहर बाद चार बजते न बजते उसने कहा,दादा,चलो घूरे आसी।
मेरे तैयार होने से पहले वह घर से निकलकर सड़क पर जाकर खड़ा हो गया।ठंड हो रही थी।इसलिए मेरी टोपी भी पहन रखी थी।
मैं उस तक पहुंचा तो फौरन मुझसे कहा, चलो बूढों बाबर काछे जाई।पुलिनबाबूर साथे देखा कोरबो।
गांव के श्मशान घाट में आंदोलनों और संघर्ष के अपने बसंतीपुर के साथियों के साथ पुलिनबाबू विश्राम कर रहे हैं। वहां उनका स्मृति स्थल है।जैसे दिनेशपुर में उनकी मूर्ति है।दिनेशपुर में वह अक्सर जाता है। मूर्ति से मिलकर आता है।
गांव का श्मशान घाट भूमिहीन नदी किनारे के मोहल्ले के अंत में अर्जुनपुर गांव के इस पर घर से एक किमी दूर है। जहां वह दो तीन बार गया है हमारे साथ।
आज वह मुझे रास्ता दिखाते हुए उस स्मृति स्थल ले गया। वहां पानी की बड़ी टंकी है।पिताजी की समाधि के आस पास कीचड़ है। उस कीचड़ के पार जाकर उसने मत्था टेका।आहिस्ते से पुलिनबाबू को संबोधित करते हाय पूछा, बूढ़ों बाबा, भालो आछो?
श्मशान घाट से सटा हुआ नया आंगनबाड़ी भवन बना है। हम पहली बार देख रहे थे।श्मशान घाट पर एक वट वृक्ष है।उसकी दलों पर मोहल्ले के बच्चे खेल रहे थे। डोडो ने उस पर पहले चढ़ने की कोशिश की।चढ़ नहीं सका तो मैने नीचे की डाल पर उसे बैठा दिया।
उसने ऐलान किया,अपने घर में ट्री हाउस बनाएंगे।असीम हम रहेंगे।
बाहर निकलकर आंगनबाड़ी के सामने खेलने लगा डोडो।मुझे नदी के पास ले गया जो मरणासन्न है और श्मशान के क्रिया कर्म, कर्मकांड के लिए ही शायद जिंदा रखी गई है।डोडो ने पूछा, नदी क्यों मर रही है?
मुहल्ले के एक बुजुर्ग का घर ठीक आंगनबाड़ी के सामने है तो उन्होंने हमें बैठा लिया।डोडो नहीं बैठा। वह चिड़ियोंसे बतियाने लगा।
तभी बुजुर्ग के आर्किटेक्ट बेटा ने कहा कि थोड़ा रुकिए, चाय पीकर जाए। मैने कहा,फीकी।
बहू ने कहा, खजूर के गुड़ की बना रहे हैं।उन्होंने खजूर का गुड़ अलग से डोडो को दी।
बुजुर्ग को एस आई आर और दूसरी समस्याओं पर चिंता है तो इन सभी मुद्दों पर बात होने लगी।
चाय मिली तो डोडो ने कहा,बिस्किट भी चाहिए।
बिस्किट के साथ चाय पीकर डोडो ने घर की राह पकड़ी।तब तक अंधेरा हो गया।
फिरभी हर रोज सूरज उगता है।
घने कोहरे में भी सूरज उगता है।
क्या सूरज के उगने से ही अंधेरा दूर होता है?
फिर हमारे दिल और दिमाग में इतना अंधेरा क्यों है?,
बच्चों की आंखों में समूचे ब्रह्मांड का प्रकाश है।
लेकिन हम यह प्रकाश मिटाकर उन्हें अंधेरे में क्यों धकेल रहे हैं?
नोट:
कुछ साथी विस्थापन के यथार्थ,पुनर्वास की लड़ाई पर केंद्रित मेरी किताब लेना चाहते हैं। यह किताब Amazon स्टोर में उपलब्ध है और दिल्ली से वितरित हो रही है।इच्छुक साथ इस लिंक पर जाकर किताब के लिए सीधे ऑर्डर कर सकते हैं।
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Sunday, November 23, 2025
पोहा में बुढ़ापे का बचपन
पोहा और बुढ़ापा का बचपन
आज अरसे बाद सविता जी ने नाश्ते में पोहा बनाया। Nityanand Mandal आ गए।उनके साथ बचपन के साथी विवेक दास भी थे। बाद में बागेश्वर के रिटायर्ड सीएमओ डॉ Jagdish Chandra Mandal भी भतीजा व पत्रकार Prakash Adhikari के साथ आ गए।भाई पद्योलोचन भी घर में ही था।
आज विधायक शिव अरोरा ने बसंतीपुर नेताजी मंच पर नेताजी की मूर्ति की स्थापना की।कवरेज के लिए अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz के हमारे साथी Kashmir Rana भी रुद्रपुर से मीडिया टीम के साथ आ गए।लिहाज हमने मीडिया के साथियों और विधायक जी को घर चलने को कहा।वे नहीं आ सके।
कश्मीर बसंतीपुर आया और घर नहीं आया, अफसोस। Rupesh Kumar Singh दोपहर दो बजे शक्तिफार्म के प्रहलाद पलसिया गांव में लाइव थे। वहां भी अनसुनी आवाज़ की टीम थी।
विवेक, पड़ोलोचन और नित्यानंद मास्टर प्रताप सिंह के संघर्ष के साथी रहे हैं।जब मैं मेरठ और बरेली में था, तबतक मास्साब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और राममंदिर आंदोलन में सक्रिय थे।मेरे कोलकाता जाने के बाद आम जनता के हक हकूक की लड़ाई लड़ते हुए संघ से उनका मोहभंग हो गया और वे कट्टर वामपंथी हो गए। उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में तमाम जन आंदोलनों का नेतृत्व किया,जिसमें नित्यानंद, पद्मलोचन और विवेकदास उनके साथी थे।
शक्तिफार्म में बेदखली के खिलाफ रूपेश की लगातार मोर्चाबंदी की चर्चा के सिलसिले में विवेक ने कहा कि रूपेश बिल्कुल मास्टर साहब की तरह हैं।मास्टर साहब भी इसी तरह लड़ते थे। वे भी सत्ता से टकराने में पीछे हटते नहीं थे।
पोहा खाते हुए ये लोग मास्टर साहब की चर्चा करते रहे।
विवेक भी हमारे बचपन के दोस्त हैं।हमारी स्मृतियां साझा हैं। लंबे अरसे से वह बीमार चल रहा है।अरसे बाद हमारे यहां आया तो जाहिर है कि बचपन को भी बुढ़ापे में याद किया।
सीएमओ साहब के बड़े भाई डॉ अरविंद मेरे मित्र थे।दोनों हमसे जूनियर थे दिनेशपुर स्कूल में।उनके घर खूब आना जाना था।जाहिर है कि स्मृतियों का सफर लंबा चला।
विभिन्न मुद्दों पर भी खूब चर्चा हुई।
पोहा लोकप्रिय नाश्ता है।महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में हम जहां भी गए नाश्ते में पोहा जरूर मिला। गुजरात में भी।जैसे दक्षिण भारत में इडली डोसा मिलता है।
उबालकर तथा कुछ-कुछ नम अवस्था में ही किसी चीज से 'पीटकर' या दबाकर चिवड़ा (Flattened rice या beaten rice) बनाया जाता है। चिवड़ा को कुछ अन्य चीजों के साथ मिलाकर नमकीन पोहा बनाया जाता है। चिवड़ा को उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में दही के साथ खाया जाता है। बिहार में चिवड़ा को चुडा के नाम से बोला जाता है| बंगाल और ओडिशा में भी पोहा जनसंवाद का अंग है।
लेकिन आज पोहा बुढ़ापे का बच्चों बन गया।
Saturday, November 22, 2025
जल जंगल जमीन का कथासंसार
कथाकार नारायण सिंह नहीं रहे।
रेखांकन के संपादक और धनबाद में अस्सी के दशक में अंतर्गत, कतार और श्रमिक सोलीडीयरिटी में हमारे साथी Anwarshamim के फेसबुक पोस्ट से खबर की पुष्टि हो गई। धनबाद से गहराई से जुड़े कथाकार नारायण सिंह से कोलकाता में भी लगातार संपर्क बना रहा।
कोयलांचल ने अनेक कथाकार, कवि दिए हैं।झारखंड, बिहार और बंगाल का सेतुबंधन था धनबाद। हिंदी, बांग्ला, खोरठा, कुड़माली, कुड़ुख, मुंडारी, संथाली जैसी भाषाओं की साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत का आधार,धारक वाहक। बांग्ला के बड़े कथाकारों की जड़ें भी यहीं थी। शरत चन्द्र, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, प्रफुल्ल राय, बुद्धदेव गुहा और कितने ही लोगों ने लाल माटी की कथा लिखी।
ताराशंकर बंदोपाध्याय की सारी कथायत्रा में यह आदिवासी जमीन हंसुली बांके र उपकथा है। नागिनी कन्या है। कमललता है। पथेर पांचाली और आरण्यक की जमीन भी यही है, जहां गगन घटा गहरानी है।
महाश्वेता देवी का सारे कथा संसार इसी जल जंगल जमीन की लड़ाई है।
हम साहित्यकार नहीं हैं लेकिन आदिवासी जरूर है, जिनकी मौत नहीं आती दबे पांव, मौत को हम मुकाबले के लिए दावत देते हैं।
कुछ सदियों पहले भी हमारे पुरखे आदिवासी थे।
जड़ों में हम एक रहे हैं।लेकिन आदिवासियों की तरह हम अपनी बेदखली के बावजूद जल,जंगल,जमीन की लड़ाई में नहीं हैं। हमने अपनी आदिवासियत खो दी है। हम अब लड़ने लायक नहीं बचे।आदिवासी लड़ाई खेत होते हैं,पीठ नहीं दिखाते। फिरभी,जड़ें और जमीन एक है।
इसी जमीन के कथाकार हैं मनमोहन पाठक, संजीव, श्रृंजय, रणेंद्र, श्याम बिहारी श्यामल,पंकज मित्र और नारायण सिंह। अब नारायण सिंह नहीं रहे।
शाम से सूचना मिल रही थी। इन दिनों बिन मरे लोग मारे जा रहे हैं। जिंदा भी मरे हुए हैं।
यकीन ही नहीं हो रहा था।
सच शायद दुःख भी है और शोक भी। सच अक्सर सदमा बनकर आता है।जैसे प्रिय जन के न होने का समाचार।
अनवर शमीम ने लिखा है:
धनबाद पहुंचते ही प्रसिद्ध कथाकार,उपन्यासकार,आलोचक एवं अनुवादक नारायण सिंह जी के निधन की दु:खद सूचना 'रेखांकन' के संपादक एवं आलोचक कुमार अशोक ने दी।उनके निधन की ख़बर से मर्माहत हूँ।नारायण सिंह जी पिछले कई महीनों से बीमार थे और फिलहाल अपने छोटे बेटे के साथ पूणे (महाराष्ट्र) में रह रहे थे।अपनी कहानी 'अजगर' जो प्रतिष्ठित पत्रिका 'हंस' में छपी थी से उनको अपार ख्याति मिली।उनके तीन कहानी संग्रह क्रमशः 'तीसरा आदमी',पानी तथा अन्य कहानियां' और 'सुनो वासुदेव' और उपन्यास 'मुसलमान' तथा 'ये धुआं कहाँ से उठता है' के अलावा आलोचना की तीन पुस्तकें भी छपी हैं जिनमें
'सीता बनाम राम', सुन मेरे बंधु रे तथा 'फुटपाथ के सवाल' उल्लेखनीय हैं।उन्होंने ने गांधीवादी श्रमिक नेता कांति मेहता की जीवनी का अनुवाद 'मेरा जीवन,मेरी कहानी' नाम से अनुवाद किया है।वे 73 वर्ष के थे।बीसीसीएल से 2012 में सेवानिवृत्त होने के बाद स्वतंत्र लेखन में व्यस्त थे।कोयलांचल में उनके निधन से शोक व्याप्त है।जनवादी लेखक संघ से भी वह बरसों जुड़े रहे।हमारी यादों में अपनी कहानियों के साथ वे हमेशा जीवित रहेंगे।उनके निधन पर मैं अपनी भावभीनी श्रधांजलि अर्पित करता हूँ।
विनम्र प्रणाम।
नृशंस हत्या
#नृशंस_हत्या
गांवों को जोड़ने वाली pwd की बनाई उत्तराखंड की ग्रामीण लिंक सड़कों के किनारे जेसीबी से हर दस मीटर पर गड्ढे खोदकर पौधे लगाए गए कुछेक गड्ढों में ।बाकी पौधे आंकड़ों में लगाए गए।तीन साल में ये पौधे बड़े हो गए। न pwd और न वनविभाग ने इनकी सुधि ली। फिरभी अच्छी बारिश की वजह से पेड़ खड़े हो गए।
अब बेरहमी से ये पेड़ समेत सारे पेड़ काटे जा रहे हैं।
पेड़ पहाड़ों में काटे जा रहे हैं तो मैदानों में भी शहरीकरण और बाजारीकरण के लिए, उद्योग लगाने के लिए खूब पेड़ काटे जा रहे हैं। जंगलों का सफाया हो रहा है तो बैग बगीचे भी काटे जा रहे हैं।
फलों के हरे वृक्ष से लेकर नीम और वट वृक्ष तक। पेड़ jd से उखाड़ने के लिए जेसीबी का भी इस्तेमाल हो रहा है।
कृषि जमीन की प्लाटिंग निषिद्ध है। लेकिन जमीन की प्लाटिंग अंधाधुंध है।स्थानीय जनप्रतिनिधि की कमाई का यह बड़ा जरिया है।इसलिए स्थानीय निकाय चुनावों में भी बेहिसाब पैसा लगाया जा रहा है।
तराई में पीने को शुद्ध जल नहीं है। हम रासायनिक खाद और कीटनाशक, केमिकल पानी पी रहे हैं। शाक सब्जी अनाज सबकुछ जहरीला है।नदियां मर गईं। तलब भर दिए गए। जहरीले पानी से मछलियां, कीड़े मकोड़े, जीवनरक्षक पौधे,पक्षी और सांप तक विलुप्त हो रहे हैं।
मनुष्य भी मर रहे हैं बेहिसाब।कैंसर, मधुमेह और पथरी से लेकर हर तरह की बीमारियों से लोग मर रहे हैं या अस्पतालों में मरणासन्न हैं।
क्या पहले लोग इतने भारी पैमाने पर मरते थे।
अब ऑक्सीजन के रक्षा कवच हरियाली के चादर को भी छिन्नभिन्न कर रहे हैं। जनप्रतिनिधि क्या अंधे हैं? भ्रष्ट प्रशासन से क्या उम्मीद करें?
यह किसी पेड़ का ठूंठ नहीं,हमारा भविष्य और वर्तमान है। यह पेड़ की नहीं, मनुष्यता की नृशंस हत्या है।
क्या आप भी नहीं देखते आत्मध्वंस का यह नजारा?
Friday, November 21, 2025
पढ़ने लिखने में बच्चों को कैसे मजा आए?
बच्चों को कलम की ताकत का अहसास कराना चाहिए।लिखने की तकनीक एकबार सीख लें तो कलम चलन उसका नशा बन जाएगा।इस खेल में मजा आना चाहिए।महीने भर से डोडो को हमने मजबूती से पेंसिल पकड़कर दबाकर चलाना सीखने की कोशिश कर कर रहे थे।वह लिख नहीं पा रहा था। कॉपी की लाइन को बेस बनाकर रेखाओं से खेलने की तरकीब अब उस समझ में आने लगी है।
जो होमवर्क वह पंद्रह दिनों में कर नहीं पाया आज पेंसिल पकड़कर बिना रबर का इस्तेमाल किए फटाफट कर दिया।
बच्चे को पढ़ने लिखने में मजा आना चाहिए। हमने तमाम अखबारों में प्रशिक्षुओं और युवा साथियों से हमेशा कहा है कि मजे में मस्ती से कम करें सजगता के साथ।काम को एंजॉय करें।बोझ या सजा न समझे।
सख्ती के बजाय बच्चों से प्यार से पेश आए।खेल खेल में सिखाए तो लिखने पढ़ने में उसे मह आयेगा और अपना कम खुद सीखेगा।
आज शाम दो घंटे उसके साथ बिताए।मुझे भी उसके करतब में मजा आया।
बच्चों के लिए वक्त जरूर निकालें।
पढ़ना लिखना सी सिर्फ टीचर की जिम्मेदारी नहीं है। हमारी भी जिम्मेदारी कम नहीं है।
क्या आपको बच्चों का साथ अच्छा नहीं लगता?
Sunday, November 16, 2025
नमोशूद्र कोई जाति नहीं है,यह पूरे बहुजन समाज के आंदोलन का नाम
#नमोशूद्र कोई #जाति नहीं है। और न ही #नमोशुद्र_आंदोलन किसी एक जाति का आंदोलन है।
नमो शूद्र का शाब्दिक अर्थ है शूद्र को प्रणाम। मनुस्मृति कानून में सभी अधिकारों से वंचित सभी शूद्रों, अति शूद्रों, अस्पृश्यों और मनुस्मृति के अनुसार दासी,सभी अधिकारों से वंचित स्त्रियों को प्रणाम।
नमोशुद्र, नमोशूद्र आंदोलन और मतुआ आंदोलन पर लिखने बोलने वाले इसे चांडालों के मुक्ति आंदोलन के रूप में चिन्हित करते हैं।
शूद्रों की जय से तात्पर्य है कि मेहनतकश जनता की जय। इस आंदोलन का झंडा है लाल। यह मनुस्मृति कानून, वैदिकी सभ्यता, पुरोहित तंत्र के साथ साथ सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुक्ति संग्राम, युद्ध घोषणा है, कानूनी लड़ाई है जो दो सौ साल पहले शुरू हुआ।
नमोशुद्र आंदोलन के परिणाम स्वरूप भारतीय राजनीति में डॉ आंबेडकर के पदार्पण से पहले 2011 में अविभाजित बंगाल में अस्पृश्यता निषिद्ध कर दी गई। सभी शूद्रों, अतिशुद्रों और अस्पृश्यों की मुक्ति का द्वार खुला, जिसे भारत के संविधान निर्माता डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने सारे देश में अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ों और स्त्रियों के लिए समता,न्याय और स्वतंत्रता का कार्यक्रम बना दिया।
गुरुचांद ठाकुर ने नमोशुद्र शब्द का प्रयोग किसी एक जाति, या धर्म के लोगों के लिए नहीं किया। आंदोलन में शामिल सभी शूद्र अछूत जातियों के अलावा आदिवासी और मुसलमान भी नमोशुद्र थे उनके लिए। कुल बत्तीस अछूत जातियों को गोलबंद किया था गुरुचांद ठाकुर ने।
1875 में ग्रामीण बंगाल में अस्पृश्यों, किसानों की अभूतपूर्व हड़ताल से इस आंदोलन की शुरुआत हुई।
बहुजन राजनीति के जन्मदाता थे गुरूचांद ठाकुर।
इससे भी पहले आज से दो सौ साल पहले बहुजनों यानी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों,मुसलमान किसानों और स्त्रियों के सभी कानूनी अधिकारों की बहाली के लिए मतुआ आंदोलन शुरू किया गुरुचांद ठाकुर के पिता हरिचांद ठाकुर ने।
यह मेहनतकश कृषिजीवी वंचितों के कानूनी अधिकार का आंदोलन के रूप में शुरू हुआ मतुआ आंदोलन जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में किसान आदिवासी विद्रोह का अविच्छिन्न अंग था।
जैसे सन्यासी विद्रोह सिर्फ संन्यासियों का विद्रोह नहीं था और न ही यह म्लेच्छ मुसलमान शासकों के खिलाफ कोई आंदोलन था,जैसा कि आनंदमठ की कथा है,जिसे इतिहास बना दिया गया है। सन्यासी विद्रोह दरअसल आदिवासी, किसान, शूद्र, साधु, संत बाउल फकीर विद्रोह है, जिसमें 1857 की क्रांति की तरह मुसलमानों की व्यापक हिस्सेदारी थी।
सन्यासी विद्रोह मुसलमानों के खिलाफ नहीं, भूमि सामंतों, राजाओं,नवाबों और ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध भारतीय मेहनतकश वंचित तबकों का सामंतवाद्विरोधी, पूंजीवादविरोधी, साम्राज्यवाद्विरोधी आंदोलन है।
किसी जाति,समूह,संप्रदाय या धर्म अनुयायियों का आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आदिवासी किसान आंदोलन या भारत में आज तक हुआ कोई भी किसान आंदोलन नहीं था।
हरिचांद ठाकुर ने इस दुनिया में पहलीबार जमीन पर किसानों के कानूनी अधिकार के लिए युद्ध घोषणा की थी, ऐलान किया था हल जिसका चले जमीन पर,जमीन उसी का।स्त्री शिक्षा और स्त्री मुक्ति आंदोलन की शुरुआत भी उन्होंने कानूनी लड़ाई बतौर की। समता, न्याय और स्वतंत्रता उनका लक्ष्य था। वे और उनके अनुयायी शूद्र, पिछड़े, अस्पृश्य, आदिवासी,स्त्रियां और मुसलमान किसान नील विद्रोह, ढाका, राजशाही, पबना के किसान विद्रोह समेत सभी किसान विद्रोह में शामिल थे।
यह न जाति विशेष और न किसी धार्मिक समुदाय या समूह का आंदोलन नहीं है। यह भारत के वंचित किसानों और सभी स्त्रियों के हक हुकूक के लिए कानूनी अधिकार प्राप्त करने का महासंग्राम है।
मतुआ राजनीति और ठाकुर वंशजों ने इस आंदोलन को निजी हितों का आंदोलन बना दिया है, लेकिन हरिचांद गुरुचांद की कानूनी लड़ाई, उनके विचारों की लड़ाई लड़ने वाले करोड़ों लोग सरहदों के आर पार हैं।
कोलकाता छोड़ने के बाद आज करीब नौ साल में किसी मतुआ सम्मेलन को संबोधित करने का मौका मिला। आमतौर पर ऐसे सम्मेलनों को राजनेता, मंत्री, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री ही संबोधित करते हैं।
इतिहास को सत्तापक्ष इसी तरह बदलता है।
आयोजकों का आभार मुझे अपनी बात रखने का अवसर देने के लिए और युवा साथियों का आभार मेरा पूरा संबोधन टुकड़ों में लाइव प्रसारित करने के लिए।
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The Child is the father of the Man
#The_Child_is_the_father_of_the_Man
#मैं_दादा_आप_डोडो
#बच्चों को उनका #साहित्य दें,तो #मोबाइल छोड़ेंगे
दिनेशपुर के एक रिटायर्ड अध्यापक हैं सत्यरंजन जी।
डॉ जी एल खुराना समाजोत्थान समिति के अध्यक्ष हैं। हम उनके चैंबर में प्रेरणा अंशु का बाल विशेषांक प्रथम देने गए थे।तभी सत्यरंजन जी के तीन साल के पोते का अपनी मां और पापा के साथ चैंबर में प्रवेश हुआ।
प्रेरणा अंशु की प्रति डॉ साहब की मेज पर पड़ी थी। बच्चा अपने पिता की गोद में था। उसकी नजर पड़ी और हजाओं फूल खिल गए। सुगंध से हम भी महक उठे।
जिराफ! कहते हुए बच्चे ने हाथ बढ़ाया और हमने उसके हाथों में प्रेरणा अंशु दे दी।
इससे पहले घर पहुंचते ही पत्रिका पर नजर पड़ते ही डोडो ने ऐलान कर दिया था, ये किताब मेरी है।
वह चार साल का है।मन मोबाइल में है।
इधर वह रोज कहने लगा है: मैं दादा, आप डोडो। आप डोडो बन जाओ।मुझे बनना पड़ता है।
सविता कहती है, दादा तो डोडो बन जाएंगे लेकिन डोडो क्या दादा बनेंगे। पढ़ना लिखना सीखो पहले।फिर दादा बनना। डोडो का मन चंचल है।कार्टून देखते देखते बातूनी हो गया है।हाथ पैर खूब चलते हैं।लेकिन पेंसिल नहीं चलती।
हम बार बार उसे पेंसिल पकड़ना सिखाते और वह पकड़ ढीली कर देता।अक्षर आखिर आकृतियां हैं।चित्र हैं। हम चित्र बनाने के लिए उसे प्रोत्साहित करते। लेकिन पकड़ कमजोर होने और पेंसिल पर जोर न पड़ने से आकृतियां नहीं बनती।
प्रेरणा अंशु का बाल विशेषांक देखने के बाद डोडो अब गंभीरता से दादा बनने के प्रयास में है।खुद अपना बसता ले आता है। किताब कॉपियां ले आता है। फिर लिखने बैठता है।
हम कहते रहते
#पेंसिल_पकड़ो_मजबूती_से
#लिखो_दबाकर
अब वह मोबाइल छोड़कर लिखने की खूब कोशिश कर रहा है। अक्सर मां बाप या भाई बहन बच्चों का कम खुद कर देते हैं। जबकि बच्चे के लिए खुद लिखने पढ़ने का प्रयास करना जरूरी है। वक्त लगेगा, लेकिन सीख जाएगा।
साहित्य दें उस उसका। जिसमें खूब रंग हों, चित्र हों, पढ़ना सीख जाए तो अच्छा और आकर्षक बाल साहित्य हो।क्या हम अपने बच्चों के लिए इतना भी नहीं कर सकते?
हमारे मां बाप गरीब थे। उनके पास कुछ नहीं था। कागज़ बहुत था।लेकिन उनका प्यार बहुत था।हमारे लिए वक्त बहुत था।हम भारी भरकम फीस देकर बच्चों को सजा धजाकर सुविधाओं से लैस करके हाथों में मोबाइल देकर लावारिश छोड़ देते हैं।थोड़ा लिखना पढ़ना सीख जाए तो पैसा कमाने की दौड़ में प्रतिस्पर्धा की आग में झोंक देते हैं।
हम बच्चों से कितना प्यार करते हैं?
हम बच्चों को कितना वक्त देते हैं?
हम उन्हें अच्छी से अच्छी ड्रेस देते हैं।महंगे खिलौने दे देते हैं।उनकी हर जिद पूरी करते हैं।
हर बच्चे के हाथ में मोबाइल दे सकते हैं।
क्या हम बच्चों के हाथ में उनका साहित्य नहीं दे सकते?
उनकी रचनात्मकता, उनके सपनों और उनकी कल्पना से क्या हमारा कोई सरोकार नहीं है?
मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से काटकर हम बच्चों से क्या क्या चाहने लगे हैं?
My heart leaps up when I behold
A rainbow in the sky:
So was it when my life began;
So is it now I am a man;
So be it when I shall grow old,
Or let me die!
The Child is father of the Man;
And I could wish my days to be
Bound each to each by natural piety.
- William Wordsworth
Friday, November 14, 2025
विडंबना की रूदाली
#विडंबना
निरंकुश सत्ता और वर्चस्ववादी विषमता की व्यवस्था बहिष्कार संस्कृत पर आधारित है।
लोकतंत्र समावेशी है।
असहमति को कुचल देना कट्टरपंथ है।
लोकतांत्रिक,प्रगतिवादी लोग असहमति का कितना सम्मान करते हैं?
दक्षिणपंथ में भी संवाद के दरवाजे खुले होते हैं।
वामपंथ में फिर क्यों बहिष्कार संस्कृत?
क्यों संवादहीनता?
क्यों वर्चस्ववाद?
दक्षिणपंथी जनता से हर स्तर पर जुड़े होते हैं।निरंतर उनकी सामाजिकता, गतिविधियां बनी रहती हैं। उनके कार्यकर्ता घर घर जाते हैं।
वामपंथ, उदारतावाद और लोकतंत्र को क्यों ऐन चुनाव के वक्त जनता याद आती है?
जनाधार क्यों खत्म है?
रोड शो और नारेबाजी, सनसनी और सत्तापक्ष की अंध आलोचना से सत्ता समर्थक बहुसंख्य वोटरों को सत्ता के विरुद्ध लामबंद किया जा सकता है क्या?
क्या निरंकुश नरेंद्र मोदी के मुकाबले सर्वमान्य कोई विपक्षी नेता हैं?
क्या गोदी मीडिया के खिलाफ स्वतंत्र, वैकल्पिक मीडिया बनाने की कोशिश कभी हुई?
क्या संघ परिवार के रंग बिरंगे संगठनों का जमीन पर कहीं मुकाबला हुआ है?
क्या जनता को सूचित करते रहने या जागरूक करने का काम किया गया?
सरकारी व प्रशासनिक व्यवस्था हमेशा सत्ता पक्ष की होती है।कांग्रेस के समय थी तो भाजपा तो उससे कहीं ज्यादा निरंकुश और संगठित है। आपके संगठनों का क्या हुआ?
आपने सिर्फ असहमति के लिए कितने प्रतिबद्ध साथियों, वैचारिक और निजी मित्रों का बहिष्कार किया, याद कीजिए।
संघ परिवार जोड़ जोड़ कर राष्ट्रीय हो गया तो आप तोड़ तोड़ कर क्षेत्रीय हो गए। जाति, अस्मिता और वंशवाद के दलदल से निकले बिना, वर्गीय ध्रुवीकरण के बिना सांप्रदायिक उन्माद, अनर्गल प्रचार, अकूत दौलत और फ़ासिज़्म का मुकाबला संभव है?
तोड़ते तोड़ते आपके अपने पांव के नीचे जमीन गायब है और सर पर आसमान भी नहीं है।
अब उनकी भारी जीत और अपनी भारी हार के शिक्षित गाते रहिए,वैचारिक विश्लेषण करते रहिए।
निरंकुश तंत्र का मुकाबला इस तरह होता है?
इसी तरह संगठित फ़ासिज़्म के मुकाबले दिशाहीन, अदूरदर्शी, बिखराव और विभाजन की जनाधारविहीन राजनीति से आप चले देश बदलने?
इसी तरह बनता है राजनीतिक विकल्प हीरो के फटे हुए गंदे पोस्टरों से?
समाचार संदर्भ बिहार:
बिहार के विधानसभा चुनाव में एनडीए की आंधी चली है। ताजा चुनावी नतीजों के मुताबिक, एनडीए गठबंधन 200 से ज्यादा सीटों पर बढ़त बनाए हुए हैं। इसमें से वह कई सीटें जीत भी चुका है। दूसरी ओर, राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन को झटका लगा है। महागठबंधन का 40 सीटों के आंकड़े तक पहुंचना भी बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग लगातार चुनाव नतीजों की घोषणा कर रहा है।
Thursday, November 13, 2025
बाल साहित्य से ही बची हुई है मनुष्यता, सभ्यता और यह पृथ्वी
बच्चों तक साहित्य पहुंचाने में कृपया आगे आएं
हमें अफसोस है कि हम बच्चों के लिए लिख नहीं सके। उनसे संवाद संभव होता,तो वे नई दुनिया जरूर रच देते। क्या आप बच्चों के लिए लिखते हैं?बच्चों को समय देते हैं? जिंदगी नई शुरुआत के लिए कभी छोटी नहीं होती।
अंग्रेजी में,हिंदी में भी और सभी भारतीय भाषाओं में भी, दुनिया के हर हिस्से में शिक्षा की शुरुआत बच्चों के लिए खास तौर पर लिखे साहित्य से होती है। उदाहरण के लिए बांग्ला के लगभग सभी साहित्यकार बाल साहित्य लिखते हैं। वहां कुछ विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार तो सिर्फ बाल साहित्य ही लिखते हैं। प्रेमचंद,भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी के काल में साहित्य में बच्चों की भूमिका प्रमुख रही है।
विभूति भूषण बंदोपाध्याय,सत्यजीत राय,सुकुमार राय जो सत्यजीत राय के पिता हैं, अन्नदा शंकर राय, सुनील गंगोपाध्याय, समरेश बसु, सुचित्रा भट्टाचार्य, आशापूर्णा देवी जैसे साहित्यकारों का समग्र रचनासंसार बाल मानस में एकाकार है। रवींद्र नाथ ने बच्चों के लिए खूब लिखा है।जैसे मैक्सिम गोरकी और चार्ल्स डिकेंस का साहित्य। शरत चन्द्र के श्रीकांत को देख लीजिए। विभूति भूषण बंदोपाध्याय की अमर कृति पत्थर पांचाली। मैक्सिम गोरकी का आत्मकथात्मक लेखन। चार्ल्स डिकेंस का समूचा साहित्य। इसी से मनुष्यता,सभ्यता और पृथ्वी बची हुई हैं।
प्रेरणा अंशु में हम चाहते हैं कि हर अंक में स्कूली बच्चे जरूर लिखें। उनकी हिस्सेदारी हम लगातार बढ़ाएंगे हर अंक में।सिर्फ शिक्षकों और अभिभावकों के सहयोग से हिंदी साहित्य और समाज का स्वरूप बदल सकता है।
प्रेरणा अंशु के बाल साहित्य विशेषांक नवंबर और दिसंबर अंक का संपादन युवा बाल साहित्यकार शिव मोहन यादव को सौंपा इसलिए गया है क्योंकि देशभर में बच्चों के पाठ्यक्रम बनाने वाली राष्ट्रीय संस्था ncert के संपादकीय में वे हैं। इससे पहले वे नैशनल बुक ट्रस्ट में थे।
इस अंक का शानदार कवर राजकुमार घोष जी ने तैयार किया है,जो प्रतिष्ठित चित्रकार हैं।
इस पोस्ट को लिखने के माध्यम से हम आप सभी से अनुरोध कर रहे हैं कि प्रेरणा अंशु के दोनों महत्वपूर्ण बाल विशेषांक आप जहां भी हैं, वहां हर बच्चे तक पहुंचाने में हमारी मदद करें। इसमें शिक्षा संस्थाओं की बड़ी भूमिका हो सकती है। आप चाहेंगे तो अतिरिक्त प्रतियों की भी व्यवस्था की जा सकती है।
आप अपनी संस्था के बच्चों के लिए पत्रिका चाहते हैं तो हमारे युवा साथी Rupesh Kumar Singh से 9412946162 तुरंत संपर्क करें।
पलाश विश्वास
कार्यकारी संपादक
063984 18084
Wednesday, November 12, 2025
अवधेश प्रीत, रुद्रपुर से पटना और फिर
#अवधेश_प्रीत, #खेड़ा_रुद्रपुर से #पटना तक के सफ़र का अंत,विनम्र श्रद्धांजलि
पटना में बस गए रुद्रपुर के प्रसिद्ध साहित्यकार,पत्रकार अवधेश प्रीत नहीं रहे। अभी मीडिया ने धर्मेंद्र के बारे में गलत खबर डालकर हमें भ्रमित कर दिया था। फिल्मी सितारों और राजनेताओं के बारे में तो ऐसी खबरें वायरल है।हमारे दोस्त अवधेश हिंदी के शीर्षस्थ कहानीकारों में रहे हैं और एक राष्ट्रीय दैनिक के संपादकीय में लंबे अरसे तक पटना में कम करते रहे,उनके निधन की खबर पर यकीन नहीं आया।
अब हिंदी के प्रसिद्ध कवि और प्राचीन मित्र ने खबर की पुष्टि कर दी है तो लिख रहा हूं।हम जब 1997 में आरा नागरी प्रचारणी सभा के आयोजन में रामनिहाल गुंजन जी और अरविंद कुमार जी के बुलावे पर गए थे तो पटना में कथाकार नरेन और अवधेश के घर ठहरे थे। संजीव नरेन के घर से अपहरण पर केंद्रित उपन्यास के ग्राउंड वर्क के लिए सीधे निकल गए थे।मुझे साथ चलने को कहा था।तब पटना में ही रहते थे मदन कश्यप। श्रीकांत, नवेंदु और जनसत्ता के हमारे गंगा प्रसाद भी वहीं थे।
अवधेश की पत्नी डॉक्टर हैं। अवधेश के घर से कवयित्री मौसमी चटर्जी के साथ सुरेन्द्र स्निग्ध के घर गए थे।
बहुत जल्दी नरेन और सुरेन्द्र स्निग्ध चले गए।
हम डीएसबी कॉलेज नैनीताल में पढ़ते थे। पहाड़ में ही ज्यादा रहते थे।तब नैनीताल हमारा होम टाउन था। लेकिन रुद्रपुर में उसी दौरान Laxman Singh Bisht Batrohi जी आ गए थे।इनके सान्निध्य में चार साहित्यकार रुद्रपुर के बहुत चर्चित हुए। हमें batrohi जी का सान्निध्य नैनीताल में उतना नहीं मिला क्योंकि हम तभी एक्टिविस्ट बन चुके थे। गिर्दा,शेखर पाठक और राजीव लोचन साह, पवन राकेश, हरीश पंत, चंद्रेश शास्त्री, सखा दाजू ,भगत दा, शमशेर बिष्ट, विपिन त्रिपाठी की लंबी चौड़ी नैनीताल समाचार टीम थी और batrohi जी थे विशुद्ध साहित्यकार।
तराई में बल्कि batrohi जी का ज्यादा जलवा रहा। अपने कम से कम चार छात्रों ज्ञानेंद्र पांडे, अवधेश प्रीत, गंभीर सिंह पालनी और शशि भूषण द्विवेदी को उन्होंने साहित्यकार बना दिया। Kastoor Lal Tagra , @ मुकुलजी और शंभू दत्त पांडेय यानि शैलेय जी के साथ चारों की जबरदस्त टीम थी।
यह तस्वीर सृजन पुस्तकालय रुद्रपुर की चर्चित रंगकर्मी Usha Tamta जी के सौजन्य से। इस तस्वीर में बीच में अवधेश,एक तरफ तागरा जी और दूसरी तरफ शैलेय जी। उस जमाने की एक झलक है,जो रुद्रपुर की साहित्यिक सांस्कृतिक सक्रियता बताती है।
कोलकाता में जनसत्ता के साथियों की पहल पर गीतेश शर्मा जी की मेजबानी में मेरे इंटर एक्टिव धारावाहिक प्रकाशित हो रहे उपन्यास अमेरिका से सावधान पर हुई संगोष्ठी की ज्यादा चर्चा हुई क्योंकि मुख्य वक्त आलोचक मैनेजर पाण्डेय थे।
अवधेश और ज्ञानेंद्र पांडे, शशि ने मेरे दिनेशपुर आने के मौके पर रुद्रपुर की टीम की ओर से इस उपन्यास पर एक संगोष्ठी आयोजित की थी।
तब खेड़ा में इतनी आबादी नहीं थी। वहां हम सिर्फ ज्ञानेंद्र पांडे और अवधेश को जानते थे।
स्मृतियां नदियों की तरह बहती है और वक्त रेत की तरह फिसलता है। दिलोदिमाग होता है लहूलुहान और न जाने क्या क्या होता है। साथी एक एक कर छूट रहे हैं और हम अब भी लहरें गिन रहे हैं।
Tuesday, November 4, 2025
बंदर घुड़की से ना डरियो
बंदर घुड़की से ना डरियो
#TrystWithDestiny
राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बहुत शक्तिशाली,बहुत निरंकुश हो सकते हैं,लेकिन जनता की ताकत के आगे वे कुछ नहीं होते। जनता ही देश है, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नहीं।
टैरिफ वार से राष्ट्रनेता झुक सकते हैं, कार्पोरेट राज देश को उपनिवेश बना सकता है ट्रंप के कदमों में। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका नहीं है।
ममदानी को जीताने पर न्यूयार्क पर प्रतिबंध लगाने की ट्रंप की चेतावनी बंदर घुड़की साबित हो गई।
New York Mayor Election:
भारतीय मूल के जोहरान ममदानी न्यूयॉर्क सिटी के नए मेयर बने हैं।फिल्ममेकर मीरा नायर और महमूद ममदानी के बेटे जोहरान ने किराया फ्रीज, मुफ्त बस सेवा और सस्ती चाइल्डकेयर जैसी योजनाओं का वादा किया है। उन्होंने पूर्व गवर्नर एंड्रयू क्योमो और रिपब्लिकन कर्टिस स्लिवा को हराया है।
अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में एक ऐतिहासिक राजनीतिक बदलाव देखने को मिला है।
भारतीय मूल के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जोहरान ममदानी ने न्यूयॉर्क सिटी मेयर का चुनाव जीत लिया है।वह न्यूयॉर्क के पहले मुस्लिम मेयर हैं।
ममदानी की जीत डोनाल्ड ट्रंप के लिए बड़ा झटका है, क्योंकि वह लगातार ममदानी का विरोध कर रहे थे। उन्होंने धमकी दी थी कि अगर ममदानी जीते तो न्यूयॉर्क की फंडिंग रोक देंगे।
बुधवार को घोषित नतीजों में उन्होंने अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ते हुए बड़ी जीत दर्ज की। जोहरान ममदानी को न्यूयॉर्क मेयर के चुनाव में 50.4 प्रतिशत वोट मिले।
इस शानदार जीत के बाद उन्होंने अपने विजयी भाषण में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के भाषण को कोट किया।
बुधवार को न्यूयॉर्क सिटी चुनावों में अपनी ऐतिहासिक जीत के बाद जोहरान ममदानी ने अपने समर्थकों को संबोधित किया।
इस दौरान ममदानी ने नेहरू प्रसिद्ध भाषण ‘Tryst with Destiny’ (नियति से साक्षात्कार) के 1947 में दिए गए उस भाषण का हवाला दिया, जब भारत ने 200 साल से अधिक की ब्रिटिश हुकूमत से आजादी हासिल की थी।
ममदानी ने कहा, “एक ऐसा क्षण आता है, जो इतिहास में बहुत कम बार आता है, जब हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाते हैं, जब एक युग समाप्त होता है, और जब एक राष्ट्र की आत्मा, जो लंबे समय से दबाई गई थी, अपनी अभिव्यक्ति पाती है।”
उन्होंने आगे कहा, “आज रात न्यूयॉर्क ने भी पुराने से नए की ओर वह कदम बढ़ा दिया है। यह परिवर्तन का
जनादेश है। भविष्य अब हमारे हाथों में है; हमने एक राजनीतिक वंश को गिरा दिया है।.”
जोहरान ममदानी ने पूर्व न्यूयॉर्क गवर्नर एंड्रयू क्योमो, जो एक स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और रिपब्लिकन प्रत्याशी कर्टिस स्लिवा को मात दी।इससे पहले मौजूदा मेयर एरिक एडम्स ने सितंबर में चुनावी दौड़ से नाम वापस ले लिया था।
Sunday, November 2, 2025
खबरों की पितृसत्ता
खबरों की वरीयता में भी लिंगभेद?
पलाश विश्वास
बेटियों का विश्वचैंपियन बनने की खबर भी लीड लायक नहीं। पुरुष टीम की आम जीत ही प्रमुख।
खेलों में महिलाओं के दुनिया जीतने की खबर इसी तरह नजरअंदाज कब तक होती रहेगी?
बेटियों को अब अंतरिक्ष भी जीतना होगा।
हमने 1980 में जब दैनिक आवाज में काम शुरू किया तो खबरें कंपोज करने और अखबार छापने की मशीनें पुरानी होती थी।फिरभी आधी रात तक की खबरें वरीयता और महत्व के अनुसार छापते थे। पेज नए सिरे से बनाते थे।
धनबाद में रहते हुए शायद 1981 में बांग्ला अखबार आजकल और टेलीग्राफ फोटो टाइप सेटिंग के साथ ऑफसेट मशीन से शुरू हुआ।
1991 में जब हम जनसत्ता में थे, तब किसी भी बड़ी घटना, उपलब्धि की खबर के लिए पूरा अखबार हम आधे घंटे में नए सिरे से तैयार करके समुचित को कवरेज के साथ प्रेस में देकर छाप लेते थे।
1984 में दैनिक जागरण और 1990में दैनिक अमर उजाला में हमने पहाड़ जाने वाले अखबारों को भी अखबार छाप रहे प्रेस को रोककर छापा है।
भोर साढ़े चार बजे या यहां तक कि सुबह पांच बजे की घटनाओं को भी फील्ड रिपोर्टिंग के साथ नई तकनीक से अखबार का लीड या बैनर बनाकर छापा है।
हमें रिटायर हुए दस साल होने को हैं।तीस साल की तकनीक अब बहुत ज्यादा आधुनिक हो गई।
रात डेढ़ बजे तक महिलाओं के चैंपियन बनने की खबर ग्लोबल थी। फिरभी पुरुष टीम की खबर प्रमुखता से छापने और महिलाओं के चैंपियन बनने की खबर एक कोने में छापने की रस्म अदायगी बताती है कि पितृसत्ता अब भी कितनी मजबूत है।
श्रीमती इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनी, तो देश की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री को स्वीकार करने में पितृसत्ता की राजनीति तैयार नहीं थी।उन्हें कठपुतली कहा गया। जब उन्होंने बैंकों,खनिजों का राष्ट्रीयकरण किया और प्रिवी पर्स खत्म कर दिया, तभी से उनका विरोध तेज होता गया।
क्या यह पितृसत्ता ही नहीं हैं जो इंदिरा को इतिहास से मिटाने पर आमादा है?
स्त्री मुक्ति की लड़ाई के बिना मनुष्यता और सभ्यता का बर्बर युग कभी खत्म नहीं होगा।विज्ञान और तकनीक की चकाचौंध में भी हम दरअसल आदिम अंधकार में हैं।
हमारी बेटियों को इस पितृसत्ता को ध्वस्त करना ही होगा।
Saturday, November 1, 2025
सामंती पितृसत्ता को भी हराया रोमन कैथोलिक लड़की जेमिमा रॉड्रिक्स ने
सिर्फ #आस्ट्रेलिया को नहीं, #सामंती_पितृसत्ता को भी हर दिया #जेमिमा_रॉड्रिक्स ने
पलाश विश्वास
#महिल_क्रिकेट_विश्वकप
#Jenima_Ridrigues
इसी देश के कुछ लोगों ने धर्म के नाम जिस लड़की को प्रताड़ित किया, आज वही रोमन कैथोलिक 25 साल की क्रिकेटर लड़की इसी देश का सबसे प्रिय चेहरा है।
रविवार दो नवंबर को महिला विश्वकप फाइनल है। इसी लड़की के शतक से अजेय ऑस्ट्रेलिया को हराकर भारत की बेटियां फाइनल में हैं। मुकाबले में दक्षिण अफ्रीका है।इसी लड़की ने बेटियों के विश्वकप जीतने का सपना जिंदा कर दिया।कप्तान हरमन प्रेत और पूरी टीम ने सेमीफाइनल में शानदार खेल दिखाया,लेकिन जीतकर लौटने का जो जज्बा जेमिमा ने दिखाया, भारतीय खेलों में यह अभूतपूर्व है।
जेमिमा अपने लिए नहीं खेल रही थी।सिर्फ टीम के लिए नहीं खेल रही थी।देश के लिए खेल रही थी। हाफ सेंचुरी,सेंचुरी करने के बाद कल तक हर खिलाड़ी ने अपने ढंग से सेलिब्रेट किया है, लेकिन इस लड़की ने हाफ सेंचुरी और सेंचुरी करने के बावजूद न बैट उठाया और न किसी तरीके से खुशी व्यक्त की।
अर्जुन की कथा इस देश में सबको मालूम है।किसी ने अर्जुन को नहीं देखा, लेकिन कल देश और दुनिया ने अर्जुन को निशाना भेदते हुए देख लिया। चिड़िया की आंख उसके लिए देश की जीत थी। हरमन के साथ लंबी साझेदारी निभाने के बाद दूसरे छोर पर एक एक के बाद एक साथी के आउट होते जाने के बावजूद, मुंबई की भीषण उमस में शरीर टूट जाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि उसे देश को जीताकर लौटना था। वह अपने लिए नहीं,देश के लिए खेल रही थी।
सारी उपेक्षा, अन्याय, घृणा और हिंसा को जीतकर भारत में बेटियों के किसी खेल के लिए इतना प्रेम,इतनी एकजुटता पैदा करना इस रोमन कैथोलिक लड़की की सबसे बड़ी उपलब्धि है। एथलेटिक्स, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस,बैडमिंटन, शतरंज में लगातार उपलब्धियां हासिल करने वाली बेटियों को लेकर भावों का इतना बड़ा विस्फोट कभी नहीं हुआ। पुरुषों के खेल में मामूली उपलब्धि के मुकाबले बेटियों की बड़ी बड़ी उपलब्धियों को हमेशा नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है।
जेमिमा ने इस एक पारी से सिर्फ आस्ट्रेलिया को नहीं,इस देश के पितृसत्तात्मक सामंती समाज को भी पराजित कर दिया।विश्वकप जीतने से ज्यादा बड़ी उपलब्धि है इस देश में हमेशा अन्याय,उत्पीड़न, उपेक्षा,अपमान और भेदभक की शिकार सभी बेटियों के लिए।
जेमिमा जीत के बाद लगातार रो रही थी।
इस रुलाई में संवेदनाओं का महा विस्फोट है,जिसने पत्थरों को भी पिघला दिया है।
ये संवेदनाओं का चक्रवात हर बेटी में होता है,लेकिन संवेदनाओं के इस चक्रवात ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिए।
बीबीसी ने सही लिखा है:
जेमिमा रॉड्रिग्स आगे अपने करियर में जो कुछ भी हासिल करें, लेकिन उन्होंने वो पारी खेल ली है जिसके लिए वो हमेशा तब तक याद की जाएँगी, जब तक पुरुष और महिलाएँ क्रिकेट खेलते रहेंगे.
भारतीय पारी के साढ़े तीन घंटे एक तरह से जेमिमा के लिए ये खोजने का रास्ता थे कि उनके भीतर कितनी प्रतिभा है, वो कितना हासिल करने में सक्षम हैं और आगे वो और क्या कुछ हासिल कर सकती हैं.
मैदान में मौजूद और दुनिया भर में देख रहे करोड़ों दर्शकों ने पहली बार जेमिमा की असली भूमिका और उनकी अहमियत को महसूस किया.
https://www.bbc.com/hindi/articles/cn09x7rrd7yo
Jemimah Rodrigues Record Century In IND vs AUS Womens World Cup Semi-Final: भारत और ऑस्ट्रेलिया की महिला क्रिकेट टीमों (India Women vs Australia Women) के बीच आईसीसी महिला वनडे विश्व कप 2025 (ICC Women's ODI World Cup 2025) में जबरदस्त सेमीफाइनल मैच खेला गया। इस मैच में इतने रनों की बारिश हुई कि दुनिया देखती रह गई। दुनिया की सबसे सफल महिला क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया (Australia Women Cricket Team) ने भारत के सामने विशाल लक्ष्य रखा था लेकिन शुरुआती झटकों के बावजूद भारतीय महिला क्रिकेट टीम (India Women Cricket Team) ने ऐतिहासिक जीत दर्ज करते हुए रिकॉर्ड्स की झड़ी लगा दी और महिला विश्व कप फाइनल (Women's World Cup Final) में पहली बार जगह पक्की कर ली। इस जीत का श्रेय अगर किसी एक खिलाड़ी को जाता है तो वो हैं ऑलराउंडर जेमिमा रोड्रिगेज, जिनकी बल्लेबाजी के आगे ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेट टीम पूरी तरह से पस्त हो गई और जेमिमा ने नया इतिहास रच दिया।
https://www.timesnowhindi.com/photos/sports/jemimah-rodrigues-registers-new-record-in-womens-odi-world-cup-2025-semi-final-against-australia-photo-gallery-153079070
2017 में जब भारतीय महिला क्रिकेट टीम लॉर्ड्स में इंग्लैंड से वर्ल्ड कप फाइनल हारकर लौटी थी, तब मुंबई एयरपोर्ट पर जेमिमा रोड्रिग्स उनके स्वागत को मौजूद थीं. उस वक्त वह सिर्फ 16 साल की थीं और मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने कुछ जूनियर्स को बुलाया था. वह दिन, वही नजारा, उनके क्रिकेट सफर का टर्निंग पॉइंट बन गया. तब उन्होंने देखा था कि हार के बावजूद हजारों लोग खिलाड़ियों के स्वागत में पहुंचे हैं. तभी उन्होंने ठान लिया था, ‘एक दिन मैं भी इस टीम को जीत की राह पर लेकर जाऊंगी.’ और आठ साल बाद जेमिमा आज भारत को वर्ल्ड कप फाइनल तक ले आईं. सेमीफाइनल में भारत ने मौजूदा चैंपियन ऑस्ट्रेलिया को हराकर इतिहास रच दिया. 330 से ज्यादा का टारगेट, दबाव का माहौल, और फिर भी इस टीम ने वो कर दिखाया जो किसी ने सोचा नहीं था.
https://hindi.news18.com/cricket/jemimah-rodrigues-success-story-world-cup-final-defeating-australia-women-cricket-9797125.html
Jemimah Rodrigues, Year After Gymkhana Club Membership Cancellation, Becomes India's Hero
On Thursday evening, during the India vs Australia Women's World Cup semi-final, Jemimah Rodrigues transcended the boundaries of the cricket field to embody something much bigger. The 25-year-old has long been primed for greatness, but somehow she seemed to falter. Four years into her international career, she was excluded from the 2022 World Cup campaign in New Zealand, and the feeling was no different when India, struggling to find the right playing combination, chose to overlook her against England in the ongoing tournament.
Jemimah, as on several occasions in the past - including the 2022 Commonwealth Games gold medal clash against Australia and the 2023 T20 World Cup semifinal against the same opponents - watched helplessly from the sidelines as India floundered in a chase they should have completed easily in Indore.
As an early exit loomed for the World Cup hosts, India turned back to the 25-year-old, who was determined to put everything behind her and get the team back on track.
The magnitude of her achievement at the DY Patil Stadium on the night of October 30 may take time to sink in. But there is little doubt that it was one of the finest knocks played by an Indian in World Cup knockout stages-across genders.
On the personal front, Jemimah faced challenges too. Last year, she saw her club, Khar Gymkhana, cancel her membership after complaints were filed against her father, Ivan Rodrigues, for allegedly using the club's premises to host unauthorised religious gatherings.
https://sports.ndtv.com/women-s-odi-world-cup-2025/jemimah-rodrigues-year-after-gymkhana-club-membership-cancellation-becomes-indias-hero-9553629
इगास बग्वाल,उत्तराखंड में ग्यारह दिन बाद दिवाली
आप सभी को लोकपर्व इगास की शुभकामनाएं।
इगास या बग्वाल
उत्तराखंड में 11 दिन बाद मनाई जाती है दीवाली।
इसे हमारे पहाड़ में बूढ़ी दिवाली या हरबोधनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड में दीपावली पर्व के 11 दिन बाद इसे पारंपरिक त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
इगास या बग्वाल त्यौहार कार्तिक शुक्ल एकादशी को मनाई जाती है। इस दिन पहाड़ में दीवाली जैसा माहौल होता है।इस दिन घरों को सजाया जाता है, विशेष पकवान बनते हैं, और लोक नृत्य व संगीत का आयोजन होता है। इस समय पूरे क्षेत्र में उत्सव का माहौल रहता है और लोग आपस में खुशियां बांटते हैं।
विभिन्न सामाजिक संगठनों की ओर से इगास कार्यक्रम में ढोल दमाऊं की धुनों पर लोग पारंपरिक नृत्य के साथ भैलो खेलते नजर आएंगे। पहाड़ के गांव से भैलो के लिए चीड़ के छील, पारंपरिक वाद्य यंत्र मंगाए गए हैं। खास बात यह भी है कि पकोड़े-स्वाले के साथ ही कई पारंपरिक व्यंजन का स्वाद मिलेगा।
उत्तराखंड में इगास मानने के बारे में एक कथा प्रचलित है कि भगवान श्री राम के अयोध्या लौटने की खबर दीपावली के 11 दिन बाद उत्तराखंड पहुँची तो यहां के स्थानीय लोगों ने उस दिन अपने तरीके से दिवाली मनाई।
एक अन्य कथा के अनुसार जब गढ़वाल के योद्धा माधव सिंह भंडारी की दापाघाटी में तिब्बत पर विजय के उपलक्ष्य में यह त्यौहार मनाते हैं जिसे समुदायिक एकता और वीरता के रूप में मनाया जाता है 🙏🏻 💐
Friday, October 31, 2025
अंतिम किताब
मेरे पहले कहानी संग्रह अंडे सेंते लोग की दो सौ प्रतियां मुझे प्रकाश ने दी थी।हमने पुस्तक बेचने के बजाय अपने साहित्यकार मित्रों और आलोचकों को दी। बहुत कम चर्चा हुई किताब की।
दूसरा कहानी संग्रह ईश्वर की गलती 2001 में आदरणीय शलभ श्रीराम सिंह ने प्रकाशित किया विदिशा से अपने प्रकाशन से।मुझे बीस प्रतियां मिलीं।हमने पुराने अनुभव के तहत किसी को किताब नहीं दी। इस किताब पर मध्य प्रदेश में खूब चर्चा हुई,यह महाश्वेता देवी का कहना था।
मेरी तीसरी किताब 24 साल बाद आई विस्थापन के यथार्थ,पुनर्वास की लड़ाई पर केंद्रित किताब। मुझे पांच प्रतियां मिलीं,जिनसे लोकार्पण हुआ।मेरे पास अपनी प्रति भी नहीं है।किताब अमेजन ऑनलाइन स्टोर से वितरित हो रही है। न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने यह किताब प्रकाशित की।
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न मैंने किताब बेची और न किसीको भेंट की। कितनी किताबें लोगों ने ली,मुझे मालूम नहीं है।
लेकिन जिन्होंने भी किताब खरीदी,सबने पढ़ा और सबकी प्रतिक्रिया सार्वजनिक है। जिनको भी किताब सही लगेगी।खरीदकर पढ़ेंगे। फिर उनकी जैसी प्रतिक्रिया होगी,उसका स्वागत है।
मैंने मित्रों को साफ कह दिया है कि इस किताब की कोई समीक्षा न प्रेरणा अंशु में छपेगी और न किसी को अन्यत्र लिखने के लिए कहूंगा।
किताब अगर महत्वपूर्ण है तो लोग खरीदकर जरूर पढ़ेंगे। किताब अमेजन पर उपलब्ध है,इसकी सूचना और लिंक जरूर शेयर की है। बाकी पाठकों की मर्जी।
दरअसल पिताजी की मृत्यु के बाद 2001 में ही मैंने विस्थापितों की लड़ाई में शामिल होने का फैसला किया तो सृजनात्मक लेखन को भी तिलांजलि दे दी।इसलिए मैंने अप्रकाशित या प्रकाशित कविताओं,कहानियों के संकलन,उपन्यास, यात्रा वृत्तांत इत्यादि के प्रकाशन न करना ही तय किया।
पुलिनबाबू विस्थापन पर लिखी किताब है। साहित्य नहीं है। मैंने सिर्फ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की कोशिश की और लिखते ही मेरी भूमिका खत्म हो गई।
इस किताब का प्रकाशन आरिफा avis और Rupesh Kumar Singh की जिद के कारण संभव हुआ। सच तो यह है कि अब मेरे लिए कोई किताब लिखना असंभव है। न समय है, न ऊर्जा और न संसाधन।
लिख पाता तो भी सृजनात्मक साहित्य नहीं लिखता। पहाड़, आदिवासी भूगोल, कोयलांचल या पूर्वोत्तर पर लिखने की कोशिश करता।
इसलिए हिंदी में यह मेरी अंतिम किताब है।
फिरभी कोलकाता में मेरे सत्ताईस साल और बंगाल में विस्थापितों के हाल और आदिवासी भूगोल , सबकुछ मिलाकर इस अवधि के अनुभव पर एक किताब जरूर लिखना चाहता हूं। यह हिंदी में लिखने और छपने से कहीं बहुत ज्यादा कठिन है।
उत्तराखंड में बांग्ला में पांडुलिपि तैयार करना मुश्किल है तो बांग्ला में मेरी किताब के लिए प्रकाशक मिलना और भी मुश्किल है।
सो,निश्चिंत रहे कि मेरी लिखी किसी और किताब पढ़ने की तकलीफ किसीको नहीं उठाने की जरूरत है।
जब तक संभव है और टीम को मेरी जरूरत होगी, प्रेरणा अंशु के काम जरूर करता रहूंगा।
Thursday, October 30, 2025
একটি প্রশ্ন, জবাব চাই
একটি প্রশ্ন আপনাদের সাথে শেয়ার করতে চাই:
যাঁরা পূর্ব পাকিস্তান বা বাংলাদেশে জন্মগ্রহণ করেছেন এবং পরবর্তীতে স্থায়ীভাবে ভারতে বসবাস করছেন তাঁদেরকে শুধুমাত্র দুটো ভাগেই ভাগ করা যেতে পারে।
প্রথম ভাগ:- যাঁরা এপারে এসে নাগরিকত্বের সার্টিফিকেট বানিয়েছেন; যাঁদের কাছে পূনর্বাসন তথা শরণার্থীর স্টাটাস রয়েছে; যাঁদের কাছে বর্ডার স্লিপ বা মাইগ্রেশন কার্ড রয়েছে এবং বসবাসের অনুমতি পেয়েছেন।
দ্বিতীয় ভাগ:- যাঁদের কাছে এসব কিছুই নেই। অবিভক্ত ভারতের একাংশ থেকে আরেক অংশে যাচ্ছেন--- এটা তো স্থানান্তর, কোনো বিদেশে থোড়ি যাচ্ছেন--- এই সহজ সরল ধারণা থেকে নিজের নিজের বোঝা নিজের কাঁধে চাপিয়ে কঠিন জীবন যুদ্ধে শামিল হয়েছেন। তা এঁদের কেউ ১৯৪৭'এর ১৫ আগষ্টের পর যে বছরেই আসুন না কেন।
আপনারা যদি এই বিভাজনকে সঠিক বলে মনে করেন তাহলে আমার প্রশ্নটি রাখতে পারি। নির্বাচন কমিশন জানিয়েছে যে, দুই হাজার দুইয়ের ভোটার তালিকায় যাঁদের নাম থাকবে তাঁদের নতুন ভোটার তালিকায় নাম তুলতে কোনো কাগজ দাখিল করতে হবে না। এখন, এমন হতে পারে কি না যে , কোনো একজন ব্যক্তি দুই হাজার সালে ওপার বাংলা থেকে এসে ভোটার হয়ে গেলেন, তাঁর নাম দুই হাজার দুয়ের ভোটার তালিকায় উঠে গেল। আবার *এমন হতে পারে কি না যে একজন ব্যক্তি ত্রিশ, চল্লিশ এমনকি পঞ্চাশ বছর আগে এসেছেন কিন্তু কোনো কারণে তাঁর নাম দুই হাজার দুয়ের ভোটার তালিকায় অন্তর্ভুক্ত রইল না। এক্ষেত্রে পুরানো ব্যক্তিটি SIR থেকে বাদ পড়বেন!*
এ কেমন নিয়ম? আবার যাঁদের নাম দুই হাজার দুয়ের ভোটার তালিকায় উঠেছে তাঁদের কেউ কেউ এমন ভাব দেখাচ্ছেন যেন তাঁরা কস্মিনকালেও বাংলাদেশ বা পাকিস্তান সম্পর্কে ওয়াকিবহাল নন!! এ কেমন বিচার? যাঁরা পূর্ব পাকিস্তান বা বাংলাদেশে জন্মগ্রহণ করার পর ভারতে চলে এসেছেন *সবাই একই প্রক্রিয়ার সাথে যুক্ত--- সবাই কৃত্রিমভাবে বাংলা-বিভাজনের শিকার*। অথচ, বিভাজনের বিভীষিকার শিকার হবেন বেছে বেছে একাংশ যাঁরা বিত্তে এবং বর্ণে সমাজের নীচে পড়ে থাকা!?
সত্যিই এমনটা হলে তা হবে আগুন নিয়ে খেলা। এই খেলা না খেলে এবং খেলতে না দিয়ে সকলের সমস্বরে আওয়াজ তোলা উচিত: *বর্তমান ভারতে বসবাসরত সবাইকে নাগরিক হিসেবে গণ্য করে নতুন একটি আইন প্রণয়ন করতে হবে*।
Wednesday, October 29, 2025
Quite different in creativity
#Quite_different_in_creativity
The elite, intellectual personalty perhaps never matched the character she played. Not only #Sabana_Azmi and #Smita_Patel but her daughter #konkana_Sensharma looked always authentic in character. Even she was not in the class of #Suchitra_Sen, #Sharmila_Tagore, #Madhubala,#Nargis, #Madhabi_Mukherjee or #Rakhee.
But we all love the creater #Aparna_Sen as director in every film, quite originale and quite different.
We walked with #activist Aparna on streets, but she looked different class,not as much common as well are.
I loved the #Editor Aparna Sen of #Sananda. The magazine was meant for women, but it was not so #feminist as her #films seem. The magzine had no #gender_bias. It was better than #Desh Patrika after the demise of #Sangarmoy_Ghosh. She had been a better editor than #Sunil_Gangopaddhyay.
I discontinued Desh while Sunil was editor. But I was regular reader of Sananda as long as Aparna was the editor. As editor she never worked as celebratee. She writes excellent.
The graceful lady is Eighty now.
Ten years elder than me.
अंडमान में छह महीने बारिश का मौसम,वहां बसाए गए बंगाली शरणार्थी
पूर्वी बंगाल के भारत विभाजन के शिकार लोगों की आपबीती, विस्थापन के यथार्थ और पुनर्वास की लड़ाई, मारीचझांपि नरसंहार, उत्तराखंड, दंडकारण्य और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में बसे विस्थापितों की कथा थोड़ी बहुत आई है। लेकिन यह संख्या में पीड़ितों की करोड़ों की संख्या देखते हुए गिनती लायक भी नहीं है।
हिंदी में Rupesh Kumar Singh और मेरी किताबें तो अभी अभी आई हैं और पाठकों, खासकर भुक्तभोगियों तक ठीक से पहुंची भी नहीं है। बांग्ला में Kapil Krishna Thakur, Madhumay Pal , anshuman kar, Nakul Bairagi जैसे कुछ ही लोग लिख रहे हैं।
जन इतिहास इक्का दुक्का लोगों का कम नहीं है। इतिहास लिखना सहज है। यह मूलतः शासकों की कथा है।सत्ता संघर्ष की कथा है।जिनके अनेक स्रोत हैं। संदर्भ प्रचुर है। प्रमाण और तथ्य भी बहुत है।
पीड़ित प्रजाजनों, वंचितों, उत्पीड़ितों, विस्थापितों, नरसंहार के शिकार लोगों के पक्ष में कोई नहीं होता। न साहित्यकार, न इतिहासकार, न पत्रकार और न ही पढ़े लिखे लोग।सबूत मिटा दिए जाते हैं।सत्ता पक्ष का नैरेटिव इतना प्रबल होता है कि पीड़ितों का पक्ष सामने नहीं आता।वे लिखते पढ़ते भी नहीं हैं कि अपनी आपबीती, अपना इतिहास दर्ज कर सके।
सच कहने और लिखने की लिए बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है। कामयाबी और सुविधाएं, यश और सम्मान सत्ता के पक्ष में है।पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने का भारी जोखिम है। न कोई स्रोत है और न कोई दस्तावेज, न ही संदर्भ।
लिखने की बड़ी चुनौती है। यह एक सामाजिक जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता का ही मामला नहीं है, संवेदना, मनुष्यता, सभ्यता, साहित्य, मातृभाषा, कला और संस्कृति का मामला है। सही पद्धति और वस्तुनिष्ठ दृष्टि भी जरूरी है। नए शिल्प और विधा की जरूरत है।
एक काम भाषाई दक्षता के अलावा व्यापक ग्राउंड वर्क की भी मांग करता है। संसाधन भी चाहिए।
जुनून के अलावा यह संभव नहीं है।
इसलिए बहुत कम लोग लिख रहे हैं।
मसलन अंडमान निकोबार द्वीप समूह में इन द्वीपों को आबाद करने के लिए झारखंड के आदिवासियों को बड़ी संख्या में अठारहवीं सदी से ले जाया जाता रहा है। भारत विभाजन के बाद बड़ी संख्या में वहां पूर्वी बंगाल के विस्थापितों को बसाया गया। बांग्ला अंडमान की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन आदिवासी झारखंड के सभी भाषा समूह के हैं।वे संथाली, कुड़मी, खोरठा, मुंडारी, सादरी, हो, उरांव आदि भाषा बोलते हैं।
नजरुल सैयद के फेसबुक पोस्ट से पता चला कि अंडमान में पूर्वी बंगाल के विस्थापितों के पुनर्वास की देख देख करने वाले एक पुनर्वास अधिकारी विकास चक्रवर्ती ने आन्दामाने पुनर्वासन नामक एक किताब बांग्ला में लिखी है। उन्होंने वहां गए चार हजार बंगाली विस्थापितों को 1955 से बसाने और द्वीपों को आबाद करने का काम किया।
चक्रवर्ती के अनुसार बंगाल और पंजाब से अंडमान में शरणार्थियों को बसाने के लिए सर्वे करने दो टीमें गई थी।
अंडमान के द्वीपों में पहाड़ और जंगल,दलदल हैं। छह महीने बारिश का मौसम रहता है। मौसम, जलवायु और जमीन वहां पंजाबियों को बसाने लायक नहीं है,कहकर पंजाब की टीम वापस चली आई।
बंगाली विस्थापितों को ही वहां बसाना तय हुआ। तमाम द्वीपों को झारखंडी आदिवासियों के बाद बंगाली विस्थापितों ने आबाद किया। तमिल भी बड़ी संख्या में इन द्वीपों में बसे।
अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह की जलवायु उष्णकटिबंधीय और आर्द्र है, जिसमें कोई विशिष्ट शीत ऋतु नहीं होती है। यहाँ का औसत तापमान \(23\degree C\) से \(31\degree C\) के बीच रहता है, और वर्ष भर गर्मी और आर्द्रता बनी रहती है, जिसमें औसतन \(79\%\) सापेक्ष आर्द्रता होती है। मानसून का मौसम मई के अंत से शुरू होकर लगभग 180 दिनों तक रहता है, जिसमें मध्यम से भारी वर्षा होती है।
मानसून: मई के अंत से शुरू होकर, दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) और उत्तर-पूर्वी मानसून (अक्टूबर से दिसंबर) के कारण लगभग 180 दिनों तक बारिश होती है। औसत वार्षिक वर्षा लगभग \(3,000\) मिमी है।
नजरुल सैयद ने लिखा है:
দেশভাগ নিয়ে আমার পড়াশোনার দৌড় বেশিদূর না। আমার আগ্রহ তার পরের সময়টায়। সেজন্য যতটুকু প্রাসঙ্গিক, এর বাইরে পড়ার সুযোগ হয়ে ওঠেনি তেমন। অতটুকু পড়ার বিপুল বিষাদময় অনুভূতির মধ্যে সবচেয়ে চমকে দিয়েছিলো মরিচঝাঁপির ইতিহাস, আর দু’দন্ড শান্তি দিয়েছিলো বিকাশ চক্রবর্তীর ”আন্দামানে পুনর্বাসন: এক বাঙাল অফিসারের ডায়েরি”।
দেশভাগের করুণ ইতিহাসের কথা আমরা সবাই কমবেশি জানি। এবাংলা থেকে ওবাংলায় যাঁরা গিয়েছিলেন, তাঁদের একটা বড় অংশকে পাঠানো হয়েছিলো দণ্ডকারণ্যের পাষাণভূমিতে। সেখান থেকে ফিরে সুন্দরবনের মরিচঝাঁপিতে ঘর বাঁধা এবং তারপর নারকীয় হত্যাযজ্ঞের ইতিহাস আমাদের সামনে তুলে এনেছেন মধুময় পাল। কিন্তু আর একটা অংশকে পাঠানো হয়েছিলো আন্দামানে, তাঁদের সম্পর্কে জানা ছিলো না একদম। সেই অভাবটা পূরণ করলেন বিকাশ চক্রবর্তী।
বৃটিশ আমলে ‘আন্দামান’ নামটাই ছিলো ভয় জাগানিয়া। ‘কালাপানি’ পেরিয়ে বিপ্লবীদের পাঠানো হতো সেই নির্জন দ্বীপে, কুখ্যাত সেলুলার জেলে, নির্বাসনে, মৃত্যুর অপেক্ষায়।
দেশভাগের পর পূর্ববঙ্গের উদ্বাস্তুদের কোথায় জায়গা দেওয়া হবে তা খুঁজতে উচ্চ ক্ষমতাসম্পন্ন কমিটি গঠন করলো ভারত সরকার। পঞ্জাব প্রদেশের একটি সরকারি দল এবং পশ্চিমবঙ্গের উদ্বাস্তু পুনর্বাসনমন্ত্রী নিকুঞ্জবিহারী মাইতি গেলেন আন্দামান পরিদর্শনে। সেখানকার জলা জঙ্গল, বিস্তৃত সমুদ্রতট আর বছরের অর্ধেকেরও বেশি সময় বর্ষাকাল বলে সেখানে পাঞ্জাবি উদ্বাস্তুদের পুনর্বাসন সম্ভাবনা বাতিল হলো। কিন্তু এই পরিবেশটাই পূর্ববঙ্গের চাষিদের জন্য ভালো হবে বিবেচনায় তাঁদের একটা অংশকে আন্দামানে পাঠানোর সিদ্ধান্ত হলো। প্রকল্পের নাম হলো ‘কলোনাইজেশন স্কিম’।
১৯৩৩ সালে পূর্ববঙ্গের সিলেটে জন্মেছিলেন বিকাশ চক্রবর্তী। পিতা ছিলেন গান্ধীবাদী রাজনীতিক, সাংবাদিক এবং সাহিত্যসেবী। মা ছিলেন ভারতের স্বাধীনতা আন্দোলনের সশস্ত্র বিপ্লবী পরিবারের। দেশভাগের ফলে এই পরিবারকেও ভিটেমাটি ছেড়ে পশ্চিমবঙ্গে চলে যেতে হয়। ১৯৫৫ সালে বিকাশ চক্রবর্তী কলোনাইজেশন অ্যাসিস্ট্যান্টের সরকারি চাকুরি নিয়ে বদলী হন আন্দামানে। নিজেই দেশভাগের উদ্বাস্তু, তিনিই পেলেন পূর্ববঙ্গ থেকে আগত উদ্বাস্তুদের আন্দামানে পুনর্বাসনের কঠিনতম দায়িত্ব। তারপর দীর্ঘ পনেরোটি বছর... সে এক ইতিহাস!
বাঙালির দেশভাগ আর উদ্বাস্তু সংকটের প্রসঙ্গ মানেই যে বিষাদের আখ্যান; অপমান, অপদস্ত, নির্যাতন, নিপীড়ন, যন্ত্রণা আর অমানবিকতার মর্মবিদারী অধ্যায়... জঞ্জালের মতো আস্তাকুঁড়ে নিক্ষিপ্ত মানুষের ইতিহাস... সেখানে আন্দামানে বাঙালি পুনর্বাসন এক ব্যতিক্রম অধ্যায়। নিম্নবর্ণের শ্রমজীবী উদ্বাস্তু বাঙালি সেখানে পেয়েছে সম্নান ও সুযোগ, পেয়েছে নতুন করে বেঁচে থাকার, স্বপ্ন দেখার সাহস, পেয়েছে সহানুভূতি আর সহমর্মিতা, তৈরি করেছে নিজের দেশ- নববঙ্গ। আন্দামানে পুনর্বাসনের ইতিহাস উদ্বাস্তু বাঙালির স্বাবলম্বনের ইতিহাস, লড়ে যাওয়া খেটে খাওয়া মানুষের শোষণহীন উচ্চনীচ ভেদাভেদহীন সমাজ স্থাপনের ইতিহাস।
অথচ কী আশ্চর্য, দেশভাগ পরবর্তী আন্দামানে বাঙালি পুনর্বাসনের ইতিহাস বইয়ের ভাণ্ডারে নগন্য! সেই খড়ের গাদায় সুঁচের মতো একখানি বই এই ”আন্দামানে পুনর্বাসন: এক বাঙাল অফিসরের ডায়েরি”। আর এটি লিখেছেন এমন একজন বাঙাল অফিসার, এই সম্পূর্ণ প্রক্রিয়ায় যাঁর রয়েছে গুরুত্বপূর্ণ প্রত্যক্ষ অংশগ্রহণ এবং যিনি নিজেই একজন উদ্বাস্তু! হয়তো দেশভাগের বেদনা আন্তরিকভাবে উপলব্ধি করতে পেরেছিলেন বলেই ১৫ বছর অক্লান্ত পরিশ্রম করে, জঙ্গল সাফ করে, সমস্ত প্রতিকূলতাকে জয় করে তিনি উদ্বাস্তুদের জীবনকে সুখময় করে দিতে পেরেছিলেন। কয়েক বছর আগেই যে দ্বীপ ছিলো ‘সভ্য’ মানুষ বিবর্জিত, যে দ্বীপান্তর ছিলো মৃত্যুদণ্ডসম শাস্তি, সেই দ্বীপ হয়ে উঠলো সুখের শান্তির দ্বীপ। পৃথিবীর আর কোনো শরণার্থী সংকট এরকম শান্তির হয়েছে বলে আমার জানা নেই। অথচ এ নিয়ে লেখা হলো না তেমন। এ বইয়ের সূত্রেই আরেকটা বইয়ের নাম পাই, ড. স্বপনকুমার বিশ্বাস প্রণীত ‘কলোনাইজেসন অ্যান্ড রিহ্যাবিলিটেশনস ইন আন্দামান অ্যান্ড নিকোবর আইল্যান্ডস’ নামে। কিন্তেু সে বই পড়ার সুযোগ হয়নি এখনও।
এ বই যে তবু পড়ার সুযোগ হলো, তাও এক ঘটনা বটে। দেশভাগ নিয়ে যারাই পড়েন, Madhumay Pal নামটা কারোই অচেনা বা অজানা না। মরিচঝাঁপির মর্মান্তিক ইতিহাসও তাঁর মাধ্যমেই জানতে পেরেছিলাম। তিনিই একটা বই সম্পাদনা করছিলেন ‘দেশভাগ: বিনাশ ও বিনির্মাণ’ নামে। আর সেখানে আন্দামানে উদ্বাস্তু পুনর্বাসনের একটি অধ্যায় সংযোজনের চিন্তা এলো তাঁর মাথায়। কিন্তু লিখবেন কে? তখনই নাম আসে বিকাশ চক্রবর্তীর। আর সেই সুবাদেই লেখা হয় মাত্র ৭২ পাতার এই বই। কলেবর সামান্য হলেও, লেখায় সাহিত্যের মাধুর্য না থাকলেও বিকাশ চক্রবর্তীর “আন্দামানে পুনর্বাসন: এক বাঙাল অফিসারের ডায়েরি” ইতিহাসের অন্যতম গুরুত্বপূর্ণ এক বই। যা প্রকাশ করেছে গাঙচিল।
Sunday, October 26, 2025
साहित्यकार की आँखें क्यों नहीं हैं?
साहित्यकार की आँखें क्यों नहीं हैं?
पलाश विश्वास
हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार Ashok Bhatia जी ने #उत्तराखंड के 36 कथाकारों की 72 लघुकथाओं के संग्रह का संपादन किया है। वे लघुकथा विधा पर चार दशकों से महत्वपूर्ण काम कर रहे है। इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर #सृजन_पुस्तकालय में Usha Tamta और उनकी टीम क्रिएटिव उत्तराखंड की ओर से लघुकथा और साहित्य पर सार्थक गोष्ठी हुई।
सूरज प्रकाश, राजकुमार गौतम, हरि मृदुल, महावीर rawanlta, कस्तूरी लाल तागरा,आशा शैली, हरि मृदुल, सुरेश उनियाल,किरण अग्रवाल जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ उत्तराखंड के युवा कथाकारों की लघुकथाएं का सालन और उस पर केंदित संगोष्ठी में प्रेरणा अंशु अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz परिवार की भी भागीदारी रही।
गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि शैलेय ने की और संचालन युवा कवि डॉ खेम करम सोमन ने की।
ऐसे कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए। आयोजकों का आभार।
अशोक जी से मुलाकात बेहद सुखद रही है।इससे पहले दो बार कार्यक्रम बनाकर भी वे आ नहीं सके। अनेक पुराने मित्रों से मुलाकात हो गई। कुमायूंनी पत्रिका के संपादक खड़क सिंह रावत से पांच दशक बाद मुलाकात हुई। वे एक बहुत महत्वपूर्ण अखबार हिलांस निकालते थे और हम लोग नैनीताल समाचार। अल्मोड़ा से शक्ति, अल्मोड़ा अखबार और समता का प्रकाशन होता था।
उत्तराखंड के कोने कोने से जनता की आवाज बुलंद करने वाले अखबारों में से नैनीताल समाचार के अलावा और कौन अखबार छप रहा है,मुझे नहीं मालूम। जिन साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से नैनीताल समाचार से परिचय हुआ,उनसे संबंध हमेशा बने हुए हैं।
लेकिन जनसत्ता की चौथाई सदी के संबंध उतने टिकाऊ साबित नहीं हुए।क्यों?
1979 में हम केवल कृष्ण ढल संपादित साप्ताहिक अखबार लघु भारत में भी थे,जो सितारगंज से नियमित प्रकाशित होता था। चार पेज के अखबार में एक तो कभी दो पेज साहित्य का होता था। इस अखबार से अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर और उपेंद्रनाथ अश्क जी से हमारा नियमित पत्र व्यवहार होता रहा है। यह संबंध उनके पूरे जीवनकाल में चला।
केवल कृष्ण ढल नैनीताल समाचार के स्थाई स्तंभ पावन राकेश के भाई हैं। उनके भाई राकेश जीआईसी नैनीताल और डीएसबी कॉलेज में हमारे सहपाठी थे। इनकी दीदी हैं आशा शैली। केवल को गए अरसा बीता।लघु भारत के समय आशा दीदी हिमाचल के रामपुर बुशहर में रहती थीं और अक्सर लिफाफे में रुपए भेजती थीं। आज अस्सी पार होने के बाद भी उनकी सक्रियता देखते ही बनती है।
याद आए नागर जी, विष्णु प्रभाकर जी, अश्क जी, Annada shankar ray ji, Nirad c Chowdhari, Dr Ashok Mitra, Mahashweta Devi, शेखर जोशी, महादेवी वर्मा, विष्णुचंद्र शर्मा, विद्यासागर नौटियाल जैसे साहित्यकार जो साहित्य,संवाद के सेतु रहे हैं।
अब भी ममता कालिया, सुधा अरोड़ा, नीलम कुलश्रेष्ठ, नासिरा शर्मा,सूर्यबाला जैसी वरिष्ठ लेखिकाओं की सक्रियता और प्रतिबद्धता देखते ही बनती है।
लिखना सामाजिक जिम्मेदारी है। साहित्य सामाजिक उत्पाद है तो साहित्यकारों की सामाजिकता और समाज व समय के प्रति उनके उत्तरदायित्व, उनकी प्रतिबद्धता पर इतने सवाल क्यों उठते हैं?
एक आम पाठक की हैसियत से यह हमारी जिज्ञासा है।
इन दिनों विष्णु प्रभाकर जी का लिखा आवारा मसीहा पढ़ रहा हूं। शरत साहित्य से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी पीड़ा, उनका संघर्ष और उनकी रचना प्रक्रिया।
लिखने की निरंतरता के साथ संघर्ष और संवेदना, संयम, सामाजिकता और दृष्टि का अभाव क्यों है?
Friday, October 24, 2025
, Citizenship Act 1955 is only solution
*SIR/NRC: উদ্বাস্তুদের বেলায় একটি সমস্যার মূলতঃ (দুই ধরনের) দুটি সমাধান সামনে হাজির হয়েছে। ভুক্তভোগীরা কোন্ দিকে যাবেন?*
আগামীকাল, কলকাতায় ১৬টি নাগরিক সংগঠনের উদ্যোগে SIR বিরোধী কর্মসূচি পালিত হবে। এঁদের শ্লোগান, “কাগজ আমরা দেখাবো না”। এবং এঁদের ব্যাখ্যা হলো সরকার SIR এর মাধ্যমে NRC করার ষড়যন্ত্র করছে।
কাকতালীয়ভাবে, একই সময়ে ইউনিয়ন সরকারের পরিচালক বিজেপি গোটা রাজ্য জুড়ে CAA ক্যাম্প লাগানোর কর্মসূচি ঘোষণা করেছে। হাজারের উপর ক্যাম্প খোলা হবে। সেখানে উদ্বাস্তু লোকজনকে উৎসাহিত করে ক্যাম্পে নিয়ে এসে CAA-তে আবেদন করাবেন। চলবে ৩১ অক্টোবর পর্যন্ত।
যাঁরা আগামীকাল কলকাতায় জড়ো হচ্ছেন তাঁদের উদ্যোক্তারা চান SIR সহ NRC-র সাথে সংশ্লিষ্ট সমস্ত CAA অর্থাৎ নাগরিকত্ব আইনের সমস্ত সংশোধনীগুলো প্রত্যাহার করা হোক। এবং, মূল নাগরিকত্ব আইন-CA1955 ফিরিয়ে আনা হোক।
আর বিজেপি উর্দ্ধতন কর্তৃপক্ষের বক্তব্য, বিদেশি অনুপ্রবেশকারী-মুক্ত ভারত গড়তে প্রত্যেক ভারতবাসীকে নাগরিকত্বের পরীক্ষায় বসতে হবে। এই পরীক্ষায় উত্তীর্ণদের নিয়ে জাতীয় নাগরিক নিবন্ধন ( NRC ) প্রস্তুত করা হবে। সেক্ষেত্রে, সমস্ত অ-মুসলিম শরণার্থীদের ভারতীয় নাগরিকত্ব প্রদানের আইনি ব্যবস্থা করা হয়েছে। সেটা হলো CAA-2019— যা হলো ভারতের সর্বশেষ সংশোধিত নাগরিকত্ব আইন।
প্রকৃত ঘটনা হল, একদিকে—
যাঁরা কাগজ দেখাবেন না এবং এই সব প্রকল্পকে প্রতিরোধ করবেন বলে জনমত তৈরি করছেন তাঁদের চিন্তা এবং কাজে এই সুবিপুল ছিন্নমূল জনসমুদায়ের স্পষ্ট ছাপ রয়েছে বলে মনে হয় না।
অন্যদিকে—- উদ্বাস্তু আন্দোলনের নেতাদের ভাবনা ও বাস্তব পদক্ষেপে সারা দেশের গরিব, নিরক্ষর মানুষের কাগজহীনতা জনিত বেনাগরিক হয়ে পড়ার বিষয়টি আদৌ প্রাধান্য পেয়েছে বলেও মনে হয় না।
কিন্তু, মূল সমস্যা তো একটিই— দেশের অধিবাসীদের একাংশের নাগরিকত্ব কেড়ে নেওয়া বা নাগরিকত্বের প্রাপ্য অধিকার থেকে বঞ্চিত করা। এককথায় বললে SIR/NRC হল সমস্যাটির সাধারণ উৎস। সুতরাং সমাধানও নিশ্চয়ই একই ধরনের হবে। তাই কিনা?
এখানে একটা যুক্তিসঙ্গত প্রশ্ন তোলা যায়। তা হলো ভুক্তভোগীরা কি ভাবছেন। তাঁরা কোন্ পক্ষে?
আরও একবার এই প্রশ্নের উত্তর পেতে একটু অপেক্ষা করলেই হবে। আগামীকালের কলকাতার প্রগ্রামে কি হয় দেখা যাক। এবং আগামী কয়েক দিনের CAA ক্যাম্পের ফলাফলও দেখা যাক।
তবে, আমার মনে হয় আরও কয়েকটি রাজ্যে SIR বা NPR অথবা একলাফে সারা দেশে NRC হলে পরে বড় ধরনের গণ-আন্দোলন দেখা দেবে। এবং সেই আন্দোলনের শরিক হবেন উদ্বাস্তু জনতা। আগের প্রচারের ধারাবাহিকতায় বিজেপির উদ্বাস্তু সেলের নেতারাই তাঁদের পুরনো দাবিতে ফিরে যাবেন। এবং নিঃশর্ত নাগরিকত্বের দাবিতে শক্তিশালী আন্দোলন গড়ে তুলবেন। অর্থাৎ CAA- ক্যাম্প ডাহা ফেল করবে। এবং এই ফলাফলই বলে দেবে বাংলাভাগের শিকার ছিন্নমূল মানুষেরা কোন্ পক্ষে।
नमोशुद्र आंदोलन भारत का नवजागरण
भारत का नवजागरण, नमोशुद्र आंदोलन
पलाश विश्वास
भारत में नवजागरण दलित नवजागरण था, जिसकी बुनियाद जल,जमीन और जंगल, नागरिक मानव अधिकार, अस्मिता और आत्मसम्मान के मुद्दों में थी। इसका आधार दलितों में व्यापक शिक्षा आंदोलन था। भारत के आदिवासी किसान आंदोलनों की विरासत से यह जुड़ा है, जो जाति आधारित मनुस्मृति की व्यवस्था, पुरोहित तंत्र, अस्पृश्यता के खिलाफ समानता और न्याय का आंदोलन था। यह कोई समाज सुधार आंदोलन न था,जो ब्रिटिश संरक्षण में चला।बल्कि यह आंदोलन राजसत्ता और धर्म सत्ता दोनों के खिलाफ था।
इस पर शेखर बंदोपाध्याय का बहुचर्चित पुस्तक है, जो शोधात्मक तो है, लेकिन इतिहास नहीं है। इस आंदोलन की चर्चा बंगाल से बाहर बहुत कम हुई है। अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु और पेरियार के आंदोलनों से बहुत पहले दो सौ साल पहले यह अंडों उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ। लेकिन बीसवीं सदी में इस आंदोलन का चरित्र राजसत्ता और धर्मसत्ता से अनुकूलित हो गया।
Sekhar Bandyopadhyay's work on the Namasudra movement focuses on the history of this untouchable caste in colonial Bengal, particularly in his book, Caste, Protest and Identity in Colonial India: The Namasudras of Bengal, 1872–1947. He analyzes their struggles for social and political recognition, the internal differentiation and changing aspirations within the community, and their eventual, complex relationship with Hindu nationalism and the Partition of India.
बंगाल के दलितों और खासतौर पर नमोशुद्रों को भारत विभाजन के जरिए बंगाल से खदेड़ने, उन्हें छिन्नमूल बना दिए जाने और उनकी मातृभाषा, इतिहास, भूगोल, नागरिकता, संस्कृति, विरासत, सामाजिक,राजनीतिक हैसियत खत्म कर दिए जाने से इस आंदोलन का भगवाकरण हो गया,भारत में समता और न्याय, जल जंगल जमीन के आंदोलनों के भगवाकरण की तरह।
इस आंदोलन को समझे बिना भारत के विस्थापितों की समस्या और उनके सफाए के इंतजाम को समझा नहीं जा सकता। अंबेडकर ने 1916 में अपना आंदोलन शुरू किया,लेकिन इससे पहले नमोशुद्र आंदोलन के फलस्वरूप 1911 में ही बंगाल में नमोशुद्र आंदोलन के कारण अस्पृश्यता निषिद्ध हो गई।
उन्नीसवीं सदी के हरिचांद ठाकुर के मतुआ आंदोलन के बारह सूत्री अनुशासन और आज्ञा पुरोहित तंत्र और अस्पृश्यता, जाति आधारित भेदभाव, कर्मकांड और पाखंड के खिलाफ गृहस्थ धर्म पर केंद्रित है। जिसमें शिक्षा और जमीन के अधिकार मुख्य है।
कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर इस आंदोलन के समर्थक थे।
1920 में हुए नमोशुद्र सम्मेलन में उन्होंने भाग लिया था।
पहली ‘आम हड़ताल’
तब नमोशुद्रों को चांडाल कहा जाता था और उनकी जनगणना में गिनती अलग होती थी।
फॉरवर्ड प्रेस के अनुसार:
ऊँची जातियों के दमनचक्र और शोषण ने चांडालों को उन्हें सताने वालों के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया। फरीदपुर के जिला मजिस्ट्रेट सीए कैली ने 8 अप्रैल, 1873 को ढाका के संभागीय आयुक्त को चिट्ठी लिखकर सूचित किया कि उस साल चांडालों ने ”जिले में आम हड़ताल की और यह निर्णय किया कि वे उच्च वर्ग के किसी भी सदस्य की किसी भी हैसियत से सेवा नहीं करेंगे, जब तक कि उन्हें हिंदू जातियों में उससे बेहतर स्थान प्राप्त न हो जाए, जो उन्हें वर्तमान में प्राप्त है।”
एक समकालीन इतिहासविद ने इस हड़ताल को ऊँची जातियों का सामाजिक बहिष्कार निरूपित किया। चांडालों ने तय किया कि वे न तो ऊँची जातियों के लोगों की ज़मीनें जोतेंगे और ना ही उनके घरों की छतों को फुंस से ढकेंगे। यह हड़ताल चार से पांच महीने चली। यह भारत की पहली ऐसी आम हड़ताल थी, जिसके संबंध में आधिकारिक अभिलेख उपलब्ध हैं। अन्य जिलों जैसे बारीसाल, ढाका, जैसोर, मैमनसिंह व सिलहट के चांडालों ने भी फरीदपुर के अपने साथियों से हाथ मिला लिया। सन 1871 की जनगणना के अनुसार, बंगाल में 16,20,545 चांडाल थे।
इन पांच विशाल जिलों के हड़ताली चांडालों की संख्या 11,91,204 (कुल आबादी का 74 प्रतिशत) थी। भद्रलोक (ब्राह्मणों, बैद्यों और कायस्थों का जाति सिंडीकेट) को निशाना बनाने वाली इस विशाल हड़ताल की सफलता, निरक्षर चांडालों की संगठनात्मक और परस्पर एकता कायम करने की क्षमता की द्योतक थी।
चांडालों ने यह संकल्प किया कि वे शिक्षा के ज़रिए अपनी सामाजिक हैसियत में सुधार लायेंगे और अपना विकास करेंगे। इस सामाजिक-शैक्षणिक आंदोलन के केंद्र, फरीदपुर के चांडालों की शैक्षणिक स्थिति दयनीय थी। ऊँची जातियां, पददलित वर्गों को किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने देने के सख्त खिलाफ थीं। ब्राह्मण और कायस्थ यह मानते थे कि शिक्षा उनकी बपौती है। चांडाल और मुसलमान इस पूर्वग्रह के सबसे बड़े शिकार थे। फरीदपुर में 1,56,000 चांडाल रहते थे परंतु केवल 200 चांडाल बच्चे स्कूल जाते थे।
हरिचांद ठाकुर (1812-1877) व उनके प्रतिभाशाली पुत्र गुरू चांद ठाकुर (1847-1937) ने इस निरक्षर व अज्ञानी समुदाय को शिक्षित करना अपना मिशन बनाया। हरी चंद ठाकुर ने मातुआ पंथ की स्थापना की, जो कापाली, पोंड्रा, मालो व मूची जातियों में बहुत लोकप्रिय हुआ। दोनों ने पिछड़ों की उन्नति के लिए शिक्षा को एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किए जाने पर ज़ोर दिया। इस सामाजिक न्याय आंदोलन को आस्ट्रेलियाई बैप्टिस्ट मिशनरी डॉ. सीएस मीड ने अपना पूरा सहयोग और समर्थन दिया।
फरीदपुर जिले में ठाकुर के पैतृक गांव ओड़ाकांदी में नामशूद्र, अंग्रेजी माध्यम का स्कूल खोलना चाहते थे ताकि निरक्षर व अज्ञानी किसानों को लगान और ऋण चुकाने में उच्च जातियों के ज़मींदारों और साहूकारों द्वारा उनके साथ की जा रही धोखाधड़ी से उन्हें बचाया जा सके। इस प्रस्ताव का स्थानीय ऊँची जातियों
सके। इस प्रस्ताव का स्थानीय ऊँची जातियों के कायस्थों ने कड़ा विरोध किया क्योंकि उन्हें डर था कि शिक्षित हो जाने के बाद, बटाई पर खेती करने वाले किसान और उनके सेवक काम नहीं करेंगे। भद्रलोकों के विरोध के चलते, गुरूचंद ठाकुर ने डॉ. मीड से सहायता मांगी। मीड ने उन्हें न केवल स्कूल के लिए आर्थिक मदद उपलब्ध करवाई वरन अंग्रेज़ अफसरों से उनका परिचय भी करवाया। यह नमोशूद्रों के सशक्तिकरण की ओर एक प्रभावी कदम था।
डॉ. आंबेडकर को संविधान सभा का सदस्य बनाने को लगा दिया एड़ी-चोटी का जोर
भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों, जातियों और स्त्रियों के लिए जो संवैधानिक प्रावधान किए गए, अगर आंबेडकर न होते तो क्या वे संभव थे?
डॉ. आंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाने का श्रेय जोगेंद्रनाथ मंडल को ही जाता है। उनका मानना था कि अगर डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में नहीं गए तो दलित समाज को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। दरअसल, उस समय अनेक लोग चाहते थे कि डॉ. आंबेडकर को संविधान सभा में जगह नहीं मिले। इसके लिए तमाम प्रपंच किए जा रहेथे। इस संदर्भ में दिलीप गायेन ने जोगेंद्रनाथ मंडल के प्रयासों के बारे में लिखा है कि उस समय के बंगाल में सुहरावर्दी सरकार सत्ता में थी। उनके अनुसूचित जाति के विधायकों को लेकर साहस के साथ जोगेंद्रनाथ मंडल आगे बढ़े थे। बंगाल से डॉ. आंबेडकर को खड़ा कर उन्हें संविधान सभा का सदस्य बनाया गया था। उन्हें कांग्रेस के दो एमएलए गयानाथ बिस्वास और द्वारिकानाथ राय, निर्दलीय मुकुंद बिहारी मल्लिक, रंगपुर के क्षत्रिय समिति के नागेंद्रनारायण राय और अनुसूचित जाति फेडरेशन के एकमात्र एमएलए जोगेंद्रनाथ मंडल ने वोट दिया।
विडंबना यह है कि बंगाल के जिन दलितों ने आंबेडकर को संविधानसभा में पहुंचाने की कीमत बंगाल के इतिहास भूगोल,मातृभाषा, जल जंगल जमीन ,नागरिकता और मानवाधिकारों से बेदखली के रूप में चुकाया, उनके लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है और न कोई कानूनी ढांचा उनके लिए है।वे अब भी विदेशी कानून के दायरे में कैद बंधुआ वोट बैंक बनकर सत्तादकों की अनुकम्पा से जीते मरते हैं।
विडंबना है कि इतिहास हमें बताता है कि समाज सुधार आंदोलन और सामाजिक न्याय के संघर्ष, एक दूसरे के पूरक नहीं होते बल्कि वे परस्पर-विरोधी और असंगत होते हैं। औपनिवेशिक बंगाल में 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक सुधार और सामाजिक न्याय के आंदोलन एक-दूसरे के समानांतर चले। जहां सामाजिक सुधार आंदोलन का उद्देश्य ऊँची जातियों के घिसे-पिटे दकियानूसी कर्मकांडों और परंपराओं जैसे सती, बहुपत्नी प्रथा, भारी-भरकम दहेज़, बाल-विवाह, बच्चों को गंगा सागर में फेंकना, अंतरजली यात्रा इत्यादि को उखाड़ फेंकना था, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन का लक्ष्य अशिक्षा का नाश और समाज के निचले वर्गों में मानवीय गरिमा की अलख जगाना था। जहां सामाजिक सुधार आंदोलनों की भारतीय इतिहासविदों ने भूरी-भूरी प्रशंसा की, वहीं सामाजिक न्याय आंदोलन को इतिहास के अंधेरे में गुम हो जाने दिया।
इस आंदोलन पर अभी सिलसिलेवार कम करने की जरूरत है। कौन करेगा?
The Namasudra movement was a socio-religious and political movement of the Namasudra (formerly Chandal) people of Bengal, primarily in the late 19th and early 20th centuries, that sought to challenge social discrimination, gain dignity, and secure education and political power. Key components included early protests against oppressive practices, such as the 1872-73 strike over forced labor, and the development of a community identity through the Matua religion founded by Harichand Thakur and developed by his son Guruchand Thakur.
Key aspects of the movement
Social and political origins: The movement arose from centuries of social inequality and economic hardship faced by the Namasudras, who were treated as "untouchables".
Early protest: A major early event was the "general strike" of 1872-73, where Namasudras protested being forced to perform conservancy services in jails while other castes were exempt. This strike lasted for several months and pressured authorities to take action against mistreatment. and a spiritual foundation for their struggles.
Goals: The movement's objectives evolved over time, shifting from seeking equal status to focusing on concrete goals like acquiring education, securing employment, achieving economic prosperity, and gaining political representation.
Education movement: Under Guruchand Thakur, the movement launched a specific drive for education among the Namasudras, who had little to no access to educational institutions at the time.
Political organization: The Namasudras began to form their own political organizations and caste associations, successfully influencing government policies and gaining sympathetic support, as seen in the Poona Pact of 1932.
Terminology: The term "Namasudra" gained official recognition in the 1911 census, solidifying the community's identity and paving the way for further political mobilization.
The Matua Movement: The socio-religious and political awakening of the community was strongly influenced by the Matua movement, which was founded by Harichand Thakur and guided by his son Guruchand Thakur. The Matua faith provided the Namasudras with a strong sense of community, self-respect, and a spiritual foundation for their struggles.
Key aspects of Bandyopadhyay's analysis:
Identity formation: Bandyopadhyay examines how the Namasudras developed a shared identity due to oppression and marginalization, using the Matua sect, founded by Harichand Thakur, as a key example of resistance and a new spiritual identity.
Caste consciousness: He highlights the varied levels of consciousness and aspirations within the Namasudra movement, noting that despite a shared identity, different goals and ideologies coexisted.
Political engagement: The movement's political trajectory is analyzed, including its involvement in anti-colonial movements and the significant role of leaders like Jogendranath Mandal.
Integration with dominant hegemony: Bandyopadhyay critically discusses the Namasudras' gradual alignment with upper-caste ideologies, which complicated their relationship with the anti-colonial movement.
Internal differentiation: A key point of his work is recognizing the internal differentiation within the Namasudra community, which shaped its responses to social and political changes.
https://www.amazon.in/Caste-Protest-Identity-Colonial-India/dp/0198075960
By Shekhar Bandopadhyay
संदर्भ:
https://www.forwardpress.in/2016/11/bangal-ka-vismrit-namshudr-aandolan/
https://www.forwardpress.in/2021/01/remembering-jogendranath-mandal-hindi/#:~:text=%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%A8%2011%20%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82%E0%A4%AC%E0%A4%B0%2C%201948%20%E0%A4%95%E0%A5%8B,%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B2'%2C%20%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%95%20%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B6%20%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%20%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B2
नरसंहार के पक्ष में क्यों लिखा जाता है संपादकीय
#संपादकीय_को_ क्या_ हुआ?
#संपादकों के सफाए के बाद कैसा संपादकीय?
नरसंहार के समर्थन में लिखे जा रहे हैं संपादकीय।
मेरे चाचाजी छोटोकाका #डॉ_सुधीर_विश्वास ने हमें बताया बताया था कि सबसे महत्वपूर्ण होता है संपादकीय। पत्र पत्रिका की नीतियों के मुताबिक सबसे महत्वपूर्ण और प्रासंगिक मुद्दे पर लिखा जाता है संपादकीय।संपादकीय अखबार का पक्ष होता है।उसका स्टैंड।
पिताजी #पुलिनबाबू की सख्त हिदायत थी कि संपादकीय जरूर पढ़ना चाहिए।हमारे लिए रवींद्र, नजरुल की कविताओं और बंकिम शरत के उपन्यासों, विश्व के क्लासिक साहित्य से ज्यादा महत्वपूर्ण था पत्र पत्रिकाओं का संपादकीय।
तब हम प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे।घर में बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी के अलावा मराठी पत्र पत्रिकाएं आती थी।जैसे हम बांग्ला, अंग्रेजी और हिंदी की कविताओं का सस्वर,भावपूर्ण पाठ करते थे, ठीक वैसे ही पत्र पत्रिकाओं के संपादकीय का पाठ करना होता था।
जब हमने 1980 में धनबाद के दैनिक आवाज के संपादकीय में कम शुरू किया तब गुरुजी ब्रह्मदेव सिंह शर्मा ने कहा कि संपादन तो कोई भी कर लेगा, रिपोर्टिंग भी हो जाती है,लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है संपादकीय लिखना। वे मुझसे संपादकीय लिखवाते थे।
महाश्वेता देवी कहती थी, पत्र पत्रिकाएं चूंकि जनता के पक्ष में होती हैं,तो उनका पक्ष भी जनता का पक्ष होना चाहिए।इसलिए पत्रकारिता का चरित्र सत्ता विरोधी होता है।
कोलकाता में जब जनसत्ता निकलता था, तब भी संपादकीय पेज चार साथी देखते थे। जबकि पेज दिल्ली से बनकर आता था।
Chaturved Arvind और राजेश त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ लोगों को दिनभर दिल्ली के संपादकीय पेज का संपादन करना होता था।
#प्रभाष_जोशी जब कोलकाता में होते थे, संपादकीय या #कागद_कारे लिखने से पहले सभी मुद्दों पर संपादकीय बैठक में संवाद करते थे।
आज क्या हो रहा है?
पहले न्यूज एडिटर संवादाताओं को असाइनमेंट देते थे।अमृत प्रभात में माथुर जी और जनसत्ता में #अमित_प्रकाश_सिंह बहुत मुस्तैदी से यह कम करते थे।
अब संपादक मैनेजर की भूमिका में हैं और विज्ञापन प्रबंधक संपादक हैं। असाइनमेंट विज्ञापन प्रबंधक तय करते हैं और संपादकीय भी विज्ञापनों के मद्देनजर लिखा जाता है।
पत्र पत्रिका का चरित्र अब सत्ता समर्थक हो गया है।राजकाज की किसी तरह की आलोचना नहीं होती। सरकारी नीतियों को जायज ठहराने के लिए लिखा जाता है यह संपादकीय।
घृणा, हिंसा, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ पहले संपादकीय लिखा जाता था, सरकारी नीतियों की समीक्षा, आलोचना और विरोध पर भी संपादकीय लिखे जाते थे। लेकिन अब घृणा, हिंसा, दमन और उत्पीड़न का महिमा मंडन राष्ट्रवाद के नाम किया जाता है।
विदेशी मामलों में यह राष्ट्रवाद सिरे से गायब हो जाता है।राष्ट्रीय हित के विरुद्ध विदेश नीति को सही ठहराया जाता है।सरकारी फैसलों और नीतियों में बदलाव के साथ वैदर कॉक की तरह हर नीति और फैसले के मुताबिक संपादकीय लिखा जाता है।
टैरिफ के मामले में ट्रंप के बदलते तेवर के बावजूद अमेरिकी हितों की परवाह यानी कॉरपोरेट हितों के मद्देनजर संपादकीय लिखा जाता है। रूस से तेल खरीदते रहने की नीति के पक्ष में जैसे लिखा गया, न खरीदने के पक्ष में भी उसी तरह लिखा जाता है।
गाजा में नरसंहार को जायज ठहराने वाले संपादकीय और संपादकीय पेज के लेखों का क्या कहेंगे?
आस्था,धर्म और धार्मिक एजेंडे की राजनीति और राजकाज का समर्थन तो सर्वत्र है।
जल जंगल जमीन से बेदखली के समर्थन से भी किसी को शर्म नहीं आती।
हमारे लिए लेकिन यह शर्मनाक है क्योंकि हम इन्हीं अखबारों में जिंदगी गुजार चुके हैं। जनसत्ता में जब सती प्रथा का समर्थन, कर्मकांड पर संपादकीय लेख लिखे गए, उस दौर में भी हममें से अनेक लोगों ने जनसत्ता में रहते हुए विरोध किया। बनवारी और प्रभाष जोशी की सार्वजनिक आलोचना की और इसकी कीमत भी चुकाई।
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मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha
হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!
मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड
Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!
हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।
In conversation with Palash Biswas
Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg
Save the Universities!
RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!
जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।
#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি
अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास
ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?
Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION!
Published on Mar 19, 2013
The Himalayan Voice
Cambridge, Massachusetts
United States of America
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Download Bengali Fonts to read Bengali
Imminent Massive earthquake in the Himalayas
Palash Biswas on Citizenship Amendment Act
Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003
Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003
http://youtu.be/zGDfsLzxTXo
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA
THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today.
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program
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By JIM YARDLEY
http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR
Published on 10 Apr 2013
Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya.
http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk
THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP
[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also.
He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM
Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia.
http://youtu.be/lD2_V7CB2Is
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk



























