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Tuesday, December 13, 2016

ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में जीने मरने को अभिशप्त हैं। हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे? पलाश विश्वास


ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में  जीने मरने को अभिशप्त हैं।

हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे?

पलाश विश्वास

पिछले जाड़ों में भी इन दिनों शाम ढलने से पहले हम रोजाना मुंबई रोड स्थित एक्सप्रेस भवन के लिए रवाना हो जाते थे।देर रात घर वापस लौटते थे।यह शाम को घर से निकल जाना और देर रात वापस हो जाना करीब 36 साल तक चलता रहा है।उससे भी पहले 1973 से 1979 तक नैनीताल के मालरोड पर हमारी शाम बीतती थी और बर्फवारी हो या घमासान बारिश माल रोड में तल्ली मल्ली नैनीताल समाचार होकर देर रात तक हम दोस्तों के साथ होते थे।उससे भी पहले बचपन में हमारे लिए अकेले घिर जाने का कोई मौका नहीं था।

हमें अपने दफ्तर से रिटायर हो जाने से पहले कभी तन्हाई का अहसास ही नहीं हुआ।हम हमेशा मित्रों से घिरे रहने वाले प्राणी रहे हैं।घर में सविताबाबू हैं और मेरा कंप्यूटर है।टीवी मैं बहुत कम देख पाता हूं।

ऐसी घमासान तन्हाई होती है जिंदगी में छह सात महीने में इसका अहसास खूब हो गया है।मैंने बूढ़ाते हुए भी बचपन का दामन कसकर पकड़ा हुआ था और डीएसबी के मेरे ठहाकों का सिलसिला एक्सप्रेस भवन तक जारी रहा है।पिछले छह सात महीने में मैं एकबार भी ठहाका लगा नहीं सका,खुलकर खिलखिला नहीं सका।

हम नहीं जानते कि इस देश में हमारे राष्ट्रीय नेता खुलकर कभी ठहाके लगाते भी हैं या नहीं या वे हंसते भी हैं या नहीं।

कामरेड ज्योति बसु हंसते नहीं थे,यह किस्सा मशहूर है।

हालांकि ममता दीदी मुख्यमंत्री बनने के बाद मुस्कुराने भी लगी हैं।

डा.मनमोहन सिंह को हमने कभी हंसते हुए नहीं देखा।

बाकी लोग तो चीखते या दहाड़ते नजर आते हैं।

जो लोग हंस नहीं सकते,उन्हें दूसरों की हंसी की क्या परवाह होगी।

राजनीति अब आम जनता की हंसी छीन रही है।

राजनीति को सिर्फ आम लोगों की चीखों में अपनी जीत नजर आती है।

इस मुक्त बाजार में जिंदगी की मुस्कान सिरे से गायब है।हम नहीं जानते कि कुल कितने लोगों की इसकी परवाह है।

नोटबंदी से लोग कालाधन निकलने की उम्मीद में थे।लोगों को लगा कालाधन वाले बुरी तरह फंसे हैं और आगे सावन ही सावन है।उन्हें लगा कि अब क्रांति हो ही गयी है।उन्हें लगा ऐसा साहसी और ईमानदार छप्पन इंच का सीना इतिहास में कही दर्ज नहीं हुआ।

पढ़े लिखे मर्दों को सबस मजा इस बात को लेकर आया कि घर की महिलाओं का खजाना सार्वजनिक हो गया।

किसी ने नहीं सोचा कि घर में कैद इन औरतों को उनके श्रम और निष्ठा के बदले में हम कितनी आजादी और कितनी खुशी देते हैं।

ये वे औरते हैं जो आस पड़ोस के हाट बाजार में शौक से जाती हैं और एक एक पैसे के लिए मोलभाव करती हैं।यही मोलभाव उनका सार्वजनिक संवाद है।आजादी है।

औरतों की शापिंग के किस्से अलग हैं।

जिनमें हम उनकी हंसी,उनकी आजादी और उनके संवाद देखते नहीं हैं।

नोटबंदी ने इस देश में अपने घर में कैद करोड़ों स्त्रियों की खुशी और आजादी छीन ली है।डिजिटल लेनदेन में संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।

मैंने छत्तीस साल तक पेशेवर नौकरी की है तो सिर्फ संवादहीन हो जाने से मेरा यह हाल है।

अचानक बूढ़ा हो गया हूं।बूढाने की उम्र भी हो चुकी है,जाहिर है।जबकि मैं सामाजिक गतिविधियों में बचपन से अपने पिता से नत्थी रहा हूं।पत्ररकारिता को भी मैंने सामाजिक सक्रियता बतौर जिया है।यह न नौकरी रही है न यह मेरा कैरियर है।मेरे साथ काम करने वाले जानते हैं कि काम को मैंने कभी बोझ नहीं समझा।अपनी मौज में काम करने की मेरी आदत पुरानी है।वह मौज खत्म है।

बेरोजगारी और शून्य आय की स्थितियों का सामना करते करते मैं सचमुच बूढ़ा हो गया हूं।मैं अपने आस पास तमाम लड़के लड़कियों को देखता हूं जो हमारी तरह झुंड में चलते हैं।हमारे साथ लड़कियां नहीं होती थीं।लड़कियों का झुंड अलग होता था। हालांकि स्कूल कालेज में हमारे साथ लड़कियां जरुर होती थीं,लेकिन उनसे संवाद की कोई स्थिति नहीं बन पाती थी।

देश ने अगर सचमुच तरक्की की है तो मेरे नजरिये से यह तरक्की आज की लड़कियों का अपने इर्द गिर्द चहारदीवारी तोड़ना है और हर क्षेत्र में उनकी सशक्त और सार्थक हिस्सेदारी है।

हम लोगों ने छात्र जीवन में कभी कैरियर नौकरी के बारे में सोचा नहीं था।हम पत्रकारिता,साहित्य और रंगकर्म के रंगों से रंगे हुए थे और हमें कुछ सोचने की फुरसत ही नहीं थी।हम कभी भी कहीं भी गिरदा की तरह झोला उठाकर चल देने की तैयारी में रहते थे।जिनका पत्रकारिता,साहित्य या रंगकर्म से नाता नहीं था,वे भी सूचना और जानकारी की कमी के बावजूद बुनियादी मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं से जूझते थे।वे भी हमारी तरह बदलाव के ख्वाब देखते थे और देशभर में वे थे।जिनसे फेसबुक के बिना,मोबाइल के बिना हम तमाम लोगों का निरंतर संवाद जारी रहता था।

आज भी सामाजिक सरोकार और बुनियादी मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं से आमना सामना करने वाले छात्र कम नहीं हैं बल्कि उनके साथ बेहद सक्रिय छात्राओं की बहुत बड़ी संख्या हैरतअंगेज हैं।

फिरभी ज्यादातर छात्र छात्राएं कैरियर और नौकरी को लेकर रात दिन बिजी हैं। तमाम परीक्षाओं प्रतियोगिताओं की तैयारी उनकी दिनचर्या है।उन्हें हंसने,सोचने या ख्वाब देखने की फुरसत नहीं है।उनका बचपन भी हमारे बचपन जैसा आजाद नहीं है।

फिरभी हमारे समय की तुलना में इस वक्त सैकड़ों गुणा छात्र छात्राएं कैरियर और नौकरी में कामयाबी के ख्वाब देखते हैं हालांकि बदलाव के ख्वाब भी वे देखते हैं।

पूरे छत्तीस साल पेशेवर पत्रकारिता में बिताने के बाद इन्हीं छह महीने की बेरोजगारी से इतनी तन्हाई है तो इन युवाजनों की बेरोजगारी की तन्हाई की सोचकर मैं भीतर से दहल जाता हूं।

ये हमारे ही बच्चे हैं।

ये ही हमारे भविष्य के निर्माता और उत्तराधिकारी हैं।

सबसे खतरनाक बात यह है कि सत्ता ने उनकी हंसी छीन ली है।

कैंपस में और कैंपस के बाहर हम उन्हें इस देश में उनकी मेधा और योग्यता के मुताबिक रोजगार और आजीविका न दे सकें,तो तरक्की का क्या मायने है,यह हमारी समझ से बाहर है।

ये बच्चे हमसे कहीं ज्यादा समझदार भी हैं और लगता नहीं है कि इनमें रोमानियत का वह जज्बा है,जो हम लोगों में था।हमारे वक्त जो प्रेम करते थे वे नापतौल कर गणित लगाकर प्रेम नहीं करते थे।अब प्रेम हो या विवाह,उसके लिए कैरियर नौकरी या व्यवसाय में कामयाबी बेहद जरुरी है।

कामयाब न हुए तो इन युवाजनों की जिंदगी में न दोस्ती संभव है,न प्रेम की कोई संभावना है और न विवाह या पारिवारिक जीवन की।

पहली नजर में मुहब्बत या आंखों आंखों में प्यार अब मुश्किल ही है।

प्यार और विवाह हो जाये तो दांपत्य मुश्किल है।

मुक्तबाजार में जरुरतें बेहिसाब हैं और उसके मुताबिक न आजीविका है और न रोजगार।क्रयशक्ति के लिए अपराध बढ़ रहे हैं।घरेलू हिंसा बढ़ रही है।घृणा,ईर्षा का महोत्सव है।गला काट प्रतियोगिता है।

हंसी गायब है।खुशी सिरे से गायब है।

कहीं कोई ठहाका नहीं लगा रहा है।

कही कोई खिलखिला नहीं रहा है।

कहीं कोई हंस नहीं रहा है।

कही कोई मुस्कुरा नहीं रहा है।

घर भी अब बाजार है।

संबंधों के लिए भी क्रयशक्ति अनिवार्यहै।

ये हमारे तमाम नाकाम बेरोजगार बच्चे तन्हाई में  जीने मरने को अभिशप्त हैं।

हम इस डिजिटल उपभोक्ता मुक्त बाजार का क्या करेंगे?

गौरतलब है कि हमारे ये काबिल पढ़े लिखे बच्चे असंगठित क्षेत्र के मजदूर य दिनभर की दिहाड़ी कमाने वाले मेहनतकश लोग नहीं हैं।

मुश्किल यह है कि जिन बच्चों को लाड़ प्यार से सबकुछ दांव पर लगाकर हम नौकरी और कैरियर की दौड़ में रेस का घोड़ा बना रहे हैं,वे बड़ी बड़ी डिग्रियां,डिप्लोमा हासिल करके अपनी मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद बहुत तेजी से असंगठित मजदूरों के हुजूम में शामिल होते जा रहे हैं।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद उनके लिए कहीं कोई अवसर नही हैं।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद उनके लिए कही न रोजगार है और न आजीविका है।

मेधा,योग्यता और दक्षता के बावजूद वे नौकरी या कैरियर शुरु करने से पहले ही हमारी तरह रिटायर हैं।

निजीकरण,उदारीकरण और ग्लोबीकरण का नतीजा यह बेरोजगारी है।

विनिवेश और अबाध पूंजी प्रवाह,संसाधनों की खुली नीलामी का यह नतीजा है।

कारपोरेट अर्थव्यवस्था का यह नतीजा है।

मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था का हमने पिछले पच्चीस सालों के दौरान किसीभी स्तर पर विरोध नहीं किया है,उसका यही नतीजा है।

हमें उत्पादन प्रणाली के ध्वस्त हो जाने की कोई परवाह नहीं थी,जिसका यह नतीजा है।

हमने जंगलों और खेतों में हो रहे लगातार बेदखली और नरसंहारों का कभी विरोध नहीं किया है,जिसका यह नतीजा है।

हमने निजता और गोपनीयता,स्वतंत्रता,संप्रभुता और अपने नागिरक अधिकारों और मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए कोई हरकत नहीं की है,जिसका यह नतीजा है।

अब जंगलों और खेतों,चायबागानों और कल कारखानों के बाद बैंकों और एटीएम से लाशें निकलने लगी हैं।फिरभी हम खामोश हैं।

अब डिजिटल लेनदेन के लिए हम अपनी आंखों की पुतलियों की तस्वीर और अपनी उंगलियों की छाप न जाने किसको किसको कितनी संख्या में बांटने को तैयार हैं।

डिजिटल लेनदेन का आधार आधार निराधार है।

हम खुशी खुशी कैशलैस फेसलैस इकानामी चुन रहे हैं।

हमारी इकोनामी में हमारी जान पहचान का कोई नहीं होगा।

हमारी इकोनामी में किसी मनुष्य का चेहरा नहीं होगा।

हम ब्रांड खरीदेंगे और बाजार में कंपनी राज होगा।

हमारे जो बच्चे रोजगार और आजीविका के लिए खुदरा बाजार पर निर्भर हैं,हमने उन्हें रातोंरात कबंध बना दिया है।

हाट बाजार के तमाम लोग अब कबंध हैं।

खेतों से लेकर बैंकों तक जो अंतहीन मृत्यु जुलूस है,वही अब भारतीय बाजार और अर्थव्यवस्था का रोजनामचा है।

2009 के लोकसभा के चुनाव से पहले हम गुजरात गये थे।गांधीग्राम से वापसी के रास्ते अमदाबाद से लेकर कोलकाता तक ट्रेनों में हमने उन मजदूरों को भारी तादाद में घर लौटते देखा जो वोट डालने घर लौट रहे थे।

2014 के चुनाव में भी मजदूर दूसरे राज्यों से वोट डालने,मोदी को चुनने ट्रेनों में भर भर कर घर लौटे।राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा होता रहा है।

इसबार फिलहाल बंगाल बिहार में वोट नहीं है।यूपी पंजाब उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं,मौजूदा हालात में कब चुनाव होंगे,पता नहीं है।लेकिन ट्रेनों में लदकर  देश के तमाम महानगरों और औद्योगिक कारोबारी क्षेत्रों से असंगठित क्षेत्र के मजदूर घर लौट रहे हैं क्योंकि करोडो़ं की तादाद में वे नोटबंदी की वजह से, कैसलैस पेसलैस इकोनामी की वजह से बेरोजगार हो गये हैं।

हमने पिछले दशक के दौरान देश में जहां भी गये,आते जाते ट्रेनों में हजारों की तादाद में बंगाल बिहार यूपी के तमाम बच्चों को नौकरी और आजीविका के लिए भागते देखा है।वह तादाद सरकारी नौकरियां लगभग खत्म हो जाने की वजह से अबतक दस बीस गुणा ज्यादा है।इनमें बंगाल के  मालदह मुर्शिदाबाद,नदिया,,24 परगना जैसे गरीब इलाकों के बच्चे जितने हैं,हुगली हावड़ा मेदिनीपुर वर्दवान जैसे खुशहाल जिलों के बच्चे उनसे कही कम नहीं हैं।

नोटबंदी का महीना बीतते न बीतते वे तमाम हाथ कटे पांव कटे कंबंध बच्चे सर से पांव तक लहूलुहान बच्चे घर लौट चुके हैं या लौट रहे हैं।

ये बच्चे भी आपके और हमारे बच्चे हैं।

नागरिकों की जान माल इस कैशलैस फेसलैस आधार निराधार इकोनामी में कितनी सुरक्षित है,किसी को कोई परवाह नहीं है।

हमने हाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांच्यजन्य के ताजा में डिजिटल सुरक्षा को लेकर प्रकाशित मुख्य आलेख फेसबुक पर शेयर किया है।

इस आलेख के मुताबिक आप इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, आपके पास मेल एकाउंट है, सोशल साइट्स पर एकाउंट है, मोबाइल में एप्स हैं- तो समझिए कि आप घर की चाहारदीवारी में रहते हुए भी सड़क पर ही खुले में ही गुजर-बसर कर रहे हैं।आलेख में खुलकर डिजिटल सुरक्षा की खामियों की चर्चा की गयी है।

नोटबंदी से पहले लगातार चार महीने तक एटीएम,डेबिट और क्रेडिट कार्ड के पिन चुराये जा रहे थे और यह सब क्यों हुआ ,कैसे हुआ,न सरकार के पास और न रिजर्व बैंक के पास इसका कोई जवाब अभीतक है।बत्तीस लाख से ज्यादा कार्ड तत्काल रद्द भी कर दिये गये।

आज की ताजा खबर वाशिंगटन पोस्ट के हवाले से है।हैकर योद्धाओं के अंतरराष्ट्रीय संगठन लीजन ने राहुल गांधी ,विजय माल्या,बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर एकाउंट का पासवर्ड तोड़कर उनपर कब्जी कर लिया।इस हैकर योद्धा संगठन का दावा है कि उसने भारत में चालीस हजार से ज्यादा संस्थाओं,प्रतिष्ठानों और निजी कंप्यूटर सर्वरों में मौजूद तमाम तथ्य और जानकारियां हैक कर ली है और इनमें अपोलो अस्पताल समूह से लेकर भारत की संसद तक शामिल है।

मीडिया के मुताबिक हाल के दिनों में पांच हाई प्रोफाइल ट्विटर अकाउंट हैक करने वाले ग्रुप का कहना है कि उसका अगला निशाना sansad.nic.in है जो भारत के सरकारी कर्मचारियों को ईमेल सर्विस मुहैया कराती है. लीजन (Legion) नाम के इस ग्रुप के एक सदस्य ने यह भी दावा किया है कि उसकी पहुंच ऐसे सभी सर्वर्स तक हो गई है. इनमें अपोलो जैसे मशहूर अस्पताल भी शामिल हैं जहां तमिलनाडु की सीएम जयललिता का निधन हुआ था. लीजन इस वजह ने इन सर्वर्स का डाटा रिलीज नहीं कर रहा है क्योंकि ऐसा करने से देश में अफरातफरी मचने की आशंका है. इन हैकरों का यह भी दावा है कि भारत का डिजिटल बैंकिंग सिस्टम आसानी से साइबर हमले का शिकार हो सकता है.

लीजन के इस दावे के बाद देश की साइबर सिक्योरिटी को लेकर गंभीर होना लाजिमी है. इस ग्रुप ने पिछले दिनों इंडियन नेशनल कांग्रेस, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बिजनेसमैन विजय माल्या, वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर अकाउंट हैक कर लिए थे. इससे पहले देश के एटीएम नेटवर्क के जरिये करीब 32 लाख डेबिट कार्ड हैक हुए थे. केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में हैकिंग की बड़ी घटनाएं इस साल सामने आई हैं. फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सुंदर पिचाई और ट्विटर के सीईओ जैक दोरजी के सोशल मीडिया अकाउंट हैक हुए थे.

संघ परिवार के मुखपत्र के ताजा विशेष लेख में जो सवाल उठाये गये हैं,उसका लब्वोलुआब यही है कि  क्या हमारे पास डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर इतना दुरूस्त है कि हम आसानी और सुरक्षित तरिके से डिजिटल हो सकते हैं।

इस बारे में हम सिलसिलेवार लिख चुके हैं।

अब एचएल दुसाध ने भी लिखा हैः

खुद संघ उठा रहा है :कैशलेस व्यवस्था की सुरक्षा पर सवाल

पीएम मोदी के कैशलेस अर्थव्यवस्था की सुरक्षा को लेकर खुद संघ अब सवाल खड़ा करने लगा है.उसके मुखपत्र पांचजन्य ने अपने ताजे अंक के आवरण कथा में कैशलेस अर्थव्यवस्था की राह में सबसे बड़ी समस्या पेमेंट मैकेनिज्म की सुरक्षा बताया है.उसके हिसाब से भारत में इनका कोई अपना कोई सर्वर नहीं है ,सारा डाटा विदेशी सर्वर में जाता है इसलिए डाटा चोरी होने और निजता हनन की सम्भावना ज्यादा है.सीमा पार आतंकी अड्डों और सीमा के भीतर कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक सरीखे कदमों के बाद भारत पर साइबर हमले का खतरा गहराते जा रहा है.अब युद्ध सीमा पर नहीं,बल्कि घरों के अन्दर लड़े जा रहे हैं,जो कई बार हथियारबंद युद्धों से ज्यादा खतरनाक और नुकसान पहुचाने वाले साबित होते हैं.'

संघ की भांति ही उसके आनुषांगिक संगठन भारतीय मजदुर संघ और स्वदेशी जागरण मंच ने भी कैशलेस अर्थव्यस्था की खामियों की ओर इशारा किया है.हद तो दैनिक जागरण के उप संपादक राजीव सचान ने किये है.सचान साहब शुरू में नोटबंदी के फैसले की खूब तरफदारी किये,पर शायद अब उनका धैर्य जवाब दे गया है.इसिलए आज के दैनिक जागरण में 'शेर की सवारी का सबक'शीर्षक से लेख लिखकर मोदी के नोटबंदी के फैसले को प्रायः विफल करार दे दिया है.बहरहाल खुद संघ से जुड़े लोग जिस तरह नोटबंदी के फैसले की खामियां गिनाने लगे हैं,आपलोगों में से कई मित्र शायद यह मान कर चल रहे होंगे कि नोटबंदी से यूपी का चुनाव मोदी के लिए वाटर लू साबित हो सकता है ,पर मैं इससे सहमत नहीं हूँ.इसीलिए कहता हूँ मोदी की नाभि में मारो सामाजिक न्याय का तीर.

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