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Tuesday, November 29, 2016

कालाधन के लिए आम माफी #PowerPoliticswithoutcasuewhatsoever कालाधन हो गया सफेद,अब देश हुआ गोरों का! कामरेड केसरिया चले क्यूबा ,क्रांति वहीं करेंगे! लखनऊ मा दीदी दहाड़े,मोदी हटायेंगे! इस कवायद का अंजाम कैसलैस इंडिया है या लेस कैश इंडिया है तो इसे कालाधन निकालने के लिए कालाधन के खिलाफ जिहाद कैसे कह सकते हैं? नोटबंदी का नतीजा अगर डिजिटल कैसलैस इंडिया है तो समझ लीजिये अब काले अछूतों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्प�

कालाधन के लिए आम माफी
#PowerPoliticswithoutcasuewhatsoever
कालाधन हो गया सफेद,अब देश हुआ गोरों का!
कामरेड केसरिया चले क्यूबा ,क्रांति वहीं करेंगे!
लखनऊ मा दीदी दहाड़े,मोदी हटायेंगे!
इस कवायद का अंजाम कैसलैस इंडिया है या लेस कैश इंडिया है तो इसे कालाधन निकालने के लिए कालाधन के खिलाफ जिहाद कैसे कह सकते हैं?
नोटबंदी का नतीजा अगर डिजिटल कैसलैस इंडिया है तो समझ लीजिये अब काले अछूतों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का अब कोई देश नहीं है।वे आजीविका,उत्पादन प्रमाळी और बाजार से सीधे बेदखल है और यह कैसलैस या लेस कैश इंडिया नस्ली गोरों का देश है यानी ऐसा हिंदू राष्ट्र है जहां सारे के सारे बहुजन अर्थव्यवस्था से बाहर सीधे गैस चैंबर में धकेल दिये गये हैं।
संसदीय राजनीति इस नस्ली नरसंहार कार्यक्रम पर खामोश क्यों है?

पलाश विश्वास
यूपी के किसानों ने भारत के महामहिम राष्ट्रपति से मौत की भीख मांगी है।किसानों को अब इस देश में मौत ही मिलने वाली है।तो कारोबारियों को भी मौत के अलावा कुछ सुनहला नहीं मिलने वाला है।
पहले कानून बनाकर 30 लाख करोड़ रुपये सत्ता वर्ग के विदेशी ठिकानों पर सुरक्षित भेज दिये। उन्हें करों में राहत दी फिर नोटबंदी से पहले अपनी पार्टी के लिए देश भर में जमीनें खरीदीं और राष्ट्र के नाम रिकार्डेड भाषण दिया कि कालाधन निकालना है।लीक हुई नोटबंदी के तहत देश में खेती कारोबार इत्यादि को ठप करके मुक्तबाजार के नियमों और व्याकरण के खिलाफ उत्पादन और बाजार की गतिविधियां बंद करके चुनिंदा उद्योगपतियों को लाखों करोड़ का कर्ज माफ कर दिया।
देश की आम जनता ने कतारबद्ध होकर अपना सारा सफेद धन बैंकों में जमाकर कौड़ी कोड़ी के लिए मोहताज है और अपनी रोजमर्रे की बुनियादी सेवाओं और जरुरतों के लिए उन्हें रोज इंतजार करना होता है कि तामनाशाह का नया फरमान क्या निकलता है।
इस बीच कुल साढ़े आठ लाख की नकदी बैंकों में जमा हो गयी है,इसमें कितना कालाधन है,उसका कोई आंकड़ा नहीं है।बैंकों ने पैसे तो जनता से जमा कर लिया है लेकिन तानाशाह के फरमान के मुताबिक वे खुद दिवालिया हो गये हैं और जरुरत के मुताबिक कोई भुगतान करने की हालत में नहीं है।
अब वे सीना ठोंककर कह रहे हैं कैशलैस इंडिया या फिर लेसकैश इंडिया।रिजर्व बैक के गवर्नर दिवालिया बैंकों के हक में कैशलैस लेनदेन की गुहार लगा रहे हैं।
इस कवायद का अंजाम कैसलैस इंडिया है या लेस कैश इंडिया है तो इसे कालाधन निकालने के लिए कालाधन के खिलाफ जिहाद कैसे कह सकते हैं?
अब फिर कालाधन के लिए आम माफी का ऐलान है।
पचास फीसद टैक्स चुकाकर कालाधन सफेद कर सकते हैं।आम नौकरीपेशा लोगों को जब नाया वेतनमान मिलता है तो बकाया वेतन पिछली तारीख से लागू होने पर तीस फीसद तक का इनकम टैक्स भरना पड़ता है।जिनकी आय सबसे ज्यादा है,उन्हें साठ फीसद तक इनकाम टैक्स भरना पड़ता है तो उससे भी कम आधी रकम टैक्स में देकर बाकी रकम सफेद करने का बहुत बड़ा मौका है कालाधन के लिए।वैसे ज्यादातर कालधन तो पहले ही सफेद हो गया है।यह कर्जा माफी से बड़ा घोटाला है।
अब कालाधन के खिलाफ मुहिम के तहत आम लोगों को उनकी बचत बैंकों में जमा कराने के लिए उनके खिलाफ छापेमारी का जिहाद है।
फिर ऐसे माहौल में जब संसद में प्रधानमंत्री नोटबंदी पर बयान भी देने को तैयार नहीं है तो तनिक कल्पना करें कि कामरेड फिदेल कास्त्रो बातिस्ता सरकार के साथ सत्ता में साझेदारी करते हुए कभी विदेश यात्रा कर रहे हों।
कल्पना करें कि वे अमेरिकी राष्ट्रपतियों के न्यौते पर व्हाइट हाउस में मौज मस्ती करने पहुंचे हों।
कामरेड कास्त्रो के शोक संतप्त माकपा महासचिव सीताराम येचुरी वातानुकूलित राजधानी से संसद में सुनामी के मध्य़ केसरिया सिपाहसालर राजनाथ सिंह के साथ शोकयात्रा में शामिल होकर भारतीय जनता को उनका कर्मफल भोगने के लिए पीछे छोड़कर क्यूबा निकल रहे हैं।
शायद भारत में क्रांति हो न हो वे ट्विटर क्राति की जमीन पर खड़े वहीं क्रांति करेंगे।उनके साथ कामरेड राजा भी सहयात्री है।बाकी दलों के सांसद भी होंगे और अफवाह है कि दीदी के जिहाद से नाराज क्यूबा की शोकयात्रा के नजराने से तृणमूली सांसदों को वंचित कर दिया गया है।
तेभागा और खाद्य आंदोलन के बाद तीन राज्यों में सत्ता वर्चस्व हासिल करने से वाम राजनीति आम हड़ताल और बंद तक सीमाबद्ध हो गयी।सत्ता के दम पर हड़ताल और बंद की राजनीति।1991 से लेकर अबतक वाम राजनीति ने आर्तिक सुधार या मुक्तबाजार का अपनी राजनीतिक ताकत के मुताबिक कोई विरोध नहीं किया।
राजनीतिक मजबूरी के तहत राजनीतिक सिद्धांत और विचारधारा के मुताबिक सही राजनीति की रणनीति के तहत सांकेतिक विरोध करना ही वाम चरित्र बन गया है,जिसका महत्व किसी ट्वीट,फेसबुक पोस्ट या प्रेस बयान से तनिक ज्यादा नहीं है।
नोटबंदी के खिलाफ वाम विरोध भी सांकेतिक है।
सत्ता की राजनीति के मुताबिक है।उनके विरोध और ममता बनर्जी के विरोध में कोई फर्क नहीं है और वाम पक्ष और ममता बनर्जी एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं।न जनता के हक में न मोदी के खिलाफ।
बाकी विपक्ष का विरोध भी सांकेतिक है।
ममता बनर्जी नोटबंदी के तेइस दिन बाद जब आम लोगों ने अपने सारे नोट जमा करवा दिये हैं,पुराने नोटफिर बहाल करने का रागअलापते हुए मोदी को राजनीति से बाहर करने की जिहाद का ऐलान कर रही है।आम जनता की इतनी तकलीफों के बाद पुराने नोटों को बहाल करने की मांग करके वे किसका हित साध रही हैं।अब तक बंगाल में वामपक्ष के सफाये के लिए बंगाल के केसरियाकरण का हरसंभव चाकचौबंदइंतजाम करने के बाद वे किस तरह संघ परिवार का क्यों विरोध कर ही हैं,शारदा नारदा संदर्भ और प्रसंग में इस पर शोध जरुरी है।वामपक्ष का दिवालिया हाल है कि नोटबंदी के खिलाफ ममता दहाड़ रही हैं मैदान पर और य़ेचुरी राजनाथ सिंह के साथ क्यूबा जा रहे हैं।यह है विचारधारा और जमीनी राजनीति के बीच का बुनियादी फर्क।
1991 से लेकर अब तक आर्थिक सुधारों से लेकर आधार कार्ड तकका सर्वदलीय संसदीय सहमति की राजनीति के तहत सारे कायदे कानून बदले जाते रहे हैं और आज तो विपक्ष की मोर्चाबंदी के लिए कालाधन पर पचास फीसद टैक्स के साथ आम माफी का विधेयक भी लोकसभा में पारित हो गया है और राज्यसभा में अल्पमत होने के बावजूद विपक्ष के किसी न किसी खेमे के समर्थन से यह विधेयक कानून बन जायेगा।
खेती चौपट हो जाने के बाद निजीकरण और विनिवेश के अबाध पूंजी प्रवाह से देश बेचने का जो खुल्ला खेल फर्रूखाबादी जारी है,संसदीय राजनीति ने उसका कब और कितना विरोध किया है,इस पर भी शोध जरुरी है।
अपने अपने पक्ष की मौकापरस्त राजनीति के अलावा आम जनता की तकलीफों को वातानुकूलित अररबपति करोड़पति कारपोरेट कारिंदे राजनेताओं को कितनी परवाह है,इसपर बहस बेमतलब है।
इसके मुताबिक हकीकत यह है कि अर्थव्यवस्था चौपट हो जाने के बावदजूद संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडे के नल्सी नरसंहार कार्यक्रम का ओबीसी ट्रंप कार्ट चल गया है।
महाराष्ट्र और गुजरात के निकायों के चुनावों में साफ हो गया है कि वोटों पर नोटबंदी का कोई असर नहीं हुआ है।नोटबंदी के नतीजे समझाने की कोई कवायद विपक्ष ने बेमतलब हो हल्ला के अलावा वैसे ही नहीं किया है जैसे परमाणु संधि के नतीजों पर मनमोहनके दोबारा जीतने के बाद वामपक्ष ने भूलकर भी चर्चा नहीं की है।
सिद्धांत या विचारधारा,राजनीति या अर्थशास्त्र के हिसाब से संसदीय राजनीति नहीं चलती।सत्ता के  दो ध्रूवों संघ परिवार या गांधी परिवार के साथ वक्त की नजाकत और वोटबंदी के गणित के हिसाब से बाजार और कारपोरेट के मौसम जलवायु तापमान के मुताबिक चलती है संसदीय राजनीति।
नोटबंदी का नतीजा अगर डिजिटल कैसलैस इंडिया है तो समझ लीजिये अब काले अछूतों,पिछड़ों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का अब कोई देश नहीं है।
सारे बहुजन आजीविका,उत्पादन प्रणाली और बाजार से सीधे बेदखल हैं और यह कैसलैस या लेस कैश इंडिया नस्ली गोरों का देश है यानी ऐसा हिंदू राष्ट्र है जहां सारे के सारे बहुजन अर्थ व्यवस्था से बाहर सीधे गैस चैंबर में धकेल दिये गये हैं।
संसदीय राजनीति इस नस्ली नरसंहार कार्यक्रम पर खामोश क्यों है?
आपको भारत अमेरिकी परमाणु संधि का किस्सा तो याद होगा।जिसके विरोध में वामपक्ष ने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लिया था।लेकिन सरकार गिराने में नाकामी के बाद अगले चुनाव में फिर मनमोहन की जीत के बाद वामपक्ष ने कब और कहां उस संधि का विरोध किया है,बतायें।
क्या उन्होंने देश व्यापी जागरुकता अभियान चलाया?
कुड़नकुलम जलसत्याग्रह में वाम भूमिका क्या है?
उस संधि के बाद पूरे देश को परमाणु भट्टी में तब्दीलस कर दिया है,क्या इसके खिलाफ वामपक्ष ने कोई आंदोलन किया है,बतायें।
अमेरिका के बाद हर देश के साथ जो परमाणु समझौते हुए हैं,क्या उसका वामपक्ष ने कोई विरोध किया है।सारी ट्रेड यूनियनें उनकी और फिरभी मेहनतकशों के रोजगार और आजीविकता छीन जाने खिलाफ ,सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ सांकेतिक विरोध के अलावा वामपक्ष ने सचमुच का कोई जनांदोलन खड़ा किया हो तो बतायें।
जमीनी स्तर पर साम्यवादी तौर तरीके न अपनाने के कारण बंगाल,केरल और त्रिपुरा में बाकी देश की तुलना में सबसे तेज केसरियाकरण हुआ है और हाल यह है कि नोटबंदी आंदोलन की कमान भी वामपक्ष से ममता बनर्जी ने छीन ली है।
सत्ता वर्चस्व के लिए साम्यवाद को तिलांजली देकर जो नस्ली बंगाली राष्ट्रवाद को लेकर दुर्गापूजा संस्कृति के साथ कैडरतंत्र के तहत राजकाज चलाता रहा वामपक्ष, ममता बनर्जी उसी को और बढ़िया तरीके से लागू कर रही हैं। वामपक्ष बेदखल हो गया बंगाल से। नोटबंदी के खिलाफ आम हड़ताल को जनसमर्थन नहीं मिला है,बाकायदा प्रोस सम्मेलन बुलाकर लेफ्ट फ्रंट चेयरमैन विमान बोस ने इसका बाबुलंद ऐलान खुद कर दिया है।
भारत में रंगबिरंगे अनेक दल हैं।लेकिन सत्ता में भागीदारी के दो ध्रूव है संघ परिवार और गांधी परिवार।राज्यों में क्षत्रपों की अलग जमींदारी और रियासतें हैं।केंद्र में सत्ता में साझेदारी इन गदो परिवार में से किसी के साथ नत्थी होकर ही मिल सकती है।
1977 तक गांधी परिवार का एकाधिकार वर्चस्व रहा है भारत की सत्ता राजनीति पर और संघ परिवार का हिंदुत्व एजंडा को कांग्रेस के माध्यम से ही लागू किया जाता रहा है।
15 अगस्त 1947 से ही भारत हिंदू राष्ट्र है और भारत का संविधान के विपरीत समांतर शासन बहुजन जनता को जीवन के हर क्षेत्र में वंचित करने वाला मनुस्मृति अनुशासन का रहा है।
1977 में आपातकाल के कारण सत्ता और लोकतंत्र में संघ परिवार की घुसपैठ शुरु हुई जो सिखों के नरसंहार और बाबरी विध्वंस के बाद समांतर सत्ता में तब्दील है।
गांधी परिवार का नर्म हिंदुत्व अब संघ परिवार का गरम हिंदुत्व है।लेकिन दरअसल भारत में सत्ता का चरित्र कहीं बदला नही है।राजनीति या राष्ट्र का चरित्र बदला नहीं है।
सोवियत संघ के अवसान और खाड़ी युद्ध के बाद अर्थव्यवस्था लेकिन सिरे से बदल गयी है और इस बदलाव के महानायक डा.मनमोहन सिंह रहे हैं।
16 मई 2014 के बाद अचानक भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बना है और न भारत मुक्तबाजार कल्कि महाराज के राज्याभिषेक से बना है।इसे पहले मन ले तो बहस हो सकती है।15 अगस्त,1947 से हिंदू राष्ट्र है।
ये दोनों मुद्दे खास महत्वपूर्ण हैं।
1977 से लेकर 2011 तक भारतीय राजनीति में वामपक्ष केंद्र की सरकारें बनाने की सत्ता साझेदारी खेल में निर्णायक भूमिका निभाता रहा है।
1977 में लोकसभा चुनाव में वाम सहयोग से ही बंगाल में जनतादल को सीटें मिली थी तो फिर विश्वनाथ सिंह की सरकार को वामपक्ष और संघ परिवार दोनों का समर्थन रहा है।
सारी अल्पमत सरकारें और मनमोहन सिंह की पहली सरकार वाम समर्थन से चलती रही हैं।
नरसिंह राव के जमाने में या अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में नहीं भारत को मुक्तबाजार बनाने का काम डा.मनमोहन सिंह के जमाने में शुरु हुआ है और इसे अब अंजाम तक पहुंचा रहे हैं ओबीसी कल्कि महाराज।
संघ परिवार ने भारत की सत्ता हासिल करने के लिए अपने ब्राह्मण सिपाहसालारों को छोड़कर ओबीसी कार्ड अपनाया तो राममंदिर आंदोलन में भी बजरंगी इन्हीं ओबीसी समुदाय से सर्वाधिक हैं।
जाति वर्चस्व की रंगभेदी नीति वाले संघपरिवार बहुजनों के सफाये के लिए ओबीसी को नेतृत्व देने को तैयार हो गया और जाति का तिल्सिम तोड़ने के लिए वर्गीय ध्रूवीकरण का विकल्प चुनने की कोई जहमत वामपक्ष ने नहीं उठायी।
भारत के तमाम बुद्धिजीवियों में सबसे ज्यादा वाम बुद्धिजीवियों ने पुरस्कार पद सम्मान और विदेश यात्रा का लाभ उठाया है 16 मई 2014 तक।क्रांतिकारी विचारधारा के हो हल्ले के बाद वे कभी जनता के बीच नहीं गये तो किसानों और मजदूरों के संगठनों,छात्रों और महिलाओं के संगठनों में करोड़ों सदस्य होने के बावजूद जमीन पर किसी जनांदोलन का नेतृत्व संसदीय वाम ने नहीं की।
बंगाल,केरल और त्रिपुरा की राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल और उस सत्ता के बचाव की राजनीति बंगाली और मलयाली राष्ट्रीयता के आवाहन के साथ किया है वामपक्ष ने जो कुल मिलाकर हिंदुत्व राजनीति का दूसरा खतरनाक रुप हैं।
वामपक्ष ने जमींदारी हितों की हिफाजत में वाम पक्ष ने बंगाल,त्रिपुरा और केरल में जीवन के हर क्षेत्र में नस्ली वर्चस्व कायम रखा और बहुजनों को वाम राजनीतिक नेतृत्व देने से झिझकता ही नहीं रहा,बाकी भारत में वाम राजनीति को हाशिये पर रखने का काम भी इन्होंने खूब किया है और खास तौर पर हिंदी क्षेत्र को राजनीतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से इनने वंचित किया।
1977 से पहले तेभागा और खाद्य आंदोलन में,तेलगंना और श्रीकाकुलम,ढिमरी ब्लाक जनविद्रोहों में जो वामपक्ष सर्वहारा वर्ग के साथ उनके नेतृत्व में सत्ता से टकरा रहा था,1969 में बंगाल में सत्ता का स्वाद चखते ही वह सत्ता राजनीति में तब्दील होता रहा और वाम नेतृत्व के इसी विश्वास घात के खिलाफ बंगाल में नक्सल विद्रोह हुआ चारु मजुमदार के नेतृत्व में।
इस नक्सली आंदोलन का दमन भी माकपा ने कांग्रेस के साथ मिलजुलकर किया और तबसे लेकर अबतक वामपक्ष कांग्रेस से नत्थी रहा है।
आपातकाल के खिलाफ माकपा जरुर थी लेकिन बंगाल में आपातकाल के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं हुआ।
कमसकम उत्तरभारत के दक्षिणपंथी जैसे आपातकालका विरोध कर रहे थे,वैसा विरध वामपक्ष ने कतई नहीं किया और बहुसंख्य वामपंथी बुद्धिजीवी सीपीआई और रूस के बहाने आपातकाल से पहले,आपातकाल के दौरान और आपातकाल के बाद सत्ताा और नस्ली वर्चस्व का लाभ उठाते रहे और इन लोगों ने वाम नेतृत्व के साथ कदम से कदम बढ़ाकर भारत के बहुजनों को जीवन के हर क्षेत्र से वंचित करने का मनुस्मृति धर्म निभाया।
इसीलिए संघ परिवार का ओबीसी ट्रंप कार्ड का कोई जवाब वामपंथियों के पास नहीं है।
आरक्षणविरोधी आंदोलन के जरिये हर कीमत पर ओबीसी आरक्षण रोकने की कोशिश में भारतीय सत्ता की राजनीति के मंडल बनाम कमंडल ध्रूवीकरण करने वाले संघ परिवार ने राम की सौगंध खाते हुए वीपी सिंह का महिषासुर वध कर दिया और फिर भारत की सबसे बड़ी ओबीसी आबादी को अपनी पाली में कर लिया।
इस सत्ता समीकरण में दमन और उत्पीड़न,रंगभेदी नरसंहार के शिकार दलितों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का साथ वामपक्ष ने भी नहीं दिया।
इसीकी तार्किक परिणति यह सिलसिलेवार नरसंहार है।

भारतभर में वाम राजनीति के हाशिये पर चले जाने की वजह से फासिज्म का यह रंगभेदी राजकाज निरंकुश है।

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In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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