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Wednesday, November 30, 2016

गरीब कल्याण? लक्ष्य समता और न्याय का? अकेले घिरे तानाशाह के बचाव में राजनीति में ओबीसी मोर्चाबंदी की शुरुआत? पलाश विश्वास

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गरीब कल्याण?

लक्ष्य समता और न्याय का?

अकेले घिरे तानाशाह के बचाव में राजनीति में ओबीसी मोर्चाबंदी की शुरुआत?


पलाश विश्वास

इंदिरा गांधी को यह देश शायद भूल गया है।देश अभी अमेरिका बनने को है और इस डिजिटल देश में शायद किसी इंदिरा गांधी की कोई प्रासंगिकता नहीं बची है।इंदिरा गांधी की चर्चा इस देश में अब आपातकाल के संदर्भ में ही ज्यादा होती है।

इन्हीं इंदिरा गांधी ने पहलीबार गरीबी हटाओ का नारा देते हुए देश को समाजवादी बनाने का वायदा किया था।

अब सत्ता में जो लोग हैं,उन्हें नेहरु इंदिरा की विरासत से कोई वास्ता नहीं है।लेकिन बिना टैक्स चुकाये कालाधन जमा करनेवाले जिन आर्थिक अपराधियों के खिलाफ जिहाद के नाम नोटबंदी में नागरिकों के मौलिक अधिकारों और उनकी नागरिकता को निलंबित करके रंगभेदी नस्ली वर्चस्व और एकाधिकार के लिए यह डिजिटल नोटबंदी है,उन्हीं राष्ट्रविरोधी तत्वों को उनके कालाधन को सफेद करके साफ बरी कर देने की योजना को मौजूदा तानाशाही की सत्ता ने गरीबी हटाओ का मुलम्मा पहना दिया है।

कालाधन आम माफी के लिए सिर्फ लोकसभा में वित्त विधेयक पास करके संसद और सांसदों को अंधेरे में रखकर राष्ट्रपति के मुहर से जो क्रांति की जा रही है,उसका नाम प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना रखा गया है।

गौरतलब है कि स्वेच्छा से बेहिसाब नकदी को सफेद बनाने की पिछली योजना 30 सितबर के खत्म हुई थी।जिससे चूंचूं का मुरब्बा निकला था और नोटबंदी का अंजाम भी वहीं चूं चूं का मुरब्बा है तो फिर नोटबंदी लागू करने के बीस दिनों के बाद फिर उसी चूं चूं के मुरब्बे को नये मुलम्मे के साथ गरीब कल्याण योजना में तब्दील कर देने के वित्तीय प्रबंधन के औचित्य पर किसी विमर्श की गुंजाइश भी नहीं है।इसके राजनीतिक आशय को समझना ज्यादा जरुरी है।

इसीके साथ इस आर्थिक नस्ली नरसंहार को जायज ठहराने और मारे जाने वाले बहुजनों को झांसा देने के लिए इस योजना का लक्ष्य संविधान की प्रस्तावना के मुताबिक बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर और संविधान निर्माताओं के सपनों के भारत के अंतिम लक्ष्य न्याय और समता रखा गया है।

समरसता अभियान की यह नई परिभाषा रोहित वेमुला और नजीब की संस्थागत हत्या परिदृश्य में बेहद हैरतअंगेज है लेकिन इसका न बाबासाहेब और बहुजनों से कोई रिश्ता है और न गरीबी हटाओ या इंदिरा गांधी से कोई रिश्ता है।

सत्ता की सर्वोच्च प्राथमिकता जनगणमन गाते हुए देश और देश के संसाधनों को बेच डालने का है और इसीलिए नोटबंदी के बाद देश अब डिजिटल है।

गौरतलब है कि देश में सिर्फ 54 फीसद लोगों के पास कोई बैंक खाता है,जनधन योजना के बावजूद।लोगों को सर छुपाने के लिए छत है नहीं और बेरोजगारी है तो शून्य बैलेंस के खाते का पासबुक और चेक उनके पास कितने हैं,यह आंकड़ा हमारे पास नहीं है।इसी बीच बाबासाहेब की वजह से बने रिजर्व बैंक के सभी अंगों प्रत्यंगों का निजीकरण हो गया है।

भारतीय बैंकिग के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स खत्म करने के साथ इंदिरा गांधी ने संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाते हुए समाजवादी विकास का जो माडल लागू किया था,इस गरीब कल्याण योजना के नाम पर उन्हीं सरकारी बैंकों को दिवालिया बना दिया गया है और पूरी अर्थव्यवस्था को देशी विदेशी पूंजी के हवाले करके देश और देश के सारे संसाधनों को सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के लिए बेच दिया जा रहा है।

यह पूरा कार्यक्रम भारतीय संविधान के बदले मनुस्मृति अनुशासन के तहत बहुजनों को संपत्ति के अधिकार से वंचित करके उन्हें जीवन  के हर क्षेत्र में उनके तमाम हक हकूक,उनकी आजीविका,उनके रोजगार छीनने का है।

यह नरसंहारी अश्वमेध अभियान का नया नामकरण है।

इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीच्यूट के मुताबिक नकदी में देश में मौजूद कालाधन महज चार सौ करोड़ रुपये हैं जिन्हें निकालने के लिए की गयी नोटबंदी का खर्च बारह हजार करोड़ रुपये है।

यह नोटबंदी की अर्थव्यवस्था है और जब बैंकों और एटीएम से बड़ी संख्या में लाशें निकलने लगी हैं तो कालाधन आम माफी योजना गरीब कल्याण योजना बतौर पेश कर दी गयी है।बीस दिन का नर्क जीने के बाद पंद्रह फीसद कालाधन भी नहीं निकला है।जबकि अब कालाधन को आम माफी भी दे दी गयी है।

यह नोटबंदी योजना बुरी तरह फेल है।हालात नियंत्रित हो,ऐसा कोई वित्तीय प्रबंधन नहीं है।क्योंकि सरकार नकदी में लेन देन सिरे से बंद करना चाहती है और इसीलिए नोटबंदी के एलान के करीब तीन हफ्ते बाद भले ही बैंकों और एटीएम के बाहर कतारें थोड़ी कम हो गई हो, लेकिन अभी बैंकों में 500 रुपए के नए नोटों की किल्लत बरकरार है।

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने आश्वासन दिया है कि 500 रुपए के नोटों की कोई दिक्कत नहीं है। अब इस नोट की प्रिटिंग दोगुनी कर दी गई है। रोजाना छप रहे 500 रुपए के 80 लाख नोट। फिर भी क्यों है इसकी किल्लत?फिरभी क्यों बैंकों और एटीएम से सिर्फ दो हजार के नोट निकल रहे हैं?दो हजार का नोट खुल्ला करके कारोबार जो लोग चला नहीं सकते ,उनके बाजार से सफाये का यह इंतजाम है।

बैंकों के दिवालिया हो जाने का नतीजा यह है कि सैलरी और पेंशन की टेंशन ने बैंक अधिकारियों और कर्मचारियों में खौफ पैदा कर दिया है। इन्हें डर है कि कैश की कमी के चलते ग्राहक भड़केंगे और हंगामा करेंगे इसलिए बैंकों में पुलिस की तैनाती होनी चाहिए। इसके लिए ऑल इंडिया बैंक एम्पलॉय असोसिएशन और ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन ने इंडियन बैंक असोसिएशन से चिट्ठी लिखकर मदद मांगी है। नोटों की कमी के चलते ग्राहकों को संतुष्ट करना मुश्किल हो रहा है। अक्सर ग्राहक हंगामा करते हैं और गाली-गलौच पर उतर आते हैं। पेंशन और सैलरी का वक्त होने के चलते अगले दस दिन ज्यादा तनाव भरे होंगे।

बहरहाल जनधन योजना से आम जनता को बैंकिंग के दायरे में लाने का बेहतरीन नतीजा अब सामने आ रहा है कि नोटबंदी के बाद देश में कायदा कानून मुताबिक 30 लाख करोड़ रुपये सुरक्षित बाहर भेज दिये जाने के बाद नकदी में बचा कालाधन ज्यादातर इन्हीं खातों में जमा कराया गया है जिन खातों से खाताधारक अब ज्यादातर मामलों में बेदखल हैं।

खाता जिनके नाम हैं तो भी उन्हें इसका फायदा नहीं है।क्योंकि कल से बैंकों और एटीएम पर फिर कतारे लगी होंगी वेतन और पेंशन के लिए तो बैंकों के पास नकदी नहीं है बीस दिन नोटबंदी के बीत जाने के बावजूद और जनधन योजना खाता से भी निकासी की कोई उम्मीद नहीं है।गौरतलब है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत खुले लगभग 26 करोड़ बैंक खातों से पैसा निकालने की सीमा तय कर दी है। इन खातों से अब अगली सूचना तक एक महीने में सिर्फ 10,000 रुपये की निकासी की जा सकती है। रिजर्व बैंक के मुताबिक जिन जनधन खातों की केवाईसी प्रक्रिया पूरी की जा चुकी है उनसे एक महीने में 10,000 रुपये निकाले जा सकते हैं। वहीं जिन खातों की केवाईसी प्रक्रिया अभी लंबित है उनसे एक महीने में महज 5,000 रुपये ही निकाले जा सकते हैं। 26 करोड़ जनधन खाते हैं और देश में सभी को बैंकिंग से जोड़ने के लिए अगस्त 2014 में प्रधानमंत्री जनधन योजना की शुरुआत हुई थी।

सवा अरब जनता में से नब्वे करोड़ लोग हर हाथ में रोजगार के बदले मोबाइल हो जाने के बावजूद इंटरनेट नेटवर्क से बाहर हैं।जो लोग फेसबुक,व्हाट्सअप का खूब इस्तेमाल कर लेते हैं वे ज्यादातर लाइक और शेयर और फोटो अलबम से बाहर न हार्ड वेयर न साफ्ट वेयर,न हैकिंग और न साइबर क्राइम के बारे में कुछ जानते हैं।ध्यान रहे कि साइबर संसार में कुछ एप और सॉफ्टवेयर ऐसे हैं जो कंप्यूटर पर टाइप होने वाले सभी बटन की जानकारी का डाटा तैयार करते हैं। इससे वह आपके कार्ड की जानकारी सेव कर सकते हैं। इस समस्या से बचने के लिए यूजर ऑन स्क्रीन कीबोर्ड और इकॉग्निटो टैब का प्रयोग कर सकते हैं।हाल में एटीएम का पिन चार महीनों से हैक होता रहा और मालूम होते हुए बैंकों ने इसकी कोई जानकारी ग्राहकों को नहीं दी और न ही कहीं एफआईआपर तक दर्ज करायी।बत्तीस लाख डेबिट कार्ट खारिज कर दिये।

जाहिर है कि जबरन डिजिटल इंडिया बना दिये जाने के बावजूद भारत में शापिंग माल और ईटेलिंग,रेलवे टिकट बुकिंग के बाहर सारा कारोबार करीब 97 फीसद तक नकदी में होता है।

मकान किराया का भुगतान नकदी में होता है।राशन पानी नकदी में चलता है।दिहाड़ी नकदी में मिलती है। सरकारी और संगठित क्षेत्र के दो चार करोड़ व्हाइट कालर लोगों को छोड़कर बाकी लोग दिहाड़ी में जीते हैं।कायदे कानून से बाहर जो असंगठित क्षेत्र हैं,वहा सारा लेन देन नकदी में होता है और ज्यादातर मामलों में न पे रोल होता है और न हिसाब किताब होता है और असंगठित क्षेत्र के ये तमाम मेहनतकश लोग अस्थाई मजदूर हैं जिन्हें नकदी की किल्लत की हालत में दिहाड़ी तो फिलहाल मिल ही नहीं रही है,उनकी नौकरी भी छंटनी में तब्दील हैं।

अभी हाल में हम अपनी एक बेटी के घर में गये थे।जो ब्याह से पहले हमारे साथ रहती थी और घर के कामकाज में हमारा हाथ बंटाती थी।तमाम परिचित लोग उसे हमारी बेटी मानते रहे हैं।हम उसे खूुब कोशिश करके भी पढ़ा लिखा नहीं पाये और उसने कम उम्र में शादी कर ली।सोलह साल हो गये उसकी शादी के।उसने प्रेम विवाह किया पोस्टर और होर्डिंग बनाने वाले एक दिहाड़ी मजदूर से ।उनकी शादी को सोलह साल हो गये।उनका कोई बच्चा नहीं है और परिवार संयुक्त है।उसका जेठ अभी अविवाहित है और स्थानीय कल कारखानों को लोहे के कलपुर्जे सप्लाई करने के लिए उसने घर में कारखाना लगाया हुआ है।दिहाडी अब पहले की तरह मिल नहीं रही है।कारखाना का काम रुक रुककर चल रहा है।

वे लोग मंकी बातें बड़ी ध्यान से सुनते हैं और उन्हें उम्मीद है कि कालाधन निकलेगा तो उनके जनधन खाते में जमा हो जायेगा और वे इससे अपना अधूरा मकान बना लेगें।वे नोटबंदी का समर्थन करते हैं।

कुल मिलाकर मध्यम वर्ग और निम्न मध्यवर्ग से लेकर गरीब और तमाम पिछड़े लोग इसी उम्मीद में एटीएम और बैंकों से पैसे न मिलने के बावजूद नोटबंदी के जबरदस्त समर्थक हैं।

अब वस्तुस्थिति यह है कि नोटबंदी से पहले तक सितंबर से पहले बैंकखातों में भारी पैमाने पर कालाधन चामत्कारिक तरीके से सफेद हो जाने की वजह से भारतीय बैंकों के पास करीब सौ लाख करोड़ रुपये जमा थे।जीवन बीमा,रेलवे जैसे सरकारी उपक्रमों में जो जमा है,उसका अलग हिसाब है।नोटबंदी के बाद अब तक सिर्फ साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये जमा हैं।कालाधन के लिए आधी रकम के टैक्स चुकाने के बाद आम माफी के इस नये फरमान के बाद शायद  दस बीस लाख हद से हद और बैकों में जमा हो सकते हैं जबकि इससे पहले की योजनाओं में ऐसा कोई चमत्कार हुआ हो,हमें इसकी कोई जानकारी नहीं है।

अब सवाल है कि बैंकों में सौ लाख करोड़,केंद्र और राज्य सरकार के खजाने और सरकारी उपक्रमों में जमा पूंजी के बावजूद पिछले दो साल के राजकाज में 14 मई 2014 के बाद अविराम स्वच्छता अभियान के तहत गरीबी उन्मूलन कितना हुआ है।

अब अतिरिक्त बीस तीस लाख करोड़ रुपये के साथ गरीबी हटाओ का यह नारा कितना छलावा है और कितनी राजनीतिक इच्छा है,बहुत जल्द दूध का दूध,पानी का पानी हो जाना है।

इस वक्त खेती का मौसम है।खरीफ फसल का बाजार ठप है और रबी फसल की तैयारी खटाई में है।आगे भुखमरी की नौबत है।करोडो़ं लोग बेरोजगार हो जायेंगे तो खुदरा कारोबार खत्म है।हाट बाजार किराना खत्म है।चाय बागानों में से लेकर कल कारखानों में मृत्यु जुलूस अलग निकलने वाला है।

गौरतलब है कि उत्पादन प्रणाली का भट्ठा बैठाकर मुक्तबाजार में देश को तब्दील करने के लिए कृषि उत्पादन विकास दर शून्य हो जाने के बावजूद,सर्विस सेक्टर को औद्योगिक उत्पादन के मुकाबले तरजीह देने के बावजूद और निर्माण, विनर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर में विदेशी पूंजी और कालाधन के बावजूद,सारे के सारे सरकारी उपक्रमों के साथ साथ प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा तक में विनिवेश कर देने के बावजूद जनसंख्या के मुताबिक रोजगार का सृजन हुआ नहीं है और आजीविकाओं और रोजगार से जल जंगल जमीन और नागरिकता के साथ अंतहीन बेदखली जारी है।

ऐसे में अब भी अमेरिका बनने चला डिजिटल देश में सत्तर फीसदी लोग खेती और कृषि पर निर्भर हैं।जलवायु,मौसम और मानसून पर निर्भर हैं।

तो देश के बहुजन आरक्षण राजनीति और संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अब भी करीब नब्वे फीसद खेती पर निर्भर हैं।

इन्हीं बहुजनों के सफाये का अश्वमेध यज्ञ है।

कुल मिलाकर देश में सवा अरब जनसंख्या के मध्य कमाऊ जनता की जनसंख्या 50 करोड़ भी नहीं है।

करीब 75 करोड़ लोग जिनमें से ज्यादातर औरतें ,बच्चे और वृद्ध हैं,कमाउ परिजनों पर निर्भर हैं।

उत्पादन प्रणाली में खेती को हाशिये पर रख दिये जाने की वजह से पूरा परिवार किसी आजीविका में खपने की अब कोई संभावना नहीं है। ऐसे कमाउ लोगों में बमुश्किल एक दो फीसद लोग ही संगठित या असंगठित क्षेत्र में नौकरीपेशा हैं।इनमे से भी सिर्फ संगठित,सरकारी और कारपोरेट सेक्टर के स्थाई कर्मचारियों और पे रोल पर संविदा कर्मचारियों को वेतन बैंक मार्फत मिलता है।

नतीजतन कमाउ पचास करोड़ लोग हैं को समझ लीजिये कि करीब 47 करोड़ कमाउ लोगों में से 44 करोड़ लोग नकदी में लेन देन करते हैं।

खेती में देश की आबादी की सत्तर फीसदी अब भी हैं तो सीधा मतलब है कि करीब अस्सी पचासी या नब्वे करोड़ लोगों का दस दिगंत सत्यानाश का पुख्ता इंतजाम है कालाधन सफेद करके कारोबार और लेनदेन में सत्ता वर्ग के नस्ली वर्चस्व के लिए यह डिजिटल नोटबंदी और बैंकिंग प्रणाली को दिवालिया कर देने का अभूतपूर्व कार्यक्रम। इससे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम का क्या वास्तव है,जब तक आम जनता समझ सकेगी,करोड़ों लोगों का काम तमाम है।

खासकर यह हालत सबसे खतरनाक इसलिए है कि देश के तमाम जनप्रतिनिधि और राजनेता,बुद्धिजीवी और पढ़े लिखे लोगों को आम जनता की कोई परवाह नहीं है और उनमें से ज्यादातर इस खुली लूट में शामिल हैं और बहती गंगा में नहा धोकर शुद्ध पतंजलि बन जाने की जुगत में हैं।

डा.अमर्त्य सेन से लेकर कौशिक बसु तक तमाम अर्थशास्त्री और तमाम रेटिंग एजंसियां नोटबंदी से अर्थव्यवस्था और विकास दर का बाजा बज जाने की आशंका जता रहे हैं।उद्योग और कारोबार जगत में भारी खलबली मची हुई है।

तो ऐसे हालात में अब तक गरीबों का भला न कर पाने वाली सरकार कैसे अतिरिक्त महज बीस तीस लाख करोड़ रुपये से गरीबों की सारी समस्याएं सुलझा देंगी,इसका बाशौक इंतजार करते हुए मुलाहिजा फरमाये।

मीडिया के मुताबिक इसी बीच नीतीश कुमार के बाद अब राजद नेता लालू प्रसाद यादव ने अब नोटबंदी का समर्थन कर दिया है। राहुल के नोटबंदी विरोधी खेमे का साथ छोड़ते हुए पटना में विधायकों से कहा कि वह सिर्फ इसे लागू करने के तरीके का विरोध कर रहे हैं, न कि इसके पीछे की वजहों का। इस तरह अपने इस कदम से लालू ने बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के सुर में सुर मिला दिया है। नीतीश कुमार शुरू से ही नोटबंदी पर केंद्र सरकार के निर्णय का समर्थन कर रहे हैं। बिहार में बने महागठबंधन में जेडी यू और आरजेडी के साथ कांग्रेस भी शामिल है।

क्या यह भारतीय राजनीति में ओबीसी मोर्चाबंदी की शुरुआत है?

नोटबंदी को लेकर भीतर ही भीतर संघ परिवार में जो घमासान मच रहा है,उसके मद्देनजर प्रधानमंत्री के अकेले घिर जाने की हालत में कहीं यह नया राजनीतिक समीकरण की शुरुआत तो नहीं है?

आज नोटबंदी का 22 वां दिन है लेकिन बैंक और एटीएम के आगे कतार कम होने का नाम नहीं ले रही। आज पेंशन का दिन है और सुबह से ही बैंकों के सामने पेंशनधारकों की लंबी लाइन लगी हुई। यानी पेंशन का टेंशन बना हुआ है। इसके अलावा आज ज्यादातर कंपनियां अपने कर्मचारियों के अकाउंट में सैलरी डाल देंगी। बड़ा सवाल ये है बिना कैश के  पेंशन और सैलरी का टेंशन कैसे दूर होगा।

सीएनबीसी-आवाज़ के तमाम रिपोर्टरों ने देश के अगल अलग शहरों में पेंशनधारकों की हो रही परेशानी का जायजा लिया। नोएडा के पेंशनधारकों की मिलीजुली प्रतिक्रिया रही। कुछ लोग एटीएम में कतार बहुत लंबी होने से परेशान है तो कुछ इस मुहिम में मोदी जी के साथ नजर आ रहे हैं।

अब तो सीनियर सीटिजेंस भी पेटीएम और एटीएम का यूज कर रहें है। बैंक ने भी काफी मदद की है इनका मानना है तो पेंशन आने से परेशानी नहीं होगी और इनका मानना है की जल्द ही ये लाइंने खतम होंगी।

इधर मुंबई के पेंशनधारक भी पेंशन के लिए सुबह से ही कतार में लगे है। घंटों इंतजार के बाद नंबर आ रहा है। पेंशन की ही नहीं सैलरी का भी संकट है। कल सैलरी आने वाली है और आज कुछ लोगों की सैलरी आ भी गई है। ऐसे में सैलरी निकालने के लिए एटीएम के सामने फिर से भीड़ जुटने लगी है।

उधर सैलरी और पेंशन की टेंशन ने बैंक अधिकारियों और कर्मचारियों में खौफ पैदा कर दिया है। इन्हें डर है कि कैश की कमी के चलते ग्राहक भड़केंगे और हंगामा करेंगे इसलिए बैंकों में पुलिस की तैनाती होनी चाहिए। इसके लिए ऑल इंडिया बैंक एम्पलॉय असोसिएशन और ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन ने इंडियन बैंक असोसिएशन से चिट्ठी लिखकर मदद मांगी है। नोटों की कमी के चलते ग्राहकों को संतुष्ट करना मुश्किल हो रहा है। अक्सर ग्राहक हंगामा करते हैं और गाली-गलौच पर उतर आते हैं। पेंशन और सैलरी का वक्त होने के चलते अगले दस दिन ज्यादा तनाव भरे होंगे।





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