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Wednesday, August 17, 2016

अस्पृश्यता का संविधान लागू है! छिटपुट धमाकों से हिंदुत्व की इस सर्वनाशी सुनामी का मुकाबला करना असंभव! सौ विवेकानंद भी पैदा हो जाये तो चंडाल जनम जनम तक चंडाल रहेंगे। दलितों,आदिवासियो,विभाजनपीड़ितों और मुसलमानों के सफाये के इस राजकाज और राजधर्म का प्रस्थानबिंदू इतिहास और भूगोल से उनकी बेदखली का खुल्ला मुक्तबाजारी एजंडा है। पलाश विश्वास


अस्पृश्यता का संविधान लागू है!

छिटपुट धमाकों से हिंदुत्व की इस सर्वनाशी सुनामी का मुकाबला करना असंभव!



सौ विवेकानंद भी पैदा हो जाये तो चंडाल जनम जनम तक चंडाल रहेंगे।


दलितों,आदिवासियो,विभाजनपीड़ितों और मुसलमानों के सफाये के इस राजकाज और राजधर्म का प्रस्थानबिंदू इतिहास और भूगोल से उनकी बेदखली का खुल्ला मुक्तबाजारी एजंडा है।




पलाश विश्वास

हिंदू राष्ट्र में सबसे बड़ा संकट हिंदुत्व का है।

अलगाव और विघटन का शिकार अखंड हिंदू समाज है,जो हिंदू राष्ट्र का मूल आधार है।गुजरात में ऊना में दलितों की महारैली के बाद सवर्णों के हमलावर रुख से पूरे देश में दलितों के हिंदुत्व से अलगाव की जमीन तैयार हो रही है।दलितों के लिए अस्तित्व संकट है और मनुस्मृति राजकाज में यह संकट ढाई हजार सालों से जारी है।


गौतम बुद्ध की क्रांति की वजह से सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य,सम्राट अशोक और सम्राट कनिष्क के सौजन्य से बुद्धमय भारत के पर्यावरण सत्य और अहिंसा, करुणा, बंधुत्व,मैत्री, प्रेम और शांति की जो दिशाएं खुलीं, उसके तहत राष्ट्र पर किसी वर्ण और वर्ग का एकाधिकार अभीतक भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर चीन,जापान,तुर्की, मंगोलिया,मध्यएशिया और सुदूर दक्षिण पूर्व एशिया तक में कभी नहीं रहा है राजनीतिक भूगोल भिन्न होने के बावजूद सांस्कृतिक विविधता और बहुलता के सामंजस्य और समन्वय की निरंतरता के कारण।दूरियों के बावजूद।


मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा समय से वाणिज्य के रेशमपथ से बाकी दुनिया के साथ, खासकर मध्य एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया में भारतीय सांस्कृतिक विरासत का जो प्रभाव रहा है,उसका आधार गौतम बुद्ध का धम्म है।


तिब्बत में भारतीय मूल के पद्म संभव और दीपंकर अतीश के मिशन की वजह से जो धर्म राज्य बना,उसकी संस्कृति भी भारतीय है।जापान,चीन,कोरिया से लेकर थाईलैंड और म्यांमार में जो बौद्धधर्म का भूगोल है,उसमें भारतीयता की गहरी छाप है,जिसमें स्थानीय संस्कृति,लोक,भाषा,बोली और धर्मों का समन्वय हुआ है।


महापंडित राहुल सांकृत्यायन के पांडित्य और शोध की वजह से इसके सिलसिलेवार सबूत और दस्तावेज हासिल हैं।बाकी सामाजिक राजनीतिक भौगलिक यथार्थ को हम स्वाध्याय से जान समझ सकते हैं।


बाकी दुनिया की तरह,पश्चिम व मध्यपूर्व एशिया की तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप और बाकी एशिया में जो आम तौर पर अमन चैन की फिजां विभिन्न धर्मों, जातियों, नस्लों, भाषाओं, जीवन शैलियों के बावजूद अब भी बना हुआ है,उसमें भारतीय विविधता और बहुलता की भारतीय संस्कृति के उन्मुक्त रेशम पथ का बहुत बड़ा असर है।इंडोनेशिया,मलेशिया,म्यांमार,थाईलैंड से लेकर कंबोडिया और वियतनाम तक इस भारतीयता की जड़ें खोजी जा सकती हैं जिसके लिए भरत से कोई साम्राज्यवादी अभियान हुआ नहीं है।


वैदिकी सभ्यता के दौरान आर्य अनार्य सुरासुर संग्राम के बावजूद,वर्णाश्रम के बावजूद,विजेताओं और विजितों के बीज वर्गीयध्रूवीकरण के बावजूद भारत में मनुस्मृति अनुशासन पुष्यमित्र शुंग समय से लागू होने से पहले शूद्रों और अछूतों के सामाजिक बहिस्कार और जन्मजात पेशा की अनिवार्यता और शिक्षा,संपत्ति,शस्त्र के निषेध आधारित विशुद्धता के वर्चस्व वाली रंगभेदी पितृसत्ता का यह स्थाई सामंती बंदोबस्त का वजूद नहीं रहा।


विडंबना यह है कि विकास ,विज्ञान,बाजार और तकनीक की आधुनिकताओं के बावजूद वहीं सामंतवाद अब अखंड हिंदू समाज और निर्मम हिंदू राष्ट्र के अवतार में वर्ण वर्ग एकाधिकारवादी पितृसत्ता के रुप में कहर बरपा रही है।



संत कबीर दास से शुरु निरीश्वरवाद की नई चार्वाक धारा की कोख से जनमे सुधार आंदोलन से हिंदुत्व का यह भूगोल बना है,जिसमें बहुसंख्य जनगण की आस्था हिंदुत्व है।यह कोई वैदिकी या सनातन हिंदुत्व नहीं है।


निरंतर प्रगतिशील,धर्मनिरपेक्ष,लोकतांत्रिक विविधता बहुलता का महोत्सव रहा है।


नवजागरण ने इस लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष आस्था को कानूनी हक हकूक में तब्दील करके सामंती अवेशेषों को मिटाने की पहल की जिसके नतीजतन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इसी भारतीयता की स्वतंत्र चेतना के तहत समूचे भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के पहले दिन से आदिवासी किसानों के साथ साथ हिंदू मुसलमानों का साझा आंदोलन जारी रहा है।


1857 की क्रांति में इस एकता के तहत जो स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बनी,उसी दिशा में आगे चलकर समूचे अखंड भारत की आजादी तय थी लेकिन मुस्लीम लीग और हिंदू महासभा के दो राष्ट्र सिद्धांतों पर अडिग होने के कारण अंततः भारत का बंटवारा हुआ।


1857 में भारतीय स्वत्ंत्रता संग्राम में अलग अलग आस्थाएं हमारी एकता का आधार बन गयीं और तम गोमाता या गोरक्षा या राम रहीम का कोई विवाद आड़े नहीं आया तो 1947 में उन्हीं आस्थाओं ने हमें दो से तीन राष्ट्रों के लहूलुहान अंजाम तक पहुंचा दिया और अब हम उन्हीं आस्थाओं पर भारत का न जाने कितने और विभाजन करने पर आमादा हैं।


बहुजन या दलितों का आंदोलन कोई नया नहीं है।संन्यासी और नील विद्रोह से लेकर चुआड़,संथाल कोल भील मुंडा गोंड विद्रोह और अनगिनत किसान विद्रोह से लेकर तेभागा आंदोलन के तहत इस देश में बहुजन समाज आकार लेता रहा है और इन विद्रोहों और आंदोलनों में जमींदारी रियासती तबके के सवर्ण सत्तावर्ग की कोई भूमिका नहीं रही है।बहुजन समाज के विघटन की वजह से दलितों,आदिवासियों,मुसलमानों और स्त्रियों के खिलाफ यह निरंकुश नरमेध अभियान नया है।


अंग्रेजी हुकूमत से नत्थी सत्तावर्ग ने चुआड़ विद्रोह से लेकर 1857 की क्रांति और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त तक हर कीमत पर स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ विदेशी हुकूमत का साथ वैसे ही दिया है जैसे आज के हुक्मरान विदेशी पूंजी और विदेशी हितों के लिए हिंदुत्व और विकास के नाम भारत को अमेरिकी उपनिवेश बना रहे हैं।


बंगाल में हरिचांद ठाकुर ने दो सौ साल पहले नीलविद्रोह का नेतृत्व किया जो किसानों और आदिवासियों का विद्राह था तो मध्य भारत से लेकर महाराष्ट्र और आंध्र, बंगाल से लेकर बिहार और असम समेत समूूचे पूर्वोत्तर और पूर्वी बंगाल में चुआड़ विद्रोह के तहत जाति धर्म निर्विशेष भारतीय शासक तबके ने ईस्ट इंडिया कंपनी से लगातार लोहा लेते रहे और इस विद्रोह के दमन के बाद  अंग्रेज हुक्मरान ने स्थाई बंदोबस्त के तहत जमींदारी प्रथा को आधार बनाकर अपने साम्राज्यवादी हुकूमत का सामंती संरचना  तैयार किया।


और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से लगभग दो सौ साल तक दगा और फरेब करने के बाद जमींदारी के संकट तेज होने के बाद,भूमि सुधार तेज होते जाने,दलित बहुजनसमाज के आकार लेकर बंगाल में सत्ता हासिल करने के कारण,आदिवासी किसानों के लगातार आंदोलनों के जरिये वर्गीय ध्रूवीकरण के कारण साम्राज्यवादियों की उसी सामंती संरचना ने हिंदू राष्ट्र के एजंडे के तहतभारत का विभाजन कर दिया।


बंगाल के समांतर पंजाब,महाराष्ट्र,गुजरात,केरल,कर्नाटक,आंध्र और तमिलनाडु में लगातार दलितों और बहुजनों का आंदोलन सैकड़ों सालों से जारी रहा है जबकि सामंतीवाद के खिलाफ दलित बहुजन स्त्री अस्मिता की लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष विरासत संत कबीरदास और संत रविदास,सूरदास,मीराबाई,रसखान,दादू और सिख गुरुओं के नेतृत्व में गायपट्टी की लोक विरासत चौदहवीं सदी से अटूट रही है और जो सामाजिक न्याय की राजनीति गायपट्टी में हो रही है,उसका आधार किसी मसीहा का करिश्मा नहीं,बल्कि यही लोकसंस्कृति है।


स्वतंत्र भारत में बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की एकमात्र छवि वैध है,वह है संविधान निर्माता की छवि।बहुजन और दलित आंदोलन,स्त्री अस्मिता और मेहनकशों, आदिवासियों और पिछड़ों के हक हकूक को धम्म आधारित संविधान की प्रस्तावना संवैधानिक रक्षाकवच देने वाले बाबासाहेब को हम किसी दूसरी छवि में देखने को अभ्यस्त हैं नहीं और न ही हम राष्ट्रनेताओं की अग्रिम पंक्ति में वोट बैंक राजनीति की मजबूरियों के बावजूद उन्हें कहीं रख सकें।


बाबासाहेब को जो न्यूनतम स्वीकृति मिली,हरिचांद गुरुचांद ठाकुर,बशेश्वर के लिंगायत आंदोलन,पेरियार के द्रवि़ड़ आंदोलन,स्वाधिकार और शिक्षा के लिए महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले, अय्यनंकाली  की पहली मजदूर किसान हड़ताल को उस तुलना में कोई मान्यता नहीं मिली है और बाकी देश के लोगों को उनके बारे में खास कुछ भी मालूम नहीं है।इस मायने में दलित आंदोलन निराधार है।


बंकिम चंद्र के आनंदमठ और बंदेमातरम की वजह से साधु संत फकीर पीर बाउल के नेतृत्व में हिंदुओं औ मुसलमानों,आदिवासियों और बहुजनों के आंदोलन का इतिहास अब हिंदुत्व का इतिहास है तो वंदेमातरम हिंदू राष्ट्र का जयघोष है।यह इतिहास से हमारी बेदखली की शुरुआत है।


इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि के बिना हिंदू राष्ट्रवाद के इस निराधार आधारकार्ड को समझना उतना ही मुश्किल है जैसे सिंधु घाटी की नगर वाणिज्यिक सभ्यता के नागरिकों को बालीवूड फिल्मों में नरभक्षी आदिवासी के रुप में चित्रित करना और परित्राता के रुप में त्रिशुलधारी आर्य महानायक का अवतार या फिर शिवाजी महाराज की विरासत के खिलाफ और महाराष्ट्र के देशज बहुजन इतिहास के विध्वंस के तहत चितपावन बाजीराव का महिमामंडन है।


चुआड़ विद्रोह के बारे में चर्चा होती ही नहीं है और महाश्वेता देवी ने बाकी किसान आदिवासी आंदोलनों के साथ इसकी चर्चा की है लेकिन हमारे अभिलेखागार या हमारे इतिहास या साहित्य में 1857 से पहले पलाशी की लड़ाई के तुरंत बाद भारतव्यापी शूद्र, मुसलमान,अछूत,आदिवासी शसकों के इस महाविद्रोह के बारे में कुछ भी कहीं उपलब्ध नहीं है।


बंगाल के चंडाल आंदोलन और बाबासाहेब के आंदोलन से पहले अस्पृश्यता निषेध कानून  के बारे में शेखर बंदोपाध्याय ने लिखा है तो हाल में बांग्ला अखबारों में,टीवी चैनलों पर दलित सब अल्टर्न विमर्श में दलितों और बहुजनों की कोई भागेदारी नहीं है।इतिहास और लोक से बेदखली की वजह से यह अलगाव है क्योंकि शिक्षा और ज्ञान के अधिकार से वंचित हमारे पुरखों ने कुछ भी नहीं लिखा है।


महात्मा ज्योतिबा फूले,बाबासाहेब अंबेडकर और पेरियार को छोड़कर दलितों और बहुजनों के इतिहास भूगोल की चर्चा दलितों और बहुजनों की ओर से कहीं हुई नहीं है जैसे भारत की स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक रचा गया है और इस संग्राम के बहुजन नायकों नायिकाओं की कोई कथा नहीं है।उसी तरह भारत विभाजन के शिकार लोगों की कोई कथा व्यथा विभाजनपीड़ितों की जुबानी में नहीं है।


मेरे पिता तजिंदगी अंबेडकर और साम्यवादी,किसान और शरणार्थीि आंदोलन के सिलसिले में कैंसर से रीढ़ की हड़्डी गल जाने से मौत के अंजाम तक पहुंचने से पहले तक सक्रिय रहे।


हमारे पुरखे मतुआ आंदोलन के भूगोल और इतिहास के लोग हैं।जो सन्यासी विद्रोह से लेकर नील विद्रोह और फिर तेभागा तक के लड़ाके रहे हैं।न मेरे पिता ने इस बारे में कुछ लिखा और न हमारे पुरखों ने कुछ लिखा।


हरिचांद गुरुचांद ठाकुर ने भी स्वयं कुछ लिखा नहीं है।उनके अनुयायियों ने हरिलीला और गुरुचांद लीला भक्तिभाव से लिखा है,जिसमें इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है और बाकी भारत के लोगों को बहुजन समाज की इस पकी हुई जमीन के बारे में कोई अता पता नहीं है।


बाबासाहेब को बंगाल से संविधान सभा में चुनकर भेजने वाले जोगेंद्र नाथ मंडल और बैरिस्टर मुकुंद बिरहारी मल्लिक ने भी कुछ लिखा नहीं है।महाप्राण जोगेंद्र नाथ मंडल ने तो वैसे ही पाकिस्तान का संविधान रचा है जैसे बाबासाहेब ने भारत का संविधान।लेकिन बाकी कुछ जोगेंद्र नाथ मडल ने नहीं लिखा।


उनके बेटे जगदीश चंद्र मंडल ने अंहबेडकर जोगेंद्र पत्र व्यवहार,पुणे समझौता,साइमन कमीशन,असेंबली और संसद के माइन्यूट्स,अखबारी कतरनों और भारत विभाजन के दस्तावेजों का संकलन महाप्राण जोगेंद्रनाथ रचनावसली में कर दिया लेकिन मुकुंद बिहार मलिलिक और मंडल और मल्लिक के साथियों के हवाले से हमें कुछ भी मलूम नहीं है।


इसीतरह हम अय्यंन काली की विरासत से बेदखल हैं।बशेश्वर के बारे में हम खास जानते ही नहीं है।बशेश्वर को पहचानते नहीं हैं।बुद्ध धर्म और धम्म के इतिहास को छोड़ दीजिये,हमने अभी गुरु ग्रंथ साहेब का पाठ बही नहीं किया है,जो अनिवार्य है।


अंबेडकरवादियों का हल यह कि आंदोलन से दशकों से जुड़ेलोगों को बी बाबासाहेब का लिखा सिलसिलेवार पढ़ने की फुरसत नहीं है।


गनीमत है कि बाबासाहेब  भीमराव अंबेडकर  पढ़ते लिखते रहे हैं और इसलिए भारतीय इतिहास. अर्थव्यवस्था, स्वतंत्रता संग्राम,धर्म कर्म और संविधान कानून के बारे में दलितों और बहुजनों का पक्ष हमें मालूम है वरना हमारा इतिहासबोध और वैज्ञानिक दृष्टि फिर वही सामंतवादी धर्मोन्माद के अलावा कुछ भी नहीं है।


मेहनतकशों को अ आ इ ई सीखकर उन्हें हथियार बनाने का सबक सफदर हाशमी जो देते रहे हैं,उसका आशय इतिहास और भूगोल से बेदखली के खिलाफ लड़ाई का ऐलान है।


अब सोशल मीडिया में लाखों की तादाद में बहुजन मौजूद है और हद से हद वे जयभींम और नमोबुद्धाय या पारिवारिक अलबम या जोक्स तक सीमाबद्ध है और उनका कोई कांटेट नहीं है।


वे समझते ही नहीं है कि ब्राह्मणवाद के अनंत कांटटेंट के मुकाबले बहुजनों क पक्ष में और आम जनता के मुद्दों पर कोई कांटेट रचे बिना हम नया इतिहास बनाने की कोई तैयारी कर ही नहीं सकते और कहीं से इस कैद से रिहाई का रास्ता भी इस मूक वधिर जनता के लिए कोई मसीहा  बना नहीं सकता।


हमारे जैसे इक्का दुक्का लोग जो बहुजन विमर्श का कांटेट शेय़र करते हैं,वे उसे पढ़ते भी नहीं हैं और मीडिया और मुख्यधारा को गरियाने या ब्राह्मणों के खिलाफ युद्धघोषणा करके अपनी हर हरकत से ब्राह्मणवाद को मजबूत करते हुए हिंदुत्व की वानर सेना बने हुए हैं।और मुक्तबाजारी जाति तिलिस्म को अपनी क्रयशक्ति से हत्यारी सत्ता संस्कृति में बदलने में उनकी निर्णायक भूमिका है।वे नहीं बदले तो कुछ भी नहीं बदलेगा।


अपने हिस्से का इतिहास दर्ज किये बिना बदलाव की कोई लड़ाई असंभव है क्योंकि भारत के बहुसंख्य लोग इतिहास भूगोल और संविधान में अस्पृश्य हैं चाहे जाति धर्म और नस्ल और भाषा उनकी कुछ भी हो।

अलगाव की जमीन यहीं पर बनती है।


इतिहास की गहराई में पैठे तो साफ जाहिर है कि राजतंत्र में भी जो लोकतंत्र की विविधता और बहुलता भारतीय इतिहास की विरासत है,हम आज उससे सिरे से बेदखल हैं।फिरभी भारत लोक गणराज्य है।जो कुल मिलाकर सलवाजुड़ुम है या फिर शशत्र सैन्य विशेधाकार कानून है और हमारी कोई नागरिकता है ही नही।


रवींद्रनाथ की चर्चा हम बार बार करते हैं जिसे इस देश के मुसलमान और बहुजन ब्राह्मणवाद का अवतार मानकर कारिज कर देते हैं और नहीं जानते कि वे जाति से अस्पृस्य ब्राह्मण थे और बहिस्कृत उनका परिवार पूर्वी बंगाल से कोलकाता आया और उनके पुरखों में अनेक लोग मुसलमान और दलित बनकर पूर्वी बंगाल में ही मर खप गये और उनके परिवार ने भी ब्राह्मणत्व को तिलांजलि देकर ब्रह्मसामाज आंदोलन में निर्णायक भूमिका अदा की और इसी वजह से नौबेल पुरस्कार पाने के बाद भी वे पुरी के मंदिर में उसी तरह अस्पृश्यता के अपराध में निषिद्ध घोषित हुए जैसे भारत की प्रधानमंत्री की हैसियत से भी श्रीमता इंदिरा गांधी को पारसी फिरोज गांधी से विवाह के अपराध में काठमांडो के पशुमति मंदिर में घुसने नही दिया गया।नेहरु वंश की विरासत,कश्मीरी पंडित की पहचान को हिंदुत्व ने कोई रियायत नहीं दी है।


आज ही बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार जयंत घोषाल ने बांग्ला दैनिक आनंदबाजार पत्रिका के अपने संपादकीय आलेख में अखंड हिंदू समाज के बारे में लिखते हुए शीर्षस्थ संघियों के हवाले से लिखा है कि सौ विवेकानंद भी पैदा हो जाये तो चंडाल जनम जनम तक चंडाल रहेंगे।जाति व्यवस्था का अंत नहीं है।अस्पृश्यता अनंत है।


यह हिंदू राष्ट्रवाद है और इस नजरिये से हिंदुत्व के एकमात्र शूद्र मसीहा स्वामी विवेकानंद का नरनारायण उसीतरह अस्पृश्य है जैसे रवींद्रनाथ का नरनारायण।


यह आंदोलन से भी  जरुरी है कि हम पहले समझ लें कि दलितों, आदिवासियों, विभाजनपीड़ितों और मुसलमानों के सफाये के इस राजकाज और राजधर्म का प्रस्थानबिंदू इतिहास और भूगोल से उनकी बेदखली का खुल्ला मुक्तबाजारी एजंडा है।


एक बात और,बाबासाहेब का जाति उन्मूलन का मिशन उनकी विचारधारा और आंदोलन का प्रस्थानबिंदू है तो हिंदुत्व से और महात्मा गाधी से लेकर सवर्ण राष्ट्रीयता के तमाम राष्ट्रनेताओं से उनके मतभेद और टकराव से लेकर पुणे करार और आरक्षण के मौजूदा राजनीतिक बंदोबस्त का आधार फिर वही जाति उन्मूलन का एजंडा है।उनके इस एजंडा में आर्यसमाज आंदोलन की भी खास भूमिका है।


आर्यसमाजियों के जाति तोड़क स्मेलन में बाबासाहेब को भाषण देना था और ब्राह्मणवाद पर उनके निर्मम प्रहार के कारण आर्यसमाजियों ने बाबासाहेब को यह भाषण देने की इजाजत नहीं दी तो उन्होंने इस भाषण को पुस्तकार छापा।जिस पर गांधी ने हिंदू समाज के विघटन की दलील के तहत कड़ा ऐतराज जताया और उनके तर्कों का बाबासाहेब ने खंडन किया।


इस विमर्श का भारत के कम्युनिस्टों ने कोई नोटिस नहीं लिया जाति व्वस्था के कारण भारत में वर्गीय ध्रूवीकरण की अनंत बाधाओं के सामाजिक यथार्थ के बावजूद तो भारत के बहुसंख्य आम जनता को भी जैसे धम्म में पैठी अपनी सांस्कृतिक जड़ों और सामाजिक आचरण और मूल्यबोध की कोई समझ या चेतना नहीं है,वैसे ही जाति उन्मूलन के बाबासाहेब के इस एजंडे का हमें अता पता नहीं है।


बंगाल में मतुआ आंदोलन और पंजाब में आर्यसमाज आंदोलन भारत में वैदिकी कर्म कांड और ब्राह्मणवाद के विरोध में,जातिव्यवस्था के खिलाफ मुख्यधारा के बहुजन आंदोलन रहे हैं।जिसका आम लोगों पर असर देशव्यापी बहुत घना रहा है।


बंगाल में तो बहुजनों के साथ साथ मुसलमान भी बड़ी संख्या में मतुआ आंदोलन के सिपाही थे और आज भी बांग्लादेश में मतुआ आंदोलन में मुसलमान शामिल हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में नहीं हैं।बंगाल में दरअसल मतुआ आंदोलन सता का वोटबैंक है।


हिंदुत्व के पुनरूत्थान से हम आर्यसमाज आंदोलन से बेदखल हैं और हमें इसका कोई अहसास तक नहीं है जैसे मतुआ लोगों को अपना इतिहास मालूम नहीं है।

आर्यसमाज का अवसान का नतीजा यह बेमौसम कयामती हिंदुत्व है।


बांग्लादेश  में ग्लोबल आतंकी नेटवर्क के साथ युगलबंदी में जितना प्रलयंकर होकर बांग्ला राष्ट्रीयता के लोकतांत्राक धर्मनिरपक्ष प्रगतिशील ढाचे को खत्म करने पर आमाजदा है इस्लामी जिहादी धर्मोन्माद और आतंकवाद उसके मुकाबले भारत के हिंदू तालिबान के खिलाफ मोर्चाबंदी करीब करीब अनुपस्थित होने के सामाजिक यथार्थ के मुकाबले बांग्लादेश में दलित आंदोलन में समस्त बौद्ध, ईसाई, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष मुसलमानों,साधु संतों,पीरो,फकीरों और बाउलों का आंदोलन एकताबद्ध दलित आंदोलन है जो दरअसल अब भी पूर्वी बंगाल की विरासत के मुताबिक बहुजन आंदोलन है जो भारत के पश्चिम बंगाल में भी अनुपस्थित है।


भारत में हिंदुत्व के मोर्चे से बांग्लादेश की इसी प्रगतिशाल धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक दलितआंदोलन पर हमले ज्यादा हो रहे हैं।धर्मोन्माद पर बहुत कम।


हम बार बार लिख रहे हैं कि भारत का विभाजन मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी का विभाजन है और इसका आशय वही इतिहास और भूगोल,मातृभाषा और लोक संस्कृति से बेदखली है।


इसीके साथ ही यह बंगाल के  मतुआ आंदोलन और पंजाब के आर्यसमाज आंदोलन का विभाजन और बंटाधार है जो बहुजनों के विध्वंस और आत्मध्वंस का आधार है।


भारत विभाजन से पहले मुसलमानों और गैरहिंदुओं का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले हिमलयी जनता सवर्ण और बहुजनों,दोनों  का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले बाहुबलि सवर्ण राजपूतों और क्षत्रियों  का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष नागरिकता  का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले आदिवासियों का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले पिछड़ों का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले दलितों और बहुजनों  का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले मेहनतकशों और किसानों  का यह अलगाव भारतीयइतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


भारत विभाजन से पहले बच्चों और स्त्रियों का यह अलगाव भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में हुआ नहीं है।


कल हमने अभिषेक श्रीवास्तव के ऊना आंदोलन के बाद दलितों के अलगाव और उनपर हो रहे सवर्णों के हमलों पर रपट से पहले हस्तक्षेप पर लिखा है कि आजादी कोई रोटी नहीं है कि जब चाहे तब उसे पृथ्वी की शक्ल दे दें।वह आलेख बी पढ़ लें।


अभिषेक की टिप्पणी पर हमने लिखा है कि कि इस अलगाव की खास वजह आंदोलन की तैयारी न हो पाना है और हमलों की वजह भी यही अलगाव है क्योंकि आंदोलन छिटपुट भावावेग है और इसकी कोई संरचना अभी बनी नहीं है।


आंदोलन ही काफी नहीं है।

आंदोलन में शामिल जनसमूहों को सलवा जुड़ुम से बचाने की जिम्मेदारी नेतृत्व की है।

इसके लिए देशव्यापी मोर्चाबंदी अनिवार्य है और हमने इस दिशा में अभी कुछ किया नहीं है तो छिटपुट धमाकों से हिंदुत्व की इस सर्वनाशी सुनामी का मुकाबला करना असंभव है।


दलित अकेले यह लड़ाई जीत नहीं सकते जबतक कि हम आम लोगों को ब्राह्मणवाद के खिलाफ मोर्चाबंद कर न लें।ब्राह्मणवादी समरसता के मुकाबले आम जनता का मानवबंधन बेहद जरुरी है और भारतीय छात्रों और युवाओं ने इसकी पहल कर दी है।


भारतीय स्त्रियों  की पितृसत्ता विरोधी आंदोलन की नींव पर छात्रों और युवाओं के इसी आंदोलन को मनुस्मृति दहन दलित आंदोलन में तब्दील करने की अब चुनौती है।


आदिवासियों,मेहनतकशों और पिछड़ों को दलितों के साथ खड़ा करना पहले जरुरी है।पितृसत्ता के खिलाफ आधी आबादी को एकजुट करना भी जरुरी है।










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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

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अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

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