हमारे बेहिसाब दोस्त पंकज सिंह नहीं रहे हमारे तमाम प्रिय लोग एक एक करके अलविदा कह रहे हैं और अकेले में हम निहत्था चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं।1984 चाकचौबंद है और हमारे सारे हथियार चूक रहे हैं।हम लहूलुहान है एकदम पंकज सिंह की तरह।
हमारे बेहिसाब दोस्त पंकज सिंह नहीं रहे
हमारे तमाम प्रिय लोग एक एक करके अलविदा कह रहे हैं और अकेले में हम निहत्था चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं।1984 चाकचौबंद है और हमारे सारे हथियार चूक रहे हैं।हम लहूलुहान है एकदम पंकज सिंह की तरह।पलाश विश्वास
Pankaj Singh singing Mukesh on Nelaabh's 70th birthday
पंकज सिह बेहद हैंडसाम थे।हमने छात्रावस्था में इलाहाबाद और नई दिल्ली में उनके मैगनेटिक आकर्षण विकर्षण के किस्से सुन रखे थे।जेएनयू के पेरियर हास्टल में बेतरतीब कवि दार्शनिक गोरख पांडेय के कमरे में पंकज सिंह से पहली दफा सामना हुआ बजरिये उनका सजोसमान जो वे किसी गर्ल फ्रेंड के साथ जर्मनी जाने से पहले वहां छोड़ गये थे।
तब तक पद्माशा झा से उनका अलगाव हो चुका था।
वे बीबीसी लंदन में भी रहे।
आखेरे वे कल्पतरु एक्सप्रेस के संपादक भी रहे।
कविताएं बहुत दिनों से उनकी पढ़ी नहीं हैं।
हमारे बड़े भाई समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंदस्वरुप वर्मा अक्सर ही उन्हें लेकर अस्पताल दौड़ते पाये जाते थे क्योंकि उन्हें अजब बीमारी थी,नाक से खून बहने की।खून रुकता ही न था।
वे हमारे पंकज दा के भी दोस्त थे।
न जाने कितने दोस्त थे उनके।
नीलाभ और पंकज सिंह की प्रतिभा,उनकी कविता और उनकी पत्रकारिता का हम तभी से कायल रहे हैं।जिन्हें लेकर समान ताल पर विवाद होते रहे हैंं।
आनन्द स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट या मंगलेश डबराल या वीरेन डंगलवाल की तरह ये दोनों प्राणी निर्विवाद नहीं रहे हैं।
पंकज सिंह तो हमारे पूर्व संपादक ओम थानवी तक के घनघोर मित्र रहे हैं।
कल दफ्तर गये तो हमारे इलाहाबादिया मित्र शैलेंद्र ने कहा कि पंकज सिहं नहीं रहे और हम सुन्न रह गये।कल कुछ लिखा नहीं गया।
आखिरी दफा बरसों पहले पंकज सिंह से हमारी मुलाकात हिंदी साहित्य के तमाम दिग्गजों के सान्निध्य में नई दिल्ली इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई जहां मैं धड़ल्ले से गरिया रहा था अपने संपादक ओम थानवी को।
जब मैंने कहा कि हम तो दिल्ली में भी खिसी को पिट सकते हैंं।गुंडे हमारे पास भी कोई कम नहीं है।
तो पंकज सिंह ने पीठ पर हाथ रखकर कहा,पीटने की कोई जरुरत नहीं है और न गरियाने की।थानवी मित्र हैं।हम उनसे बतिया लेंगे।यकीन रखो,वे जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखेंगे।
उनके हाथों का वह स्पर्श और उनके बोल अभी महसूस सकता हूं लेकिन वह शख्सियत हमारे बीच अब नहीं है।
हमारे तमाम प्रिय लोग एक एक करके अलविदा कह रहे हैं और अकेले में हम निहत्था चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं।
1984 चाकचौबंद है और हमारे सारे हथियार चूक रहे हैं।
हम लहूलुहान है एकदम पंकज सिंह की तरह।
हमारे अन्य मित्र उदय प्रकाश ने लिखा हैः
अभी-अभी यह अप्रत्याशित, स्तब्ध और अवसन्न कर देने वाली खबर मिली कि पंकज सिंह नहीं रहे. इतनी असंख्य स्मृतियाँ हैं, उनके साथ ...सन १९७५ से लेकर इस बीतते हुए साल तक की.... अभी कुछ रोज़ पहले ही Surendra Grover जी इस जिद में थे कि हम एक साथ एक शाम गुजारेंगे और पंकज सिंह से 'कहीं बेखयाल हो कर ...मुझे छू लिया किसी ने ...' हंसी हंसी पनवा खियउले बेइमनवा....', 'महुआ के चिनगी दागी ल दगाईगे....! " और ना जाने कितने ही गीत सुनेंगे, जो वे जेएनयू के बीते हुए दिनों में डूब कर उन गुज़री शामों में गाते थे.
पेरियार हास्टल के कमरा नंबर ३०५ में वे मेहमान बन कर लम्बे अरसे तक साथ रहे.
संघर्षों के साथी ...
सलाम ! डाक्टर ! भरे हुए दिल से सलाम आख़िरी !
उन्हीं की कविताओं की कुछ पंक्तियाँ उनके संग्रह -'आहटें आसपास' से :
'चट्टानों पर दौड़ है लम्बी
और दौड़ते जाना है गिर न जाएँ थक टूटकर
जब तक आख़िरी नींद में
तब भी दौड़ती रहेंगी हमारी छायाएं ....'
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