Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Wednesday, January 15, 2014

दलित पैंथर,कवि नामदेव धसाल नहीं रहे

दलित पैंथर,कवि नामदेव धसाल नहीं रहे


पलाश विश्वास

  1. नामदेव ढसाळ कविता की चित्र

  2. - छवियों की रिपोर्ट करें


भोर स‌ाढ़े पांच बजे हम गहरी नींद में थे कि मोबाइल रिंगने लगा।बार बार रिंगने लगा।दलित कवि व लेखक, विचारक और दलित पैथर्स पार्टी संगठन के संस्थापक नमोदेव लक्ष्मण धसाल का लंबी बीमारी के बाद बुधवार तड़के अस्पताल में निधन हो गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी मलिका शेख और एक बेटा है। उनका बांबे हॉस्पीटल में बुधवार तड़के लगभग चार बजे निधन हो गया। वह कैंसर से पीड़ित थे।सहयोगी के मुताबिक, धसाल का शव मुंबई के अंबेडकर कॉलेज में अंतिम दर्शन के लिए रखा जाएगा। उनका अंतिम संस्कार गुरुवार दोपहर दादर शवदाहगृह में होगा।



नामदेव ढसाल (नामदेव ढसाळ)


*

आपके पास चित्र उपलब्ध है?

कृपया kavitakosh AT gmail DOT com पर भेजें


जन्म: 15 फ़रवरी 1949

निधन: 15 जनवरी 2014


उपनाम


जन्म स्थान

पूना के निकट एक गाँव में, महाराष्ट्र, भारत ।

कुछ प्रमुख

कृतियाँ

गोलपीठा (1972), मूर्ख म्हातार्‍याने डोंगर हलवले (1975), आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र : प्रियदर्शिनी (1976), तुही यत्ता कंची (1981), खेळ (1983), गांडू बगीचा (1986), या सत्तेत जीव रमत नाही (1995), मी मारले सूर्याच्या रथाचे घोडे सात, तुझे बोट धरुन चाललो आहे आदि कुल ग्यारह कविता-संग्रह ।

विविध

दलित पैंथर आन्दोलन के संस्थापक (1972), बुद्ध रोहिदास विचार गौरव पुरस्कार (2009), साहित्य जीवन गौरव पुरस्कार (2004) और पद्मश्री पुरस्कार । कविताओं के अलावा नाटक और उपन्यास भी लिखे हैं।

जीवनी

नामदेव ढसाल / परिचय

डॉ० अम्बेडकर के लिए / नामदेव ढसाल

आज हमारा जो भी कुछ है

सब तेरा ही है

यह जीवन और मृत्यु

यह शब्द और यह जीभ

यह सुख और दुख

यह स्वप्न और यथार्थ

यह भूख और प्यास

समस्त पुण्य तेरे ही हैं


'तेरी उँगली थाम चला हूँ मैं' नामक कविता-संग्रह से।

मेरी प्रिय कविता / नामदेव ढसाल

मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप

मेरी फिर कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से

आदमी के साथ उसकी उँगली पकड़कर,

मुट्ठीभर लोगों के साँस्कृतिक एकाधिपत्य से किया मैंने ज़िन्दगी भर द्वेष

द्वेष किया मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,

नहीं रंगे मैंने चित्र ज़िन्दगी के ।


सामान्य मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,

प्रेम करता रहा मैं पशुओं से, कीड़ों और चीटियों से भी,

मैंने अनुभव किए हैं, सभी संक्रामक और छुतही रोग-बीमारियाँ

चकमा देने वाली हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियंत्रण में

सत्य-असत्य के संघर्ष में खो नहीं दिया है मैंने ख़ुद को

मेरी भीतरी आवाज़, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच के शब्द

मैंने जीने को रंगों से नहीं, संवेदनाओं से कैनवस पर रंगा है


मेरी कविता, तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल

पुराणों की ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर

वीनस हो अथवा जूनो

डायना हो या मैडोना

मैंने उनकी देह पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खांग दिया है


मेरी प्रिय कविता, मैं नहीं हूँ छात्र 'एकोल-द-बोर्झात' का

अनुभव के स्कूल में सीखा है मैंने जीना, कविता करना : चि निकालना

इसके अलावा और भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ

शून्य भाव से आकाश तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता,


बादलों के सुंदर आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते हुए

देखने से भर जाता है मेरा अंतरंग ।

मैं तरोताज़ा हो जाता हूँ, सम्भालता हूँ, समकालीन जीवन की

सामाजिकता को ।

धमनियों से बहता रक्त का ज़बरदस्त रेला,

तेज़ी से फड़फड़ाने वाली धमनी पर उँगली रखना मुझे अच्छा

लगता है ।


जिस रोटी ने मुझे निरंतर सताया,

वह रोटी नहीं कर पाई मुझे पराजित,

मैंने पैदा की है जीवन की आस्था

और लिखे हैं मैंने जीने के शुद्ध-अभंग

मनुष्य क्षण भर को अपना दुख भूले-बिसार दे

कविता की ऐसी पंक्ति लिखने की कोशिश की मैंने हमेशा,

भौतिकता की उँगली पकड़कर मैं चैतन्य के यहाँ गया,

परन्तु वहाँ रमना संभव नहीं था मेरे लिए, उसकी उँगली पकड़

मैं फिर से भौतिकता की ओर ही आया,

अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व के बीच स्थित

बाह्य रेखाओं का अनुभव मैंने किया है,

मैंने अनुभव किया है साक्षात ब्रह्माण्ड

कविता मेरी, बताओ

इससे अधिक क्या हो सकता है

किसी कवि का चरित्र ?


हे मेरी प्रिय कविता

नहीं बसाना है मुझे अलग से कोई द्वीप,

तू चलती रह, आम से आम आदमी की उँगली पकड़

मेरी प्रिय कविते,

जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी

फिर से वहीं आकर रुकना मुझे नहीं पसंद,

मैं लाँघना चाहता हूँ

अपना पुराना क्षितिज ।


मूल मराठी से सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित



उनकी रचनाओं में 1973 में प्रकाशित 'गोलपिथा', 'मूरख महातरयाने', 'तुझु इयात्ता कांची', 'खेल', 'प्रियदर्शिनी' (पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर आधारित), 'अंधेले शातक' और 'अम्बेडकरी चलवाल' शामिल है।


कोलकाता में भी कड़ाके की स‌र्दी होती है इन दिनों मकर स‌ंक्रांति के आस पास।कल से खूब सर्दी पड़ रही है।रात में अरसे बाद कंबल लेकर कंप्यूटर पर बैठना पड़ा और आज दिनभर सूरज के दर्शन तो नहीं हुए ,गंगासागर मेले की सर्दी जैसे यहीं स्तानांतरित हो गयी।


रात के दो बजे पीसी आफ करके स‌ोया था।सविता तो बारह बजने स‌े पहले टीवी आफ करके स‌ो गयी।बिजनौर में उसे बड़े भाई लगातार अस्वस्थ्य चल रहे हैं।


मोबाइल की घंटी स‌े वे पहले जाग गयी लेकिन फोन पकड़ने की हिम्मत उसकी नहीं हुई।


मैं रिंग स‌ुन रहा था लेकिन फिर भी नींद में था।


मुझे सविता ने कड़ककर आवाज दी।तब उठा औऱ काल रिसीव कर लिया तो उस पार बेहद भावुक रुआंसा अपने एच एल दुसाध थे जिन्होंने दिनभर कई दफा फोन किया था।


वे ट्रेन से दिल्ली को रवाना हो गये थे। हमारी समझ से परे थी वह वजह कि उन्होंने इतनी सर्दी में बीच रास्ते से फोन कैसे किया।


लगभग रोते हुए जो वे बोले ,पहले तो स‌मझ में नहीं आया।


बार बार पूछने पर खुलास‌ा हुआ कि मुंबई में दलित कवि नामदेव धसाल का निधन हो गया।बाद में एसएमएस स‌े दुसाध जी ने  स‌ूचित किया कि आज यानी बुधवार को तड़के स‌ाढ़े चार बजे कैंसर स‌े जूझ रहे धसाल आखिरी जंग हार गये।जाने माने मराठी कवि और तेज तर्रार कार्यकर्ता नामदेव धसाल का लंबी बीमारी के बाद आज यहां एक अस्पताल में निधन हो गया । वह 64 साल के थे ।वह आंत और मलाशय के कैंसर से पीड़ित थे ।


फिर उनसे मोबाइल पर दिनभर कनेक्ट नहीं कर सका।इसी बीच टीवी स्क्रालिंग पर धसाल की मौत की खबर शुर्खी में तब्दील भी होने लगी।लेकिन आज दिनभर नेट नहीं चला। अब जाकर छह बजे के करीब नेट खुला जबकि मुझे दफ्तर निकलना है।


वहीं, वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध पत्रकार रणेन मुखर्जी का मंगलवार को निधन हो गया। यह जानकारी उनके परिवार के एक सदस्य ने दी। मुखर्जी 86 वर्ष के थे और उनके परिवार में एक बेटी है।


महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद वह एक स्कूली छात्र के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे। उन्हें राशिद अली दिवस मनाने के दौरान 1946 में गिरफ्तार कर लिया गया था।


इसके बाद वह आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक से जुड़े थे और दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था। वह 1959 में पश्चिम बंगाल में खाद्य आंदोलन से भी जुड़े थे।


उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत फारवर्ड ब्लॉक के बंगाली मुखपत्र लोकसेवक से की थी। वह लोकमत, गनबार्ता, दैनिक बसुमती, भारतकथा, सतजुग, बर्तमान और सम्बाद प्रतिदिन से भी जुड़े थे।


उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को कवर किया था और बंगबंधु शेख मुजिबुर रहमान के संपर्क में आए थे। उन्होंने उनकी जीवनी मुजिबुर रहमान 'आमी मुजिब बोल्ची' लिखी थी, जिसे काफी सराहना मिली थी। उन्होंने लगभग 30 किताबें लिखी थी, जिसमें शहीद खुदीराम बोस, फारवर्ड ब्लाक नेता हेमंत कुमार बसु और मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता प्रमोद दासगुप्ता की जीवनी शामिल है।


उनका पार्थिव शरीर फारवर्ड ब्लॉक राज्य समिति के दफ्तर में ले जाया गया जहां पार्टी के राज्य सचिव अशोक घोष ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। इसके बाद प्रेस क्लब में पत्रकारों और माकपा पोलितब्यूरो के सदस्यों बिमान बोस और सूर्यकांत मिश्रा ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से भी पुष्प अर्पित किया गया।


उनके पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि मुखर्जी ने मरणोपरांत शरीर दान करने का वादा किया था। उनका शव एनआरएस मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को दान कर दिया जाएगा।


दुसाध जी ने अपनी मंगलवार की लंबा बातचीत में धसाल की तुलना टैगोर स‌े की थी और उन्होंने अपनी पचपन किताबों में स‌े एक किताब टैगोर बनाम धसाल भी लिखी है।


मैं अति में विश्वास नहीं करता।मैं न ओमप्रकाश बाल्मीकि को प्रेम।लेकिन दलित जीवन के चित्रण के मामले में कहें तो शुरुआती सारे दलित लेखकों को मैं प्रेमचंद क्या,टैगोर क्या,महाकवि बाल्मीकि और महाकवि व्यास  से ज्यादा महान मानता हूं,क्योंकि उन महाकवियों ने अपने लोगों के सुख दुख को कभी आवाज ही नहीं दी।


धसाल उग्र दलित पैंथर मूवमेंट के संस्थापकों में से एक थे । यह आंदोलन 1960 के दशक के अंत में वर्ली के बीडीडी चॉल में जातीय दंगों बाद शुरू हुआ था ।

वह दलित साहित्य आंदोलन के अग्रदूत थे । पद्मश्री से सम्मानित धसाल मांसपेशियों की कमजोरी की बीमारी से भी पीड़ित थे ।

वर्ष 2007 में अभिनेता अमिताभ बच्चन और सलमान खान ने धसाल की मदद के लिए राशि जुटाई थी जिनका परिवार उनके इलाज के खर्चे के भुगतान के लिए अपना मकान बेचने के कगार पर था ।

नागरिक अधिकार कार्यकर्ता धसाल को उनकी एक किताब के लिए नेहरू पुरस्कार भी मिला था । 2004 में साहित्य में योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।

धसाल की चुनिंदा कविताओं का 'नामदेव धसाल: पोयट ऑफ अंडरवर्ल्ड' शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था ।




जाहिर है कि  दुसाध जी के भीतर हो रही खलबली उनपर भाववाद के वर्चस्व की वजह स‌े स‌मझ में आने वाली बात है।हाल ही में वे मुंबई के अस्पताल में धसाल स‌े मिलकर आये हैं।अस्पताल में ही धसाल ने अंतिम स‌ांसें लीं।उन्होने लिखा है कि एसएमएस करते हुए` मेरी आंखों में जार जार आंसू बह रहे हैं।'आगे उन्होंने लिखा है,पता नहीं यह जानकर आप पर क्या गुजरेगी कि व्श्वकवि नामदेव धसाल अब नहीं रहे।मेरे स‌ाथ दिक्कत यह है कि स‌ुबह स‌े नेट बंद है ,लिखर भी मैं तत्काल पोस्ट कर नहीं स‌कता।


महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने धसाल के निधन पर शोक व्यक्त किया है और उन्हें डॉ. भीमराव अंबेडकर के सिद्धांतों के प्रति समर्पित नेता करार दिया ।


चव्हाण ने उल्लेख किया कि धसाल ने 'गोलपिठा', 'खेल' और 'तू ही यात्ता कुंची' जैसे अपने साहित्यिक कार्य से दलित समुदाय की मुश्किलों को रेखांकित किया ।


लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल ने कहा कि साहित्य में धसाल का बड़ा योगदान है ।


महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष एकनाथ खड्से ने कहा कि राज्य ने एक महान साहित्यकार और दलित आंदोलन का नेता खो दिया है ।


भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने कहा कि धसाल क्रांतिकारी थे जो सामाजिक न्याय आंदोलन की उम्मीद के रूप में उभरे थे । वह सिर्फ कागज पर लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि उन्होंने इस माध्यम का इस्तेमाल सामाजिक जागरूकता के लिए किया ।

धसाल को अपनी किताब 'गोलपिठा' के लिए नेहरू पुरस्कार मिला था ।



नामदेव धसाल स‌े मुंबई जाते आते रहने के बावजूद मिलने की हमारी कभी इच्छा नहीं हुई।हालांकि हम जब भाषाबंधन में थे,तब नबारुण दा ने खास तौर पर उन की कविताओं का अनुवाद छापा था। बांग्ला के अद्वितीयगद्य पद्य लेखक व स‌ंपादक नवारुण भट्टाचार्य के मुताबिक वे कहां हैं ,किस हाल में हैं,इससे उनकी रनाओं का महत्व खत्म हो नहीं जाता।


दरअसल वैचारिक अवस्थान बदलकर कवि कार्यक्रता नामदेव धसाल जो हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये,तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुई।


जलगांव में हमारे मित्र स‌ुनील शिंदे जी स‌ंघी नहीं हैं  और विदर्भ में जनसरोकारों स‌े इस कदर जुड़े हैं कि भूमिगत कबीर कला मंच की शीतल स‌ाठे स‌मेत तमाम लोगों के निरंतर स‌ंपर्क में रहे हैं।उनका नामदेव धसाल स‌े नजदीकी स‌ंबंध रहा है।


कई दफा जलगांव के पास पचोला में उनके गांव में उनके घर डेरा जमाने के दौरान धसाल की खूब चर्चा हुई  और उसके बाद मुंबई जाने के बाद भी कभी इच्छा नहीं हुई कि किसी किस्म का स‌ंवाद नामदेव धसाल स‌े भी किया जाये।


बामसेफ के स‌क्रिय कार्यकर्ता होने स‌े कहीं न कहीं दिलोदिमाग पर एकपक्षीय दृष्टि का असर होता है और दूसरे पक्ष को स‌ुनने या स‌ुनने लायक स‌हिष्णुता का स‌िरे स‌े अभाव हो स‌कता है।नामदेव धसाल स‌े न मिलने की एक वजह यह हो स‌कती है।


दुसाध जी जब हमारे यहां आये और मुझे उनकी राजनीतिक परिकल्पना की भनक लगी और उनके स‌ाथ में भाजपाई ललनजी के आगमन की स‌ूचना मिली तो मैं स‌चमुच आशंकित था कि कहीं आप को रोकने के लिए दुसाध जी मिशन पर तो नहीं निकल पड़े।क्योंकि आप के उत्थान स‌े अब स‌बसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार को है।


दुसाध जी आरक्षण के विरोध में नहीं हैं और न तेलतुंबड़े आरक्षण के विरोध में हैं।दोनों लोग आरक्षण लागू करने की अंबेडकरी भूमिका के कट्टर स‌मर्थक हैं स‌मता और स‌ामाजिक न्याय के लिए।संघ परिवार और स‌त्ता वर्ग के आरक्षण विरोध स‌े उनका कुछ लेना देना नहीं है।मैं भी कारपोरेट राज में आरक्षण युद्ध में सारी ऊर्जा लगाकर जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के मोर्चे से बेदखली के इस आत्मध्वंसके दुश्चक्र से निकलना बहिस्कृत समाज की सर्वोच्च प्राथमिकता मानता हूं और बहुजन आंदोलन के एकमेव आरक्षम मुद्दे तक सीमाबद्ध हो जाने की त्रासदी को तोड़ने की ही कोशिश करता हूं।


हम तीनों इस स‌च के मुकातिब होकर कि स‌न 1999 स‌े आरक्षण लागू होने और आरक्षण पर नियुक्तियों की दर शून्य तक पहुंच जाने के बाद जिस देश में रोज स‌ंविधान की हत्या हो रही हो,जहां कानून का राज है ही नहीं और लोकतंत्र का स‌िरे स‌े अभाव है और राष्ट्र दमनकारी युद्धक स‌ैन्यतंत्र है,राजकाज राजनीति कारपोरेट हैं,वहां आरक्षम केंद्रित स‌त्ता में भागेदारी की एटीएम राजनीति स‌े बहुसंक्य स‌र्वहारा स‌र्वस्वहाराओं को कुछ हासिल नहीं होने वाला है।


कल रात जब अपने आलेख को अंतिम रुप देने स‌े पहले उसके टुकड़े हमने फेसबुक पर पोस्ट किये तो अनेक मित्रों की दुसाध जी के बारे में नाना शंकाएं अभिव्यक्त होती रहीं।


दरअसल दुसाध जी और लल्लन जी स‌े भी मैंने स‌ाफ स‌ाफ कह दिया था कि डायवर्सिटी मिशन का स‌ंघ परिवार अपने आरक्षणविरोधी,समता और स‌ामाजिक न्यायविरोधी स‌मरसता मिशन में ज्यादा इस्तेमाल किया है और करेंगे,राजनीति में हम लोग अगर आप का स‌ीधे तौर पर विरोध करते हैं तो शंघ परिवार के मिशन को ही ताकत मिलेगी।


हमने उनसे यही निवेदन किया कि डायवर्सिटी मिशन की मूल अवधारणा स‌ंसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बंटवारे के स‌ाथ देश जोड़ो अभियान में वे हमारा स‌ाथ दें।


हम मानते हैं कि भारतीवी अर्थव्यव्स्ता बुनियादी तौर पर कृषि अर्थ व्यवस्था है।इसी अर्थव्यवस्था पर एकाधिकारवादी दखल के लिये पहले वर्म व्यवस्था प्रचलित हुई और गौतम बुद्ध की स‌मता क्रांति के प्रत्युत्र में शासक तबके की प्रतिक्रांति के जरिये जाति व्यवस्था का उद्भव हुआ।


दोनों व्यवस्थाओं के मूल में रंग भेद है।


यह एक मुकम्मल अर्थ व्यवस्था है जिससे कृषि आजीविका स‌माज को हजारों जातियों में तोड़कर रख दिया है।अब मजा यह है कि आप जाति व्यवस्था के मातहत हैं या उस‌के बाहर मसलन आदिवासी और धर्मांतरित लोग,भिन्न धर्मी या फिर अस्पृश्य भूगोल के तथाकथित स‌वर्ण,आप इस अर्थशास्त्रीय महाविनाश स‌े बच नहीं स‌कते।


आज का मुक्त बाजार जनपदों और कृषि के ध्वंस पर आधारित है।जो काम कल तक जाति व्यवस्था कर रही थी,वह काम प्रबंधकीय दक्षता और तकनीकी विशेषज्ञता के उत्कर्ष पर खड़ी कारपोरेट राजनीति कर रही है और जाति व्यवस्था की तर्ज पर ही बहुसंख्य भारतीय कृषि स‌माज रंग बिरंगी कारपोरेट राजनीति में विभाजित हैं।


ये तमाम लोग हमारे हैं।इन स‌बको गोलबंद किये बिना हम बदलाव की लड़ाई लड़ नहीं स‌कते।उन स‌बसे स‌ंवाद जरुरी है।


यह बात हमारे अपढ़ पिता दिवंगत पुलिनबाबू जानते थे,जिसे हम अब स‌मझ रहे हैं।पिता आजीवन इस स‌ीख के तहत स‌माज प्रतिबद्धता में निष्णात रहे और हम कायदे स‌े आरंभ भी नहीं कर पाये।


हम पढ़े लिखों की स‌ायद यह दिक्कत है कि बात तो हम वैज्ञानिक पद्धति की करते हैं,अवधारणाओं और विचारधाराओं को,नीति ,रणनीति को स‌र्वोच्च प्राथमिकता देते हैं,लेकिन स‌ामाजिक यथार्थ के मुताबिक वस्तुवादी दृष्टि स‌े आचरण के कार्यबार स‌े चूक जाते हैं।


सामाजिक सरोकार के प्रति प्रतिबद्धता और उसके लिए सर्वस्व समर्पण भाव और ईमानदारी बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त नैतिक चरित्र का मामला भी है,जो वस्तुगत सामाजिक यथार्थ और वैज्ञानिक विचारधारा से किंतु अलहदा है,लेकिन सामाजिक बवलाव की कोई भी विधि इस स्थायी बाव के बिना, मेरे पिता पुलिनबाबू के पागलपन तक की हद की जुनून के बिना शायद असंभव है।


आप के शिखर पुरुष कहते हैं कि किसी विचारधारा में उनकी आस्था नहीं है।विचारशून्यता उत्तरआधुनिक विमर्श का स्थाईभाव है, लेकिन लोक परंपराओं में टटोलेंगे तो वहां जो जीवनदर्शन के विविध चामत्कारिक खजाना मिलेगा,वह स्थाई ईमानदार भाववाद के बावजूद सामाजिक यथार्थ की गहरी पकड़ के साथ दृष्टिसंपन्न  जखीरा ही जखीरा मिलेगा।सूफी संतों फकीरों के कबीरत्व की महान रचनाधर्मिता की परंपरा ही आखिर दलित आदिवासी साहित्यधारा में प्रवाहित हुई है,जिसके वाहक थे धसाल और ओम प्रकाश बाल्मीकि।


दुसाध जी स‌े अब तक परहेज करने का बड़ा कारण यह है कि वे बामसेफ के कटक राष्ट्रीय स‌म्मेलन स‌े करीब पांच स‌ाल पहले खदेड़ दिये गये थे।राजनेताओं और स‌ांसदों,खासकर स‌ंघ परिवार स‌े उनके स‌ंवाद और इसी आलोक में डायवर्सिटी के स‌िद्धांत को स‌मरसता के स‌मांतर रखने पर वे लगातार हमें स‌ंघी नजर आते रहे हैं।नईदिल्ली में उनकी सक्रियता हमें हमेशा संदिग्ध लगती रही है।


चंद्रभान प्रसाद स‌े हमारी घनघोर असहमति है और अब उतनी ही असहमति प्रियदिलीप मंडल स‌े हैं,जो बहुजनों के लिए ग्लोबीकरण जमाने को स‌्वर्णकाल कहते अघाते नहीं हैं।चंद्रभान जी दुसाद जी के मित्र हैं तो दिलीप मंडल डायवर्सिटी मिशन के उपाध्यक्ष।हाल के वर्षों में दिलीप स‌े वैचारिक दूरी भी इसी वजह स‌े है कि वे भी राजनेताओं के स‌ाथ खड़े पाये जाते हैं और कारपोरेट राज के खिलाफ कुछ भी नहीं कहते लिखते।


खास बात यह है कि दुसाध ग्लोबीकरण को हमारी तरह ही स्वर्णकाल नहीं,महाविध्वंस कयामत ही मानते हैं और वे भी कारपोरेट राज के उतने ही विरोधी हैं जितने हम।इसी बिंदु पर उनके स‌ाथ स‌ंवाद का यह स‌िलसिला बना।


लेकिन अफसोस  नामदेव धसाल स‌े स‌ंवाद का कोई स‌ेतु नहीं बन स‌का,जबतक हम मुंबई जाने जने लगे तब तक वे प्रखर हिंदुत्व की कट्टर शिवसेना के झंडेवरदार बन गये थे।


हम लोग न्यूनतम सहमति के प्रस्थानबिंदू से जनपक्षधरता का कोई संवाद चला नहीं पा रहे हैं,तो इसकी वजह हमें जान ही लेना चाहिए वरना आत्मध्वंस उत्सव के जोकर ही होंगे हम तमाम सर्कस के पात्र और सर्कस का सौंदर्यशास्त्र ही होगा सर्वस्वहारा सौंदर्यबोध।


वैसे हमने स‌ही मायने में दुसाध जी स‌े भी मिलने की कोई पहल नहीं की थी।मैं पेशे स‌े पत्रकार भी हूं तो स‌भी पक्षों के लोगों स‌े पेश के कारण भी हमारी बातचीत होती रहती है।दुसाध जी स‌्वयं हमारे यहां दिल्ली स‌े चले आये और स‌ंवाद की शुरुआत भी उन्होंने ही की और अंततः हमारी दलीलों स‌े स‌हमत हुए।इसका पूरा श्रेय उन्हींको।


नामदेव धसाल स‌े मिलकर बात करने की हम पहल नहीं कर स‌कें।


जबकि पिछले ही स‌ाल दिवंगत स‌ाहित्यकार ओम प्रकाश बाल्मीकि स‌े हमारी वामपक्षीय रोजनामचे के वर्गसंघर्षी वैचारिक तेवर के दिनों में भी रुक रुक कर स‌ंवाद होता रहा है। यह वाकई भारतीय बहुसंक्य बहिस्कृत मूक जनगण की अपूरणीय क्षति है कि उन्हें दो दो बड़े अपने दस्तखत स‌े बेहद कम स‌मय के अंतराल पर वंचित हो जाना पड़ा।


नामदेव ढसाळ

नामदेव लक्ष्मण ढसाळ (जन्मः फेब्रुवारी १५, इ.स. १९४९ पुणे जिल्हा मृत्यू:जानेवारी १५ इ.स. २०१४[१]) मराठी दलित साहित्यातील परिवर्तन घडवणारे लेखक आणि दलित चळवळीतील नेते आहेत. महानगरीय जीवन आणि बोली भाषा या विषयावरील मराठीतले महत्त्वाचे लेखन त्यांनी केले आहे.

अनुक्रमणिका

 [लपवा]

जीवन[संपादन]

पद्मश्री नामदेव ढसाळ यांचा जन्म १५ फेब्रुवारी १९४९ रोजी पुणे जिल्ह्यातील एका खेडेगावात झाला. त्यांच्या घरची परिस्थिती अत्यंत हालाखीची होती. त्यामुळे लहाणपणीच ते वडिलांसोबत मुंबईला आले. पुढे मुंबईतील गोलपीठा या रेड लाइट भागात त्यांचे बालपण गेले. त्यांची डॉ.बाबासाहेब आंबेडकरांवर नितांत श्रद्धा होती.दलित चळवळीकडे आकर्षित झाले. काव्य,गद्य, वृत्तपत्रांतील स्तंभलेखन यातून आंबेडकरांचे क्रांतिकारी विचार तितक्याच प्रखरपणे मांडण्याचे काम ढसाळ यांनी केले. दलितांचे,शोषितांचे जीवन स्वतः भोगलेला, अनुभवलेला हा सिद्धहस्त लेखक, कवी, कादंबरीकार, नाटककार होते.त्यांच्या क्रांतिकारी साहित्याची दखल जागतिक पातळीवरही घेतली गेली. नामदेव ढसाळांचे बालपण मुंबईतील झोपडपट्ट्यांमध्ये गोलपीठा भागात अत्यंत गरीबीत गेले. त्यांचे वडील खाटीक होते. त्यांनी स्वतः मुंबईमध्ये अनेक वर्षे टॅक्सी चालवली.

१९७३ मध्ये त्यांचा पहिला कवितासंग्रह गोलपीठा प्रकाशित झाला. यानंतर आणखी कवितासंग्रह मूर्ख म्हाताऱ्याने डोंगर हलवले (माओईस्ट विचारांवर आधारित), तुझी इयत्ता कंची?, खेळ (शृंगारिक), आणि प्रियदर्शीनी (इंदिरा गांधी यांच्या विषयीचा) प्रसिद्ध झाले.

दलित चळवळीचे प्रमुख शिलेदार[संपादन]

साहित्याच्या माध्यमातून दलितांच्या व्यथा, वेदनांना वाचा फोडणारे नामदेव ढसाळ दलित चळवळीचे एक प्रमुख शिलेदार होते. महाराष्ट्राबरोबरच देशाच्या राजकारणाला हादरा देणाऱ्या 'दलित पँथर' या आक्रमक संघटनेचे ते संस्थापक अध्यक्ष होते. दलित चळवळीतील समवयस्क सहकाऱ्यांच्या व साहित्यिकांच्या साथीने त्यांनी १९७२ मध्ये पँथरची स्थापना केली. अमेरिकेतील 'ब्लॅक पँथर' चळवळीपासून प्रेरणा घेऊन जन्मलेल्या या संघटनेने दलित चळवळीला एक आक्रमक चेहरा दिला. दलितांच्या अनेक प्रश्नांवर उग्र आंदोलने केली. तत्कालीन सरकारांना दलित हिताच्या भूमिका घ्यायला भाग पाडले. त्यावेळच्या प्रत्येक आंदोलनात ढसाळ यांनी हिरीरीने भाग घेतला. कालांतराने या चळवळीत फूट पडली. अनेक नेत्यांनी आपापले पक्ष स्थापन केले. मात्र, 'दलित पँथर'शी ढसाळ यांचे नाते अखेरपर्यंत कायम होते.

कारकीर्द[संपादन]

साठोत्तरी मराठी कवितेतील एक प्रतिभाशाली कवी. आपल्या विशिष्ट शैलीने मराठी कवितेच्या परंपरेत मोलाची भर घालणाऱ्या आणि भाषिक दृष्टया प्रमाण मराठी भाषेपेक्षा वेगळी भाषा वापरून मराठीला समृद्ध करणाऱ्या मोजक्या साहित्यिकांपैकी एक. आंबेडकरी चळवळीशी विशेषत: दलित चळवळीशी बांधिलकी. लिखाणावर लघुनियतकालिके, मनोहर ओक, त्याचबरोबर काही प्रमाणात दिलीप चित्र्यांचा प्रभाव दिसतो.

पुस्तके[संपादन]

कविता संग्रह[संपादन]

  • गोलपीठा (१९७२)

  • खेळ (१९८३)

  • मूर्ख म्हाताऱ्याने डोंगर हलवले (१९७५)

  • तुही यत्ता कंची (१९८१)

  • या सत्तेत जीव रमत नाही (१९९५)

  • मी मारले सूर्याच्या रथाचे घोडे सात

  • तुझे बोट धरुन चाललो आहे

  • आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र : प्रियदर्शिनी (१९७६)

  • गांडू बगीचा (१९८६)

नाटक[संपादन]

  • अंधार यात्रा

कादंबरी[संपादन]

  • हाडकी हाडवळा

  • निगेटिव स्पेस्

इतर[संपादन]

आंधळे शतक ।- मी भयंकराच्या दरवाजात उभा आहे (निवडक कवितांचा संग्रह)

पुरस्कार[संपादन]

संदर्भ[संपादन]



नामदेव ढसाळ

मुलाखतकार:

प्रशांत खुंटे

नामदेव ढसाळ हे मराठी व भारतीय साहित्याला वेगळे वळण देणारे लेखक. साहित्य अकादमी या प्रतिष्ठित संस्थेच्या सुवर्णमहोत्सवी वर्षानिमित्त साहित्यिकांना जीवनगौरव सन्मान देण्याचा उपक्रम सुरू झाला, त्याच्या पहिल्याच वर्षी अकादमीने सर्वप्रथम नामदेव ढसाळांचा गौरव केला. ढसाळ हे निव्वळ साहित्यिक कधीच नव्हते, नाहीत. सत्तरीच्या दशकात जोरदारपणे पुढे आलेल्या दलित चळवळीतील 'दलित पँथर' या युवक संघटनेचे ते प्रमुख नेते आहेत. याच काळात उदयाला आलेल्या अनियतकालिकांच्या चळवळीतही ते अग्रस्थानी होते. ढसाळांच्या ''गोलपिठा' या पहिल्याच कवितासंग्रहाने मराठी सारस्वतांना उपेक्षितांच्या जगाचं, जाणिवांचं, तीव्र संतापाचं आणि त्यामधून आलेल्या बेधडक अभिव्यक्तीचं जालीम दर्शन घडवलं. "गोलपिठा' ही मराठी साहित्यातील अजोड व अभिजात निर्मिती ठरली.

त्यानंतर तुही इयत्ता कंची, या सत्तेत जीव रमत नाही, गांडू बगीचा, मूर्ख म्हातार्‍याने डोंगर हलवले, आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र : प्रियदर्शनी, खेळ, मी मारले सूर्याच्या रथाचे सात घोडे, तुझे बोट धरून चाललो आहे मी हे कवितासंग्रह; हाडकी हाडवळा, निगेटिव्ह स्पेस या कादंबर्‍या, आंधळे शतक, आंबेडकरी चळवळ आणि सोशालिस्ट कम्युनिस्ट, तसंच बुद्धधर्म आणि शेष प्रश्‍न हे चिंतनपर लेखन नामदेव ढसाळांनी केलं. त्यांच्या या साहित्यिक कामगिरीचा गौरव भारत सरकारने त्यांना 'पद्मश्री' सन्मान देऊन केला.

नामदेव ढसाळांच्या बिनधास्त अभिव्यक्तीला श्रेष्ठ वैश्‍विक वाङ्‌मयीन जाण आहे. त्यांचं जीवन आणि साहित्य हे नेहमीच मराठी जगतात आदर, कुतूहल, वाद आणि चर्चेचा विषय राहिलं आहे. आंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय राजकारण-समाजकारण, समीक्षा, दलित चळवळीतील कंगोरे, कविता, कादंबरी असं बरंच काही ढसाळ गेली चाळीसहून अधिक वर्षं सातत्याने लिहीत आहेत. त्यांच्याशी प्रशांत खुंटे यांनी साधलेला हा संवाद.


दलित साहित्यात कुणी तरी बाप निघेलच ना!


-नामदेव ढसाळ

सत्तरच्या दशकात मराठी साहित्याला दलित साहित्याने भला मोठा धक्का दिला आणि एक नवी जाणीव साहित्यात आणली. आज तीस वर्षांनंतर हल्लीच्या मराठी साहित्याबद्दल तुम्हाला काय वाटतं? मराठी साहित्यात काही नवं, आश्‍वासक घडत आहे असं वाटतं का?

मुळात मराठी साहित्यात सर्वाधिक नवी गोष्ट सत्तरच्या दशकात घडली. मराठी साहित्यातील प्रस्थापित सांस्कृतिक मिरासदारीच्या विरोधात दलित साहित्याने नव्या प्रवाहाला जन्म दिला. ती प्रक्रिया आता अंतिम चरणात येऊन पोहोचली आहे. आता विविध जाती-समाजांतून आलेले तरुण लिहू लागलेत. दलित साहित्याने दिलेल्या जाणिवेचा हा परिणाम आहे. साहित्य हे मनुष्यकेंद्री असावं, हा विचार मराठी साहित्याच्या सातशे-साडेसातशे वर्षांच्या इतिहासात पहिल्यांदाच रुजायला सुरुवात झाली आहे. यापूर्वी साहित्याकडे एक मनोरंजनाचा भाग म्हणून पाहिलं जायचं. साहित्याला अलौकिक मानलं जायचं. परमेश्वराने अलौकिक प्रतिभा दिली आहे त्याचा तो परिपोष आहे, असं सांस्कृतिक मिरासदारी मिरवणारे, त्यासाठी कनिष्ठ जाती-समाजांचे अक्षर वाङ्‌मयीन व्यवहार नाकारणारे लोक मानीत असत. ह्या मक्तेदारीला धक्का देण्याचं काम दलित साहित्याने केलं. आता त्याचं नामाभिधान वेगवेगळं केलं जातं. कुणी त्याला आंबेडकरी साहित्य म्हणतात, तर कुणी सम्यक साहित्य, कुणी आणखी काही...

सत्तरच्या दशकात सुरू झालेल्या या प्रक्रियेतून एकूण मराठी साहित्य व्यवहारात नेमका काय बदल झालाय?

वाङ्‌मयाचं उद्दिष्ट सामाजिक अंगाने घेण्याची महत्त्वाची प्रक्रिया तेव्हा सुरू झाली. अमानुषीकरणाविरोधात पहिला ब्र उच्चारण्याची हिंम्मत दलित साहित्यामुळे मराठी साहित्याला मिळाली. आज जगभरचं वैश्विक वाङ्मयही समाजसंमुख संज्ञेतून चाललं आहे.

दलित साहित्याने मराठी साहित्यात मराठी साहित्यात का बदल केला, हे कळण्यासाठी थोडा इतिहास पहा. मराठी भाषेची व्युत्पत्ती ख्रिस्तपूर्व शके दहा हजार वर्षांपूर्वीची सांगितली जाते, पण मराठी भाषा प्राकृत आहे की संस्कृत आहे याचं डेस्टिनेशन सापडत नाही. महाराष्ट्र नावाने ओळखला जाणारा प्रदेश हा दक्षिण भागात होता. आर्यांच्या आक्रमणानंतर संकर सुरू झाला. दक्षिण भागातील नाग वगैरे लोकांच भाषेतून मराठी भाषेचा आरंभ झाला, अशीही एक वदंता आहे. शिलालेख वगैरेंच्या माध्यमातून महाराष्ट्राच्या संस्कृतीचा शोध घेतला जातो. शोधाच्या या पद्धतीने मुकुंदराजाला मराठी भाषेचा आद्य कवी मानलं आहे. माझं म्हणणं आहे, आर्य इथे येण्यापूर्वी या भूमीवर राहणारे द्रविडी लोक कुठली तरी भाषा वापरत असतीलच ना...ते काही नुसती चिन्हांची भाषा वापरत नसतील. त्या भाषेचं का झालं? ती भाषा व त्यातील अभिव्यक्तीचं काय झालं? माझं म्हणणं असं, की इतिहासामध्ये जे जेते होते त्यांनी तो सर्व इतिहास दडपलेला आहे. द्रविडी भाषेचं संस्कृत भाषेत रूपांतर करत करत ती प्रक्रिया मुकुंदराजापर्यंत आली. दलित साहित्याने या इतिहासाचा मागोवा घेतलाच, पण वर्तमानकालीन दु:खाचाही वेध घेतला. स्त्री आणि अस्पृश्यांच्या पिळवणुकीविरोधात आवाज उठवला. मुले-आंबेडकरांच्या विचारामुळे चारही वर्णांच्या अंतर्विरोधाचा वेध घेतला गेला. द्विज आणि शूद्र यांची होणारी छळवणूक दलित साहित्यानेच पहिल्यांदा मांडली. मनुष्यपणाचा अखंड विचार करणचं काम यामुळे झालं.

सत्ता, संपत्ती, प्रतिष्ठा आणि ज्ञानाची मक्तेदारी पूर्वी इथल्या अभिजनवर्गाकडे होती. त्यांची अभिव्यक्ती म्हणजेच वाङ्मय, असं मानलं जायचं. ब्रिटिश इथे आल्यानंतर जो पांढरपेशा समाज निर्माण झाला त्यांनी अभिजन साहित्याचा डोलारा मराठीमध्ये उभा केला. त्यामुळे अगदी आजही सामाजिक बांधिलकी मानणारे जे कुणी लेखक, कवी असतात ते साहित्यिक नाहीतच, त्यांची वाङ्मयीन अभिव्यक्ती ही वाङ्मयीन नाहीच, असं मानणारे लोक होते आणि आहेत. पण ज्यांना आपण 'सदाशिव पेठी किंवा 'हिंदू कॉलनी' चे साहित्यिक म्हणतो, त्यांचा आता पराभव झाला आहे. 'मौज आणि 'पॉप्युलर'ने जे काही निर्माण केलं होतं त्याचा काळ आता संपला आहे. ६४ वर्षं इथे भांडवली लोकशाही राबवल्यानंतर शिक्षणाचं लोण खालच्या वर्गापर्यंत पोहोचलं, त्यामुळे लोक लिहू-बोलू लागले. एक नवं साहित्य मराठीमध्ये अवतरू लागलं. या प्रक्रियेचं नेतृत्व आंबेडकरी साहित्याने म्हणा किंवा दलित साहित्याने म्हणा, केलेलं आहे. अद्यापही हे नेतृत्व टिकून आहे.

खरं तर याआधी अनितकालिकांची चळवळ झाली. परंपरावाद्यांनी नव अभिव्यक्तीची जी कोंडी केली होती तिच्याविरुद्ध या चळवळीने पहिलंदा बंड करण्याचं काम केलं. पण 'लिट्ल मॅगेझिन'च्या चळवळीला सामाजिक बांधिलकी आणि उत्तरदायित्त्व नव्हतं. सामाजिक बांधिलकी आणि उत्तरदायित्त्व मानणारे अभिजात साहित्यनिर्मिती करू शकत नाहीत, असं मानलं जायचं. पण उलट, अशा व्यक्तिनिष्ठ अनुभव आणि समाजविमुख भूमिकेतून केलेला लेखनाचा विचार आता मागे पडला.

असं असलं, तरी लिट्ल मॅगेझिन असो किंवा दलित साहित्य असो, या चळवळींमधला तो सामूहिक जोश, आवेश कुठे दिसत नाही...

मुळात असं आहे- कला आणि साहित्य या प्रांतात कुठल्या क्षणी काय होईल हे सांगता येत नाही. चळवळ करणं हे सकस वाङमयनिर्मितीला बाधक मानतात. दलित साहित्याच्या उदयाच्या वेळेला त्या सगळ्याला एक चळवळीचं रूप आलं. कारण त्या काळात सर्व बाजूंनी एक अटॅकच निर्माण झाला होता ना...आताही चळवळ नाही असं मला वाटत नाही. अर्थात, तसलं सकस लिहिणारे किती आहेत याचा मात्र आपल्याला विचार करावा लागेल. आता काय झालं- नामदेव ढसाळांचं 'गोलपिठा', त्यातली शैली, रचना, आशय, त्याचं वाङ्मयीन मूल्य यातला केवळ आवेश तेवढा घेऊन शब्दमोड करणारेच जास्त आहेत. त्यामुळे कसदार वाङ्मयनिर्मिती होत नाही. पण हेही समजून घेतलं पाहिजे की, ज्या समाजामध्ये अक्षरांच्या नादी लागणं हे देखील शक्य नव्हतं त्या गावकुसाबाहेरच समाजातील नव्या पिढीतील तरुण शब्दांचा खेळ करू लागलेत. अनेक लोकांना कविता करण्याचा व्यासंग जडला. आता ती कविता आहे की नाही, हा मुद्दा बाजूला ठेवू. पण एवढा इम्पॅक्ट दलित साहित्याचा झाला, की प्रत्येकाला वाटतं, आपण कविता करावी. त्यामुळे थोडा सवंगपणा आला खरा. पण या सवंगपणाच्या पार्श्वभूमीवरही चांगले लिहिणारे...आमच्यानंतरही चांगले लिहिणारे आहेतच. ते हाताच्या बोटांवर मोजण्याएवढे असतील, पण आहेत नक्की!

दलित साहित्यानं प्रातिनिधिक म्हणून जे उभं केलं त्याला काळानुसार मर्यादा येणारच. प्रत्येक नव संप्रदायाला अशा मर्यादा असतातच. जशी समाजातील उत्पादनाची साधनं बदलतात, त्या अनुषंगाने सांस्कृतिक व्वहार व अभिव्यक्तीही बदलतात. उदाहरणार्थ, आता जागतिकीकरणानंतर कॉर्पोटराझेशन होऊ लागलं. यातून श्रमजीवी वर्गाचा उत्पादनाशी असलेला संबंध तुटतो आहे. कल्याणकारी राजची संकल्पना राज्यकर्ते धाब्यावर बसवू लागलेत. परिणामी, श्रमजीवी वर्ग विस्थापित होतो. याचंही प्रतिबिंब नव कवितांमध्ये उमटू लागलं. उदाहरणार्थ, नाशिकच्या अरुण काळेचा अलिकडील कवितासंग्रह...अरुण काळे हा आमच्या खूप नंतरचा. पण कुठल्या दिशेने पुढे जायचं याचं जे दिशादिग्दर्शन दलित साहित्यानं केलं होतं, त्या ट्रॅकनेच लोक पुढे जाताहेत. शोषणाच्या सर्व प्रक्रियांविरोधात जाणं, बंड करणं ही दलित साहित्याची प्रेरणा होती.

पण तुम्ही म्हणता तसं हे बंड उमाळून येत नाही. असं का घडत असावं तची अनेक कारणं आहेत. भांडवली लोकशाहीमध्ये चळवळी संक्रमण अवस्थेच दडपणाखाली असतात. यात भांडवली व्यवस्थेचंही षडंत्र आहे. ते भेदाचं असेल तर एकूण शासनव्यवस्थेचा आणि शासनव्यवस्थेसोबत सांस्कृतिक व्यवस्थेचाही मुळातून विचार व्हायला हवा. आता हळूहळू ती भूमी तयार होत आहे. मग होईल ना...चळवळीत रूपांतर होईल...चळवळ अशी होईल की सत्तापालटच होईल.

तुम्हाला आशा वाटते, की अजूनही असं साहित्य निर्माण होईल, जे पिळवणुकीच्या व्यवस्थेला आव्हान देऊ शकेल?

हे पहा- साहित्यनिर्मिती आणि सत्तापालट ह्या दोन अलग गोष्टी आहेत. कुठलीही सत्ता माणसांशी कशी वागणूक करते त्या दृष्टीने समाज, जनता विचार करते, आणि जी जनतेच्या हिताविरुद्ध असते ती सत्ता माणसं कोलमडून टाकतात. हा माणसाच्या उत्क्रांतीचा हजारो वर्षांचा मूलभूत गुणविशेष आहे. त्यामुळे आता का होणार, का होणार म्हणून निराश व्हायची गरज नाही. माणसाच्या जगण्याचं जे बेसिक सूत्र आहे ते काही कुणासाठी अडत नाही. बदल घडणारच.

आपल्याकडे अधूनमधून अभिव्यक्तिस्वातंत्र्याची चर्चा होते, पण अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य वगैरे बोलावं एवढ्या पात्रतेचं खरंच काही लिहिलं जातं का?

अभिव्यक्तिस्वातंत्र्यच्या अनुषंगाने माझ्याच कवितेचं पाहू. मी लिहिलं- जीवाचं नाव लवडा ठेवून जगणारांनी खुशाल जगावं...किंवा देव आणि देवाची भानगड असते बुल्लीच्या भोकासारखी, मुतून झालं की आपलं गप्प बसाचं...आता लक्षात घ्या, की आपलकडे जी स्पिरिच्युअल मक्तेदारी आहे, आणि त्या स्पिरिच्युऍलिटीमध्ये सगळ्या समाजाला बांधण्याचं जे कारस्थान आहे, त्यातून जो नॉशिया येतो, त्या नॉशियातून हे शब्द आहेत. पण संपूर्ण रचनेतील एक वाक्य बाजूला काढलं तर मग कुणी म्हणेल की हे अश्‍लील आहे.

सर्वसामान्य लोक, ज्यांना वाङ्मयीन अभिरुचीचा, वाङ्मयीन सर्जनाचा काय व्यवहार असतो हे माहिती नाही, ते म्हणतील, 'आला, बघा ते देव आणि त्या इंद्रियांचा उल्लेख कसा केला राव!... पंचवीसेक वर्षांपूर्वी दादरला अखिल भारती साहित्य संमेलन भरलं होतं. मी त्या संमेलनात निमंत्रित कवी होतो. तर मी तिथे 'संत मॉकलंड रोड नावाची कविता वाचली होती. मी वाचत असताना गोंधळ होऊ लागला. प्रेक्षकांमध्ये दोन गट पडले. एक माझ्या बाजूचा, तर दुसरा विरोधी. संमेलनाचे आयोजक आरएसएसवाले लोक होते. मोठी मारामारी झाली. ते लोक मला खाली बसा म्हणू लागले. मी म्हटलं, ''अजिबात नाही. तुम्ही मला निमंत्रण दिलं. मी कविता म्हणणारच!"

मुद्दा आहे आपल्या अशाच अभिव्यक्तीचा. आता जीवाचं नाव लवडा ठेवणं, ही श्रमिकवर्गातील एक फ्रेज आहे. कुणा एकाला समजावून सांगताना म्हणतात, की बाबा, तू घरी राहू नकोस. कामाला जा. घराकडे लक्ष दे. पण तो माणूस निर्ढावलेला असतो, कानकोंडा झालेला असतो. त्याला कशाचंच काही वाटत नाही. तर अशा माणसाविषी ही फ्रेज येते. आता याची जर व्युत्पत्तीच कळत नसेल तर आपल्या डोक्यात तेवढा लवडा हा शब्दच राहणार. माझं बालपण अत्यंत दैन्यावस्थेत गेलं. नंतर मुंबईत आल्यावर जे काही वाट्याला आलं, त्यातून जो राग होता त्या रागातून प्रसवलेलं ते साहित्य आहे. हे शब्द त्यातूनच आलेत.

'गोलपिठा' ही मी समाजव्यवस्थेला दिलेली शिवीच आहे; पण ती शिवीसुद्धा सुंदर झालीच ना? म्हणजे त्या वेळेला मला केशवसुत पारितोषिक मिळणे वगैरे... त्या काळी पुरस्कारांसाठी जॅक लावण्याची पद्धत नव्हती. आता वाङ्मयीन पुस्तकांना जॅक लावल्याशिवाय पारितोषिकं मिळतच नाहीत. आमच्या वेळेला आम्ही रस्त्यावर लढत होतो. 'गोलपिठा' ला राज्य शासनाचं पारितोषिक मिळालं तेव्हा आम्ही उडालोच. मी लिट्ल मॅगझिनवाला होतो. आमचा एक नियम ठरला होता, की पुस्तकं शासकी पारितोषिकाला पाठवायची नाहीत. पण माझा वेगळा स्टँड होता. माझं म्हणणं होतं, की आपल्याला इस्टॅब्लिशच व्हाचं. आपली जी वाङ्मयीन अभिव्यक्ती आहे ती आपल्याला मेन स्ट्रीम करायची. निग्लेक्ट होऊन बाजूला जायचं नाही. आता विचार असा करा, की समजा 'गोलपिठा' ला पुरस्कार मिळाला नसता, तर मला नाही वाटत लोकांनी त्याला उचलून धरलं असतं. त्यातली भाषा, आशय यांची समीक्षकांनी दखलही घेतली नसती. पण केशवसुत पारितोषिकामुळे हे शक्य झालं. आमचेच किती तरी लोक माझ्यावर नाराज झाले. पण मी म्हटलं, की ही लढाई आहे. एवढी वर्षं जे बाहेर फेकलं गेलं ते आता आम्ही इस्टॅब्लिश करणार!

तुम्ही इस्टॅब्लिश होणं वगैरे बोलत आहात म्हणून एक प्रश्‍न विचारावासा वाटतो. दलित साहित्यिकांविषयी अशीही एक टीका केली जाते, की प्रस्थापितांना त्यातलं जे सोयीचं होतं त्याचंच कौतुक केलं गेलं. पुलंनी दया पवारांच्या 'बलुतं' ला उचलून धरलं, पण प्र.ई. सोनकांबळ्यांच्या 'आठवणींचे पक्षी' ला तेवढा भाव दिला नाही. 'आठवणींचे पक्षी' ही सक्सेस स्टोरी आहे, तर 'बलुतं' हे रडगाणं आहे. प्रस्थापितांना हे दु:ख आळवणं जास्त जवळचं वाटलं, असं म्हटलं जातं.

नाही, असं काही नाही. माझ्या कवितेवर टीका करताना ग.दि. माडगूळकर म्हणाले होते, की 'रसाळ नामदेवाचा काळ संपून ढसाळ नामदेवांचा काळ सुरू झाला आहे.' त्या वेळी पु. ल. देशपांड्यांनी त्यांना परस्पर उत्तर दिलं होतं. समाजामध्ये वाङ्मयीन किंवा सामाजिक मिरासदारी असते अशा काळात संवेदना जागी असणारे, ह्युमनबीइंग जागं असणारे लोक असतातच, असं माझं म्हणणं आहे. कथेच्या अंगाने 'बलुतं' ही रोमँटिकच कथा आहे. ती पुलंना भावली असेल त्याला आता का कराचं? दुसरी गोष्ट म्हणजे पुलं काय क्रायाटेरिया आहे का? 'गोलपिठा' च्या वेळेला पुलंनी माझं समर्थन केलं, पण त्यांनी माझं सामाजिक उत्तरदायित्त्वाच्या भूमिकेचं समर्थन केलं नाही. त्याला कोण का करणार?

तुम्ही मघाशी अभिव्यक्तिस्वातंत्र्याविषयी विचारलंत. मी आणीबाणीच्या काळात इंदिरा गांधींवर कविता लिहिली होती. माझ्या मते त्या काळात संपूर्ण राजकारणाच्या क्षेत्रात सर्वांत मूलगामी भूमिका इंदिरा गांधींनी घेतली होती. जागतिक गटातटाच्या राजकारणाचा विचार करायचा तर ती बाई अँटी- अमेरिकन होती. तिने रशियाच्या समाजवादी गटाशी नातं जोडून तिस-या जगाचं शोषण करणा-या जागतिक भांडवलशाहीचा विरोध चालवला होता. म्हणून मी तिच्यावर कविता लिहिली. पण तेव्हा माझा विरोध करणा-यांत पु.लं. अग्रणी होते. त्या काळात आणीबाणीमुळे स्वातंत्र्याचा संकोच झाला असं म्हटलं जात होतं. आणि दुस-या स्वातंत्र्याची लढाई वगैरे चालली आहे असं म्हटलं जात होतं. पण ती खरंच स्वातंत्र्याची लढाई होती का हे तपासायला हवं...

आपल्याकडे भांडवली लोकशाहीतून इस्टॅब्लिश झालेली जी स्टेट पॉवर आहे त्याविरुद्ध तुम्ही एका विशिष्ट मर्यादेपलीकडे बोलू शकत नाही. तुम्ही तर जास्त प्रक्षोभक बोललात तर घटनेनुसारच १५३ ए या कलमांतर्गत खटले दाखल होऊ शकतात. म्हणजे आपल्याकडे अभिव्यक्तीचं एक विवक्षित स्वातंत्र्य आहे, सवंगपणाचं स्वातंत्र्य नाही. माझ्या कवितेतून मी घेतलेलं स्वातंत्र्यही विवक्षित स्वातंत्र्य आहे. माणूसपणाच्या अवमूल्यनाविरोधात उठवलेला तो आवाज आहे. त्या दृष्टीने रचनेच्या अर्थाने केलेलं ते क्राफ्टिंग आहे, पण ते क्राफ्टिंग आशयाशी जोडलेलं आहे. माझी 'माणसाने नावाची कविता होती. त्या कवितेत अनेक स्टेटमेंट्‌स आहेत. माणसानं अमुक करावं, तमुक करावं...ह्याची आय झवावं...त्याचं हे करावं...दारू प्यावं...सगळ्या विचारवंतांना गटारांच्या मेनहोलमध्ये टाकावं...काय वाट्टेल ते...आणि शेवटी ज्या चार ओळी आहेत त्या चार ओळींमुळे त्याची कविता झाली आहे. माणसाने माणसाचे गाणे गावे...एक तीळ सातजणांनी करडून खावा...वगैरे शेवटच्या ओळींमुळे आशयाची समृद्धी त्या अभिव्यक्तीला लाभली. म्हणून एवढ्या जालीम कवितेचं समर्थन पु. ल. देशपांड्यांनी केलं होतं.

दलित साहित्यातील चर्चेत आलेल्या पुस्तकांना काही वाङ्मयीन मूल्यं होती म्हणून ती नावाजली गेली. त्यामुळे लोक दुजाभाव करतात, हे म्हणणं मला तितकंसं बरोबर वाटत नाही. अर्थात, कधी कुणाला का भावेल नि का भावणार नाही, काही सांगता येत नाही. सर्वार्थाने अभिजनवर्ग तुमची सर्वच अभिव्यक्ती मान्य करेल असं होत नाही. त्यांच्या काही आवडी-निवडी, त्यांचे निकष असू शकतीलच ना...

वेदना, विद्रोह, विज्ञान ही दलित साहित्याची मूल्यं आहेत. या तत्त्वांना अनुसरून कन्स्ट्रक्टिव्ह पद्धतीने दलित साहित्य चळवळीने काही केलं नाही, अशी एक टीका केली जाते. नव लेखकांना प्रेरणा देऊन मुद्दामहून दलित साहित्य प्रवाह सशक्त केला गेला नाही, असं म्हटलं जातं...

असं आहे, की वाङ्मयीन मगदूर असावा लागतो. अगोदर आपण थिअरी करून ठेवली आणि मग लिहाला बसलो, असं होत नसतं. दलित साहित्य हा जो प्रकार आहे तो आपसूक-उत्स्फूर्तपणे आलेला आहे. व्यवस्थेने हजारो वर्षं जे काही तुमचं केलं होतं त्याच चिडीतून तो प्रसवला आहे. दलित साहित्याच्या रूपाने एका रागाची अभिव्यक्ती सुंदर अक्षर वाङ्मयामध्ये झाली आहे. आधी थिअरी ठरवून ना नामदेव ढसाळाने लिहिलं, ना बाबुराव बागुल यांनी. थिअरी ही सेकंडरी गोष्ट आहे. वाङ्मयनिर्मिती अशी मुद्दाम घडवता येत नाही. मी, बागुल, दया पवार, लोकनाथ यशवंत वगैरे पहिली पिढी झाली. त्यानंतर आता अरुण काळे, इंद्रजित भालेराव असे काही लोक आहेत. पण कसदार लिहिणार्‍यांची वानवा आहे, हे खरं आहे. साहित्याचा व्यवहार हा अत्यंत कष्टप्रद आणि व्यासंगाचा आहे. तो अत्यंत पवित्र व्यवहार आहे. त्यात तुमचं समर्पण पाहिजे. आणि ते समर्पण तेव्हाच होतं, जेव्हा तुमचं जगणं मूल्यात्मक दृष्टीने उद्दिष्टाशी बांधलेलं असेल. तरच त्यातनं काही तरी निघतं. अस्पृश्यतेला नि जातिव्यवस्थेला वैतागून दलित गाव सोडून शहरांकडे आले. पण आता नव्या पिढीला ती जातव्यवस्था काय होती ते माहीतच नाही. पण जातीयता तर आहेच ना! तुम्ही मोठे डॉक्टर झालात, तरी केवळ दलित असल्यामुळे तुमच्या क्लिनिकला जागा मिळत नाही. म्हणजे जातीयतेचं दु:ख आहेच. या व्यवस्थेचाही पर्दाफाश करायला हवा. मला वाटतं, की निराश व्हायचं कारण नाही. हेदेखील होईलच. माणसाला कितीही सुखात ठेवा, त्याला त्यात काही तरी अपूर्ण वाटतच राहतं. या ट्रॅजेडीतून माणूस उत्क्रांत होत जातो आणि नवं घडवतोच. दलित साहितमध्ये तोचतोचपणा यायला लागला, अशी आपण चर्चा करतो. पण त्यातही कुणी तरी बाप निघेलच ना...वाङ्मयीन कला-अभिव्यक्तीच्या क्षेत्रात दर पाच-पंचवीस वर्षांनंतर नवीन बंड येतंच. दलित साहित्याने आता पंचवीस वर्षांची मर्यादा ओलांडलीच आहे.



No comments:

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

Tweet Please

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA

THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk