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Saturday, July 6, 2013

शासक वर्ग के जनविरोधी कारनामों का नमूना है उत्तराखंड की आपदा

क्योंकि देश के विकास के लिये पहाड़ों का खोदा जाना बहुत ज़रूरी है !

 

 उत्तराखंड में आई बाढ़ से जान माल की भयंकर तबाही हुयी है। दस हज़ार से अधिक लोगों के मारे जाने की संभावना है। एक लाख लोग बेघर हो गये हैं और दस लाख लोगों के प्रभावित होने की खबर है। गढ़वाल में जान माल की काफी हानि हुयी है। कुमाऊँ में पिथौरागढ़ जिले का ऊपरी हिस्सा बहुत प्रभावित हुआ है। बुरी बात यह है कि जहाँ केदारनाथ मंदिर टीवी चैनलों पर छाया हुआ है वहीं पिथौरागढ़ की कोई सूचना तक नहीं है।

पिथौरागढ़ में मौतें भले ही कम हुयी हैं पर जौलजीवी से ऊपर के इलाके में लोग हद दर्जा प्रभावित हुये हैं। जौलजीवी से धारचूला करीब तीस किलोमीटर ऊपर है। जौलजीवी से दस किलोमीटर ऊपर बलुआकोट पर सड़क क्षतिग्रस्त हो गयी है और वाहन यहाँ से आगे नहीं जा पा रहे हैं। नीचे से भेजी गयी राहत सामिग्री यहाँ से आगे नहीं जा पा रही है। बलुआकोट से धारचूला तक जगह जगह सड़क टूटी हुयी है। प्रशासन का रवैया ग़ैर ज़िम्मेदाराना है। नेताओं की तो बात ही छोड़िये जिलाधिकारी व मुख्य चिकित्साधिकारी तक हेलिकोप्टरों से दौरे कर रहे हैं।

स्थिति यह है कि प्नद्रह दिन से अधिक हो चुके हैं और सड़कों से मलवा हटाने और उन्हें दुरुस्त करने का काम बेहद धीमा है। इसका खामियाजा आम आदमी को उठाना पड़ रहा है। टूटे रास्तों की वजह से लोग ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ कर राशन आदि, अपनी ज़रुरत की चीजें बीस-पच्चीस किलोमीटर पैदल चल कर ले जा रहे हैं। जौलजीवी और धारचूला के बीच में एक गाँव है कालिका। यहाँ तीन-चार मीटर सड़क क्षतिग्रस्त हो गयी है और उस पर मलबा आ गया है। पन्द्रह दिन से यहाँ जेबीसी खड़ी है पर सड़क ठीक नहीं हो पायी है जबकि इसे ठीक करने में चार-पाँच घण्टे से ज़्यादा का समय नहीं लगेगा। इस चार मीटर सड़क की वजह से लोगों को करीब एक किलोमीटर ऊँचे पहाड़ का चक्कर लगाना पड़ रहा है। गाँव वालों ने बताया एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अपने नाती को शाम दवा दिलवाने जा रहा था। नीचे से सीमा सड़क संगठन के व्यक्ति ने सीटी बजा दी। उसने अपने साथ वाले से कहा कि वह बच्चा पकड़ ले उसे डर लग रहा है। उसने बच्चा दूसरे व्यक्ति को पकड़ा दिया। उसके बाद वह व्यक्ति पहाड़ से नीचे गिर गया और उसकी मौत हो गयी।

धारचूला से ऊपर बाढ़ से भयंकर तबाही हुयी है। जबकि पन्द्रह दिन गुज़रने के बाद भीशासन-प्रशासन का कोई व्यक्ति धारचूला से ऊपर नहीं पहुँचा है।

तवाघाट से ऊपर सोवला नाम का पूरा गाँव ही बह गया जिसमें क़रीब डेढ़ सौ घर थे। जो गाँव अत्यधिक प्रभावित हुये हैं वे हैं-एलागाढ़, तवाघाट, गर्गुआ, खेला, सोसा, गुजी आदि।पूरे पिथौरागढ़ जिले में 600 घर बहने की खबर है। जबकि चार सौ मकान गिरने के कगार पर हैं और अभी भी मकानों का गिरना जारी है। जौलजीवी से ऊपर धारचूला की तरफ। जौलजीवी से मुनस्यारी तक और मुनस्यारी से थल की तरफ लगभग हर गाँव में कुछ न कुछ मकान गिरे हैं।

पिथौरागढ़ के साथ जो अच्छा हुआ वह यह था कि नदी में पानी सोलह जून की रात दो बजे से बढ़ना शुरू हुआ और मकान गिरने का सिलसिला सुबह छह-सात बजे शुरू हुआ है। इस बीच लोग अपने घरों से निकल कर सुरक्षित जगह पर आ गये और उनकी जानें बच गयीं। तवाघाट से ऊपर छिपला केदार घाटी में जो लोग कीड़ा जड़ी (एस्सा गेम्बू ) ढूँढने गये थे उनमें से सोलह लोग वहीं मर गये। एस्सा गेम्बू कीड़े की शक्ल का एक छोटा पौधा होता है। इसे पुरुष यौन शक्तिवर्धक के रूप में उपयोग किया जाता है। यह करीब पन्द्रह लाख रूपए प्रति किलो बिकता है। यहाँ के लोगों के लिये यह मुख्य आर्थिक स्रोत है। वैसे मौतों का सही आंकलन अभी होना बाकी है।

  भारत का कस्बा धारचूला और नेपाल का जिला दार्चुला काली नदी का पुल जोड़ता है। धारचूला में आईटीबीपी के कैंप बहने के अलावा अधिक नुकसान नहीं हुआ है जबकि दार्चुला में काफी नुकसान हुआ है करीब पैंतीस दुकाने व मकान बह गये हैं। जौलजीवी से ऊपर कालिका गाँव के लोग बता रहे थे कि सामने नेपाल की तरफ दो महिलाएं धान की रोपायी कर रही थीं। तभी खेत धंसक गया और वे दोनों बह गईं। काली नदी के किनारे-किनारे भारत की तरह ही नेपाल में भी काफी नुकसान हुआ है। वहाँ का प्रधान मन्त्री भी एक बार हेलिकॉप्टर से चक्कर लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर गया।

इतनी बड़ी त्रासदी को शासन-प्रशासन ने जिस तरह निपटाया है वह बेहद दुखद है। पूरा उत्तराखण्ड आपदा सम्भावित क्षेत्र है। गढ़वाल में चार धाम की यात्रा के दौरान प्रति वर्ष हज़ार-दो हज़ार लोग छोटी मोटी दुर्घटनाओं में मर ही जाते हैं। आए दिन पहाड़ों पर भूस्खलन होता रहता है। आपदा प्रबन्धन (डिजास्टर मैनेजमेन्ट) पर सरकार प्रतिवर्ष काफी बजट खर्च करती है। पर ये कैसा आपदा प्रबंधन है। पक्ष और विपक्ष के नेता मिलकर राजनीति और राजनीतिक बयानबाजी में मस्त हैं, प्रशासन को कोई चिन्ता नहीं है। सेना के दीवाने देश भक्त इन्टरनेट पर बैठ कर ताली बजा रहे हैं कि पन्द्रह दिन में यात्रियों को निकाल कर हमारे शासक वर्ग और उसकी एजेंसियों ने कितना बड़ा कारनामा कर दिखाया है। दस हज़ार लोगों के मारे जाने,एक लाख लोगों के बेघर होने और दस लाख लोगों के इस आपदा से पीड़ित होने की खबर है और हमारी राज्य व्यवस्था पन्द्रह दिन में सिर्फ फँसे हुये यात्रियों को निकाल पायी है। यह है हमारे देश का आपदा प्रबन्धन।

धारचूला के लोगों ने बताया- नीचे से चार ट्रक राहत सामिग्री आयी थी और उनके बीस लोग भी थे। उन्होंने जिलाधिकारी से कहा कि उन्हें यहाँ के बारे में कुछ नहीं मालूम है इस सामग्री को बँटवाने में उनकी मदद करें। इस पर जिलाधिकारी ने कहा कि वे लोग लेकर आये हैं और वे खुद ही उसे बाँटें। दरअस्ल जो काम सबसे पहले किया जाना चाहिए था वह था रास्तों को दुरुस्त करना और यह काम छः -सात दिन में ही कर लिया जाना चाहिए था। अगर सीमा सड़क संगठन के पास लोग नहीं थे तो मज़दूरी पर लोग रखे जा सकते थे। अगर ऊपर लोग नहीं थे तो नीचे से ले जाये जा सकते थे। ऊपर जेबीसी मशीन नहीं थीं तो नीचे से ले जाई जा सकती थीं। इसके लिये हज़ारों करोड़ के बजट की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन यह तभी सम्भव था जब शासन-प्रशासन आम लोगों की परेशानी महसूस करे या उनके प्रति कोई ज़िम्मेदारी रखता हो। जैसे शासक वर्ग की प्राथमिकता अपनी राजनीति को दुरुस्त रखना और पूँजीपतियों की दलाली करना है,वैसे ही प्रशासन की प्राथमिकता सरकारी बजट को ठिकाने लगाना है। अगर जनता मरती है तो मरे गढ़वाल में स्थिति अधिक खतरनाक है पर कुमाऊँ के पिथौरागढ़ जिले में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।

जौलजीवी से धारचूला की तरफ करीब चालीस गाँव इस आपदा से प्रभावित हुये हैं बीस दिन गुजरने के बाद अभी तक धारचूला के ऊपर के गाँवों से लोगों को नहीं निकाला गया है। कई जगह सड़कें मामूली सी क्षतिग्रस्त हुयी हैं वे अभी तक वैसी ही पड़ी हैं जबकि उन्हें दो-चार दिन में ठीक किया जा सकता था और इससे करीब सत्तर-अस्सी हज़ार लोगों का बेहद कठिन हो चुके जीवन को थोड़ा आसान बनाया जा सकता था। लेकिन यह तभी हो सकता था जब आपदा प्रबंधन को लागू करने वाले हमारे प्रशासन की प्राथमिकता में यह होता।

अभी उत्तर काशी के आपदा प्रबन्धन के उप कोषाधिकारी द्वारा राहत सामग्री को अपने घर पहुँचाने की खबर थी और उन्हें निलम्बित कर दिया गया है। इससे हमारी राज्य व्यवस्था की आपदा प्रबन्धन की हक़ीक़त की एक झलक मिलती है।

प्रशासन प्रभावित लोगों के मुआवज़े की खानापूर्ति में भी लगा है। जिन लोगों के मकान बह गये हैं उन्हें दो लाख रु. देने की बात की जा रही है। परन्तु जैसा कि होता है, प्रशासन का पूरा जोर अधिक से अधिक कानूनी लुखड़पेच लगाकर अधिक से अधिक लोगों को इस प्रक्रिया से दूर रखना होता है। पहाड़ पर जिन लोगों के पास खाने कमाने और रहने के साधन नहीं थे उन्होंने जहाँ जगह मिल गयी वहाँ अपने रहने का इनतजाम कर लिया। अब प्रशासन कह रहा है कि जिनके मकान के कागज़ नहीं होंगे उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा।

ऐसा नहीं है कि यह आपदा अप्रत्याशित थी। जून  2006 में ग्लेशियरों के अध्ययन के लिये एनडी तिवारी ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था जिसमें रुड़की व उत्तराखण्ड के बीस वैज्ञानिक व विशेषज्ञ थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई सुझाव दिये थे जैसे- ग्लेशियरों की कड़ी निगरानी, मौसम की निगरानी के लिये एडवांस सूचना सिस्टम लगाना, तीर्थ यात्रियों की अत्यधिक भीड़ को नियन्त्रित करना आदि। उसके बाद भाजपा की सरकार आ गयी।

बीस अक्टूबर 2007को मुख्यमन्त्री खंडूरी ने एक मीटिंग की और विशेषज्ञों के सुझावों को तर्कसंगत माना। उसके बाद रमेश पोखरियाल मुख्यमन्त्री बने उन्होंने भी 2010 में इस पर एक मीटिंग की। उसके बाद फिर काँग्रेस की सरकार बनी और बहुगुणा मुख्यमन्त्री बने। इस प्रकार एक के बाद एक मुख्यमन्त्री बनते रहे पर किसी की भी प्राथमिकता विशेषज्ञों की रिपोर्ट को लागू करने की नहीं रही।

शासक वर्ग की रूचि विशेषज्ञों की रिपोर्ट लागू करने में नहीं है। उनकी रूचि ऐसे कामों में है जो पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने वाले हों, उनके घर वाले, रिश्तेदार, परिचितों को ठेके दिलवाने वाले हों। पूरे उत्तराखण्ड में इस वक़्त क़रीब पाँच सौ परियोजनाएं बाँध बनाने के लिये चल रही हैं। पहाड़ों के अन्दर विस्फोट कर-कर के सुरंगें बना रहे हैं। चार धाम यात्रा का बेतहाशा प्रचार किया जा रहा है। अकेले गौरीकुंड से केदारनाथ तक ही आठ-दस हज़ार खच्चर यात्रियों को लाने ले जाने के लिये प्रति वर्ष पहुँचते हैं। पहाड़ों पर माफिया पेड़ों की अवैध कटाई कर रहे हैं। पिथौरागढ़ से धारचूला के लिये सड़क चौड़ा करने का काम चल रहा है।

धारचूला से पहले गोथी का एक दम्पति बेहद चिंतित हो कर बता रहा था कि सड़क बनाने के लिये विस्फोट करेंगे उससे उनका मकान भी हिल जायेगा। पहले पहाड़ काटकर सड़कें बनाने का काम किया जाता था। अब ड्रिल मशीन से छेद कर के उसमें विस्फोटक भर के विस्फोट कर के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। इससे आसपास का पहाड़ हिल जाता है और वहाँ का पर्यावरण भी असंतुलित होता है। अगर वहाँ सड़कें बनाना ज़रूरी ही है तो सरकार पहाड़ काटने की तकनीक विकसित कर सकती थी लेकिन सरकारों के पास इस तरह की बातों के बारे में सोचने का भी समय नहीं है और फिर यह सब करने से उन्हें क्या मिलेगा? हाँ पूंजीपतियों को यह पता चल जाये कि इन पहाड़ों के नीचे हीरे-जवाहरात की खान है तो सरकारें तुरन्त अपना कमीशन सेट करने के बाद पहाड़ों की खुदाई का काम शुरू करा देतीं और प्रशासन हरिद्वार व हल्द्वानी में बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगा चुका होता – देश के विकास के लिये पहाड़ों का खोदा जाना बहुत ज़रूरी है।

(प्रोग्रेसिव मेडिकोज फोरम व क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन ने संयुक्त रूप से उत्तर काशी, केदारनाथ व पिथौरागढ़ स्थिति का जाइजा लेने व चिकित्सा सहायतार्थ तीन टीमें भेजीं। यह रिपोर्ट पिथौरागढ़ की टीम द्वारा तैयार की गयी है। )


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