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Tuesday, April 3, 2012

निर्ममता का पाठ

निर्ममता का पाठ


Tuesday, 03 April 2012 10:44

चंदन प्रताप सिंह 
जनसत्ता 3 अप्रैल, 2012: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के हाल के एक फैसले से सब सन्न हैं। उन्होंने फरमान जारी किया है कि सूबे में सरकारी पैसे से चलने वाले पुस्तकालयों और वाचनालयों में केवल आठ अखबार आएंगे। वे अखबार कौन-से होंगे, इसका फैसला खुद ममता बनजी करेंगी। उन्होंने एक झटके में सभी अंग्रेजी अखबार बंद कर दिए। हिंदी के एक अखबार को जगह दी। उर्दू के दो और बांग्ला के पांच अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों के लिए खरीदे जाने की अनुमति दी है। इसके लिए बाकायदा परिपत्र भी जारी कर दिया गया है। ममता का दावा है कि वे नहीं चाहतीं कि पाठकों पर जबर्दस्ती कोई वाद या सोच थोपा जाए। इसलिए ऐसे अखबारों पर पाबंदी लगाई गई, जो किसी पार्टी के सिद्धांत, वाद, स्वार्थ और हितों को साधते हैं।
सरसरी तौर पर देखें तो ममता का यह फैसला लोगों को जायज लगेगा। लेकिन जो लोग पश्चिम बंगाल को समझते हैं और वहां की बौद्धिकता को पहचानते हैं, उन्हें यह समझने में तनिक देर नहीं लगेगी कि ममता ने मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिश की है। ममता के इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल सरकार और ममता बनर्जी की आलोचना करने वाले अखबारों की खैर नहीं है। जो अखबार ममता का भोंपू बनने को तैयार हों, उन्हें ही सरकारी पुस्तकालयों में जगह मिलेगी। वहां बांग्ला अखबार 'संवाद प्रतिदिन' के आने पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। इस अखबार के दो पत्रकार सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस से जुडेÞ हुए हैं। इस अखबार के संपादक सृंजय बोस और सहायक संपादक कुणाल घोष दोनों ही तृणमूल कांग्रेस से हाल ही में राज्यसभा के सांसद चुने गए हैं। 
ममता ने एक ही हिंदी अखबार को हरी झंडी दी है। इस अखबार के मालिक-संपादक विवेक गुप्ता हैं, जो तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं। इस सूची में उर्दू के दो अखबार हैं, आजाद हिंद और अखबार-ए-मशरीक। अखबार-ए-मशरीक के संपादक नदीमुल हक  भी तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं। सवाल खड़ा होता है कि जिन अखबारों के मालिक और संपादक तृणमूल कांग्रेस के नेता हैं, उन अखबारों को ममता ने कैसे निष्पक्ष मान लिया!
हैरानी इस बात की भी है कि मुख्यमंत्री ने बांग्ला के जिन दो अखबारों पर रोक लगाई है, वे सूबे में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। हैरानी इस बात पर भी है कि 'आनंद बाजार पत्रिका' और 'बर्तमान' को ममता समर्थक माना जाता रहा है। ये दोनों अखबार लंबे समय से वाममोर्चा और खासकर माकपा को निशाना बनाते रहे हैं। चाहे ज्योति बसु की सरकार रही हो या फिर बुद्धदेव भट्टाचार्य की, इन अखबारों ने सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। 'बर्तमान' ने ही सबसे पहले ममता बनर्जी को 'बंगाल की शेरनी' का खिताब दिया था।
ममता के फैसले को लेकर और भी कई सवाल उठ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि भाषा को लेकर वे इतनी दुराग्रही क्यों हैं। आखिर क्यों अंग्रेजी के अखबार खरीदने पर रोक लगाई। अगर हिंदी के एक अखबार को अनुमति दे सकती हैं तो कम से कम एक अंग्रेजी अखबार को भी इस सूची में रखना चाहिए था। सवाल इसलिए भी गंभीर है कि पश्चिम बंगाल के लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी अंग्रेजी जानें। अपनी मातृभाषा से गहरे लगाव के बावजूद बंगाल का झुकाव अंग्रेजी को लेकर शुरू से रहा है। इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि बंगाल पर ही सबसे पहले अंग्रेजों का राज कायम हुआ। 
बच्चा किसी भी भाषा से स्कूली पढ़ाई करता हो, उसे घर में अलग से अंग्रेजी जरूर सिखाई जाती है। एक जमाने में संभ्रांत समाज का अखबार माना जाने वाला 'द स्टेट्समैन' मध्य और उच्च वर्ग के घरों में जरूर खरीदा जाता था। परिवार के बडेÞ-बुजुर्ग अपने बच्चों को समझाते थे कि इस अखबार के जरिए वे अपना शब्द-भंडार और बढ़ा सकते हैं।
तृणमूल सरकार के ताजा फैसले को लेकर हैरानी इसलिए भी हो रही है कि कभी अंग्रेजी के घोर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने समय के साथ कदमताल करते हुए अंग्रेजी-विरोध त्याग दिया। लेकिन 'यह राज्य आज जो सोचता है, कल वह सारा देश सोचता है' का नारा देने वाले सूबे की मुखिया ने सरकारी पुस्तकालयों में अंग्रेजी अखबारों पर रोक लगा दी। जिन्हें अंग्रेजी से प्रेम है और जो समृद्ध हैं, वे तो अंग्रेजी अखबार खरीद लेंगे। लेकिन जो बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं और जो पुस्तकालयों में ही पढ़ाई करते हैं, उनका क्या होगा। 
गरीबों की हिमायती बनने वाली ममता बनर्जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे कहती हैं, जिसे जो अखबार पढ़ना है, खरीद कर पढेÞ। यह उन्हीं ममता बनर्जी का बयान है, जो रेल किराया बढ़ाए जाने पर यह कहते हुए छाती पीट रही थीं कि गरीबों का क्या होगा।
अखबारों पर पाबंदी के फैसले को लेकर ममता बनर्जी की तीखी आलोचना हो रही है। लेकिन इन आलोचनाओं से अपनी गलती दुरुस्त करने के बजाय ममता उलटे मीडिया को ही नसीहत दे रही हैं। अपने फैसले की बाबत फासिस्ट कहे जाने से आहत ममता कह रही हैं कि फासीवाद क्या है यह उन्हें मीडिया से जानने की जरूरत नहीं है। वे पूछती हैं कि जब नंदीग्राम और सिंगूर में हिंसा हुई थी, तब ये अखबार वाले कहां मुंह छिपाए बैठे थे। 

अपने चहेते दो-चार प्रादेशिक समाचार चैनलों को हथियार बना कर वे सफाई देते घूम रही हैं। उनका कहना है कि पुस्तकालयों की खातिर सरकार के पास बेहद छोटा बजट होता है। इसलिए सरकार   चाहती है कि इन पुस्तकालयों के जरिए छोटे-छोटे अखबारों को प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन इस छोटी-सी बात को लेकर मीडिया का एक तबका गंदी राजनीति कर रहा है। ममता इस बात से भी नाराज हैं कि उन्हें मौकापरस्त कहा जा रहा है। सूबे में सबकी जुबान पर एक ही सवाल है कि जिन अखबारों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया, उनके साथ ऐसा सलूक क्यों किया गया। 
इसमें कोई शक  नहीं कि ममता बनर्जी की छवि चमकाने में पश्चिम बंगाल के मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। स्थानीय मीडिया ने इस बात को भी छिपाया कि ममता ने अपने राजनीतिक गुरु सुब्रतो मुखर्जी के साथ क्या सलूक किया। एक समय पश्चिम बंगाल में सुब्रतो के नाम का डंका बजता था। उन्हीं सुब्रतो ने ममता को सियासत सिखाई। लेकिन जब सुब्रतो के दिन लदे तो ममता ने उनसे मुंह फेर लिया। बेशक  अपनी पार्टी में उन्हें जगह दी लेकिन उन पर भरोसा कभी नहीं किया। सुब्रतो मुखर्जी जब कोलकाता के मेयर चुने गए तो अपने खास पार्थो चटर्जी से जासूसी करवाई। 
हद तो यह हो गई कि लोकसभा के लिए चुने गए तृणमूल कांग्रेस के कई नेता ममता से बहुत वरिष्ठ हैं, सियासत में भी और उम्र में भी, एक-दो तो 1971 में सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन जब केंद्र में मंत्री बनाने की बात आई तो उनमें से किसी को नहीं बनाया। यहां तक कि सौगत राय भी राज्यमंत्री ही बनाए गए। लेकिन मीडिया ने इस मामले को तूल नहीं दिया। समर्थक अखबार दीदी के गुणगान में ही लगे रहे।  ममता के ताजा फैसले को लेकर यहां तक कहा जा रहा है कि जो पाबंदियां आपातकाल के दौरान नहीं लगीं, वे अब लगाई जा रही हैं। 
दरअसल, सत्ता में आने से पहले मीडिया से घुल-मिल कर रहने वालीं ममता बनर्जी मीडिया को समझ ही नहीं पार्इं। किसी भी आंदोलन से पहले अपने सहयोगियों के जरिए मीडिया से संपर्क साधने वाली ममता को यह लगने लगा था कि मीडिया तो उन्हीं के इशारे पर नाचेगा। लेकिन उन्हें जल्द ही समझ में आ गया कि यह होने से रहा। क्योंकि मीडिया को जो दिखेगा, वह उसे छापेगा और दिखाएगा। उसका काम ही सरकार की खामियों को जनता के सामने लाना और यह बताना है कि जिसे उसने चुन कर भेजा है, वह उसके साथ क्या कर रहा है। उसकी गाढ़ी कमाई का कैसे बेजा इस्तेमाल कर रहा है।   
अखबारों और समाचार चैनलों में अपनी आलोचना देखना ममता को गवारा नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में जब बच्चों की मौत हुई तो मीडिया ने इसे प्रमुखता से दिखाया और छापा। मीडिया का यह तेवर मुख्यमंत्री को रास नहीं आया। गुस्से में आकर वे जो बोल गर्इं, वह एक मुख्यमंत्री को कतई नहीं कहना चाहिए। 
तमतमाई ममता बनर्जी ने कहा कि बच्चों की मौत तो वाममोर्चा सरकार के दौरान भी होती थी। उनके इस बयान को पश्चिम बंगाल की जनता ने पसंद नहीं किया। हद तो तब हो गई, जब अपनी पढ़ाई-लिखाई पर नाज करने वाले बांग्लाभाषी समाज ने दसवीं की परीक्षा में खुलेआम 'टुकली' यानी नकल होते हुए देखी। इसके चित्र देखने के बाद लोगों को शिक्षा का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। इन दोनों घटनाओं से सरकार की बहुत किरकिरी हुई। इसलिए ममता ने यह कहने में तनिक गुरेज नहीं किया कि मीडिया वाले धड़धड़ाते हुए अस्पतालों में चले जाते हैं, स्कूलों में चले जाते हैं, और खबर बेचने के लिए फर्जी खबरें बना कर दिखाते हैं।   
असल में ममता बनर्जी को अहसास हो गया है कि उनकी छवि बिगड़ने लगी है। पर वे अपनी कार्यशैली के प्रति सचेत होने के बजाय मीडिया पर गुस्सा उतार रही हैं। पुस्तकालय तो बहाना है। शायद वे यह बताना चाहती हैं कि जो अखबार और पत्रकार सरकारी भोंपू नहीं बनेंगे, उनके साथ यही होगा। क्योंकि ढाई हजार पुस्तकालयों में इन अखबारों के जाने या न जाने से इनके मालिकों और पत्रकारों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। 
इससे प्रसार और पाठकों की संख्या पर भी फर्क नहीं पडेÞगा। फर्क पडेÞगा तो विज्ञापनों पर। किसी भी अखबार या चैनल के लिए विज्ञापन बेहद अहम होता है। गैर-सरकारी और सरकारी विज्ञापन एक तरह से मीडिया की रीढ़ होते हैं। इसलिए ममता ने संकेतों से जाहिर कर दिया है कि आने वाले दिनों में रेल के विज्ञापन, राज्य सरकार के विज्ञापन और निविदाओं के विज्ञापन से हाथ धोने के लिए ये अखबार अभी से मन बना लें।

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