भ्रष्टाचार से कौन डरता है
भ्रष्टाचार से कौन डरता है
Saturday, 28 April 2012 11:34 |
कुमार प्रशांत जनसत्ता 28 अप्रैल, 2012: सिविल सर्विस डे (इसे सामाजिक सेवा दिवस कहना चाहिए या नौकरशाही दिवस?) पर प्रधानमंत्री ने कई ऐसी बातें कहीं जिनसे कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। मसलन, उनका यह कहना कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार से लड़ाई के नाम पर किसी को भी, किसी भी नौकरशाह को बेजा परेशान करने की इजाजत नहीं देगी। प्रधानमंत्री की बातों का सार यह था कि हमारे अधिकारी अपना काम पूरी निष्ठा से करें और उसकी नैतिक-कानूनी जिम्मेवारी सरकार पर छोड़ दें। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि इधर समाज में ऐसा भाव बना है कि हमारी नौकरशाही अब पहले जैसी कर्तव्यपरायण नहीं रह गई है और उसमें समाज की बेहतरी के लिए काम करने का जज्बा भी नहीं रह गया है। लेकिन प्रधानमंत्री इस सामान्य सामाजिक समझ से ज्यादा सहमत नहीं हैं, हालांकि वे इसे एकदम बेबुनियाद नहीं मानते। उन्होंने अपने अधिकारियों से कहा कि उन्हें इसका ध्यान रखना चाहिए। सरसरी तौर पर देखें तो प्रधानमंत्री की यह बात कोई खास मतलब नहीं रखती। लेकिन बात को जरा कुरेद कर देखें तो यह बहुत खतरनाक संकेत देती है। देश में जैसा भ्रष्टाचार चल रहा है उसमें सबसे भ्रष्ट जमात उनकी है जो किसी-न-किसी तरह की सत्ता के अधिकारी हैं- सत्ता चाहे राजनीतिक हो, आधिकारिक हो, धन की हो या पद की हो। सारा भ्रष्टाचार और सारे भ्रष्टाचारी इसी दायरे से आते हैं- प्रधानमंत्री अपने उन सहयोगियों के संदर्भ में इसे समझें जो आज जेलों में बंद हैं या कि उन नौकरशाहों के संदर्भ में समझें जिन्होंने भ्रष्टाचार में मदद की या खुद भी इसमें हाथ धोया या फिर उन कॉरपोरेट घरानों के संदर्भ में समझें जिनके लोग भी जेलों में बंद हैं। ये भारत के सामान्य लोग नहीं हैं, बल्कि सत्ता, संपत्ति और अवसर के सबसे उत्तुंग शिखर पर बैठे मुट्ठी भर लोग हैं। इससे यह न मान लिया जाए कि मैं कह रहा हूं कि देश के सामान्य लोग सदाचारी हैं। सामान्य लोग भी भ्रष्टाचार करते हैं, भ्रष्टाचारियों के साथ जुडेÞ रहते हैं; लेकिन वे मोटे तौर पर इस भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार हैं, भ्रष्टाचार के जनक नहीं हैं। भ्रष्टाचार एक सीमा तक समाज की, मनुष्य की नैतिक समस्या है, जिससे पार पाने में नैतिक उत्थान की ताकतें सहायक होती हैं। भ्रष्टाचार एक सीमा के आगे बढ़ता है तो वह नैतिक समस्या नहीं रह जाता, सामाजिक अपराध बन जाता है। तब वह गरीब का पेट काटता है, समाज की कमाई लूटता है, राशन का अनाज काले बाजार में पहुंचाता है और रक्षा सौदों में दलाली मांगता और देता है। इस स्तर का जो भ्रष्टाचार है वह नैतिक नहीं, अपराध की श्रेणी में आता है और तब समाज, सरकार और अदालत को अपनी सारी ताकत जोड़ कर इसका सामना करना पड़ता है। अण्णा हजारे ने यही बात पिछले दिनों में बार-बार कहने-समझाने-मनवाने की कोशिश की। समाज ने बहुत हद तक और अदालत ने भी एक हद तक इसे समझा है। लेकिन सरकार ने? अगर मनमोहन सिंह अपनी सरकार की आवाज हैं तो कहना पडेÞगा कि उन्होंने बात ही नहीं समझी है तो मांग कैसे समझेंगे। कोई पूछे प्रधानमंत्री से कि जैसा भ्रष्टाचार पिछले दिनों में हुआ है और रोज-ब-रोज जिसकी नई बानगी सामने आ रही है, वह इसलिए हुआ है कि प्रशासनिक अधिकारियों ने किसी डर की वजह से अपना काम नहीं किया? या सच्चाई यह है कि उन्होंने ऐसा किया क्योंकि उन्हें किसी का कोई डर है ही नहीं? डरपोक नागरिक या अधिकारी समाज को पतन के गर्त में खींच ले जाता है लेकिन व्यवस्था-सम्मत डर उसी समाज को पतन से बाहर भी खींच लाता है। क्या मनमोहन सिंह ऐसा मानते हैं कि उनकी व्यवस्था में डर का ऐसा रचनात्मक माहौल बना हुआ है? याद करें कि राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में जब भयंकर अव्यवस्था का आलम बना हुआ था और लगता नहीं था कि देश इसे समय से शुरू करने के अपने वादे पर अमल कर पाएगा, तब मनमोहन सिंह ने अचानक सारी तैयारी का जायजा लिया था और कहा गया था कि अब तैयारी के सारे काम सीधे उनकी देखरख में चलेंगे। पर हुआ क्या? आयोजन के अंतिम दिनों तक भ्रष्टाचारी चांदी कूटते रहे। किसी के मन में यह डर नहीं समाया कि अब सीधे प्रधानमंत्री कार्याल की नजर है तो जो चल रहा था वह सब कुछ अब बंद कर देना चाहिए। पूरा प्रशासन इसी मानसिकता से चल रहा है कि यहां सब कुछ वैसे ही चलता है- हां, बड़ों के बरसाती मेंढकों जैसे बयानों को भी थोड़ी जगह तो देनी ही पड़ती है! इसलिए कलमाडी और उनके सारे अधिकारी मनमानी लूट करते रहे। प्रधानमंत्री ने अपने नौकरशाहों से अब जो कहा, उसके साथ खेलों में हुई इस लूट की क्या संगति बैठती है? अधिकारी इस डर से कोई फैसला नहीं करते कि भ्रष्टाचार से लड़ाई की आड़ में उन्हें परेशान किया जाएगा? हमें ऐसी कुछ घटनाएं बताएं कि किसी अधिकारी को इसलिए परेशान किया गया कि वह ईमानदारी से अपना काम कर रहा था? अगर ऐसा वाकया होगा भी, तो उसे हैरान-परेशान करने वाले दूसरे नहीं, भ्रष्ट नौकरशाह ही होंगे। जनता के स्तर पर तो यह हाल है कि जिस भी अधिकारी ने थोड़ी हिम्मत और ईमानदारी दिखाई, लोग उसके साथ खडेÞ हो गए! किसी ईमानदार अधिकारी के तबादले आदि का विरोध करने लोग सड़कों पर उतर आएं, ऐसी खबर तो यहां-वहां हम पढ़ते ही हैं। लोग बहुत परेशान और निराश हैं और इसलिए कोई भी तिनका उन्हें बरगद का वृक्ष मालूम देता है। लेकिन तिनका, तिनका ही होता है, वह न पेड़ होता है न पेड़ बन सकता है! बहादुरी के साथ फैसला लेना व्यक्तिगत गुण भी है, लेकिन इसका सामाजिक आयाम भी है। जब सबसे ऊपर कोई ए राजा बैठा हो तब कोई अधिकारी कैसे कानून-सम्मत फैसले ले सकता है? इतना ही नहीं, जब वह देखता है कि प्रधानमंत्री खुद ऐसे किसी राजा के बारे में फैसला नहीं ले पाते हैं और कहते हैं कि गठबंधन सरकार की मजबूरियां होती हैं, तब वह अपनी गर्दन क्यों आगे करे! आप अपनी सरकार को दांव पर नहीं लगाते तो वह अपनी जीविका कैसे दांव पर लगा दे! इसलिए माहौल तो ऊपर से बनाना पड़ता है। ऊपर का माहौल कैसा है, यह प्रधानमंत्री हमसे बेहतर जानते हैं। सत्ता जब सत्तामात्र के लिए रह जाती है तब स्वार्थ ही एकमात्र प्रेरक तत्त्व बच रहता है। रेल मंत्रालय में पिछले दिनों जो हुआ, क्या उसके बाद हम कह सकते हैं कि इस सरकार की रीढ़ में हड््डी भी है! अमेरिका से आणविक समझौता करने के सवाल पर अपनी सरकार को दांव पर लगाने का एक अपवाद छोड़ दें तो प्रधानमंत्री ने कभी किसी राष्ट्रीय सवाल पर कोई टेक रखी हो, ऐसा कुछ याद आता है? उन्होंने अपने किसी मंत्रालय को अनुशासित करने की दिशा में सख्ती दिखाई हो, ऐसा कोई प्रसंग याद आता है? अलबत्ता उनका बार-बार यह कहना जरूर याद आता है कि मेरी सरकार में ऐसा या वैसा कुछ हो रहा था, इसकी मुझे तो कोई जानकारी नहीं थी। फिर कोई पूछे कि प्रधानमंत्री जी, आप बहादुरी से, बहादुरी भरे फैसले क्यों नहीं ले पाते, तो वे क्या जवाब देंगे? मिली-जुली सरकार की सीमाएं वे बताएंगे तो उन्हें यह बताना जरूरी होगा कि आपका एक अदना नौकरशाह आपसे कहीं अधिक किस्म के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक दवाब में काम करता है और वह एकदम निहत्था होता है। वैसी हालत में वह अपनी चमड़ी बचाए रखने और अपनी जेब भारी रखने को ही एकमात्र कसौटी मान कर चलता है तो हम शिकायत कैसे कर सकते हैं? गुलाम देश और आजाद देश की नौकरशाही में कोई फर्क नहीं कर पाए हम! प्रशासन और अपराध संबंधी कानून की सारी धाराएं वही-की-वही हैं जो अंग्रेजों ने इस देश की गर्दन कस कर पकड़ रखने के लिए बनाई थीं। हमारी शिक्षा वही, कानून वही, पुलिस वही और पुलिस का इस्तेमाल करने वाली मानसिकता वही, तो फर्क कैसे हो! आलम तो यह है कि सेना का प्रधान कह रहा है कि फलां व्यक्ति ने उसे फलां सौदा मंजूर कराने के एवज में चौदह करोड़ रुपयों की घूस देने का प्रस्ताव रखा था, और सरकार चुप बैठी है। सारी बहस इधर घूम गई कि सेना के प्रधान की इसमें मंशा क्या है! उनकी मंशा ठीक न हो तो भी कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि रक्षा-सौदों में अमूमन भ्रष्टाचार होता है। कमीशन खाए बिना वहां कोई पहिया घूमता नहीं है। इसलिए हर बड़ा सैन्य अधिकारी अवकाश-प्राप्ति के बाद, हथियार बनाने वाली किसी-न-किसी कंपनी की दलाली खोजने लगता है। क्या किसी सरकार ने, कभी इसे कानूनन रोकने की कोशिश की? दलाली कभी भी किसी भी स्तर पर हो, स्वार्थ के बिना नहीं होती। हम सेना में उसे मान्य ही कैसे कर सकते हैं? सेना प्रमुख की बात का ही सिरा पकड़ कर अब तक दलालों की धड़-पकड़ शुरू हो जानी चाहिए थी। लेकिन इंतजार इस बात का है कि कब नया सेना प्रमुख बने और हम इस विवाद से छुटकारा पाएं! प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने एकदम पते की कही थी कि नीति के स्तर पर हमें लकवा मार गया है! बाद में विवाद खड़ा हो गया तो उन्होंने अपनी ही बात पर राख डालने की कोशिश की। लेकिन सच यही है कि असली संकट नीति के स्तर पर लकवा मार जाने का ही है। अफसर और अफसरों के अफसर सभी अंधेरे में भटक रहे हैं। कौशिक बसु को शायद लगता है कि नीतिगत लकवे के कारण आर्थिक सुधारों की रफ्तार धीमी पड़ी है। लेकिन सच्चाई यह है कि आर्थिक सुधारों का यह मॉडल भी नीतिगत लकवे का ही प्रमाण है। वैकल्पिक नीति के स्तर पर कोई बहस उठे और बढ़े तो बात बने! नहीं तो बात का भात पकाने की हमारी कुशलता से यह संकट टलने वाला नहीं है। यह गहरा रहा है और गहराता ही जाएगा। |
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