अथ पौड़ी कथा – 2: शिक्षा का केन्द्र भी न रहा अब
लेखक : एल. एम. कोठियाल :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2011:: वर्ष :: 34 :February 9, 2011 पर प्रकाशित
ब्रिटिशर्स द्वारा पहाड़ों पर बसाये गये नैनीताल, दार्जलिंग, शिमला, ऊटी, शिलांग, डलहौजी, माउन्ट आबू, मसूरी आदि नगर आज देश के पर्यटन मानचित्र पर अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनमें शिलांग, शिमला, डलहौजी, दार्जलिंग, नैनीताल की प्रशासनिक नगरों के रूप में भी पहचान है। मगर पौड़ी एक अपवाद है, जो अंग्रेजों द्वारा जिला मुख्यालय के रूप में तो चुना गया, किन्तु पर्यटन केन्द्र के रूप में आज तक अपनी पहचान नहीं बना सका। पौड़ी के सौन्दर्य पर विदेशी तक मोहित होते रहे हैं। यहाँ से हिमालय का विस्तार कश्मीर के बटोट, चौकोड़ी, रानीखेत, कौसानी या दार्जलिंग से कहीं अधिक दिखता है। हिमालय में गये बगैर उसकी एक-एक चोटी को दूरबीन से देखकर उसकी विराटता को महसूस किया जा सकता है। यहाँ की शीतल जलवायु, घने जंगलों व हिमालय के इस दृश्य के कारण ही अंग्रेजों ने यह स्थान पसंद किया था। इसके सौन्दर्य से अभिभूत होकर युवा चन्द्रकुँवर बर्त्वाल ने भी कई कवितायें लिखीं। मगर अंग्रेजों ने इसे पर्यटन केन्द्र के रूप में ज्यादा महत्व नहीं दिया तो आजाद भारत के नेताओं ने भी इसकी उपेक्षा ही की। इसका स्वरूप लगातार बदरंग होता चला गया। आज यह न प्रशासनिक नगर है, न हिल स्टेशन और न शिक्षा का केन्द्र। कार्यालयों की यहाँ भरमार है, लेकिन कोई अधिकारी यहाँ बैठना पसंद नहीं करता।
यदि सन् 1925 से 1999 के बीच का समय पौड़ी का स्वर्ण काल कहा जाये तो गलत नहीं होगा। इस दौर में पहले यह शैक्षणिक केन्द्र के रूप में उभरा और फिर स्वतंत्रता आन्दोलन के केन्द्र में रहा। इस दौर में पौड़ी की पहचान खेल
व सांस्कृतिक गतिविधियों के लिये भी रही। 1969 में मण्डल मुख्यालय बनने से इसका महत्व बढ़ता चला गया। 1989 से 1996 तक यह राज्य आन्दोलन का केन्द्र ही रहा। मगर राज्य क्या बना, इस नगर की रौनक गई। ब्रिटिश गढ़वाल में मिशन स्कूल के कारण बनी शैक्षणिक केन्द्र के रूप में पहचान समाप्त हो गई। मेसमोर स्कूल मिशनरी भावना से चलता था। सन् 1975 में इसका सरकारीकरण हुआ तो यह राज्य के अन्य विद्यालयों की तरह हो गया। 20 साल पहले इस विद्यालय में छात्र संख्या 1500 तक हुआ करती थी, जो आज 300 रह गई है। पुराने परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों के एक के बाद एक रिटायर होने से शिक्षा का स्तर गिर गया। पहले इस विद्यालय से बड़ी संख्या में मेरिट में छात्र निकलते थे। एक से एक नेता, अधिकारी, सैन्य अधिकारी, चिकित्सक, वैज्ञानिक, कलाकार चित्रकार, पत्रकार, खिलाड़ी मेसमोर स्कूल ने दिये। आज यह कालेज बर्बाद है। इस दुर्दशा का कारण कुछ लोग स्थायी प्रधानाचार्य न होने को भी मानते हैं। इसके बीते दिनों को लौटाने के प्रयास चल रहे हैं, किन्तु लगता नहीं कि इसकी पुरानी साख अब वापस आयेगी। मेसमोर कालेज का स्थान अब सेन्ट थॉमस स्कूल ने ले लिया है। दूसरे प्रमुख विद्यालय डी.ए.वी. इन्टर कालेज में भी कभी प्रवेश के लिये जूझना पड़ता था। सरकारीकरण के बाद इसकी साख भी घटी। आज इस विद्यालय में 200 छात्र भी नहीं हैं। इन दोनों विद्यालयों में छात्र संख्या कम होने का कारण अंगे्रजी माध्यम के विद्यालयों की ओर बढ़ता रुझान भी है। अभिभावकों की पहली पसंद अब आई.सी.एस.सी. व सी.बी.एस.ई. पाठयक्रम वाले विद्यालय हो गये हैं। उनमें अपेक्षाकृत अच्छी पढ़ाई होती है व अच्छा अनुशासन है। लेकिन यदि राजकीय इन्टर कालेज व राजकीय बालिका इन्टर कालेज में भी अच्छी-खासी संख्या में छात्र-छात्रायें शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं तो इसके पीछे शिक्षा का स्तर बने रहना है। यही बात राजमती सरस्वती विद्यामन्दिर के साथ भी है, जहाँ दूरी के बावजूद विद्यार्थियों की कमी नहीं है।
मसूरी, शिमला और नैनीताल में अंग्रेजों के समय से प्रतिष्ठित स्कूल थे। हाल के सालों में उनमें इजाफा हुआ। लेकिन पौड़ी में ऐसी कोई पहल नहीं हुई। हाँ, पौड़ी के प्रति हमदर्दी रखने वाले जिलाधिकारी प्रभातकुमार सारंगी यहाँ एक अच्छा विद्यालय खोलने के लिये प्रयास कर रहे थे, किन्तु 2000 में राज्य की घोषणा के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं। अंग्रेजी स्कूलों की ओर बढ़ते रुझान के कारण 10वीं के बाद अधिकांश बच्चे नगर से पलायन कर जाते हैं। तत्कालीन सड़क परिवहन मन्त्री बी.सी. खण्डूरी की बदौलत 2005 में यहाँ पर केन्द्रीय विद्यालय खुलने से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल की कुछ हद तक पूरी हुई। इस साल से एक पुराने प्रतिष्ठित स्कूल सेन्ट थॉमस स्कूल ने 12वीं की पढ़ाई आरम्भ करा दी है। नगर में जवाहर नवोदय विद्यालय खोला जा सकता था, किन्तु जमीन के अभाव से बात आगे न बढ़ सकी।
नगर में उच्च शिक्षा का अभी तक एक ही केन्द्र, केन्द्रीय विश्वविद्यालय का कैम्पस कालेज है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय के बनने के बाद अभी तो सामान्य छात्रों के इसमें प्रवेश की संभावनायें कम होती जा रही हैं, लेकिन कुछ समय के बाद इसका लाभ नगर को मिलने लगेगा ऐसी उम्मीद है। आज यहाँ पर स्नातकोत्तर स्तर विज्ञान संकाय में बाहर के अधिक व स्थानीय छात्र कम हैं। इस कैम्पस की मुख्य कमी यहाँ अकादमिक माहौल का अभाव है। भारी बजट के बावजूद शोध कार्य व अन्य गतिविधियाँ भी गति नहीं पा सकी हैं। कुछेक लोग नियमित काम के अलावा शोध व लेखन कार्य के माध्यम से इसकी आत्मा को जिंदा रखे हैं। इसके अलावा नगर से 12 किमी की दूरी पर घुड़़दौड़ी में राजकीय इंजीनियरिंग कालेज है, जहाँ पर 1500 विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं। इनमें दूसरे राज्यों के छात्र भी हैं। लेकिन इस कालेज की नगर व जिले के विकास में कोई विशेष भूमिका नहीं है। स्थानीय लोगों को छोटे-मोटे काम मिलने के अलावा बाकी सारे काम देहरादून से ही होते हैं। यहाँ से निकलने वाले किसी भी छात्र ने आसपास कोई उद्योग लगाया हो, ऐसा नहीं दिखा है। यदि कोई बी.पी.ओ. कम्पनी यहाँ से काम करती तो शायद फर्क दिखाई देता।
इन संस्थाओं के अलावा नगर में न कोई पॉलीटेकनिक है, और न आधारभूत तकनीकी प्रशिक्षण देने वाला कोई आई.टी.आई.। पूरे राज्य में वैज्ञानिक संस्थानों की भरमार है, मगर पौड़ी में कोई संस्थान नहीं है। किसी नेता या मंत्री ने ऐसी कोई पहल नहीं की। संस्थान खुलते तो शायद इस नगर की कुछ पहचान बनती। यह खेदजनक रहा कि जिस नगर से जड़ी-बूटी शोध संस्थान खोलने को लेकर बाबा बचन सिंह ने पूरी जिन्दगी दाँव पर लगा दी, वह भी पौड़ी में नहीं खोला गया। आज भी लोग बचन सिंह बाबा बने इधर-उधर दिख जाते है। राज्य का क्या कोई बड़ा नेता उनसे आँख मिला सकता है भला ?
(जारी है)
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