डेस्क ♦ हालांकि यह एक सामान्य बातचीत है, इस लिहाज से कि अग्निवेश हमेशा सरकार और सरकारविरोधियों के बीच एक कारगर वार्ताकार हैं, लेकिन तब यह सामान्य नहीं रह जाती, जब लड़ाई आरपार की हो।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया, संघर्ष »
आशीष भारद्वाज ♦ हमारे जैसे लोकतंत्रों की सबसे मजेदार बात यह होती है कि यहां सब कुछ जनता के नाम पर होता है। भारी-भरकम भ्रष्टाचार भी और लोकलुभावन लोकपाल भी! यकीन जानिए, अगर हमारे संसदीय नेता लोगों की मोटी चमड़ी में थोड़ी भी सिहरन हुई तो सिर्फ इसीलिए कि उन्हें कारपोरेट और मीडिया से डर लगता है।
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पुष्यमित्र ♦ अगर आप अपने आसपास फैली हवा की गंध को महसूस कर पा रहे हैं, तो शायद आप मान चुके होंगे कि सालों बाद ऐसा वक्त आया है, जब सब कुछ सच्चाई के पक्ष में है, आवाम के पक्ष में है। अभी कुछ दिन पहले तक एक सच्ची बात मनवाने के लिए आपको जान तक गंवाना पड़ सकता था, आज हिमालय खड़ा करना भी घरौंदे बनाने जितना आसान लग रहा है।
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राजेश रंजन पप्पू यादव ♦ मेरे विचार से और जो मै समझता हूं या समझने का प्रयास कर रहा हूं, उन्ही बातों को मै आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं। यह जरूरी नहीं कि मेरी ही बातें सही हो, अन्य की नहीं। आप सुनें और पढ़ें सबकी; समझे और मानें अपने मन और विवेक से।
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आशीष भारद्वाज ♦ अहिंसा की ट्रेनिंग में अन्ना समर्थक अभी इंटर्न ही हैं। ऐसा उन्माद है कि अब इस आंदोलन से अलग खड़े रहना पूरी तरह से वाजिब दिखने लगा है, ऐसा कई सोचने-समझने वाले साथियों का मानना है। संभव है कि दक्षिण मति के लोग आप को फिर से देशद्रोही कहें, पर यह दुखद है कि वाम मति के कुछ साथी भी इस आंदोलन से बाहर के साथियों पर "तटस्थ वस्तुपरक विश्लेषण" कर देने का सपाट आरोप लगा रहे हैं।
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प्रणय कृष्ण ♦ देश भर में चल रहे तमाम जनांदोलनों को चाहे वह जैतापुर का हो, विस्थापन के खिलाफ हो, खनन माफिया और भू-अधिग्रहण के खिलाफ हो, पास्को जैसी मल्टीनेशनल के खिलाफ हो या इरोम शर्मिला का अनशन हो – इन सभी को अन्ना के आंदोलन के बरक्स खड़ा कर यह कहना कि अन्ना का आंदोलन मीडिया-कॉरपोरेट-एनजीओ गठजोड़ की करतूत है, और वास्तविक आंदोलन नहीं है, जनांदोलनों की प्रकृति के बारे में एक कमजर्फ दृष्टिकोण को दिखलाता है। अन्ना के आंदोलन में अच्छी खासी तादाद में वे लोग भी शरीक हैं, जो इन सभी आंदोलनों में शरीक रहे हैं।
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प्रणय कृष्ण ♦ शबनम हाशमी और अरुणा राय जैसे सिविल सोसाईटीबाज, जिनका एक्टिविज्म कांग्रेसी सहायता के बगैर एक कदम भी नहीं चलता, "संघ के हव्वे" पर खेल गये। मुंहफट कांग्रेसियों ने अन्ना के आंदोलन को संघ से लेकर माओवाद तक से जोड़ा, लेकिन उन्हें इतनी बड़ी जनता नहीं दिखी, जो इतनी सारी वैचारिक बातें नहीं जानती। वह एक बात जानती है कि सरकार पूरी तरह भ्रष्ट है और अन्ना पूरी तरह उससे मुक्त।
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डॉ लेनिन ♦ हम लोग भी सशक्त बहुजन लोकपाल बिल चाहते हैं और इसके लिए हांगकांग के अति सफल "इंडियेंडेंट कमीशन अगेंस्ट करप्शन" का मॉडल सरकार को दिया है, अपील की है और इसके लिए दो सालों से लड़ रहे हैं। आपको पता है कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों ने बेरोजगारी, महंगाई एवं भ्रष्टाचार बढ़ाया। इसकी खिलाफत कब होगी?
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