आधार कार्डः अमरीका कंपनियों के हवाले भारतीयों की गुप्त जानकारियाँ
दिल्ली सल्तनत का एक राजा था सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक। मुहम्मद बिन तुग़लक वैसे तो विद्वान था, लेकिन उसने जितनी भी योजनाएं बनाईं, वे असफल रहीं। इतिहास में यह अकेला सुल्तान है, जिसे विद्वान-मूर्ख कहकर बुलाया जाता है। मुहम्मद बिन तुगलक के फैसलों से ही तुग़लकी फरमान का सिलसिला चला। तुग़लकी फरमान का मतलब होता है कि बेवक़ू़फी भरा या बिना सोच-विचार किए लिया गया फैसला। वह इसलिए बदनाम हुआ, क्योंकि उसने अपनी राजधानी कभी दिल्ली तो कभी दौलताबाद तो फिर वापस दिल्ली बनाई। इतिहास से न सीखने की हमने कसम खाई है, वरना नए किस्म का पहचान पत्र यानी यूआईडी या आधार कार्ड लागू नहीं होता। यह कार्ड खतरनाक है, क्योंकि देश के नागरिक निजी कंपनियों के चंगुल में फंस जाएंगे, असुरक्षित हो जाएंगे। सबसे खतरनाक बात यह है कि भले ही हमारी सरकार सोती रहे, लेकिन विदेशी एजेंसियों को हमारी पूरी जानकारी रहेगी। अ़फसोस इस बात का है कि सब कुछ जानते हुए भी भारत जैसे ग़रीब देश के लाखों करोड़ रुपये यूं ही पानी में बह जाएंगे। सरकार ने इतना बड़ा फैसला कर लिया और संसद में बहस तक नहीं हुई। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने इसके लिए तीन कंपनियों को चुना-एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन। इन तीनों कंपनियों पर ही इस कार्ड से जुड़ी सारी ज़िम्मेदारियाँ हैं। इन तीनों कंपनियों पर ग़ौर करते हैं तो डर सा लगता है। एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन का उदाहरण लेते हैं। इस कंपनी के टॉप मैनेजमेंट में ऐसे लोग हैं, जिनका अमेरिकी खु़फिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैन्य संगठनों से रिश्ता रहा है। एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कंपनियों में से है, जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन और इलेक्ट्रानिक पासपोर्ट आदि जैसी चीजों को बेचती है। अमेरिका के होमलैंड सिक्यूरिटी डिपार्टमेंट और यूएस स्टेट डिपार्टमेंट के सारे काम इसी कंपनी के पास हैं। यह पासपोर्ट से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक बनाकर देती है। इस कंपनी के डायरेक्टरों के बारे में जानना ज़रूरी है। इसके सीईओ ने 2006 में कहा था कि उन्होंने सीआईए के जॉर्ज टेनेट को कंपनी बोर्ड में शामिल किया है। जॉर्ज टेनेट सीआईए के डायरेक्टर रह चुके हैं और उन्होंने ही इराक़ के खिला़फ झूठे सबूत इकट्ठा किए थे कि उसके पास महाविनाश के हथियार हैं। अब कंपनी की वेबसाइट पर उनका नाम नहीं है, लेकिन जिनका नाम है, उनमें से किसी का रिश्ता अमेरिका के आर्मी टेक्नोलॉजी साइंस बोर्ड, आर्म्ड फोर्स कम्युनिकेशन एंड इलेक्ट्रानिक एसोसिएशन, आर्मी नेशनल साइंस सेंटर एडवाइजरी बोर्ड और ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी जैसे संगठनों से रहा है। अब सवाल यह है कि सरकार इस तरह की कंपनियों को भारत के लोगों की सारी जानकारियाँ देकर क्या करना चाहती है? एक तो ये कंपनियाँ पैसा कमाएंगी, साथ ही पूरे तंत्र पर इनका क़ब्ज़ा भी होगा। इस कार्ड के बनने के बाद समस्त भारतवासियों की जानकारियों का क्या-क्या दुरुपयोग हो सकता है, यह सोचकर ही किसी का भी दिमाग़ हिल जाएगा। समझने वाली बात यह है कि ये कंपनियाँ न स़िर्फ कार्ड बनाएंगी, बल्कि इस कार्ड को पढ़ने वाली मशीन भी बनाएंगी। सारा डाटाबेस इन कंपनियों के पास होगा, जिसका यह मनचाहा इस्तेमाल कर सकेंगी। यह एक खतरनाक स्थिति है। सरकार की तऱफ से भ्रम फैलाया जा रहा है, रिपोट्र्स लिखवाई जा रही हैं, जनता को समझाने की कोशिश की जा रही है कि आधार कार्ड बनते ही सारा सरकारी काम आसान हो जाएगा। क्या सरकार संसद और सुप्रीम कोर्ट में यह हल़फनामा देगी कि इस कार्ड के बनने से ग़रीबों तक सभी योजनाएं पहुँच जाएंगी, भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? यही वजह है कि कई लोग इस कार्ड की प्राइवेसी और सुरक्षा आदि पर सवाल उठा चुके हैं। बताया तो यह जा रहा है कि इस कार्ड को बनाने में उच्चस्तरीय बायोमेट्रिक और इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होगा। इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन होगा, इसलिए दुनिया के कई विकसित देशों में इस कार्ड का विरोध हो रहा है। जर्मनी और हंगरी में ऐसे कार्ड नहीं बनाए जाएंगे। अमेरिका ने भी अपने क़दम पीछे कर लिए हैं। हिंदुस्तान जैसे देश के लिए यह न स़िर्फ महंगा है, बल्कि सुरक्षा का भी सवाल खड़ा करता है। अमेरिका में यह योजना सुरक्षा को लेकर शुरू की गई। हमारे देश में भी यही दलील दी गई, लेकिन विरोध के डर से यह बताया गया कि इससे सामाजिक क्षेत्र में चल रही योजनाओं को लागू करने में सहूलियत होगी। देश में जिस तरह का सड़ा-गला सरकारी तंत्र है, उसमें इस कार्ड से कई और समस्याएं सामने आ जाएंगी। सरकारी योजनाएं राज्यों और केंद्र सरकार के बीच बंटी हैं, ऐसे में केंद्र सरकार को सबसे पहले राज्य सरकारों की राय लेनी चाहिए थी। यह कार्ड राशनकार्ड की तरह तो है नहीं कि कोई भी इसे पढ़ ले। इसके लिए तो हाईटेक मशीन की ज़रूरत पड़ेगी। जिला, तहसील और पंचायत स्तर तक ऐसी मशीनें उपलब्ध करनी होंगी, जिन्हें चलाने के लिए विशेषज्ञ लोगों की ज़रूरत पड़ेगी। अब दूसरा सवाल यह है कि देश के ज़्यादातर इलाक़ों में बिजली की कमी है। हर जगह लोड शेडिंग की समस्या है। बिहार में तो कुछ जगहों को छोड़कर दो-तीन घंटे ही बिजली रहती है। क्या सरकार ने मशीनों, मैन पावर और बिजली का इंतजाम कर लिया है? अगर नहीं तो यह योजना शुरू होने से पहले ही असफल हो जाएगी। अब तो वे संगठन भी हाथ खड़े कर रहे हैं, जो इस कार्ड को बनाने के कार्य में लगे हैं। इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसायटी ने कई गड़बड़ियों और सुरक्षा का सवाल उठा दिया है। इस योजना के तहत ऐसे लोग भी पहचान पत्र हासिल कर सकते हैं, जिनका इतिहास दाग़दार रहा है। एक अंग्रेजी अ़खबार ने विकीलीक्स के हवाले से अमेरिका के एक केबल के बारे में ज़िक्र करते हुए यह लिखा कि लश्कर-ए-तैय्यबा जैसे संगठन के आतंकवादी इस योजना का दुरुपयोग कर सकते हैं। यूआईडीएआई ने न स़िर्फ प्राइवेसी को ही नज़रअंदाज़ किया है, बल्कि उसने अपने पायलट प्रोजेक्ट के रिजल्ट को भी नज़रअंदाज़ कर दिया है। इतनी बड़ी आबादी के लिए इस तरह का कार्ड बनाना एक सपने जैसा है। अब जबकि दुनिया के किसी भी देश में बायोमेट्रिक्स का ऐसा इस्तेमाल नहीं हुआ है तो इसका मतलब यह है कि हमारे देश में जो भी होगा, वह प्रयोग ही होगा। यूआईडीएआई के पायलट प्रोजेक्ट के बारे में एक रिपोर्ट आई है, जो बताती है कि सरकार इतनी हड़बड़ी में है कि उसने पायलट प्रोजेक्ट के सारे मापदंडों को दरकिनार कर दिया। मार्च और जून 2010 के बीच 20 हज़ार लोगों के डाटा पर काम हुआ। अथॉरिटी ने बताया कि फाल्स पोजिटिव आईडेंटिफिकेशन रेट 0।0025 फीसदी है। फाल्स पोजिटिव आईडेंटिफिकेशन रेट का मतलब यह है कि इसकी कितनी संभावना है कि यह मशीन एक व्यक्ति की पहचान किसी दूसरे व्यक्ति से करे। मतलब यह कि सही पहचान न बता सके। अथॉरिटी के डाटा के मुताबिक़ तो हर भारतीय नागरिक पर 15,000 फाल्स पोज़िटिव निकलेंगे। समस्या यह है कि इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए बायोमेट्रिक पहचान की किसी ने कोशिश नहीं की। कोरिया के सियोल शहर में टैक्सी ड्राइवरों के लिए ऐसा ही लाइसेंस कार्ड बना, जिसे टोल टैक्स एवं पार्किंग वगैरह में प्रयोग किया गया। एक साल के अंदर ही पता चला कि 5 से 13 फीसदी ड्राइवर इस कार्ड का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा यह निकला कि ऐसा सिस्टम लागू करने के कुछ समय बाद हर व्यक्ति को इस परेशानी से गुज़रना पड़ता है और एक ही व्यक्ति को बार-बार कार्ड बनवाने की ज़रूरत पड़ती है। सच्चाई यह है कि इस तरह के कार्ड के लिए हमारे पास न तो फुलप्रूव टेक्नोलॉजी है और न अनुकूल स्थितियाँ। 24 घंटे बिजली उपलब्ध नहीं है और न इंटरनेट की व्यवस्था है पूरे देश में। ऐसे में अगर इस कार्ड को पढ़ने वाली मशीनों में गड़बड़ियाँ आएंगी तो वे कैसे व़क्त पर ठीक होंगी। प्रधानमंत्री और सरकार की ओर से दलील दी जा रही है कि यूआईडी से पीडीएस सिस्टम दुरुस्त होगा, ग़रीबों को फायदा पहुँचेगा, लेकिन नंदन नीलेकणी ने असलियत बता दी कि भारत के एक तिहाई लोग कंज्यूमर बैंकिंग और सामाजिक सेवा की पहुँच से बाहर हैं। पहचान नंबर मिलते ही मोबाइल फोन के ज़रिए इन तक पहुँचा जा सकता है। यह बिल्कुल वैसी ही हालत है कि आप एटीएम जाते हैं और वह कार्ड रिजेक्ट कर देता है, सर्वर डाउन हो या फिर कोई तकनीकी समस्या। सरकार इसे छोटी-मोटी दिक्कत कह सकती है, लेकिन आम आदमी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल हो जाता है। इसके अलावा यह सिस्टम लागू होने के बाद छोटा सा भी बदलाव बहुत ज्यादा महंगा होगा। इन सब परिस्थितियों को देखकर तो यही लगता है कि सरकार यह योजना लागू करेगी, कुछ दिन चलाएगी और जब समस्या आने लगेगी, तब इसे बंद कर देगी। ऐसा ही इंग्लैंड में हुआ। वहाँ इसी तरह की योजना पर क़रीब 250 मिलियन पाउंड खर्च किए गए। आठ साल तक इस पर काम चलता रहा। हाल में ही इसे बंद कर दिया गया। इंग्लैंड की सरकार को जल्द ही इसकी कमियाँ समझ में आ गईं और उसके 800 मिलियन पाउंड बच गए। नंदन नीलेकणी को मनमोहन सिंह ने यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया का चेयरमैन बना दिया। क्यों बनाया, क्या नंदन नीलेकणी किसी उच्च सरकारी पद पर विराजमान थे? नंदन नीलेकणी निजी क्षेत्र के बड़े नाम हैं। क्या सरकार को यह पता नहीं है कि सरकारी कामकाज और निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की मानसिकता और अंदाज़ में अंतर होता है, क्या संसद में इस बारे में चर्चा हुई, यह किसके द्वारा और कैसे तय हुआ कि चेयरमैन बनने के लिए क्या योग्यताएं होनी चाहिए तथा नंदन नीलेकणी को ही मनमोहन सिंह ने क्यों चुना? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब प्रधानमंत्री ने न तो संसद में दिया और न जनता को। अ़फसोस तो इस बात का है कि विपक्ष ने भी इस मुद्दे को नहीं उठाया। क्या हम अमेरिकी सिस्टम को अपनाने लगे हैं? ऐसा तो अमेरिका में होता है कि सरकार के मुख्य पदों के लिए लोगों का चयन राष्ट्रपति अपने मन से करता है। अब तो यह पता लगाना होगा कि हिंदुस्तान में अमेरिकी सिस्टम कब से लागू हो गया। नंदन नीलेकणी ने अपनी ज़िम्मेदारियों से पहले ही हाथ खींच लिए हैं। वह स़िर्फ यूनिक नंबर जारी करने के लिए ज़िम्मेदार हैं, बाकी सारा काम देश के उन अधिकारियों पर छोड़ दिया गया है, जो अब तक राशनकार्ड बनाते आए हैं। वैसे सच्चाई क्या है, इसके बारे में आधार के चीफ नंदन नीलेकणी ने खुद ही बता दिया। जब वह नेल्सन कंपनी के कंज्यूमर 360 के कार्यक्रम में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने बताया कि भारत के एक तिहाई कंज्यूमर बैंकिंग और सामाजिक सेवा की पहुँच से बाहर हैं। ये लोग ग़रीब हैं, इसलिए खुद बाज़ार तक नहीं पहुँच सकते। पहचान नंबर मिलते ही मोबाइल फोन के ज़रिए इन तक पहुँचा जा सकता है। इसी कार्यक्रम के दौरान नेल्सन कंपनी के अध्यक्ष ने कहा कि यूआईडी सिस्टम से कंपनियों को फायदा पहुँचेगा। बड़ी अजीब बात है, प्रधानमंत्री और सरकार की ओर से यह दलील दी जा रही है कि यूआईडी से पीडीएस सिस्टम दुरुस्त होगा, ग़रीबों को फायदा पहुँचेगा, लेकिन नंदन नीलेकणी ने तो असलियत बता दी कि देश का इतना पैसा उद्योगपतियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए खर्च किया जा रहा है। बाज़ार को वैसे ही मुक्त कर दिया गया है। विदेशी कंपनियाँ भारत आ रही हैं, वह भी खुदरा बाज़ार में। तो क्या यह कोई साज़िश है, जिसमें सरकार के पैसे से विदेशी कंपनियों को ग़रीब उपभोक्ताओं तक पहुँचने का रास्ता दिखाया जा रहा है। बैंक, इंश्योरेंस कंपनियाँ और निजी कंपनियाँ यूआईडीएआई के डाटाबेस के ज़रिए वहाँ पहुँच जाएंगी, जहाँ पहुँचने के लिए उन्हें अरबों रुपये खर्च करने पड़ते। खबर यह भी है कि कुछ ऑनलाइन सर्विस प्रोवाइडर इस योजना के साथ जुड़ना चाहते हैं। अगर ऐसा होता है तो देश का हर नागरिक निजी कंपनियों के मार्केटिंग कैंपेन का हिस्सा बन जाएगा। यह देश की जनता के साथ किसी धोखे से कम नहीं है। अगर देशी और विदेशी कंपनियाँ यहाँ के बाज़ार तक पहुँचना चाहती हैं तो उन्हें इसका खर्च खुद वहन करना चाहिए। देश की जनता के पैसों से निजी कंपनियों के लिए रास्ता बनाने का औचित्य क्या है, सरकार क्यों पूरे देश को एक दुकान में तब्दील करने पर आमादा है? क़रीब एक सौ साल पहले मोहनदास करमचंद गाँधी ने अपना पहला सत्याग्रह दक्षिण अफ्रीका में किया। सरकार को शायद याद नहीं है कि गाँधी ने यह क्यों किया। 22 अगस्त, 1906 को दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने एशियाटिक लॉ एमेंडमेंट आर्डिनेंस लागू किया। इस क़ानून के तहत ट्रांसवल इलाक़े के सारे भारतीयों को अपनी पहचान साबित करने के लिए रजिस्ट्रार ऑफिस में जाकर अपने फिंगर प्रिंट्स देने थे, जिससे हर भारतीय का परिचय पत्र बनना था। इस परिचय पत्र को हमेशा साथ रखने की हिदायत दी गई। न रखने पर सज़ा भी तय कर दी गई। 19वीं शताब्दी तक दुनिया भर की पुलिस चोरों और अपराधियों की पहचान के लिए फिंगर प्रिंट लेती थी। गाँधी को लगा कि ऐसा क़ानून बनाकर सरकार ने सारे भारतीयों को अपराधियों की श्रेणी में डाल दिया है। गाँधी ने इसे काला क़ानून बताया। जोहान्सबर्ग में तीन हज़ार भारतीयों को साथ लेकर उन्होंने मार्च किया और शपथ ली कि कोई भी भारतीय इस क़ानून को नहीं मानेगा और अपने फिंगर प्रिंट नहीं देगा। यही महात्मा गाँधी के पहले सत्याग्रह की कहानी है। अगर आज गाँधी होते तो यूआईडी पर सत्याग्रह ज़रूर करते। झूठे वायदे करके, सुनहरे भविष्य का सपना दिखाकर सरकार देश की जनता को बेवक़ू़फ नहीं बना सकती। जनता का विश्वास उठता जा रहा है। सरकार जो वायदे कर रही है, उसके लिए वह ज़िम्मेदारी भी साथ में तय करे और विफल होने के बाद किन लोगों को सज़ा मिले, इसके लिए भी उसे आधिकारिक प्रस्ताव संसद में रखना चाहिए। साभार- http://www.chauthiduniya.com/ |
Palash Biswas
Pl Read:
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