Fwd: अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
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From:
reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com> Date: 2010/6/30
Subject: अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
To:
abhinav.upadhyaya@gmail.com हम इन्हें पहचानते हैं. इससे पहले उनकी शानदार कविताएं पढ़ चुके हैं. उनके साथ हम कुछ संबल देती कविताओं से संवाद करते हैं, हम उनके जरिए जानते हैं कि जंगल में सपने देखना कितना खतरनाक है, लेकिन यह सारी दुनिया की सांसों और सपनों के लिए कितना जरूरी है, उनकी कविताएं हमें बताती हैं कि शब्दों नहीं, सिर्फ जमीन पर हो रहे बदलाव ही हमें आश्वस्त कर सकते हैं. उनकी हर कविता की तरह यह भी रणेंद्र की कविता है, जहां एक-एक शब्द निरंतर युद्ध है कविता पढ़िएः अभी तो शब्दों को उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
-- Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]
शब्दों का हाशिया
अभी तो
रणेन्द्र
शब्द सहेजने की कला अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्यपंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधनाशास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर इस जीवन में तो कठिनजीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बारजीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरतेअभी तो, उनकी ही जगहइन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ अभी तो,हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगारकी मादकता से मताए मीडिया केआठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहताअभी तो,राजपथ कीएक-एक ईंच सौन्दर्य सहेजने और बरतने की अद्भुत दमक सेचौंधियायी हुई हैं हमारी आँखेंअभी तो,राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैंअभी तो,जंगलों, पहाड़ों और खेतों कोएक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है अभी तो,राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहींवही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों कोअलग-अलग रंग की वर्दियाँ पहना कर एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया हैलहू जो बह रहा हैउससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैंअभी तो, बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़तीलम्बी सरल विरल काली रेखा हैजिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैंअभी तो,जीवन सहेजने का हाहाकार हैबूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर फटे आँचल की छाँह हैजिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती मेंफँस कर छूट गया हैअभी तो, तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने सेतुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार हैपरसों दोपहर को निगले गएमड़ुए की रोटी की रिक्तता है फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़ेबूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैंनिढ़ाल होती देह हैकिन्तु पिछुआती बारूदी गंध गोदावरी पार ठेले जा रही हैअभी तो,कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँवह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती लथपथ तलवों के लिए मलहमसूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेलऔर संजीवनी बूटीअभी तो, चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल कीघायल छातियों में लहूका सोता बन कर उतरेऔर दूध की धार भीताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलटसहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैंसुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाहीअभी तो,हमारी मासूम कोशिश हैकुचैले शब्दों की ढ़ाल ले इतिहास के आभिजात्य पन्नों मेंबेधड़क दाखिल हो जाएँद्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउराइरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ... और ... गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँअभी तो,शब्दों कोरक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ --
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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