राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!
http://bhadas4media.com/article-comment.html: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।
इसे सनसनी माने या सच, मगर कार्यक्रम तय है कि इस बार साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधति राय और सलवा जुडूम अभियान के मुखिया छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन आमने-सामने होंगे। यह जानकारी सबसे पहले हिंदी समाज के जनपक्षधर लोगों में पढ़ी जाने वाली मासिक पत्रिका 'समयांतर' के माध्यम से मिली, जिसकी पुष्टि अब 'हंस' भी कर चुका है। 'हंस' से मिली जानकारी के मुताबिक इन दो मुख्य वक्ताओं के अलावा अन्य वक्ता भी होंगे।
हर वर्ष 31 जुलाई को होने वाले इस कार्यक्रम का महत्व इस बार इसलिए भी अधिक है कि 'हंस' अपने प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की कोशिश होगी कि धमाकेदार ढंग से पत्रिका की सिल्वर-जुबली का मजा लिया जाये। मजा लेने के शगल में पक्के अपने राजेंद्र बाबू ने माओवाद के मसले पर बहस का विषय रखा है, 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।'
'हंस' ऐसे किसी ज्वलंत मसले को लेकर ऐसा संस्कृतनिष्ठ और घुमावदार शीर्षक रखेगा, हतप्रभ करने वाला है। खासकर तब जबकि पत्रिका के तौर पर 'हंस' और संपादक के बतौर राजेंद्र यादव खुल्लमखुल्ला, खुलेआमी के हमेशा अंधपक्षधर रहे हों। वैसे में देश के मध्य हिस्से में चल रहे माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का शीर्षक रखने में राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये हैं,जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।
हिंदी में प्रतिष्ठित कही जाने वाली इस पत्रिका के संपादक का यह शीर्षक चिंता का विषय है और अनुभव का भी। अनुभव का इसलिए कि एक कार्यक्रम के दौरान एक दूसरे राजनीतिक मसले पर श्रोता उनके इस रूप से रू-ब-रू हुए थे। संसद हमले मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद फांसी की सजा पाये अफजल गुरु को लेकर 'जनहस्तक्षेप' दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम किया था जिसमें अन्य वक्ताओं के साथ राजेंद्र यादव भी आमंत्रित थे।
बोलने की बारी आने पर संचालक ने जब इनका नाम उदघोषित किया तो अपने राजेंद्र बाबू ने मामले को कानूनी बताते हुए वकील कमलेश जैन को बोलने के लिए कहा। कमलेश जैन ने अफजल गुरु को लेकर वही बातें कहीं जो कि सरकार का पक्ष है। कमलेश सरकारी पक्ष को इस तरह पेश करने लगीं कि मजबूरन श्रोताओं ने हूटिंग की और आयोजकों को शर्मशार होना पड़ा। जबकि हम सब जानते हैं कि अफजल का केस लड़ रहे वकील,सामाजिक कार्यकर्ता और जन पक्षधर बुद्धिजीवी इस मामले में फेयर ट्रायल की मांग करते रहे हैं। कारण कि सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी की सजा 'कंसेंट आफ नेशन' के आधार पर मुकर्रर की थी।
अफजल से ही जुड़ा एक दूसरा मसला 'हंस' में लेख प्रकाशित करने को लेकर हुआ। जाने माने पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार एवं 'हंस' के सहयोगी गौतम नौलखा ने कहा कि, 'अफजल मामले की सच्चाई हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि 'हंस' में इस मसले पर लेख छपे।' गौतम के इस सुझाव पर राजेंद्र यादव ने लेख आमंत्रित किया। लेख उन तक पहुंचा। उन्होंने तत्काल पढ़ा और लेख के बहुत अच्छा होने का वास्ता देकर अगले अंक में छापने की बात कही। मगर बात आयी-गयी और वह लेख नहीं छपा।
अब सवाल यह है कि पिछले छह वर्षों से सलवा जुडूम अभियान के तमाशबीन बने रहे राजेंद्र यादव कहीं इस तमाशायी उपक्रम के जरिये अपने होने का प्रमाण देने की तो कोशिश में नहीं लगे हैं। तमाशायी कार्यक्रम इसलिए कि लेखिका अरुंधति राय सलवा जुडूम अभियान, माओवादियों और सरकार के रवैये पर क्या सोचती हैं, उनके लेखन के जरिये हम सभी जान चुके हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रिय डीजीपी विश्वरंजन 'सलवा जुडूम'को एक जन अभियान मानते हैं,यह छुपी हुई बात नहीं है। याद होगा कि पिछले वर्ष दर्जनों जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने रायपुर में विश्वरंजन के इंतजाम से हो रहे 'प्रमोद वर्मा स्मृति'कार्यक्रम में इसी आधार पर जाने से मना कर दिया था। इस बाबत विरोध में पहला पत्र विश्वरंजन के नाम कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा था। विरोध का मजमून हिंदी पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा'में छपे विश्वरंजन के एक साक्षात्कार के आधार पर कवि ने लिखा था जिसमें डीजीपी ने सलवा जुडूम को जनता का अभियान बताया था।
ऐसे में फिर बाकी क्या है जिसके लिए राजेंद्र बाबू अरुंधति-विश्वरंजन मिलाप कराने को लेकर इतने उत्साहित हैं। क्या हजारों आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने, माओवादियों के सफाये के बहाने आदिवासियों को विस्थापित किये जाने की साजिशों से राजेंद्र बाबू वाकिफ नहीं हैं। राजेंद्र बाबू क्या आप माओवाद प्रभावित इलाकों में सैकड़ों हत्याएं,बलात्कार आदि मामलों से अनभिज्ञ हैं जो आपने विश्वरंजन को आत्मस्विकारोक्ति के लिए दिल्ली आने का बुलावा भेज दिया है। रही बात उन भले मानुषों की सोच का जो यह मानते हैं कि इस बहाने माओवाद के मसले पर बहस होगी और राष्ट्रीय मसला बनेगा फिर तो राजेंद्र बाबू आप ऐसे सेमीनारों की झड़ी लगा सकते हैं।
जैसे अभी विश्वरंजन को बुलाने की बजाय भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बुलाइये जिससे राष्ट्र के सामने वह अपना पक्ष रख सके कि उसने त्रासदी बुलायी थी या आयी थी। इसी तरह सिख दंगों के मुख्य आरोपियों और गुजरात मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को भी दंगे,हत्याओं और बलात्कारों की मजबूरियां गिनाने के लिए एक चांस आप 'ऐवाने गालिब सभागार'में जरूर दीजिए। समय बचे तो निठारी हत्याकांड के सरगना पंधेर और कोली को बुलावा भिजवा दीजिए जिससे कि उसके साथ अन्याय न हो,कोई गलत राय न बनाये। राजेंद्र बाबू आप ऐसा नहीं करेंगे और मुझे अहमक कहेंगे क्योंकि इन सभी पर राज्य ने अपराधी होने या संदेह का ठप्पा लगा दिया है। तब हम पूछते हैं राजेंद्र बाबू आपसे कि जिसको जनता ने अपराधी मुकर्रर किया है,उसकी गवाहियों में मुंसिफ बनने की अनैतिकता आप कैसे कर सकते हैं?
राजेंद्र बाबू अगर आप कुछ बहस की मंशा रखते ही हैं तो गृहमंत्री पी.चिदंबरम को बुलवाने का जुगाड़ लगाइये। मगर शर्त यह रहेगी कि 5 मई को जेएनयू में जिस तरह की डेमोक्रेसी वहां के छात्रों को झेलनी पड़ी, जिसे वहां के छात्रों ने चिदंबरी डेमोक्रेसी कहा, इस बार उनके आगमन पर माहौल वैसा न हो। गर यह संभव नहीं है तो विश्वरंजन से क्या बहस करेंगे, वह कोई कानून बनाते हैं?
राजेंद्र बाबू आप बड़े साहित्यकार हैं। सुना है आपने दलितों-स्त्रियों को साहित्य में जगह दी है। इस भले काम के लिए मैं तहेदिल से आपको बधाई देता हूं। साथ ही सुझाव देता हूं कि साहित्य में पूरा जीवन लगा देने के बावजूद गर आप दण्डकारण्य को एक आदिवासी साहित्यकार नहीं दे सके तो,आदिवासियों के हत्यारों की जमात से आये प्रतिनिधियों को साहित्यकार बनाने का तो पाप मत ही कीजिए।
राजेंद्र बाबू आप भी जानते हैं कि साहित्यकारों की संवेदनशीलता और संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। आज बाजार का रोगन चढ़ा है, मगर ऐसा भी नहीं है सब अपना पिछवाड़ा उघाड़े खडे़ हैं और फिर हमारे युवा मन का तो ख्याल कीजिए। हो सकता है उम्र के इस पड़ाव पर आप डीजीपी कवि की कविताओं को सुनने में ही सक्षम हों,मगर हमारी निगाहें तो उन खून से सने लथपथ हाथों को देखते ही ताड़ जायेंगी। एक बात कहें राजेंद्र बाबू, एक दिन आप अपने नाती-पोतों को वह हाथ दिखाइये, अच्छा ठीक है किस्सों में अहसास ही कराइये। यकीन मानिये आप बुद्धना, मंगरू, शुकू, सोमू, बुद्धिया को अपने घरों में पायेंगे जो पिछले छह वर्षों से दण्डकारण्य क्षेत्र में तबाह-बर्बाद हो रहे हैं। इन जैसे हजारों लोग जो आज मध्य भारत में युद्ध की चपेट में हैं, आपको एक झटके में पड़ोसी लगने लगेंगे और आप साहित्य के वितण्डावादी आयोजन की जगह एक सार्थक पहल को लेकर आगे बढ़ेंगे।
उम्मीद है कि अर्जी पर आप गौर करेंगे। गौर नहीं करने की स्थिति में हमें मजबूरन अरुंधति राय से अपील करनी पड़ेगी। फिर वही बात होगी कि देखो हिंदी से बड़ी अंग्रेजी है और न चाहते हुए भी सारा क्रेडिट अरुंधति के हिस्से जायेगा। हिंदीवालों की पोल खुलेगी सो अलग। इसलिए राजेंद्र बाबू घर की इज्जत घर में ही रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हमारी भाषा में जनपक्षधरता को गहराई मिले। कम-से-कम अपने किये पर समाज के सबसे कमजोर तबके (आदिवासियों)के सामने तो शर्मसार न होना पड़े। खासकर तब जबकि उस तबके ने हमारे समाज और सरकार से सिवाय अपनी आजादी के किसी और चीज की उम्मीद ही न की हो।
लेखक अजय प्रकाश का यह आलेख उनके ब्लाग जनज्वार से साभार लिया गया है.
written by anju, July 11, 2010
रिटायर हो गए वीरेनदा
या, यों कहिए कि बरेली कालेज को अपने इस मशहूर कवि व सम्मानित प्रोफेसर के रिटायरमेंट का दिन याद नहीं रहा. जो भी हो, पर इस दिन आयोजन हुआ, बरेली कालेज के बिना. वीरेन डंगवाल के रिटायरमेंट से परे. इसमें शामिल हुए वीरेन डंगवाल. आनंद स्वरूप वर्मा, असद जैदी, शीतला सिंह, इब्बार रब्बी जैसे अपने घनिष्ठ दोस्तों की मौजूदगी में मानवाधिकार पर हुए एक कार्यक्रम में कविता पाठ भी हुआ. वीरेन डंगवाल ने बरेली के अपने दोस्त और बरेली कालेज के शिक्षक बलदेव साहनी की मृत्यु पर लिखी गई कविता 'मरते हुए दोस्त के लिए' का पाठ किया. 'दुश्चक्र में श्रष्टा' और 'उजले दिन जरूर' का भी पाठ किया.
शाम के वक्त अपने दोस्तों आनंद स्वरूप वर्मा, इब्बार रब्बी, असद जैदी के साथ वीरेनदा ने बरेली में घूम-टहल, खा-पी और हंसी-ठट्टा कर अपने रिटायरमेंट को इंज्वाय किया. अतीत के पन्ने पलटे तो वर्तमान पर बातचीत की. भविष्य के सपने बुनना बंद नहीं किया. लगता है आपने एक पड़ाव पार कर लिया, पूछने पर वे कहते हैं- 'अब तो पड़ाव ही पड़ाव है बेटे, बड़ा चूतियापा है जीवन का, लंबी-छोटी जिंदगी, जो भी है, कटेगी, तुम लोगों के साथ रहकर कटेगी. मिलेंगे, घूमेंगे, लिखेंगे, सोचेंगे... कट जाएगी बेटे.'
साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय लोग वीरेन डंगवाल से खूब परिचित हैं, पर जो नहीं जानते, उनके लिए ये लिंक हैं, जिस पर क्लिक कर वीरेन डंगवाल के बारे में थोड़ा-बहुत जान सकते हैं-
written by Prem Arora, July 10, 2010
Prem Arora
9012043100
written by Jagmohan Phutela, July 09, 2010
written by सुभाष गुप्ता, देहरादून, July 09, 2010
हर किसी से अपनेपन से मिलना और अपने खास अंदाज में उसकी हौसला अफजाई करना कोई उनसे सीखे। वे रिटायर तो क्या होंगे, अब नई सामाजिक और साहित्यिक जिम्मेदारियां ओढने के लिए उन्हें कुछ समय मिल गया है। मैं उन भाग्यशाली लोगों में से एक हूं, जिन्हें उन्हें नजदीक से देखने और काफी कुछ सीखने का मौका मिला।
रिटायर हो गए वीरेनदा | |
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राजेंद्र यादव, हत्यारों की गवाहियां बाकी हैं!: 'हंस' के जलसे में अरुंधति और विश्वरंजन को आमने-सामने खड़ा कर तमाशा कराने की तैयारी : देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में, राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।
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मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा हैइंटरव्यू : हृदयनाथ मंगेशकर (मशहूर संगीतकार) : मास एक-एक सीढ़ी नीचे लाने लगता है : जीवन में जो भी संघर्ष किया सिर्फ ज़िंदगी चलाने के लिए किया, संगीत के लिए नहीं : आदमी को पता चलता ही नहीं, सहज हो जाना : बड़ी कला सहज ही हो जाती है, सोच कर नहीं : इतने लोगों से सीखा है कि अगर सबका गंडा बांध लेता तो हाथ भर जाता मेरा : लता मंगेशकर की सफलता से मेरा कोई संबंध नहीं है, मैं कभी उसका हाथ पकड़ कर चला ही नहीं : राज ठाकरे का निर्माण मराठियों ने नहीं, मीडिया ने किया है : अगर मेरे पिता जीवित रहते, हमारा बचपन अनाथ न होता तो हमारे परिवार में कोई भी प्ले बैक सिंगर नहीं हुआ होता, लता मंगेशकर भी नहीं : छः साल छोटी है दीदी से आशा, फिर भी आवाज़ मोटी हो गई है, दीदी की वैसी ही है जैसी पहले थी : ढाई हज़ार से अधिक बंदिशें याद हैं, इन्हें सहेज कर रख जाना चाहता हूं : | |
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कृपया सलवाजुडूम और विश्वरंजन के संबध को जाने बिना कुछ भी टिप्पणी करना ग़लत है। खैर बोस आजकल तो चलन ही चल पड़ा है माओवादियों को कहीं से सहीं ठहरा दिया जाए ओर सुर्खियां बटोर ली जा । आगर लेखक को राजेन्द्र यादव जी से कोई समस्या है तो उन पर सीधा निशाना साधे , ना की विश्वरंजन , चिदम्बरम को जरिया बनाएं