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Wednesday, August 23, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-आठ मजहबी सियासत के हिंदुत्व एजंडे से मिलेगी आजादी स्त्री को? जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये। पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-आठ
मजहबी सियासत के हिंदुत्व एजंडे से मिलेगी आजादी स्त्री को?
जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों  के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये।
पलाश विश्वास
तीन तलाक की प्रथा खत्म हो गयी है,यह दावा करना जल्दबाजी होगी।
इसी सिलिसिले सामाजिक,मजहबी बदलाव की किसी हलचल के बिना सियासती सरगर्मियां हैरतअंगेज हैं।
सवाल यह है कि अगर सचमुच तीन तलाक सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खत्म हो गया है तो इसका श्रेय भारत सरकार,भारत के प्रधानमंत्री, संघ परिवार और सत्ता दल को कैसे जाता है।
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका क्या भारत सरकार,भारत के प्रधानमंत्री, संघ परिवार और सत्ता दल के मतहत हैं और उन्हींके निर्देश पर उनके फैसले बनते बिगड़ते हैं?
अगर ऐसा ही सच है तो बाकी तमाम नाजुक मामलों में भी सत्ता का हस्तक्षेप निर्णायक होगा।यह लोकतंत्र और संविधान के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है। मुसलमान औरतों को न्याय दिलाने का श्रेय लूटने वाले पहले इस सवाल का जवाब दें।
बहरहाल हम रवींद्र के दलित विमर्श के तहत स्त्री मुक्ति के लिए भारत में उन्नीसवीं सदी से जारी मुक्ति संघर्ष की चर्चा करेंगे।
रवींद्र ,शरत और प्रेमचंद के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि में स्त्री मुक्ति प्रसंग और आधुनिक भारत में मेहनतकश, दलित, पिछड़ी, आदिवासी,विधर्मी गरीब औरतों के हकहकूक की लड़ाई के संदर्भ में स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता की चुनौतियों की जांच पड़ताल करके ही हम सामाजिक और मजहबी बदलाव की दिशा बना सकते हैं,जिनके बिना सियासती और कानूनी पहल भी बेमतलब हैं।
रवींद्र नाथ भारत की मूल समस्या सामाजिक मानते थे और इसकी जड़ें नस्ली विषमता मानते थे।रवींद्र साहित्य में नवजागरण और ब्रहमसमाज के प्रभाव से स्त्री मुक्ति प्रसंग बेहद मुखर हैं तो बौद्धमय भारत के आख्यानों के तहत स्त्री मुक्ति प्रसंग को उन्होंने समानता और न्याय की लड़ाई से भी जोड़ा है।उनकी तमाम नृत्य
नाटिकाएं चंडालिका, चित्रांगदा, रक्तकरबी, श्यामा, शाप मोचन स्त्री मुक्ति प्रसंग समता और न्याय के संघर्ष में बदल जाते हैं।
प्रेमचंद के गोदान में जिस तरह होरी धनिया की जीवन यंत्रणा है। अंधे सूरदास की आंखों में जैसे पूंजी के हमले से तबाह जनपद हैं,वैसा साहित्य आजाद भारत में भी लिखा नहीं गया है।सद्गति की कथा नस्ली रंगभेद की निरंतरता बनकर अब भी जारी है।इसके साथ ही शरतचंद्र  के कथासंसार में स्त्री अस्मिता की पक्षधरता शायद सबसे प्रबल है।लेकिन वहां स्त्री स्वतंत्रता का मुद्दा सामाजिक बदलाव का मुद्दा बना नहीं है क्योंकि स्त्री मुक्ति प्रसंग वहां सामाजिक न्याय और समानता के साथ जुड़े नहीं हैं।
आजाद भारत में स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे को लगभग सभी भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं ने बेहद प्रामाणिकता के साथ उठाया है लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्त्री अस्मिता और स्वतंत्रता को जिस तरह रवींद्र और प्रेमचंद ने सामाजिक बदलाव,समता और न्याय के मुद्दों के साथ जोड़ा है,ऐसे पुरुष रचनाकारों की कमी खलती हैं।शरत जैसा हर स्थिति में स्त्री अस्मिता का पक्षधर लेखक बी कोई दूसरा नहीं हुआ।
बहरहाल,अगर हम बतौर दलील यह मान भी लेते हैं कि तीन तलाक का मसला हमेशा के लिए सुलझ गया है और कमसकम मुस्लिम महिलाएं आजाद हो गयी हैं और इसका श्रेय संघ परिवार,हिंदुत्व के एजंडे और भाजपा की केंद्र सरकार और उसके प्रधानमंत्री  को जाता है,तो यह इस लड़ाई को जारी रखने वाली तमाम महिलाओं और उनके साथ खड़े कानूनी, सामाजिक और मजहबी चुनौतियों का मुकाबला करने वाले संगठनों की लंबी लड़ाई को सिरे से खारिज करना होगा।
फिर इस फैसले में तीन तलाक को इस्लाम धर्म और संविधान दोनों के खिलाफ बताया गया है तो इस्लाम और संविधान के बारे में इन श्रेय लुटेरों की राय और नीयत को समझना भी जरुरी है।
भारतीय इतिहास से इस्लाम का नामोनिशां मिटाने वालों का इस्लाम से क्या वास्ता है,यह भी समझना होगा।
दूसरी तरफ,भारतीय संविधान को बदलकर जो संस्थागत तौर पर लगातार मनुस्मृति शासन लागू कर रहा है,स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के बारे में पवित्र धर्मग्रंर्थों के हवाले से उनके विचारों की पड़ताल भी जरुरी है।पाठक यह खुद कर सकते हैं तो हम इस पर खामखां ज्यादा वक्त जाया नहीं करेंगे।
रवींद्र साहित्य में स्त्री मुक्ति के विचार ब्रह्मसमाज के विचार रहे हैं और ब्रह्म समाज के विघटन के बाद आदि ब्रह्मसमाज बनने से पहले  आदि ब्रह्मसमाज आंदोलन में शामिल मुख्य लोगों को स्त्री स्वतंत्रता दल के रुप में बंगाल में जाना जाता रहा है।रवींद्र इसी आदि ब्रह्मसमाज के सचिव बनाये गये तथे
रवींद्र के समय में भी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के राजा राममोहन राय और विद्यासागर के आंदोलन में शामिल तमाम  ब्रहम समाजी स्त्री अस्मिता और स्त्री स्वतंत्रता के मामले में उनके उतने भी प्रबल समर्थक नहीं थे।
इस बारे में उनमें मतभेद भी थे और रवींद्र साहित्य में भी स्त्री मुक्ति प्रसंग में इस द्वंद्व की मौजूदगी है।
आदि ब्रहमसमाज आंदोलन के स्त्री अधिकार दल भी नीतिगत तौर पर हिंदू समाज के संस्कारों से मुक्त नहीं थे।रवींद्रनाथ नैतिकता वादी इस शुद्धता के खिलाफ खड़े होकर स्त्री मुक्ति के पक्ष में खुलकर खड़े हो गये।
रवींद्र के उपन्यासों चोखेर बाली की विनोदिनी का विद्रोह नष्टनीड़ में नहीं है।तो घरे बाइरे और गोरा में स्त्री अस्मिता की दृष्टि कही ज्यादा प्रखर है।
रवींद्र के अपने घर जोड़ासांकू में उनके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर अपने बेटों के पश्चिमी नवजागरण और आधुनिकता के तहत स्त्री को स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थे।रवींद्र परिवार की महिलाओं ने इस सीमाबद्धता को तोड़ने की कोशिशें की हैं.जिसका बहुत असर रवींद्र के चिंतन मनन पर हुआ है।
स्त्री मुक्ति का संघर्ष किसी धर्म,जाति,क्षेत्र,नस्ल,भाषा या अस्मिता के दायरे में सीमाबद्ध नहीं है।अब भी दुनियाभर में स्त्री तकनीक और विज्ञान,शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के बावजूद लैंगिक रंगभेदी भेदभाव की वजह से घर बाहर समान रुप से असुरक्षित है।
अब भी स्त्री पितृसत्तात्मक समाज में जाति धर्म स्थान काल निर्विशेष निजी संपत्ति में शामिल है।इसलिए स्त्री अस्मिता या स्त्री स्वतंत्रता की लड़ाई एक निरंतर जारी रहने वाली लड़ाई है।समता और न्याय की लड़ाई का अंग है यह।
पश्चिमी देशों में नवजागरण से पहले स्त्री को नहाने तक की इजाजत नहीं थी क्योंकि धर्म स्त्री को सूरज की रोशनी के सामने खड़े होने का मौका देने को तैयार नहीं था।
भारत में उन्नीसवीं के नवजागरण के दौरान बहुआयामी सामाजिक बदलाव के आंदोलनों की वजह से स्त्री को नागरिक और मानवअधिकार मिलने शुरु हुए।
स्त्री को मनुष्य मानने में ही पितृसत्ता तैयार नहीं थी।
वह लड़ाई अब भी जारी है।
कुरान और हदीस में बताये गये कायदे कानून के खिलाफ तात्कालिक तौर पर तीन बार तलाक कहकर,लिखकर,नेट और तकनीक के जरिये संप्रेषित करने की इस्लामविरोधी धर्मविरोधी रिवाज पर छह महीने के लिए रोक लगायी गयी है।
संसद में कानून बनाने के बाद ही यह रोक स्थाई तौर पर लागू हो सकेगी लेकिन तलाक की दूसरी मजहबी पद्धतियों पर इसका कोई असर नहीं होगा।
गौरतलब है कि इससे पहले शाह बानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सत्ता की मजहबी सियासत के तहत बेकार कर दिया गया था तो मजहबी सियासत के मौजूदा दौर में जब तक संसद में कानून नहीं बन जाता,इसे मुस्लिम औरतों की निर्णायक जीत बताना जल्दबाजी होगी।
खासकर तब जबकि मुस्लिम समाज मजहब के मामले में अदालती हस्तक्षेप के खिलाफ है।सामाजिक तौर पर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड जैसी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे को सुलझाने की कोई कोशिश नहीं हुई है तो मजहबी सियासत के सत्ता समीकरण के तहत इस मसले का स्थाई हल निकलना फिलहाल मुश्किल ही दिखता है।
उन्नीसवीं सदी में बंगाल के नवजागरण के दौरान ब्राह्मसमाज आंदोलन के दौरान हिंदू समाज में सतीप्रथा पर कानूनन रोक लगी तो विधवा विवाह का प्रचलन शुरु हुआ।बाल विवाह,बेमेल विवाह पर रोक अब भी नहीं लग सकी।कानून बनने के बावजूद।
स्त्री शिक्षा के आंदोलन में बंगाल के नवजागरण के अलावा मतुआ आंदोलन, महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले के आंदोलनों का भी असर रहा है।सामाजिक सुधार के लिए हिंदू समाज और इसके साथ ही मुस्लिम समाज में भी उन्नीसवीं सदी से निरंतर आंदोलन होते रहे हैं।
भारत में स्त्री को मिले तमाम हकहकूक इन सुधार आंदोलनों,ब्रह्म समाज आंदोलन और बंगाल के नवजागरण के सौजन्य से हैं तो बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के ब्रिटिश राज के श्रम मंत्री की हैसियत से बनाये गये श्रम कानून मातृत्व अवकाश कानून और भारतीय संविधान में समानता के अधिकारों के तहत मताधिकार की निरंतरता की वजह से हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में स्त्रियों की बड़े पैमाने पर भागेदारी और अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों स्त्री नेतृत्व  के विकास ने भी स्त्री सशक्तीकरण की दिशा बनायी।
उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था में स्त्री की बढती हुई भूमिका की वजह से,ज्ञान विज्ञान और तकनीक में मिले समान अवसरों के कारण आधुनिक भारत में स्त्री अस्मिता की ठोस जमीन तैयार हुई है।
यह सारा कुछ एक निरंतर सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया है और सामाजिक मसलों को सुलझाने के लिए समाज और सामाजिक संगठनों की कारगर पहल के कारण यह प्रगति संभव हो सकी है।
यह सारा सामाजिक बदलाव सियासत या मजहबी सियासत की वजह से नहीं हुआ।हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करने में हिंदू समाज में व्यापक सहमति हुई तभी सती के महिमामंडन के बावजूद सती प्रथा प्रचलित नहीं है।
इसी तरह मजहबी रोक के बावजूद भिन्न धर्म और भिन्न जाति में विवाह का प्रचलन भी आम हो गया है और खाप पंचायतों की वजह से यह सामाजिक बदलाव रुका नहीं है और न रुकनेवाला है।
फिरभी समाज में पितृसत्ता का वर्चस्व नहीं टूटने की वजह से स्त्री अभी भी दासी,शूद्र,गुलाम,भोग्या  मानी जाती है।
लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं हुआ है और सामाजिक वर्ग वर्ण वर्चस्व,बेदखली और नरसंहार संस्कृति के लिए स्त्री पर अत्याचार,स्त्री उत्पीड़न का सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है।
यह सारा खेल मनुस्मृति के स्थाई बंदोबस्त को भारत के संविधान ,कानून के राज और लोकतंत्र को खत्म करने के लिए चल रहा है तो समझा जा सकता है कि मजहबी सियासत के खिलाड़ियों की कितनी दिलचस्पी स्त्री अस्मिता और स्त्री की स्वतंत्रत्ता और उसके हक हकूक में होने वाली है।
जश्न मानने से पहले हकीकत की तस्वीरों  के अलग अलग रुख को जरुर देख लें।फिजां में बिछी बारुदी सुरंगों का भी तनिक जायजा ले लीजिये।
चूंकि स्त्री मुक्ति प्रसंग में बंगाल के नवजागरण की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है तो इसलिए इस सिलसिले में मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से यह ब्यौरा पेश है,जिसे इस बहुआयामी सामाजिक बदलाव के बारे में हमारी धारणा बन सकती है क्योंकि फिलहाल देश में सामाजिक बदलाव के लिए ऐसा कोई आंदोलन नहीं चला रहा है और सत्ता की राजनीति से समाज और धर्म को बदलने की मुहिम उसी हिंदुत्व के एजंडे के मुताबिक चल रही है,जिसकी मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ उन्नीसवी सदी के सामाजिक ांदोलनों की वजह से आज स्त्री अस्मिता और स्वत्त्रता की बात हम कर रहे हैें।

इस अवधि का सुव्यव्यस्थित अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशोभन सरकार लिखते हैं, 'अंग्रेज़ी राज, पूँजीवीदी अर्थव्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी संस्कृति का सबसे पहला प्रभाव बंगाल पर पड़ा जिससे एक ऐसा नवजागरण हुआ जिसे आमतौर पर बंगाल के रिनेसाँ के नाम से जाना जाता है। करीब एक सदी तक बदलती हुई आधुनिक दुनिया के प्रति बंगाल की सचेत जागरूकता शेष भारत के मुकाबले आगे रही। इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि भारत के आधुनिक जागरण में बंगाल द्वारा निभायी गयी भूमिका की तुलना युरोपीय रिनेसाँ के संदर्भ में इटली की भूमिका से की जा सकती है।' इतालवी रिनेसाँ की ही तरह बंगाल का नवजागरण कोई जनांदोलन नहीं था। इसकी प्रक्रिया और प्रसार भद्रलोक (उच्च वर्गों) तक ही सीमित था। भद्रलोक में भी नवजागरण का प्रभाव अधिकतर उसके हिंदू हिस्से पर ही पड़ा। इस दौरान कुछ मुसलमान हस्तियाँ भी उभरीं (जैसे, सैयद अमीर अली, मुशर्रफ हुसैन, साके दीन महमूद, काज़ी नज़रुल इस्लाम और रुकैया सखावत हुसैन), पर बंगाल का नवजागरण आंशिक रूप से ही मुसलमान नवजागरण कहा जा सकता है। मोटे तौर पर माना जाता है कि बंगाल के नवजागरण की शुरुआत राममोहन राय से हुई और रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उसका समापन हो गया। सुशोभन सरकार ने इसे पाँच चरणों में बाँट कर देखने का प्रयास किया है : पहली अवधि 1814 से 1933, जिसकी केंद्रीय हस्ती राजा राममोहन राय थे। 1814 में वे कोलकाता रहने के लिए आये और 1933 में उनका लंदन में देहांत हुआ। दूसरी अवधि उनकी मृत्यु से 1957 के विद्रोह तक जाती है। तीसरी अवधि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना तक फैली हुई है। चौथी अवधि 1905 में बंगाल के विभाजन तक और पाँचवीं अवधि स्वदेशी आंदोलन से असहयोग आंदोलन और महात्मा गाँधी के नेतृत्व की शुरुआत तक यानी 1919 तक मानी गयी है। राममोहन राय के बारे में एक दृष्टांत है जिसे उनकी शख्सियत के रूपक की तरह पढ़ा जा सकता है। कहा जाता है कि उनके दो घर थे। खान-पान, वेषभूषा और रहन-सहन के लिहाज़ से एक में किसी विक्टोरियन जेंटिलमेन की भाँति रहते थे और दूसरे में पारम्परिक बंगाली ब्राह्मण की तरह। दरअसल, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी पूर्व और पश्चिम का संश्लेषण। लेकिन, यह दृष्टांत भी उनके रूढ़िभंजक व्यक्तित्व को परिभाषित नहीं करता। 1820 में उनकी कृति 'परसेप्ट्स ऑफ़ जीसस' का प्रकाशन हुआ जिसमें ईसा के नैतिक संदेश को ईसाई तत्त्वज्ञान और चमत्कार कथाओं से अलग करके पेश किया गया था। बंगाल में सक्रिय ईसाई पादरी वर्ग उनकी इस कोशिश से नाराज़ हो गया। उसके विरोध के परिणामस्वरूप राममोहन राय ने ईसाई जनता के नाम तीन अपीलें जारी करके अपने विचारों को और स्पष्टता प्रदान की। इसी के साथ उन्होंने ब्राह्मनीकल मैग़ज़ीन का प्रकाशन करके हिंदू आस्तिकता के वैचारिक नैरंतर्य को वेदों के हवाले से रेखांकित करने की चेष्टा भी की। राममोहन ने अपने धार्मिक विचारों को धरती पर उतारने के लिए 20 अगस्त 1828 को 'ब्रह्म सभा' का गठन किया। इस प्रक्रिया का परिणाम 1830 में एक चर्च की स्थापना के रूप में निकला और ब्रह्म समाज आंदोलन शुरू हुआ जो लम्बे समय तक बंगाली समाज की चेतना को प्रभावित करता रहा। 1818 से 1829 के बीच राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी बुराई पर आक्रमण करते हुए तीन रचनाएँ प्रकाशित कीं। सती प्रथा के ख़िलाफ़ जनमत बनाने और अंग्रेज़ों को उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए मनाने का श्रेय उनके प्रयासों को ही दिया जाता है। राममोहन ने आधुनिक शिक्षा और विशेष तौर से स्त्री शिक्षा के प्रसार में अगुआ भूमिका निभायी। उन्हें बांग्ला गद्य का निर्माता भी कहा जाता है।
बंगाल रिनेसाँ के इस दौर में राममोहन के प्रयासों को दोहरे विरोध का सामना करना पड़ा। एक तरफ़ उनका विरोध राधाकांत देब, गौरीकांत भट्टाचार्य और भवानी चरण बनर्जी जैसे सुधार विरोधी परम्परानिष्ठ लेखक और विद्वान कर रहे थे, वहीं उन्हें फ़्रांसीसी क्रांति और इंगलिश रैडिकलिज़म से अनुप्राणित आलोचना का भी सामना करना पड़ा जिसका नेतृत्व 'यंग बंगाल' और उसके एंग्लो-इण्डिन नेता हेनरी विवियन डेरॉज़ियो के हाथों में था। यह अलग बात है कि डेरॉज़ियो के अनुयायी अपने कामों और वक्तृताओं से समाज को चौंकाने के अलावा कोई स्थाई असर नहीं डाल पाये। लेकिन, राममोहन की परम्परा के आधार पर समाज सुधारों का नरम कार्यक्रम उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहा। उसकी कमान देवेंद्रनाथ ठाकुर और अक्षय कुमार दत्त के हाथों में थी। इसी दौरान ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह और बहुविवाह के ख़िलाफ़ मुहिम चलायी। हालाँकि यंग बंगाल आंदोलन 1842 में विधवा विवाह के पक्ष में आवाज़ उठा चुका था, पर विद्यासागर के प्रयासों से ही इसे लोकप्रिय आंदोलन का रूप मिला।
1857 के विद्रोह के बाद बंगाल के पुनर्जागरण ने साहित्यिक क्रांति और उसके ज़रिये राष्ट्रवादी चिंतन के युग में प्रवेश किया। नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज़ों के जुल्मों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष में बंगाली बुद्धिजीवियों ने भी अपनी आवाज़ मिलायी। दीनबंधु मित्र के नाटक 'नील दर्पण' ने बंगाल के मानस को झकझोर दिया। माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया जिसके ख़िलाफ़ अदालत ने एक हज़ार रुपये के ज़ुर्माने की सज़ा सुनायी। माइकेल ने 1860 में मेघनाद-वध की रचना करके नयी बंगाली कविता की सम्भावनाओं का उद्घोष किया। 1865 में बंकिम चंद्र चटर्जी का सूर्य उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास दुर्गेशनंदिनी के साथ बंगाली सांस्कृतिक क्षितिज पर उगा। 1873 में विषबृक्ष के ज़रिये उन्होंने सामाजिक उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया। 1879 में 'साम्य' शीर्षक से निबंध लिख कर बंकिम ने समतामूलकता और यूटोपियन समाजवाद के प्रति रुझान दिखाया, पर 1882 में आनंदमठ लिख कर वे देशभक्तिपूर्ण पुनरुत्थानवाद की लहर में बह गये। इसी रचना में दर्ज 'वंदेमातरम' गीत भारत के तीन राष्ट्रगीतों में से एक है। साहित्यिक उन्मेष के साथ- साथ बंगाली नवजागरण ने इतिहास लेखन (राजेंद्रलाल मित्र) और समाज-विज्ञान (बंगाल सोशल साइंस एसोसिएशन) के अन्य क्षेत्रों में योगदान की परम्परा का सूत्रपात भी किया। धार्मिक सुधारों और पुनरुत्थानवाद के लिहाज़ से भी यह दौर ख़ासा घटनाप्रद था। एक तरफ़ तो केशव चंद्र सेन के नेतृत्व में युवा ब्रह्म समाजी सुधार आंदोलन की अलख जगाये हुए थे, दूसरी तरफ़ वहाबी असंतोष खदबदा रहा था और नव- हिंदूवाद की पदचाप सुनायी दे रही थी। इसी अवधि में दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण परमहंस ने अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व के माध्यम से सभी धार्मिक आस्थाओं को पवित्र घोषित किया। ईसाई धर्मांतरण को हवा देने वाला प्रोटेस्टेंट उग्रवाद इससे कमज़ोर हुआ और परम्परा के पैरोकारों को थोड़ी राहत मिली। परमहंस के युवा शिष्य स्वामी विवेकानंद ने 1893 में वर्ल्ड रिलीजस कांफ्रेंस में दिये गये अपने भाषण से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की और अपनी ख़ास शैली के आदर्शवादी राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण किया। चार साल तक पश्चिम का दौरा करके लौटे तो 1897 में उनका राष्ट्रीय नायक की तरह स्वागत किया गया।
1861 के बाद की अवधि तो कुछ इस तरह की थी जिसमें बंगाली बुद्धिजीवी समाज का सबसे प्रिय शब्द 'राष्ट्रीय' बन गया। राजनारायण बोस, नवगोपाल मित्र, ज्योतिरिंद्रनाथ ठाकुर और भूदेव मुखर्जी की अगुआई में कई तरह की गतिविधियाँ चलीं जिनमें हिंदू मेले का आयोजन उल्लेखनीय था जो करीब दस साल तक कोलकाता को आलोड़ित करता रहा। 1870 के बाद की अवधि राजनीतिक आंदोलनों की अवधि थी जिसमें सुरेंद्रनाथ बनर्जी का नेतृत्व उभरा जिन्हें 'बंगाल के बेताज के बादशाह' के तौर पर जाना गया। सुरेंद्रनाथ के जुझारूपन कारण के कारण अंग्रेज़ उनका नाम बिगाड़ कर 'सरेंडर नॉट' बनर्जी भी कहते थे। 1876 में बनर्जी ने 'इण्डिन एसोसिएशन' की स्थापना की जिसके 1883 के राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पैदा हुआ। इसका परिणाम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थापना के रूप में निकला। बंगाली बुद्धिजीवियों कांग्रेस की गतिविधियों में जम कर भागीदारी की और 1903 तक कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता सात बार उनके खाते में गयी। बंगाल ने महाराष्ट्र और पंजाब के साथ मिल कर कांग्रेस के गरमदली धड़े की रचना करने में निर्णायक भूमिका निभायी।
बंगाल के नवजारण के आख़िरी दौर पर गिरीश चंद्र घोष जैसे नाटककार, बंकिम की परम्परा में रमेश चंद्र दत्त जैसे ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासकार (जिन्हें हम महान आर्थिक इतिहासकार के तौर पर भी जानते हैं), मीर मुशर्रफ़ हुसैन जैसे मुसलमान कवि, जगदीश चंद्र बोस और प्रफुल्ल चंद्र राय जैसे वैज्ञानिकों की छाप रही। लेकिन, रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा के सामने ये सभी प्रतिभाएँ फीकी पड़ गयीं। हिंदू मेले में अपनी देशभक्तिपूर्ण कविताओं के पाठ से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले रवींद्रनाथ ने अपने रचनात्मक और वैचारिक साहित्य से एक पूरे युग को नयी अस्मिता प्रदान की। उन्होंने अपने युग पर आलोचनात्मक दृष्टि फेंकी। 1901 में अपनी रचना नष्टनीड़ के ज़रिये वे बंगाली रिनेसाँ के ऐसे पैरोकारों को आड़े हाथों लेते नज़र आये जो अपने पारिवारिक जीवन में उन आदर्शों को लागू करने के लिए तैयार नहीं थे। 1913 में गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले रवींद्रनाथ ने बंग- भंग विरोध और स्वदेशी आंदोलन की राजनीति को सर्वथा नये दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने इस आंदोलन में मुसलमानों की न के बराबर भागीदारी पर अफ़सोस जताया और राष्ट्रवाद में निहित अशुभ आयामों की आलोचना प्रस्तुत की। गाँधी के साथ उनकी बहसों में आने वाले भारत की दुविधाओं की झलक देखी जा सकती थी।

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Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk