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Monday, January 19, 2015

लव जिहाद: एक सांप्रदायिक फैंटेसी का अतीत और वर्तमान

लव जिहाद: एक सांप्रदायिक फैंटेसी का अतीत और वर्तमान

Posted by Reyaz-ul-haque on 1/18/2015 04:38:00 PM



 प्रतिमान के लिए लिखे गए इस शोध आलेख में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की प्राध्यापकचारु गुप्ता ने संघ परिवार द्वारा प्रचारित किए जा रहे लव जिहाद के मिथक को अनेक आयामों में समझने की कोशिश की है. वे इसकी ऐतिहासिक जड़ों की पड़ताल करती हैं, स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों से लेकर हिंदी साहित्य में वे इसके सूत्रों को तलाशती हैं और फिर हाल के समय में इस झूठ के फिर से नई शक्ल में जन्म लेने की पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश करती हैं. साथ ही, एक जातीय और पितृसत्तात्मक समाज में रह रही स्त्री के लिए इस झूठे और प्रतिक्रियावादी प्रचार के क्या मायने हैं – वे इसकी तह में भी जाने की कोशिश करती हैं. इस पूरी छानबीन में वे परत दर परत लव जिहाद के झूठे, फासीवादी प्रचार को तार-तार करती हुई चलती हैं. वे यह दिखाती हैं कि किस तरह यह झूठ असल में सामंती-ब्राह्मणवादी समाज के ढांचे को कायम रखने और स्त्रियों पर पितृसत्तात्मक नियंत्रण को बनाए रखने का एक अभियान है, जो साथ-साथ ही मुसलमानों की झूठी छवियों और उनके खिलाफ नफरत को बढ़ावा देने का भी काम करता है. हाशिया पर इस लेख को प्रकाशित करने की अनुमति देने और इसे उपलब्ध कराने के लिए लेखिका के प्रति आभार के साथ.  
 

लव जिहाद एक ज़ायकेदार राजनीतिक फैंटेसी, एक मारक सांगठनिक रणनीति और जोशो-खरोश से छेड़ा गया मिथक-निर्मिति का एक अभियान है। यह हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा स्त्रियों के नाम पर सांप्रदायिक लामबंदी की एक समकालीन कोशिश है। उनका प्रचार है कि मुसलमान कट्टरपंथी लव जिहाद के बहाने हिंदू महिलाओं को धोखाधड़ी से अपने प्रेम जाल में फँसा कर उनका धर्मांतरण कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो महत्वपूर्ण प्रकाशन पांचजन्य और आर्गनाइज़रके 7 सितंबर, 2014 के अंक इसी विषय पर केंद्रित हैं। इन अंकों का आह्वान है: हमेशा हो प्यार, कभी ना हो लव जिहाद! पांचजन्य के आवरण पर एक पुरुष का कल्पना-चित्र है—पारंपरिक अरब साफा, दिल के आकार की दाढ़ी और कुटिल काले चश्मे में दिल के प्रतिबिंब के साथ। इस पृष्ठ पर सवाल है— प्यार अंधा या धंधा? हमने अगस्त और सितंबर के महीनों में विशेषकर उत्तर प्रदेश के हाल के चुनावों के तुरंत पहले लव जिहाद के इर्द-गिर्द  हिंदुत्ववादी सगंठनों का एक आक्रामक और संगठित अभियान देखा है। इसी दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों कस्बों और शहरों में धर्म जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने इस मुद्दे पर जागरूकता रैलियों सभाओं और अन्य कायक्रमों का नित्य प्रति सिलसिला बना रखा था। एक इतिहासकार के रूप में मैं इस तरह के मिथकों की जड़ें औपनिवेशिक अतीत में भी देखती हूं जब 1920-30 के दशकों में उत्तर प्रदेश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तीखे विभाजन को परिभाषित और विकसित करने के लिए अपहरण अभियान और स्त्री यौनिकता का सवाल एक महत्वपूर्ण साधन बन गया था। जब भी सांप्रदायिक तनाव और दंगों का माहौल परवान चढ़ा है, तब-तब इस तरह के मिथक और प्रचार हमारे सामने आए हैं। लव जिहाद की राजनीति में वोट बैंक और चुनावी गणित के आलावा एक कामुक  मुसलमान पुरुष की गढ़ंत, तथाकथित हिंदू जनसंख्या में लगातार कमी की चिंता, कर्इ प्रकार की विसंगतियों से परे हिंदू समुदाय और हिंदू राष्ट्र का आह्वान, हिंदू महिला के रोज़मर्रा के जीवन पर चार आंखों और उसकी देह पर नियंत्रण, हिंदू पितृसत्ता का पुनर्गठन और स्त्रियों द्वारा स्वयं अपने निजी निर्णय लेने की चिंताओं जैसे मुद्दे स्पष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। इस लेख में मैं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इन मुद्दों को रखने और उसे आज के लव जिहाद संबंधी मिथक के साथ जोड़ने का प्रयास करूँगी। तब और अब, यानी बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उभरे अपहरण प्रचार अभियान और लव जिहाद के बीच कोर्इ  सीधी रेखा खींची नहीं जा सकती, पर एक इतिहासकार के रूप में मैं कुछ मुद्दों के पुनर्जीवन-पुनर्वसन पर चकित हो जाती हूं। मैं देखती हूं कि हिंदू संकीणर्तावादी ताकतों द्वारा स्त्रियों की यौनिकता पर नियंत्रण का आग्रह और मुसलमानों का क्रूर चित्रण बदस्तूर जारी है। कभी-कभी उसके तेवर और ज्य़ादा चढ़ जाते हैं। देखना यह है कि क्या केवल बोतल नयी है और बाकी सब पुराना है, या समानताओं के बीच कुछ अंतर भी झलकते हैं?

हिंदू पुरुष का पराक्रम : समुदाय और हिंदू राष्ट्र का आह्वान

1920-30 के दशकों में उत्तर प्रदेश में हिंदू संगठनों की गति में एक नयी तेज़ी देखी गयी जिसके विभिन्न कारण थे।[1] विश्व-युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार की तरफ से किये गये राजनीतिक एवं संवैधानिक सुधारों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को आंशिक रूप में मान्यता देने का एक व्यापक संदर्भ था। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि हिंदुत्ववादी प्रचारकों ने खिलाफत आंदोलन और मोपला विद्रोह[2] को एक तरह की एकताबद्ध, संगठित, सुनियोजित और आक्रामक मुसलमान आबादी के उदय के खतरे के रूप में देखा, जो उनकी निगाह में हिंदुओं और उनकी संस्कृति को नष्ट कर सकते थे। मोपलाओं द्वारा कथित बलपूर्वक धर्मांतरण, हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण के किस्सों को विशेष रूप से तरजीह दी गयी।[3] इसके साथ-साथ हिंदू समुदाय तथा हिंदू राष्ट्र निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश में स्वामी श्रद्धानंद के सक्रिय नेतृत्व में आर्य समाज और हिंदू महासभा ने बड़े पैमाने पर शुद्धि और संगठन का कार्यक्रम शुरू किया।[4] आर्य समाज की मजबूत जड़ें वैसे तो पंजाब में थीं, लेकिन उत्तर प्रदेश में शुद्धि आंदोलन अधिक असरदार रहा। हालाँकि इस आंदोलन की उत्पति पहले ही हो चुकी थी। आपराधिक जाँच विभाग की एक टिप्पणी में बताया गया कि 1923 में व्यक्तिगत धर्मांतरण की जगह सामूहिक धर्मांतरण के लिए इसके प्रयोग ने इसे विशेष महत्व प्रदान कर दिया।[5] गाँधी शुद्धि आंदोलन के आलोचक थे। उनकी मान्यता थी कि इससे ज़बरदस्त सांप्रदायिक विभाजन पैदा हो सकता है।[6] इन आंदोलनों ने हिंदुओं से बार-बार अपमान का बदला लेने, साहसी बनने और महान हिंदू नस्ल का योद्धा बनने का आह्वान किया। हिंदू महासभा लखनऊ का नारा था :
वह व्यर्थ ही जन्मा जगाया जाति को जिसने नहीं।
हिंदुत्व जीवन की झलक आयी कभी जिसमें नहीं।।[7]

1923 के बाद हिंदू-मुसलमान दंगों की बाढ़ आ गयी। ब्रिटिश टीकाकारों के अनुसार भारत के किसी भी प्रांत की तुलना में उत्तर प्रदेश में उस अवधि में सबसे अधिक दंगे हुए।[8] हिंदू सुधार आंदोलन की राजनीतिक ऊर्जा अधिक कट्टर और लड़ाकू जन-अभिव्यक्ति की शक्ल लेने लगी।[9] इसी दौर में गोरक्षा जैसे मुद्दे के साथ मुसलमानों द्वारा हिंदू महिलाओं के अपहरण के खतरे को उठाया गया, और यह हिंदुओं के एक वर्ग के लिए हिंदू पहचान और चेतना के लिए लामबंदी का एक प्रमुख कारक बन गया।

आज हम देखते हैं कि किस प्रकार, विशेषकर भाजपा की विजय के बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े कई संगठनों को ऐसा लगने लगा है कि लव जिहाद का मुद्दा उन्हें न केवल एक नया जीवन देगा, बल्कि इस आक्रामक आंदोलन के ज़रिये वे उत्तर प्रदेश में हिंदुओं को एकजुट कर सकेंगे। इसलिए उन्होंने हर प्रकार के धर्मांतरण को संगठित रूप से चुनौती दी है। ये संगठन मानने लगे हैं कि लव जिहाद आंदोलन अंतर-धार्मिक प्रेम और धर्मांतरण को हिंदू समुदाय की प्रतिष्ठा, सांप्रदायिक संघर्ष में भागीदारी और पुरुषोचित भूमिका निभाने के आह्वान के साथ जोड़ सकेगा। इस मुद्दे ने हिंदुत्ववादी प्रचारकों को एक अहम संदर्भ बिंदु और एकजुटता बनाने के लिए एक भावनात्मक सूत्र प्रदान किया है। इससे न केवल हिंदू पहचान का एक बोध रेखांकित हुआ, बल्कि हिंदुओं के एक वर्ग को सूचना का एक आधार और उनके दैनिक जीवन के अनुभवों को एक व्याख्या भी मिली। लव जिहाद अभियान ने न केवल मुसलमान पुरुषों के खिलाफ भय तथा गुस्सा बढ़ाने का प्रयास किया है, बल्कि हिंदू पितृसत्ता और जातिगत विशिष्टताओं को तेज़ करने की भी कोशिश की है।

हिंदुत्ववादी प्रचारकों को यह भी लगता है कि लव जिहाद का मामला उठा कर वे समाज के जातिगत भेदभाव को दरकिनार करते हुए हिंदू सामूहिकता को एकजुट कर सकते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे गोरक्षा के झगड़े, त्योहारों पर दंगे या मसजिद पर संगीत संबंधी विवाद के मुद्दे उठाएँगे तो वे दलितों को आकर्षित नहीं करेंगे। लेकिन औरतों का मुद्दा ऐसा है जिससे जाति को परे रखकर सभी हिंदुओं को लामबंद किया जा सकता है। इसीलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हिंदुओं का आह्वान करते हुए इलाके के भाजपा नेता संगीत सिंह सोम ने हाल में घोषणा की है कि वे मेरठ ज़िले के अपने निर्वाचन क्षेत्र सरदाना में लव जिहाद के खिलाफ महापंचायत करेंगे।[10] इस प्रकार स्त्री का शरीर हिंदू प्रचारकों के लिए एक केंद्रीय चिह्न बन जाता है।

कामुक मुसलमान के (कु) कर्म : लव जिहाद के मिथक में मुसलमान पुरुष की छवि

औपनिवेशिक उत्तर भारत में, विशेषकर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में, मुसलमान पुरुषों का अवमूल्यन खास कर स्त्री संबंधी शब्दावली में किया गया। मुसलमान मर्द बहुत बार बलात्कारी या अपहरणकर्ता दिखाया जाने लगा। इस दौर के अधिकांश हिंदी साहित्यकारों को सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी, मुसलमान समथर्क या विरोधी की श्रेणियों में नहीं डाला जा सकता। उनकी रचनाओं में परस्पर विरोधी रुझान देखे जा सकते हैं, पर वे सभी हिंदू और भारतीय दोनों को एक पयार्यवाची मानते लगते हैं। इन साहित्यकारों के घोषित विचार, मकसद और मंज़िल चाहे जो भी रहे हों उनके रुझानों में खतरनाक संभावनाएं निहित थीं और वे एक नए हिंदुत्ववादी राष्ट्रीय संचेतना के निर्माण में खासी मदद कर सकती थीं। भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-85), प्रतापनारायण मिश्र (1856-94) और राधाचरण गोस्वामी (1859-1923) जैसे कर्इ प्रमुख हिंदी लेखक प्राय: मुसलमानों को हिंदू महिलाओं के बलात्कारी और अपहरणकर्ता के रूप में चित्रित करते थे। 1890 के दौर के लोकपिय्र हिंदी रचनाकारों की पहली पीढ़ी— देवकीनदंन खत्री, किशोरीलाल गोस्वामी और गंगाप्रसाद गुप्त— इन्हीं पूर्वाग्रहों का शिकार थी।[11] इनमें मुसलमान मुख्यत: लंपट, व्यभिचारी, अंधकामवासना के शिकार, धार्मिक रूप से कट्टर जैसे नज़र आते थे। अन्यता के इस विमर्श ने इस तरह की प्रभावशाली सांस्कृतिक रूढ़िबद्ध धारणाएं तैयार कीं कि संदर्भ खत्म हो जाने पर भी वे अवचेतन के धरातल पर सक्रिय बनी रहीं।

इस समय, विशेष रूप से 1920-30 के दशकों में, मुख्य रूप से आर्य समाज द्वारा इस्लाम और कुरान की निंदा करते हुए काफी संख्या में निंदात्मक साहित्य का प्रकाशन किया गया। ये पुस्तकें न केवल मुसलमानों पर हमला करती थीं, बल्कि स्पष्ट रूप से लिंगभेद की ओर भी संकेत करती थीं।[12] बरेली और रुहेलखण्ड में वितरित की गयी ऐसी प्रचार-पुस्तिकाओं की एक शृंखला अपमान करने की एक खास शैली में लिखी गयी थी।[13] उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर शहरों में एक प्रचार पुस्तिका इस्लाम की तीली तीली झार थी। कई पुस्तकें गप, पैरोडी और व्यंग्य की शैली में लिखी गयी थीं। 1920 के दशक में प्रकाशित सनसनीखेज़ पुस्तकें रंगीला रसूल और विचित्र जीवन में आर्य समाज ने पैगंबर का अपने नज़रिए से मज़ाक उड़ाया था। रंगीला रसूल पहले उर्दू में मई, 1924 में लाहौर से प्रकाशित हुई और बड़ी लोकप्रिय साबित हो कर खूब बिकी। मुसलमानों ने जल्द ही इसका विरोध शुरू किया और एक मुकदमा दर्ज किया गया।[14] लेकिन पुस्तक का हिंदी अनुवाद कर उसे फिर से प्रकाशित करके बड़े पैमाने पर उत्तर प्रदेश में वितरित किया गया।[15] साथ ही इसका विरोध भी जारी रहा। हिंदी में विचित्र जीवन का लेखन आर्य समाज के एक उपेदशक कालीचरण शर्मा ने किया और नवंबर, 1923 में आगरा से पहली बार लेखक द्वारा इसे प्रकाशित किया गया। इस्लाम धर्म का लगातार ऐसी कई पुस्तिकाओं में मज़ाक उड़ाया गया। एक पुस्तक ने लिखा :

भारतवर्ष में जो इस्लाम का स्वरूप है वह बड़ा संकुचित और दकियानूसी है।... उसका स्वरूप बंध्या स्त्री जैसा है। उसमें से महापुरुष पैदा नहीं हो सकते; किसी प्रकार की उन्नति उससे हो नहीं सकती।... औरतों की इज़्ज़त का भाव भी इस्लाम में नहीं है।[16]

इस दौर में पद्मिनी और अलाउद्दीन से जुड़े किस्से बार-बार दोहराए गये।[17] 1920-30 में लव जिहाद शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ था, लेकिन उस समय में भी कई हिंदू संगठनों— आर्य समाज, हिंदू महासभा आदि— के एक बड़े हिस्से ने मुसलमान गुण्डों द्वारा हिंदू महिलाओं के अपहरण और धर्म परिवर्तन की अनेक कहानियाँ प्रचारित कीं। इन संगठनों ने कई प्रकार के भड़काऊ और लफ्फाज़ी भरे वक्तव्य दिये जिनमें एक कामुक मुसलमान की तस्वीर गढ़ी गयी। इन वक्तव्यों का ऐसा सैलाब आया कि मुसलमानों द्वारा हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार, आक्रामक व्यवहार, अपहरण, बहलाना-फुसलाना, धर्मांतरण और जबरन मुसलमान पुरुषों से हिंदू महिलाओं की शादियों की कहानियों की एक लंबी सूची बनती गयी। लंपटता, अपहरण और धर्मांतरण अब केवल शासकों और पैगंबर तक ही सीमित नहीं रह गए। खलनायक के रूप में अब केवल असाधारण घटनाएँ या मध्ययुगीन अतीत की बुरी चीज़ें ही नहीं रह गयीं। औसत मुसलमान को वैसा ही दर्शाया जाने लगा।[18] 1924 में एक मामला सामने आया जब कानपुर के डिप्टी कलक्टर रज़ा अली पर एक हिंदू स्त्री का अपहरण करने और फिर उसका उत्पीड़न करने का आरोप लगाया गया। यह भी कहा गया कि उन्होंने ज़बरन हिंदू स्त्री का धर्मांतरण किया है। स्थानीय हिंदी अखबार इस वारदात से भरे पड़े थे और उन्होंने रज़ा अली के खिलाफ तीखा अभियान शुरू कर दिया। इस मामले का हवाला देते हुए कहा गया कि अपहरण की गतिविधियाँ निचली जाति या उद्दंड मुसलमानों तक ही सीमित नहीं रह गयी हैं। उदाहरण के लिए प्रताप और अभ्युदय ने रज़ा अली की हरकत की निंदा करते हुए टिप्पणी की कि रज़ा अली की हरकतें इस बात की परिचायक हैं कि सारे मुसलमान ऐसी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं। आर्य पुत्र के अनुसार मुसलमानों का, खास तौर पर महिलाओं के मामले में, विश्वास नहीं किया जा सकता और हिंदुओं को इस घटना से सबक लेना चाहिए। आज़ाद ने भी इस घटना की निंदा की।[19] इस मामले में लोगों का गुस्सा बढ़ने का संभवत: एक अन्य कारण यह भी था कि मामले से जुड़ी महिला सुलतानपुर की एक ब्राह्मण विधवा थी। उसकी जाति और हैसियत हिंदुत्ववादी शक्तियों को एकजुट करने में सहायक बनी। अपहरण प्रचार अभियान में मुसलमान पुरुषों की ऐसी चरित्रहीनता प्रदर्शित की गयी जिससे पता चलता था कि हिंदू महिलाओं के प्रति उनमें ज़रा भी आदर भाव नहीं था। मुसलमानों को कुएँ के पास, अस्पताल में और पड़ोस में यानी रोज़ाना जिंदगी से जुड़ी जगहों पर हिंदू नारी को बरगलाते हुए दर्शाया गया।[20] ऐसे दोषारोपण में परंपरावादी हिंदू संगठनों ने आर्य समाज के साथ सहभागिता की और अपहरण अभियान को लेकर इनके बीच एकता दिखार्इ  पड़ी। सनातन धर्म का समर्थक और काशी से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक भारत धर्म लगातार मुसलमान पुरुषों पर नारी का उत्पीड़न करने का आरोप लगाता रहा।[21]

अगस्त, 1924 में प्रतापगढ़ में मुसलमान विरोधी पर्चे बांटे गए जिसमें आरोप लगाया गया कि साधु के पहनावे में मुसलमान हिंदू नारियों के पास जा रहे हैं।[22] उसी समय चंद 'मुसलमानों की हरकतें' नाम से एक कविता लिखी गयी, जिस पर बाद में प्रतिबंध लगा। कविता के उद्गार कुछ इस प्रकार हैं:

ऐ आर्यो क्यों सो रहे हो पैर पसारे।
मुसलमान ये नहीं होंगे हमराह तुम्हारे।...
तादाद बढ़ाने के लिए चाल चलायी।
मुसलमान बनाने के लिए स्कीम बनायी।....
इक्कों को गली गाँव में ले कर घुमाते हैं।
परदे को डाल मुसलमान औरत बिठाते हैं।।[23]

इस तरह के दुष्प्रचार के परिणामस्वरूप मुसलमानों को निरंतर सार्वजनिक रूप से प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए 1927 में शाहगंज, जौनपुर में एक मुसलमान और उसकी पत्नी को आर्य समाजियों द्वारा दो बार रोका गया। मुसलमान महिला को अपना चेहरा और हाथ दिखाने के लिए बाध्य किया गया ताकि साबित हो सके कि वह कोई अपहृत हिंदू नारी नहीं है। लव जिहाद के मिथक में भी वासना से भरपूर, कामुक मुसलमान पुरुष का हौवा आक्रामक रूप से खड़ा किया गया है। मुसलमानों में मर्दानगी की भावना को अनियंत्रित बताते हुए उस पर प्रतिबंध लगाना उचित घोषित किया गया है। यहाँ तक की कुछ हिंदुत्ववादी संगठन और उनके समर्थक तो लव जिहाद को मुसलमान पुरुषों की गतिविधि का पर्याय समझने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी का वक्तव्य है : क्या उन्हें लड़कियों के साथ बलात्कार करने का अधिकार मिल गया है क्योंकि वे एक विशेष धर्म से जुड़े हैं? [24] उन्होंने अपना कथन जारी रखते हुए कहा कि नब्बे प्रतिशत बलात्कार मुसलमान करते हैं।[25] लव जिहाद आंदोलन के दौरान हिंदू संप्रदायवादियों के एक बड़े वर्ग ने विभिन्न मीडिया में कामवासना से भरपूर, ललचाए मुसलमान पुरुष की लगातार ऐसी छवि प्रचारित की है जो हिंदू महिलाओं के शरीर की पवित्रता भंग करता है। इसके अलावा लव जिहाद में कई नयी चीज़ें भी शामिल हुई हैं, जिसमें मुसलमानों के साथ आतंकवाद और आतंकवादी हमले, मुसलमान सांप्रदायिकता, आक्रामक मुसलमान नौजवान की छवि, विदेशी फंड और अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र जैसी बातें भी जोड़ दी गयी हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रवक्ता डॉ. चंद्रमोहन का कहना है कि लव जिहाद अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा है जिसका निशाना मासूम हिंदू लड़कियाँ हैं। इसके अलावा यह आरोप भी लगाया गया है कि खूबसूरत और सजे-धजे नौजवान मुसलमान लड़के, जिनके नाम गोल-मटोल होते हैं और बाँहों पर पूजा के लाल धागे बँधे होते हैं, लड़कियों के स्कूलों और कॉलेजों के आस-पास मँडराते रहते हैं। यह भी कहा गया है कि ये साज़िश देवबंद में रची गयी है। इस प्रक्रिया में सार्वजनिक यौन हिंसा का संदर्भ बिंदु मुसलमानों की तरफ स्थानांतरित होता गया है और हिंदू पुरुषों को इससे मुक्त कर दिया गया है।[26] नफरत फैलानेवाले अभियानों की एक अन्य विशेषता होती है एक ही बात के दुहराव-तिहराव ताकि लोगों के सामान्य ज्ञान में शुमार हो जाए। लव जिहाद आंदोलन में बलात्कारी मुसलमान पुरुष और असहाय हिंदू स्त्री का झूठा दुहराव बार-बार नज़र आता है जिससे सांप्रदायिकता मज़बूत होती है। इस तरह के मिथक कई बार अवचेतन में समा कर थमाए गये ज्ञान का हिस्सा बन जाते हैं। 

हिंदू कोख, मुसलमान संतति

औपनिवेशिक दौर का अपहरण आंदोलन और लव जिहाद, दोनों ही हिंदुओं की संख्या के सवाल से भी जुड़े हैं। औपनिवेशिक काल में जनगणनाओं का हवाला देकर धार्मिक संप्रदायों की वृद्धि और ह्रास का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाने लगा।[27] हिंदू संप्रदायवादियों को आबादी और जनसांख्यिक राजनीति को लेकर काफी चिंताएँ थीं। हिंदुओं की घटती संख्या का हवाला देकर मृतप्राय हिंदुओं का मिथक गढ़ा गया।[28] बार-बार हिंदू आबादी में आ रहे तथाकथित घाटे पर शोक व्यक्त करते हुए विलाप किया गया। यह कहा गया कि 33 करोड़ से घटते-घटते उनकी संख्या अब 20 करोड़ तक आ पहुँची है।[29] एक अन्य स्थान पर कहा गया कि अगर हिंदुओं ने अपनी संख्या जल्दी ही नहीं बढ़ाई तो हिंदुस्तान हिंदुस्तान की बजाय एक दिन मुसलमानस्थान हो जाएगा और हिंदुओं के कुछ भी हक न रह जाएँगे।[30] एक पुस्तक ने 1911 की जनगणना का उदाहरण देते हुए लिखा : 'घटते घटते करोड़पति का कोष भी एक न एक दिन खाली हो ही जाता है, और बढ़ते-बढ़ते छदामीलाल भी करोड़पति हो ही जाते हैं।' [31] अखबारों, पत्रिकाओं तथा जाति-केंद्रित पत्रिकाओं में भी यह मुद्दा प्रमुखता से छापा जा रहा था।[32] हमारा भीषण ह्रासशीर्षक से छपी एक पुस्तिका, जो प्रताप अखबार में छपे ऐसे अनेक लेखों का संकलन थी, ने बताया कि किस प्रकार बढ़ते धर्मांतरण के कारण हिंदुओं की आबादी में भयंकर गिरावट आ रही है।[33]

लव जिहाद के वितण्डे में भी बार-बार कहा जाता है कि हिंदू महिलाएँ मुसलमान पुरुषों से विवाह कर रही हैं और मुसलमानों की संख्या बढ़ा रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ का दावा है कि लव जिहाद या प्रेम के नाम पर मासूम हिंदू महिलाओं के ज़बरिया धर्मांतरण का एक मुख्य ध्येय है कि हिदुओं की आबादी में गिरावट और मुसलमानों की आबादी में इज़ाफा। और यह एक अंतर्राष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा है।

हिंदुत्ववादी संगठनों का नारा है : हम दो, हमारे दो, वो पांच, उनके पच्चीस। लेकिन विभिन्न सर्वेक्षण इस बात को पूरी तरह खारिज कर चुके हैं। ध्यान देने की बात यह है कि ऐसे तर्कों का सहारा लेकर कैसे एक बहुसंख्यक संप्रदाय भी अपने आप को सकंटग्रस्त अल्पसंख्यक के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। असल में हिंदुत्ववादी प्रचारक इस तरह के अभियानों के ज़रिए हिंदू स्त्री की प्रजनन क्षमता पर भी काबू करना चाहते हैं। वे उसे हिंदुत्व की घेरेबंदी के अंदर सुरक्षित रखना चाहते हैं। एक ज़रूरतमंद समुदाय की बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए संभावित शिशुधारक गर्भों पर नियंत्रण ज़रूरी समझा जा रहा है।

जबरन धर्मांतरण?

धर्मांतरण जाति के निचले पायदान पर रहने वालों के लिए अपने हालात में बेहतरी, प्रतिरोध, प्रतिवाद, श्रेणीबद्ध जीवन के नकार, और सामाजिक चौहद्दियों के पुनर्गठन के लिए एक आम उपाय रहा है। मध्ययुग में कई निम्न जातियों ने इस्लामी परंपरा को अपनी जि़ंदगी और तहज़ीब में शिद्दत से शामिल किया था।[34] औपनिवेशिक काल में दलितों के एक हिस्से द्वारा ईसाई धर्म में धर्मांतरण एक प्रतिकारात्मक कार्रवाई थी, जिससे वे एक असमान सामाजिक व्यवस्था में आगे बढ़ते हुए समाज के अगले पायदान पर कदम रख सकते थे। उन्हें औपनिवेशिक आधुनिकता अपनाने का मौका मिल सकता था। वे सार्वजनिक हलकों में सम्मान पा सकते थे। अपनी पहचान बदल सकते थे और अपना अतीत पीछे छोड़ सकते थे।[35] साथ ही कई बार उन्हें एकेश्वरवाद, साम्यवाद और उदारतावाद के सिद्धांत, भले ही वे सैद्धांतिक हों, भी आकर्षित करते थे।

कई हिंदू प्रचारकों का तर्क है कि उन्हें स्वैच्छिक धर्मांतरण पर कोई आपत्ति नहीं है, पर वे ज़बरन धर्मांतरण के खिलाफ हैं। लेकिन सवाल यह है कि हमारी ज़बरिया की परिभाषा क्या है? ऐतिहासिक तौर पर जब दलित या हिंदू समाज के हाशिये पर रहनेवाली स्त्रियों— विधवा, नीची जाति की स्त्री या वेश्या ने धर्मांतरण किया है, तो वे प्राय: इस बात से भी प्रभावित और लाभान्वित रहे हैं कि उन्हें अन्य धर्म में सम्मान, शिक्षा, कपड़े, रोज़गार और रोटी-बेटी के संबंध हासिल होंगे। क्या जाति के कठोर अनुशासन के खिलाफ ऐसे रैडिकल प्रतिकार या बेहतर शिक्षा और कपड़े के ज़रिये आधुनिकता में प्रवेश को लालच या ज़बरन कहा जा सकता है? और ऐसे में आदित्यनाथ के एक वीडियो-वक्तव्य का क्या मतलब निकाला जाए : 'हिंदू लड़कियाँ मुसलमान मर्द से क्यों शादी कर रही हैं? इसकी जाँच होनी चाहिए।... हमने फैसला किया है के यदि वे एक हिंदू लडक़ी का धर्मांतरण करेंगे तो हम उनकी सौ लड़कियों का धर्मांतरण करेंगे।'[36] या धर्म जागरण मंच के नेता राजेश्वर सिंह का यह बयान दृष्टव्य है कि 'हम बीसवीं सदी की शुरुआत में शुद्धि आंदोलन के नेता स्वामी श्रद्धानंद के शहादत दिवस, 23 दिसंबर, को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कम-से-कम पचास जगहों पर मुसलमानों का हिंदू धर्मांतरण करेंगे।'

हर बलात्कार या धोखों से धर्मांतरण की छानबीन होनी चाहिए और अपराधियों को दण्डित किया जाना चाहिए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब अलग-अलग घटनाओं को एक ही चश्मे से देखा जाने लगता है, और हम प्यार, रोमांस और हर अंतर्धर्मी विवाह को जबरन धर्मांतरण के नज़रिये से जाँचने लगते हैं। ऐसे में क्या हिंदुत्ववादी समर्थक भाजपा के नेताओं एम.जे. अकबर, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज़ हुसैन और दिवंगत सिकंदर बख्त को भी लव जिहाद का अपराधी समझा जाएगा क्योंकि उन्होंने हिंदू स्त्रियों से शादी रचाई है? सुब्रमण्यम स्वामी की अपनी बेटी का क्या होगा जो एक मुसलमान से ब्याही हैं? क्या यह सब लव जिहाद है?

हिंदू संगठन यह तर्क भी देते हैं कि यदि कोर्इ प्रेमवश शादी करता है, तो धर्मांतरण क्यों? लेकिन धर्मांतरण कर्इ बार अंतरंग चाहतों और निकटता से जुड़ा होता है। प्यार, सहवास और शादी के लिए कभी- कभी धर्मांतरण एक रास्ता बनता है। इसके अलावा धर्मांतरण एक व्यक्तिगत इच्छा और चुनाव है, जिसकी हमारे संविधान में तसदीक है। साथ ही, विशेष विवाह अधिनियम में जिसके तहत ऐसी शादियां होती हैं, एक माह के सार्वजनिक नोटिस का प्रावधान है। अतंर-धार्मिक प्रेम करनेवाले जोड़े पहले ही काफी विरोधों से गुज़र रहे होते हैं और एक माह के नोटिस की अवधि से बचना चाहते हैं। इन हालात में धर्मांतरण एक रास्ता खोलता है। एक नौजवान जोड़ा हज़ार मुश्किलों और विरोधों के बीच अपनी शादी को जल्दी-से-जल्दी कानूनी जामा पहनाना चाहता है। इस संदर्भ में विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधान मुश्किल और रुकावट से भरे हैं। लव जिहाद जैसे मिथक संवैधानिक नैतिकता की बजाए नैतिक घबराहट और सार्वजनिक नैतिकता को तरजीह देते हैं। हिंदू स्त्रियों के व्यक्तिगत धर्मांतरण ने हिंदू संगठनों को उद्वेलित कर दिया है क्योंकि इसमें स्त्रियों द्वारा चुनाव, चाहत और प्रायोगिकता के पुट भी होते हैं। ऐसा लगता है कि हिंदुओं के मुसलमान धर्मांतरण, खासकर हिंदू महिलाओं के धर्मांतरण के संदर्भ में हिंदुओं का एक तबका अपनी तार्किकता खो देता है। भूल-भुलावे और नादानी के मिथक, हमले, अपराध, लालच, बलात्कार के शोर-गुल के बीच सांस्कृतिक शुद्धता की राजनीति की असलियत कर्इ बार छुप जाती है।

पीड़ित और अपहृत हिंदू महिला

हिंदू प्रचारकों द्वारा सामूहिक शत्रु के भय को पहचानने और बढ़ावा देने के लिए हिंदू महिला एक निर्णायक साधन बन गयी है। लव जिहाद की आक्रामक हिंदू राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने एक पीड़ित और अपहृत हिंदू महिला की छवि का लगातार इस्तेमाल किया है। लव जिहाद की फैंटेसी हिंदू महिलाओं की असहायता, नैतिक मलिनता और दर्द को उजागर करते हुए उन्हें अक्सर मुसलमानों के हाथों एक निष्क्रिय शिकार के रूप में दर्शाती है। हिंदू समाज के एक हिस्से में इन पीड़ित स्त्रियों के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ती है। धर्मांतरित हिंदू स्त्री पवित्रता और अपमान, दोनों का प्रतीक बन जाती है। लव जिहाद शब्द और अभियान की ईज़ाद के पहले से ही बजरंग दल 'बहू-बेटियों की इज़्ज़त बचाओ' अभियान चला रहा था।[37] कर्नाटक में राम सेना के नेता प्रमोद मुत्तालिक ने 'बेटी बचाओ आंदोलन' छेड़ रखा था। प्रमोद मुत्तालिक ने ही सबसे पहले लव जिहाद नाम चलाया। उनका कहना है कि 2005 में देश भर में आतंकवादी गतिविधियों के दौर में हिंदू संगठनों की बैठक में सबसे पहली बार इसकी चर्चा की गयी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा वितरित पत्रिका भारत : दारुल हरब या दारुल इस्लाम में कहा गया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2008-11 के बीच लव जिहाद की 1611 वारदातें हुईं। हाल-फिलहाल मेरठ में मेरठ बचाओ आंदोलन संगठन की शुरुआत हुई है जिसने लव जिहाद के खिलाफ लड़ने का और अपनी बेटियों को बचाने का बीड़ा उठाया है।[38]

इसके अलावा इस प्रकार के अभियान अक्सर हिंदू स्त्री को कुछ इस तरह दर्शाते हैं जैसे वह आसानी से फुसलार्इ जा सकती हैं। सहारनपुर में भगवान गुरु बाबा रजकदास मोरपंख और पवित्र जल के साथ अतंर्धार्मिक प्यार की बीमारी का इलाज करने का दावा करते हैं। भगवान गुरु के अनुसार मुसलमान लडक़ों के जाल में फंसने वाली भोलीभाली हिंदू लड़कियां अपने शोषण से बेखबर और अनजान रहती हैं। बाबा रजकदास खुद को इस बीमारी के इलाज का विशषेज्ञ बताते हुए दावा करते हैं कि उन्होंने अकेले सहारनपुर में 200 और नज़दीकी मुज़फ्फरनगर और शामली में 500 लड़कियों का इलाज किया है।[39] हिंदुओं की नैतिक ब्रिगेड के लिए यह सोचना असंभव है कि हिंदू लड़कियां खुद भी अपनी मर्जी से अंतर्धार्मिक प्रेम, पलायन, सहवास, विवाह और धर्मांतरण का कदम उठा सकती हैं।

उनका अपना वजदू, अपनी कोर्इ इच्छा, चेतना या एजेंसी हो सकती है—इस सोच को दरकिनार कर दिया जाता है। इसलिए हिंदू संगठन एक हिंदू स्त्री और एक मुसलमान मर्द के बीच हर रोमांस और विवाह को सामूहिक रूप से लव जिहाद की श्रेणी में डाल देते हैं। यह भी हिंदुत्ववादी प्रचारकों की समझ से परे है कि हिंदू स्त्रियाँ अपने हिंदू परिवारों से बाहर जाकर प्रसन्न रह सकती हैं। यह अपने-आप में मान लिया जाता है कि एक मुसलमान के साथ विवाह और जीवन निर्वाह में हिंदू महिला पक्के तौर पर दुखी और परेशान जीवन जीने के लिए अभिशप्त है।

मुसलमान कट्टरवाद

आम तौर पर हिंदू संगठन आरोप लगाते हैं कि लव जिहाद के मिथक को उजागर और उसे झूठा करार देने वाले तस्वीर का केवल एक पहलू देखते हैं। हालाँकि लव जिहाद का हव्वा तो हिंदू संगठनों ने ही पैदा किया है, फिर भी औपनिवेशिक काल का अपहरण अभियान और लव जिहाद जैसे मिथक जहाँ मुसलमानों में डर पैदा करते हैं, वहीं मुसलमान कट्टरवाद को भी बढ़ावा देते हैं। ज़्यादातर नस्ली और जातीय समूहों में मिलावट और विजय-पराजय को लेकर काफी दुश्चिंताएँ पाई जाती हैं। 1920-30 के दशकों में भी मुसलमानों का एक वर्ग अधिक आक्रामक हो गया था और उसने मुसलमानों को संगठित करने के लिए तंज़ीम का, और उनमें शिक्षा व एकता का प्रसार करने के लिए तबलीग का, आह्वान किया था। साथ ही उन्होंने लोगों को इस्लाम में धर्मांतरित करने का बीड़ा उठाया था। इसने आग में घी का काम किया था।[40] आज के दौर में भी, विशेषकर लव जिहाद जैसे आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में मुसलमान कट्टरवादियों ने स्त्रियों पर नियंत्रण के कई प्रयास किये हैं, और वे भी उतने ही पितृसत्तात्मक शब्दावलियों से भरे हैं। इसलिए मेरठ में एक मदरसा चलने वाले मौलाना अमीरुद्दीन कहते हैं कि हमें अवैध संबंधों और शादी पूर्व सेक्स के खिलाफ कड़े कानूनों की ज़रूरत है।[41] हमारे समाज का पितृसत्तात्मक और धार्मिक ढाँचा इतना मज़बूत है कि मुसलमान परिवार भी अपनी लड़कियों और लड़कों के हिंदू लड़कों और लड़कियों से विवाह से उतने ही चिंतित हो जाते हैं। वास्तव में अधिकतर हिंदू और मुसलमान परिवार, दोनों ही, अंतर्धार्मिक विवाह का विरोध करते हैं। इस कारण भी लव जिहाद को एक संगठित साज़िश कहना खोखला लगता है। ये भी गौरतलब है कि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता कई बार अधिक खतरनाक हो जाती है। हिंदुत्ववादी संकीर्ण ताकतों और प्रचारकों ने पहले से कहीं ज़्यादा उग्र होकर सांप्रदायिक सीमाबंदी के लिए महिलाओं की देह को अपने तर्कों का तीर बनाया है।

मुसलमान औरत— हिंदू मर्द

हिंदू संगठन यह भी कहते हैं कि हिंदू स्त्रियाँ ही अक्सर मुसलमान पुरुषों के जाल में फँसती हैं, जबकि मुसलमान स्त्रियों के साथ हिंदू पुरुष ऐसा कभी नहीं करते, और इस प्रकार के प्रेम और विवाह के उदाहरण भी न के बराबर हैं। लेकिन हमारी हिंदी फिल्में तो अधिकतर जब अंतर्धार्मिक रोमांस चित्रित करती हैं तो वह हिंदू पुरुष और मुसलमान स्त्री के बीच ही होता है, जैसे गदर, वीर ज़ारा, बॉम्बे इत्यादि। इसके अलावा, हमारे पास कई जाने-माने उदाहरण हैं जिसमें एक मुसलमान स्त्री ने एक हिंदू पुरुष से प्यार या शादी की है— जैसे नर्गिस और सुनील दत्त; अलवीरा खान और अतुल अग्निहोत्री; ज़रीना वहाब और आदित्य पंचोली; हृतिक रोशन और सुज़ैन खान, सलमा सिद्दीकी और प्रसिद्ध उर्दू लेखक कृष्ण चंदर; मुनैरा जसदनवाला और मुंबई के भूतपूर्व शेरिफ नाना चूड़ासामा जो एक हिंदू गुजराती राजपूत हैं; फातिमा घड़ीयाली और क्रिकेट खिलाड़ी अजीत अगरकर, जो महाराष्ट्र के ब्राह्मण हैं; साराह अब्दुल्ला और कांग्रेस के विधायक सचिन पायलट। नायरा मिर्जा, जो मिस इण्डिया 1967 की फाइनलिस्ट थीं, ने विवाह के बाद हिंदू धर्म में धर्मांतरण किया और अपना नाम नलिनी पटेल रख लिया। मुसलमान समाज से आयी कई पत्रकारों ने हिंदू पुरुषों से विवाह किया है।

लेकिन यह कितना विरोधाभासी है कि हिंदुत्ववादी प्रचार में जब हिंदू स्त्री मुसलमान पुरुष के साथ विवाह करती है तो उसे हमेशा अपहरण के तौर पर व्यक्त किया जाता है, पर जब मुसलमान स्त्री हिंदू पुरुष के साथ विवाह करती है तो उसे प्रेम की संज्ञा दी जाती है।

औपनिवेशिक उत्तर प्रदेश में भी इस तरह की कई कहानियाँ और उपन्यास लिखे गये जिनमें हिंदू पुरुष को, जो किसी मुसलमान नारी से प्यार करने में सफल होता था, एक अद्भुत नायक के रूप में पेश किया गया। एक न्यायोचित हिंदू पुरुष की छवि बनाई गयी, जो मुसलमान महिला को अपहरण नहीं, प्यार से आकर्षित करता था। एक मशहूर उपन्यास शिवाजी व रोशनआरा इस समय प्रकाशित हुआ, जिसे अप्रामाणिक सूत्रों के हवाले ऐतिहासिक बताया गया। इसमें मराठा परंपरा का रंग भरकर दर्शाया गया कि शिवाजी ने औरंगजेब की बहन रोशनआरा का दिल जीता और उससे विवाह कर लिया।[42] यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है। उपन्यास एक आवेगपूर्ण प्रेम कहानी की तरह है जिसमें मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में हिंदू सांप्रदायिक निर्माण के केंद्रीय चरित्र के रूप में शिवाजी का विस्तार से चित्रण किया गया है। वह नाटकीय रूप से सत्रह वर्षीया रोशनआरा के सामने आकर्षक हिंदू मर्द के उदाहरण के रूप में, गठीला शरीर, गोरा रंग और चमकती आँखें लिए आते हैं और रोशनआरा को उनसे धीरे-धीरे प्यार हो जाता है।[43] उपन्यास में एक स्थान पर बताया गया है कि किस प्रकार रोशनआरा तुलना करने लगी और बादशाह की बेटी कहलाने की जगह एक छोटे राजा की रानी कहलाने में ज़्यादा खुशी महसूस करने लगी।[44] हिंदू पुरुषों से अपेक्षा की जाने लगी कि वे भी शिवाजी के उदाहरण का अनुकरण करें। तर्क दिया गया कि हिंदू पुरुष बेहतरी के लिए मुसलमान नारी का उद्धार कर रहे थे, जबकि मुसलमान पुरुष बलपूर्वक ऐसा करते थे और हिंदू नारी की तकलीफ बढ़ा देते थे।

हिंदू स्त्रियों की दैनिक जिंदगी पर चार आँखें

बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदुत्ववादी प्रचारकों ने हिंदू स्त्रियों को मुसलमान पुरुषों से और इस्लामिक ठहराए गये प्रतीकों, तौर-तरीकों और संस्कृति से अलग रखने के लिए कई प्रयास किये। उस समय मुसलमानों के साथ केवल घनिष्ठ संबंध ही नहीं, बल्कि रोज़मर्रा का व्यवहार भी हिंदू पितृसत्तात्मक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा समझा जाने लगा था। रोज़मर्रा के जीवन के साथ स्त्रियों का एक खास रिश्ता होता है और इस संदर्भ में यह डर बढ़ रहा था कि वे अपने जीवन के अनेक पहलुओं के बारे में खुद निर्णय ले रही हैं। रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं का मोल-भाव करते हुए स्त्रियाँ नौकरों, सफाई कर्मचारियों, मनिहारों और कुंजड़ों के साथ अन्योन्यक्रिया करती थीं और इस प्रक्रिया में अपने भौतिक और सामाजिक जीवन को अभिव्यक्त भी करती थीं। अपहरण अभियान के दौरान स्त्रियों के जीवन का हर क्षण, घर के अंदर और बाहर लोगों के साथ बातचीत, रोज़मर्रा का रिश्ता, उनके मनोरंजन के रूप, सांस्कृतिक जीवन और धार्मिक भावनाएँ, उन लोगों से व्यवहार जिनसे वे प्रतिदिन के उपभोग की वस्तुएँ खरीदती थीं, पहले से कहीं ज़्यादा हिंदुत्ववादी प्रचारकों की पड़ताल के दायरे में आ गया।

हिंदुत्ववादी प्रचारक इन प्रक्रियाओं से रूबरू हुए और उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने का रास्ता सोचने लगे। हिंदू स्त्रियों को मुसलमानों से संबधित हर चीज़ से दूर रहने का निर्देश देना उनके हाथों में एक उम्दा हथियार बन गया। समाचार पत्रों और पुस्तिकाओं ने हिंदुओं को सचेत किया कि वे अपनी स्त्रियों को मुसलमान व्यापारियों, अध्यापकों और नौकरों से कोई भी व्यवहार रखने की इजाज़त न दें।[45] उन्हें चेतावनी दी गयी कि वे अपनी स्त्रियों को मुसलमान सब्जी-विक्रेताओं, दुकानदारों और सफाई कर्मचारियों से बात न करने दें।[46] उदाहरण के लिए हिंदू महिलाओं के लिए उचित आचरण बताने वाली एक आर्य समाजी पुस्तिका स्त्री शिक्षा के ज़रिये प्रचारित किया गया ताकि उन्हें मुसलमानों के संपर्क से दूर रखा जा सके। इस पुस्तक के लेखक उतर प्रदेश आर्य प्रतिनिधि सभा के एक प्रमुख पण्डित थे। हिंदू स्त्रियों के लिए निर्देश इस पुस्तक में कुछ इस प्रकार थे:

(1) कभी किसी कब्र को पूजने मत जाओ। (2) ताजियों, अलमों और भण्डों को मत पूजो। (3) गण्डे, ताबीज़ झाड़ा-फूँकी मुसलमान से मत कराओ। (4) उनकी मसजिदों पर नमाज़ पढ़ने वाले मुल्लाओं से फूँक लगवाने मत जाओ। (5) विवाह आदि पर मियाँ की कढ़ाई मत करो। (6) मियाँ की फातियाँ मत दिलाया करो। (7) पीरों की मिन्नत मत मानो। (8) समय-समय पीरों के नाम से टके निकालना छोड़ दो।... (10) मुसलमानी मेलों में भूल कर भी मत जाओ। (11) कभी अकेली किसी मुसलमान की सवारी पर न बैठो। (12) अपने बच्चों को मुसलमानों से मत पढ़वाओ।... (15) मुसलमान मर्द मनिहारों के हाथ से चूड़ी मत पहनो। (16) मुसलमान बिसातियों से घर पर या बाहर कोई सौदा मोल मत लो। (17) सुनसान स्थानों पर मत जाओ।... (19) पागल, नशेबाज़ और व्यभिचारी हाकिम के आगे मत निकलो। (20) भुरारे तालाब पर स्नान करने मत जाओ।... (24) एक पैनी कटार बाँध कर बाहर निकलो।... (29) मुसलमान फकीरों को कभी भीख मत दो। (30) न मुसलमान नौकर के सामने बेपर्दा होकर बातचीत करो, न उनके सामने निकलो।[47]

ऐसे विस्तृत और सूक्ष्म निर्देश सामाजिक और आर्थिक अलगाव के माध्यम से धार्मिक और संप्रदाय विशेष के अलगाव के एजेण्डे की पुष्टि करते हैं। लव जिहाद के तथाकथित खतरे से निपटने के लिए भी विभिन्न हिंदुत्ववादी संगठनों ने हिंदू महिलाओं के लिए एक कठोर आचार संहिता तैयार की है। मुसलमानों के बाबत हिंदू महिलाओं के लिए एक समग्र भाषा का इस्तेमाल किया गया है।

हमारी रोज़ाना की सार्वजनिक जगहों, जैसे स्कूल, कॉलेज, थियेटर, आइसक्रीम और जूस की दूकान, मोबाइल फोन चार्ज करने की जगहें, टीवी और इंटरनेट कैफे, आदि को ऐसी खतरनाक जगहें बताया गया है जहाँ हिंदू लड़कियों को फुसलाया जाता है।[48] प्रमोद मुत्तालिक ने एक किताब लिखी है लव जिहाद : रेड एलर्ट फॉर हिंदू गर्ल्स। इस किताब में ऐसे निर्देश और बचाव वाले उपाय सुझाए गये हैं जिससे हिंदू स्त्रियों को पीड़िता होने से बचाया जा सके। निर्देश इस प्रकार के हैं : लड़कियाँ हेड स्कार्फ न पहनें क्योंकि ऐसी लड़कियाँ जब दोपहिये पर बैठती हैं, तो उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है; कई मामलों में लव जिहाद मोबाइल फोन के ज़रिये होता है, इसलिए माता-पिता अपनी बेटियों के मोबाइल फोन पर आने वाली काल और नंबर पर नज़र रखें; यह भी याद रखें की नंबर जाली नाम से भी हो सकता है; मुश्किल हालात में हिंदू की मदद लेने के लिए अपने ललाट पर कुमकुम लगाएँ।[49] ये अनेक निषेध हिंदू महिलाओं के जीवन, अनुभवों और पहचानों को निर्देशों के दायरे में लाते हैं। इस तरह हिंदू महिलाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के किसी भी पहलू, जिसे हिंदू समाज के नियंत्रण से बाहर समझा जाता है, को संदेह के दायरे में रख दिया गया है। उन्हें बताया जा रहा है कि वे कैसे चलें, कैसे नहीं, किससे बात करें, किससे नहीं, कहाँ जाएँ, कहाँ नहीं, क्या करें और क्या नहीं। हिंदू महिलाओं और मुसलमान पुरुषों के बीच संपर्क के सभी स्थान, चाहे वे सार्वजनिक हों या निजी, इस दायरे में आ गये हैं।

मुसलमान मर्द के प्रलोभन या बहलावे से हिंदू स्त्रियों के बचाव के लिए दिये जाने वाले तर्कों में यह निहित है कि स्त्रियों की दिनचर्या पर रोज़ाना नज़र रखनी होगी। वे कहाँ जाती हैं, किससे मुलाकात करती हैं, सभी सार्वजनिक जगहों आदि पर सघन ध्यान देना होगा। और यदि यह माना जाता है कि लव जिहादी हिंदू स्त्रियों को बेवकूफ बनाने के लिए हिंदू नाम धारण कर लेते हैं, तो इस तर्क से सारे प्रेम प्रसंग संदेह के दायरे में आ जाते हैं क्योंकि एक हिंदू दिखने वाला प्रेमी उनके हिसाब से लव जिहादी हो सकता है। इसका मतलब यह है कि लव जिहाद वास्तव में प्यार के खिलाफ जिहाद छेड़ कर ही रोका जा सकता है। इस प्रकार लव जिहाद और प्रेम या प्रेम-विवाह के बीच का अंतर वास्तव में खतम हो जाता है। लव जिहाद का झूठ जबरन अंतर-धार्मिक विवाह या धर्मांतरण की घटनाएँ अक्सर मनगढ़ंत और काल्पनिक होती हैं। कई मामलों में अनाप-शनाप सामान्यीकरण करके अफवाहों के ज़रिये मिर्च-मसाला लगाया जाता है। जाँच-पड़ताल के बाद सच्चाई सामने आ जाती है। भाजपा शासित कर्नाटक में अगस्त, 2009 में लव जिहाद के खिलाफ अभियान चलानेवाले सांप्रदायिक संगठनों ने एक प्रेम विवाह की धज्जियाँ उड़ा दीं। बंगलूर से 180 किमी दूर एक छोटे शहर चमराजनगर में 18 वर्षीय सिल्जा राज 24 वर्षीय असगर नज़र के साथ भाग गयी, लेकिन इसे हिंदू संगठनों द्वारा लव जिहाद की संज्ञा दी गयी। इसके अलावा जून, 2009 में कर्नाटक के बंतवाल तालुक में अनीता गायब हो गयी। संघ परिवार के संगठनों ने आरोप लगाया कि एक पाकिस्तान समर्थित पेशेवर जिहादी प्रेमी ने जबरिया अनीता का मुसलमान धर्मांतरण करा दिया है। हिंदू संगठनों ने 4 अक्टूबर, 2009 को विरोध सभाएँ की। पर 21 अक्टूबर, 2009 को एक पेशेवर अपराधी मोहन कुमार गिरफ्तार किया गया जिसने अनीता की हत्या करने का अपराध कबूल किया। 2010 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने एक पर्चा भी जारी किया और इसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वितरित किया। इसमें कहा गया था कि अब तक 4,000 लड़कियों का धर्मांतरण किया गया है।

हिंदू जागरण समिति, कर्नाटक ने एक दूसरे पर्चे में कहा था कि यह संख्या सालाना 30,000 है। कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक डिवीज़न बेंच ने 2002-09 के बीच गुमशुदा 21,890 लड़कियों की सीआइडी छानबीन के आदेश भी दिए थे। इस जांच में पाया गया कि 229 लड़कियों ने दूसरे धर्म के पुरुषों से शादी की है, पर केवल 63 मामलों में धर्मांतरण हुआ था। अतंर्धार्मिक विवाहों के मामले हर तरह और हर धर्म  के थे। सीआइडी के महानिदेशक गुरु प्रसाद ने उच्च न्यायालय को 31 दिसबंर, 2009 को सुपुर्द अपनी रपट में कहा : किसी व्यक्ति या समूह द्वारा हिंदू या ईसाई लड़कियों को बहला कर मुसलमान लड़कों से शादी और फिर धर्मांतरण कराने की कोर्इ साजिश या संगठित कोशिश नहीं है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अंतत: नवंबर, 2013 को लव जिहाद की छानबीन खत्म कर दी क्योंकि तथाकथित साज़िश का कोर्इ  साक्ष्य नहीं पाया गया। उच्च न्यायालय ने सिल्जा राज को अपनी मर्जी से कहीं भी जाने की आज़ादी दी और सिल्जा ने अपने पति के पास जाने का फैसला किया।[50]

मेरठ की कुख्यात बलात्कार और तथाकथित लव जिहाद की घटना और भी पेचीदा हो गयी है। कई तरह की रपटें हैं। शायद एक स्वैच्छिक संबंध बाद में बिगड़ गया; एक गर्भपात को अपेंडिसाइटिस बताया गया और पुलिस ने पीड़िता के बयानों को भी विरोधाभासी बताया। निशानेबाज़ तारा सहदवे की भी जटिल पारिवारिक कहानी है जिसमें उसके पति ने दावा किया है कि वह एक सिख पिता और मुसलमान माँ की औलाद है और खुद भी बाद में धर्मांतरित है। मुजफ्फरनगर के एक मामले में पुलिस ने 7 सितंबर, 2014 को एक मुसलमान युवक परवेज को बेकसूर करार दिया। परवेज पर एक 18 वर्षीय लडक़ी को अगुवा और जबरन धर्मांतरण करने का आरोप लगाया गया था। लड़की ने स्थानीय अदालत में बयान दिया कि वो अपनी मर्जी से परवेज के साथ गयी थी। उन्होंने 25 अगस्त, 2014 को अपने परिवारों के विरोध के कारण पलायन किया था।[51] 5 सितंबर, 1914 को मेरठ में हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी संगठनों ने यह खबर फैलार्इ  कि एक मुसलमान लड़के ने लव जिहाद के लिए एक नाबालिग हिंदू लड़की का अपहरण किया है। रास्ते जाम कर दिए गए और दो मुसलमान दुकानों – ब्यूटी सलैनू और हेयर ड्रेसिंग सैलून - को लूटा गया। दोनों लड़के-लड़की जल्दी ही गिरफ्तार कर लिए गए और हिंदू संगठनों ने इसे लव जिहाद का मामला करार किया। पर लडक़ी ने पुलिस थाने में दर्ज कराए अपने बयान में साफ कहा कि वह अपनी मर्जी से लड़के के साथ गयी थी और लड़के ने उसके साथ कोर्इ दुर्व्यवहार नहीं किया था। वह लड़के के साथ मुंबई अपना कैरियर बनाने के खयाल से घर से भागी थी।[52] इस प्रकार यह तय है कि लव जिहाद को लेकर कोई मुकम्मल प्रमाण हमारे सामने नहीं है और यह पूरी तरह एक झूठा मिथक है।

चिंता सागर में हिंदू पुरुषार्थ के गोते : स्त्रियाँ स्वयं फैसले ले रही हैं!

अपहरण और लव जिहाद जैसे आंदोलन हिंदू स्त्री की सुरक्षा करने के नाम पर असल में उसकी यौनिकता, उसकी इच्छा, और उसकी स्वायत्त पहचान पर नियंत्रण लगाना चाहते हैं। हिंदू सगंठनों को भय है कि औरतें अब खुद अपने फैसले ले रही हैं। गौरतलब है कि 1920-30 के दशकों में कर्इ ऐसे मामले सामने आए जिनमें स्त्रियों ने अपनी मर्जी से मुसलमान पुरुषों के साथ विवाह किया। इनमें विशेष तौर पर वे स्त्रियाँ थीं जो हिंदू समाज के हाशिये पर थीं, जैसे विधवाएँ, दलित स्त्रियाँ और कुछ वेश्याएँ भी। तब हिंदुओं में विधवा विवाह नाममात्र का था, और ऐसे में कर्इ विधवाओं ने मुसलमानों के साथ विवाह रचाया। इनकी जानकारी हमें उस समय की कर्इ पुलिस और सीआईडी रपटों से भी मिलती है। लव जिहाद भी स्त्री की स्वतंत्र इच्छा-शक्ति को लेकर पैदा हुर्इ दुश्चिंताओं को दर्शाता है।

इस तरह के दुष्प्रचार से सांप्रदायिक माहौल में तो इज़ाफा हुआ है, पर यह भी सच है कि स्त्रियों ने अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के ज़रिये इस सांप्रदायिक लामबंदी की कोशिशों में सेंध भी लगाई है। अतंर्धार्मिक रोमांस और शादी कर्इ दीवारों को लांघने का एक प्रयास भी है। ऐसे पल स्त्रियों के दिल और दिमाग के अंतरंग हलकों में संभावित स्वायत्तता के झरोखे खोल सकते हैं। आंबेडकर के अनुसार जाति प्रथा बनाए रखने और उसे मज़बतू करने के लिए सजातीय विवाह एक अनिवार्य अंग है। इसीलिए आंबेडकर का मानना था कि अतंर्जातीय विवाह जाति के उन्मलून के लिए एक कारगर उपाय है। इसी प्रकार अतंर्धार्मिक विवाह धार्मिक पहचान को कमज़ोर कर सकता है। स्त्रियों ने अपने स्तर पर इस तरह के सांप्रदायिक प्रचारों पर ध्यान देने से इनकार किया है। अतंर्धार्मिक विवाह करने वाली स्त्रियाँ कहीं न कहीं सामुदायिक और सांप्रदायिक किलेबंदी में सेंध लगाती हैं। रोमांस और प्यार परंपरा के बंद दरवाज़े पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दे रहा है। प्यार का अधिकार जीवन के अधिकार के समान है। इस आंदोलन में कोर्इ साज़िश अगर है भी, तो वह है हिंदू सांप्रदायिक संगठनों द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने और उसके ज़रिए स्त्रियों को और नियंत्रित करने की। सितंबर माह में उत्तर प्रदेश के कर्इ राज्यों में चुनावों के नतीजों से यह भी साबित हुआ है कि लव जिहाद जनित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनाव जीतने के मंसूबों पर आम तौर पर लोगों ने पानी फेर दिया है और स्त्रियों ने भी लोकतांत्रिक तरीकों से इस दुष्प्रचार को नकारा है। आज लव जिहाद को सच और तथ्य के आईने में देखने की ज़रूरत है।

नोट्स

1. रिचर्ड गॉर्डन (1975), 'द हिंदू महासभा ऐंड द इण्डियन नेशनल कांग्रेस,1915 टू 1926',मॉडर्न एशियन स्टडीज़, खण्ड 9, अंक 2 : 145-203.
2. के.एन. पणिक्कर (1989), अगेंस्ट लॉर्ड ऐंड स्टेट : रिलीजन ऐंड पीज़ेंट अपराइजि़ंग इन मालाबार 1836-1921, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली.
3. 156/II/1924, होम पोल, नैशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इण्डिया (आगे एनएआई); बिशन शर्मा,मालाबार का दृश्य नं. 1 : दृढ़ संकल्प वीर; मालाबार का दृश्य नं. 2 : सत्यवती विमला की पुकार और मालाबार का दृश्य नं. 3 : भोले स्वामी का दुष्ट नौकर, मेरठ, 1923.
4. आर.के. घई (1990), शुद्धि मूवमेंट इन इण्डिया : अ स्टडी ऑफ इट्स सोसियो-पॉलिटिकल डाइमेंशंस, नयी दिल्ली; जे.एफ. सियुनाराइन (1977), रिकनवर्जन टू हिंदुइज्म थ्रू शुद्धि, मद्रास; केनेथ डब्ल्यू. जोंस (1976), आर्य धर्म : हिंदू कांशसनेस इन नाइंटींथ सेंचुरी पंजाब, बर्कले.
5. 140/1925, होम पोल, नैशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इण्डिया.
6. एम.के. गाँधी (1949), कम्युनल यूनिटी, अहमदाबाद : 56-57.
7. फाइल एफ-4, हिंदू महासभा पेपर्स, नेहरू मेमॅरियल म्यूजियम ऐंड लाइब्रेरी, नयी दिल्ली (आगे एनएमएमएल).8 4/1927, होम पोल, एनएआई.
8. 140/1927, होम पोल, नैशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इण्डिया.
9. ज्ञानेंद्र पाण्डेय (1990), द कंस्ट्रक्शन इन कोलोनियल नॉर्थ इण्डिया, ऑक्सफर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नयी दिल्ली : 233-35.
10. लालमनी वर्मा (2014),'बीजेपी एमएलए काल फॉर लव जिहाद महापंचायत', द इण्डियन एक्सप्रेस, 8 सितंबर : 1-2.
11. उन्नीसवीं सदी के आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने के लिए देखें : वसुधा डालमिया (1997), द नेशनलाइज़ेशन ऑफ हिंदू ट्रेडिशंस : भारतेंदु हरिश्चंद्र ऐंड नाइंटीथ सेंचुरी बनारस, नयी दिल्ली; सुधीर चंद्र (1992), द ऑप्रेसिव प्रज़ेंट : लिटरेचर ऐंड सोशल कांशसनेस इन कोलोनियल इण्डिया, नयी दिल्ली; मीनाक्षी मुखर्जी (1985), रियलिज़म ऐंड रियलिटी : द नॉवेल ऐंड सोसाइटी इन इण्डिया, नयी दिल्ली.
12. मैंने इस तरह की असंख्य पुस्तिकाएँ देखी हैं : शिव शर्मा उपदेशक (आर्य प्रतिनिधि सभा),मुसलमान की जिंदगानी, मुरादाबाद, 1924; महात्मा प्रेमानंद (हिंदू धर्म रक्षक), मुसलमानी अँधेर खाता, अवध, 1928; आदर्श पुस्तक भण्डार, कुरान की खूनी आयतें, बनारस, 1927; पं. लेखारामजी, जिहाद, कुरान व इस्लामी खुंखारी, इटावा 1924; प्रेमसरन जी (आर्य प्रचारक),देवदूत दर्पण, आगरा, 1926; स्वामी सत्यदेव परिब्राजक, संगठन का बिगुल, देहरादून, 1926, तृतीय संस्करण.
13. इनमें से कुछ थीं : यवनों का घोर अत्याचार, मुँहतोड़, लालझण्डी, तराना-इ-शुद्धि, मलाक्ष तोड़ और इस्लाम का भाण्डा फूट गया. देखें, 140/1925, होम पोल, नैशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इण्डिया.
14. जी.आर. थर्सबी (1975), हिंदू मुस्लिम रिलेशंस इन ब्रिटिश इण्डिया : अ स्टडी ऑफ कंट्रोवर्सी, कन्फ्लिक्ट ऐंड कम्युनल मूवमेंट्स इन नॉर्दर्न इण्डिया, 1923-28, लीडेन : 40-62; 10/50/1927, होम पोल, एनएआई; 132/I/1927, होम पोल, एनएआई; 103/1928, होम पोल, एनएआई. 
15. 132/II/1927, होम पोल, एनएआई.
16. परिब्राजक, संगठन का बिगुल : 29.
17. राधाकृष्ण दास (1903), महारानी पद्मावती, काशी, 1903, दूसरा सं.; कन्या मनोरंजन, खण्ड 1, अंक 2, अक्टूबर, 1914: 2-5.
18. संपादकीय विचार, 'मुसलमान मनोवृत्ति का व्यापक स्वरूप', चाँद, खण्ड 6, अंक 3, जनवरी, 1928 : 315-21.
19. यूपी नेटिव न्यूज़पेपर रिपोर्ट्स, 12 जुलाई, 1924.
20. फाइल सी-6/1934-35, हिंदू महासभा पेपर्स, एनएमएमएल.
21. भारत धर्म, 29 जुलाई, 1924 : 1; भारत धर्म, 5 अगस्त, 1924 : 12.
22. यूपी सीक्रेट पुलिस एक्सट्रेक्ट ऑफ इंटेलिजेंस, नं. 34, 30 अगस्त, 1924 : 276.
23. रघुबर दयालु (1928), चंद मुसलमानों की हरकतें, कानपुर : 2-9. यह भी देखें, महात्मा प्रेमानंद (हिंदू धर्म रक्षक) (1928), मुसलमानी अँधेर खाता, अवध.
24. लालमनी वर्मा (2014), 'बीजेपी पुट्स यूपी कैंपेन इनटू गियर, आस्क्स, 'डज़ रिलीजन गिव देम लाइसेंस टू रेप?', द संडे एक्सप्रेस, 24 अगस्त : 1.
25. वर्गीज़ के. जॉर्ज (2014), 'बीजेपी, परिवार आउटिफट्स टू इंटेसिफाइ कैंपेन अगेंस्ट 'लव जिहाद', द हिंदू, 8 अगस्त : 1.
26. अंजलि मोदी (2014), ''लव जिहाद', द संघ परिवार्स सेक्सुअल पॉलिटिक्स बाइ अदर नेम',कारवाँ, अगस्त, (http://www.caravan magazine.in/vantage/love-jihad-sangh-parivar-sexual-politics-another-name).
27. अर्जुन अप्पादुरै (1997), 'नंबर्स इन कोलोनियल इमेजिनेशन', अर्जुन अप्पादुरै (संपा.),मॉडर्निटी एट लार्ज : कल्चरल डाइमेंशंस ऑफ ग्लोबलाइज़ेशन, नयी दिल्ली : 114-38; बर्नार्ड एस. कोह्न (1987), एन एंथ्रोपोलॅजिस्ट अमंग हिस्टोरियंस ऐंड अदर एसेज़, नयी दिल्ली : 224-54; कैनेथ डब्ल्यू. जोंस (1981), 'रिलीजस आइडेंटिटी ऐंड द इण्डियन सेंसस', एन.जी. बैरियर (संपा.), 73-101.
28. पी.के. दत्ता (1999), कारविंग ब्लॉक्स : कम्युनल आइडियोलॅजी इन अर्ली ट्वेंटियथ सेंचुरी बंगाल, नयी दिल्ली.
29. चंद्रिका प्रसाद (1917), हिंदुओं के साथ विश्वासघात, अवध : 14.
30. कृष्णानंद (1927), हिंदुओं की उन्नति का उपाय अर्थात शुद्धि और संगठन संबंधी उपदेश, शाहजहाँपुर : 19. 
31. गंगाप्रसाद उपाध्याय (1927), विधवा विवाह मीमांसा, इलाहाबाद : 227.
32. संपादकीय, 'हिंदुओं का भयंकर ह्रास' चाँद, खण्ड 7, अंक 1, जनवरी, 1929 : 450-60; कुँवर चाँदकरण शारदा (1924), 'हिंदू जाति की दुर्दशा के कारण और उसके निवारण के उपाय',माधुरी, खण्ड 3, अंक 1, अक्टूबर : 290-95.
33. मनन द्विवेदी (1924), हमारा भीषण ह्रास, कानपुर, तीसरा सं. : 26, 35.
34. रिचर्ड ईटन (1993), द राइज़ ऑफ इस्लाम ऐंड बंगाल फ्रंटियर बंगाल, 1204-1760,बर्कले : 113-34.
35. चारु गुप्ता (2013), 'रूप-अरूप, सीमा और असीम : औपनिवेशिक काल में दलित पौरुष',प्रतिमान समय समाज संस्कृति, जनवरी-जून 2013: 118-19; दिलीप एम. मेनन (2006),द ब्लाइंडनेस ऑफ इनसाइट : एसेज़ ऑन कास्ट इन मॉडर्न इण्डिया, पाण्डिचेरी.
36.  http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-2736259/.
37. अंजलि मोदी, वही.
8 लालमनी वर्मा (2014), 'साइटिंग 'लव जिहाद', संघ ग्रुप्स इन यूपी यूनाइट टू फाइट', द इण्डियन एक्सप्रेस, 31 अगस्त : 1-2.
39. वलुधा वेणुगोपाल (2014), 'द मोंक हू सोल्ड अ लव 'क्यौर', संडे टाइम्स ऑफ इण्डिया, 10 अगस्त.
40. 6/IX/1924, होम पोल, एनएआई; 150/1934, होम पोल, एनएआई.
41. वर्गीज़ के. जॉर्ज (2014), 'इनकांग्रुइटी इन मेरठ विक्टिम्ज़ स्टोरी', द हिंदू, 8 अगस्त 11.
42 कालीचरण शर्मा (1926), शिवाजी व रोशनआरा, तीसरा सं., बरेली.
43. शर्मा, वही : 9-17.
44. शर्मा, वही : 21.
45. आर्य पुत्र, 12 जुलाई, 1924; पण्डित बृज मोहन झा, हिंदुओं जागो, इटावा, तारीख नहीं : 12-15.
46. महात्मा प्रेमानंद बानप्रस्थी (1927), गाजी कौन है, इलाहाबाद : 5.
47. पण्डित शिव शर्माजी महोपदेशक (1927), स्त्री शिक्षा, बरेली : 5-11. बाद में इस पुस्तिका को अवैध घोषित कर दिया गया था.
48. 'की फाइंडिंग्ज़ ऑफ द वॉयस ऑफ जस्टिस रिपोर्ट,' ऑर्गनाइज़र, 7 सितंबर, 2014.
49. टी.ए. जॉनसन और लालमनी वर्मा (2014), 'हू लव्ज़ लव जिहाद', द इण्डियन एक्सप्रेस, 7 सितंबर में उद्धृत.
50. जॉनसन और वर्मा, वही.
51. स्टाफ रिपोर्टर, 'लव जिहाद : गर्ल डिनाइज़ कनवर्जन', द हिंदू, 8 सितंबर, 2014: 1.
52. अमित शर्मा (2014), 'बीजेपी मेन बीट अप मुस्लिम्स ओवर इलोपमेंट,' द इण्डियन एक्सप्रेस, 7 सितंबर, 2014 : 10; एम. कौनेन शरीफ और अमित शर्मा (2014), 'टू स्कूल स्टूडेंट्स विद बॉलीवुड़ ड्रीम्ज़ वर्सेस 'लव जिहाद' नाइटमेयर', द इण्डियन एक्सप्रेस, 11 सितंबर : 1-2.

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जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

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अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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