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Sunday, December 7, 2014

साझे जनपक्षधर सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को फिल्मों ने अभिव्यक्त ने किया

साझे जनपक्षधर सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को फिल्मों ने अभिव्यक्त ने किया




हिंदी सिनेमा की प्रगतिशील-जनपक्षधर परंपरा के इतिहास और वर्तमान से रूबरू हुए दर्शक


पटना: 6 दिसंबर 2014

हिरावल (जन संस्कृति मंच) द्वारा कालिदास रंगालय में आयोजित छठे पटना फिल्मोत्सव प्रतिरोध का सिनेमा के दूसरे दिन आज हिंदी सिनेमा के इतिहास और वर्तमान दोनों के जनसरोकारों से दर्शक रूबरू हुए। किस तरह हिंदी सिनेमा और गायिकी की परंपरा हमारी साझी संस्कृति और प्रगतिशील मूल्यों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है, इसे भी दर्शकों ने देखा और महसूस किया।

जनता के सच को दर्शाने वाले प्रगतिशील लेखक-निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास को याद किया गया 

प्रगतिशील फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती के अवसर पर उनकी याद में 'प्रतिरोध का सिनेमा' के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी की आॅडियो-विजुअल प्रस्तुति से दूसरे दिन की शुरुआत हुई। उन्होंने बताया कि ख्वाजा अहमद अब्बास इप्टा के प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से निकले ऐसे फिल्मकार हैं, जो अपने स्क्रिप्ट और संवाद लेखन तथा निर्देशन के जरिए भारतीय सिनेमा में आम जन के महत्व को स्थापित किया। हिंदी सिनेमा के प्रगतिशील वैचारिक सिनेमा के निर्माण में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। उनकी एक महत्वपूर्ण फिल्म 'धरती के लाल' जो बंगाल के अकाल की सीधे-सीधे सिनेमाई अभिव्यक्ति थी, के अंशों और गीतों के जरिए संजय जोशी ने आज के दौर में किसानों की आत्महत्या और वर्ग वैषम्य के संदर्भाें से जोड़ा। उन्होंने कहा कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने दौर की सामाजिक-आर्थिक विषमता और जनता की जिंदगी की मर्माहत कर देने वाली वास्तविकता को अपने लेखन और निर्देशन के जरिए दर्ज किया, यह विरासत आज भी जनता का सिनेमा बनाने वाली के लिए एक बड़ी पे्ररणा का स्रोत है। संजय जोशी की आॅडियो-विजुअल प्रस्तुति के बाद आर.एन. दास ने ख्वाजा अहमद अब्बास के महत्व को रेखांकित करने के लिए उन्हें बधाई दिया और वादा किया कि पटना फिल्मोत्सव समिति की ओर से उनकी जन्मशती पर आगे कोई विशेष आयोजन किया जाएगा।

दीवानगी से शुरू आजादी का सफर किस बेगानगी पर खत्म हुआ इसे दर्शाया 'बेगम अख्तर' फिल्म ने 
बेगम अख्तर ने भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के दिल को अपनी गायिकी के बल पर जीता

दूसरी फिल्म महान गायिका अख्तरी बाई यानी बेगम अख्तर पर थी। 1971 में फिल्म प्रभाग द्वारा ब्लैक एंड ह्वाइट में बनाई गई इस फिल्म का अत्यंत सारगर्भित परिचय कराते हुए संतोष सहर ने कहा कि यह फिल्म इस सच्चाई को दिखाती है कि आजाद हिंदुस्तान का सफर जिस दीवानगी से शुरू हुआ वह बेगानगी पर जाकर खत्म होता है। एक दौर था कि जब बेगम अख्तर ने गाया कि काबा नहीं बनता है, तो बुतखाना बना दे, लेकिन आजाद हिंदुस्तान के इतने वर्षों के राजनीतिक सफर की हकीकत यह है कि काबा और बुतखाने के बीच की दूरी बढ़ा दी गई है। उन्हांेने कहा कि पटना से बेगम अख्तर का गहरा रिश्ता था। उनके पहले गुरु यहीं के थे। बिहार के भूकंप पीडि़तों की मदद के लिए बेगम ने एक कंसर्ट भी किया था। महान लेखक मंटो के हवाले से उन्होंने कहा कि दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे आम लोगों में भी जबर्दस्त मकबूल हुआ था। करांची में आयोजित उनके एक कार्यक्रम का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जब वे गाती हैं कि आओ संवरिया हमरे द्वारे, सारा झगड़ा बलम खतम होई जाए, तो लगता है कि जैसे यह आवाज भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से टकरा रही है। संतोष सहर ने एक खास बात और कही कि भारतीय पुनर्जागरण में बहुत सारी महिला व्यक्तित्व नजर आती है। उनमें से एक भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने तो उनकी पहली प्रस्तुति में ही उनसे बहुत आगे तक जाने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन इतना नीचे से उठकर इतनी ऊंचाई तक पहुंचने वाली दूसरी कोई महिला शख्सियत नहीं है। वे ऐसी महिला नहीं थीं, जिन्होंने किसी देश में सेना भेजकर उसे जीता, बल्कि जीवन में त्रासदियों का सामना करते हुए भी अपनी गायिकी के बल पर उन्होंने पूरे भारतीय महाद्वीप की जनता के दिल को जीता। 

फिल्म गजल और ठुमरी गायिकी की पंरपरा मेे मुस्लिम नवाबों की महत्वूपर्ण भूमिका को चिह्नित करते हुए बेगम अख्तर की उस जिंदगी की एक झलक दिखाती है कि कैसे 1914 में फैजाबाद जैसे छोटे शहर में जन्मी अख्तरी बाई कलकत्ता पहुंची और फिर बेगम अख्तर के रूप में मशहूर हुईं। उन्होंने कुलीन वर्ग के लिए गाना शुरू किया, पर उन्हें आम अवाम के बीच भी जबर्दस्त मकबूलियत हासिल हुई। फिल्म में एक जगह बेगम अख्तर कहती हैं कि ठुमरी और गजल को गाना ऐसा आसान नहीं है, जैसा अमूमन समझ लिया जाता है।...गजल शायर के दिल की आवाज है, हुस्न और इश्क का खुबसूरत मुरक्का है... अगर कोई गजल गाने वाला अपनी अदायगी से इस हुस्न इश्क के पैगाम को शामइन यानी श्रोताओं के दिल तक पहुंचाने में कामयाब है, तब और सिर्फ तभी उसे गजल गाने का हक मिलता है। 

शायर के दिल की बात को श्रोताओं तक सही ढंग से पहुंचा देना ही अच्छी गायिकी है। इसकी मिसाल बेगम अख्तर पर बनाई गई इस फिल्म में उनके द्वारा गई गजलों के अंशों से भी जाहिर हुआ। 

अत्याचार और गैरबराबरी के खिलाफ ग्रामीण महिलाओं के संगठित संघर्ष को दिखाया 'गुलाबी गैंग' ने

निष्ठा जैन निर्देशित 'गुलाबी गैंग' में उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के बांदा जिले में गुलाबी गैंग नाम के महिलाओं के संगठन और उसके संघर्ष दास्तान को दिखाया गया। इस संगठन की महिलाएं गुलाबी साड़ी पहनती हैं और हाथ में लाठी लिए महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ती हैं। 'गुलाबी गैंग की प्रमुख संपत पाल फिल्म का मुख्य चरित्र हैं. उत्त्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में जहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है और और समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा उन्हें हमेशा पृष्ठभूमि में रक्ता आया है, संपत पाल महिलाओं को प्रेरित करती हैं कि जब तक वे स्वयं एकजूट होकर अपने हकों के लिए नहीं लड़ेंगी तब तक तब तक उनकी लड़ाई अधूरी ही रहेगी. यह फिल्म एक तरफ सम्पत पाल को पितृसत्तात्मक दबावों से लोहा लेने वाली महिला के रूप में दिखाती है तो साथ ही सम्पत पाल को खास जगह पर व्यवस्था के गणित से संचालित भी दिखाती है। यह फिल्म एक आंदोलन के बढ़ने-बनने से लेकर उसके अंतर्विरोधों तथा कमजोर पहलुओं की ओर भी इशारा करती है। महिलाओं पर बढ़ती हिंसा के इस दौर में यह फिल्म संगठित प्रतिरोध की पे्ररणा देती है। निष्ठा जैन ने छ महीने गुलाबी गैंग के साथ रहकर उनकी गतिविधियों को लगातार दर्ज कर यह फिल्म बनायी. स्वयं संपत पाल ने फीचर फिल्म 'गुलाब गैंग' और इसकी तुलना करते हुए कहा, "यह फिल्म मेरी जिंदगी की सच्चाई है। माधुरी की फिल्म की तरह इसे पैसे कमाने के लिए नहीं बनाया गया है। निष्ठा ने महीनों मेरे साथ इस फिल्म के लिए काम किया है। वो दिखाया है जो मैं करती हूं। नाम बदलकर फिल्म बना देने जैसा धोखा इसमें नहीं है जैसा गुलाब गैंग में किया गया है।" इस फिल्म को सामाजिक मुद्दों पर बनी सर्वश्रेष्ठ दस्तावेजी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और दुबई, अफ्रीका तथा मैड्रिड जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी पुरस्कार मिल चुके हैं।

फिल्म की निर्देशक निष्ठा जैन थ्ज्प्प् की स्नातक हैं और इससे पूर्व कई दस्तावेजी फिल्में बना चुकी हैं जिनमें 'लक्ष्मी एंड मी', 'एट माय डोरस्टेप' तथा 'सिक्स यार्ड्स टू डेमोक्रेसी' प्रमुख हैं।

आंखों देखी: अनभुव का सत्य बनाम सत्य का अनुभव 

रजत कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म 'आँखों देखी' में दो नजरिये का टकराव है, एक यह कि नजरिये का फर्क किसी सच को झूठ में नहीं बदल देता, और दूसरा यह कि सच्चाई को देखने-समझने और महसूस करने के सबके अपने निजी तरीके-रास्ते हो सकते हैं। इसके केंद्रीय चरित्र बाबूजी हैं। उनकी बेटी के प्रेमी को जब बाकी लोग पिट रहे हैं, तभी उनको लगता है कि उस लड़के बारे में जो दुष्प्रचार था, वह ठीक नहीं है। उसके बाद एक सुबह वे दफ्तर जाने से पहले नहाते हुए यह प्रण करते हैं कि "मेरा सच मेरे अनुभव का सच होगा। आज से मैं हर उस बात को मानने से इनकार कर दूंगा जिसे मैंने खुद देखा या सुना न हो. हर बात में सवाल करूँगा। हर चीज को दोबारा देखूँगा, सुनूँगा, जानूँगा, अपनी नजर के तराजू से तौलूँगा। और कोई भी ऐसी बात, जिसको मैंने जिया ना हो उसको अपने मुँह से नहीं निकालूँगा. जो कुछ भी गलत मुझे सिखाया गया है, या गलत तरीके से सिखाया गया है वो सब भुला दूँगा. अब सब कुछ नया होगा. नए सिरे से होगा. सच्चा होगा, अच्छा होगा, सब कुछ नया होगा. जो देखूँगा, उस पर ही विश्वास करूँगा।"

अपने ही दफ्तर के चायवाले और साथ काम कर रहे बाबू में उन्हें वह सुन्दरता नजर आने लगती है, जिसे चिह्नित करने की फुरसत और नजर, शायद दोनों ही उनके पास पहले नहीं थी। लेकिन बाबूजी अपनी नई दृष्टि से लैस होकर भी घर के भीतर उस नई दृष्टि का इस्तेमाल कर पाने में असमर्थ हैं और अपनी पत्नी को कहते हैं, "कुछ भी नया सोचो और तुम औरतें, चुप रहो." लेकिन फिर अपनी बेटी से संबंध में यह नई दृष्टि बाबूजी को नई पीढ़ी के अनुभव तक पहुँचने में मदद भी करती है। वे देख पाते हैं बिना किसी पूर्वाग्रह के, जो उनकी बेटी अपने भविष्य के लिए निर्धारित कर रही है। बाबूजी अजीब किस्म की लगती खब्त तो पालते हैं, लेकिन वे इसके जरिये कोई क्रान्ति करने निकले मसीहाई अवतार नहीं हैं। इसके बावजूद यह फिल्म यथास्थिति को तो तोड़ती ही है। 

विभाजन के शिकार लोगों के दर्द की दास्तान दिखी 'फुटप्रिंट्स इन दी डेजर्ट' में

आज फिल्मोत्सव में बलाका घोष निर्देशित फिल्म 'फुटप्रिंट्स इन दी डेजर्ट' भी दिखाई गई, जिसमें भारत-पाकिस्तान के आसपास रहने वाले लोगों के दर्द, चाहत, पे्रम और इंतजार की कहानी है। अपनी जान की परवाह न करते हुए सीमा पार करने की कहानी है। इस फिल्म का साउथ कोरिया बुसान इंटरनेशनल फेस्टिवल में प्रीमियर हुआ था। आज आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में बलाका घोष ने कहा कि वे पहले पैरों के निशान के प्रति आकर्षित हुए। इसे बनाने में चार-साढ़े चार साल लग गए। पैदल ही चलना पड़ा। रेगिस्तान में बहुत सारी रातें रुकना पड़ा।

हुआ यह कि विभाजन के बाद कुछ लोग पाकिस्तान में रह गए और कुछ भारत में। कुंए पाकिस्तान में रह गए और भारत में रहने वालों के लिए पानी की व्यवस्था नहीं रही। सीमा के पार घर नजर आते हैं, पर लोग गैरकानूनी तरीके से ही वहां जा सकते हैं। उनके बीच शादियां भी होती हैं, पर एक बार दुल्हन इधर आए तो फिर वापस नहीं जा पाती। 

फिल्म के प्रोड्यूशर कुमुद रंजन ने बताया कि पाकिस्तान के लोगों को जैसलमेर जाने का विजा नहीं मिलता है। उन्हं जोधपुर तक का ही विजा मिलता है। जबकि अमेरिकन, ब्रिटिश टूरिस्ट जैसलमेर तक जा सकते हैं, लेकिन पाकिस्तानी होने के कारण वे काूननी तौर पर नहीं आ सकते। भारत में एक सूफी गायक हैं और पाकिस्तान में गुरु हैं। लेकिन वे उनसे नहीं मिल पाते। फिल्म प्रदर्शन के बाद बलाका घोष ने दर्शकों के सवालों का जवाब दिया। 

मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक जनसंहार के सच को दर्शाया ' मुजफ्फरनगर बाकी हैं' ने 

आज फिल्मोत्सव की आखिरी फिल्म नकुल सिंह साहनी की फिल्म 'मुजफ्फरनगर बाकी हैं' थी, जिसका भारतीय प्रीमियर भी आज हुआ। पिछले साल मुजफ्फरनगर में जो जनसंहार हुआ था, उसके पीछे की वजहों और आसपास के कई पहलुओं को इस फिल्म ने दर्शाया। भाजपा ने कैसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए इसे भड़काया और किस तरह भारतीय बड़े हिंदू-मुस्लिम किसानों के बल पर टिका हुआ टिकैत का भारतीय किसान यूनियन का यह इलाका सांप्रदायिक जनसंहार से गुजरा इसकी यह फिल्म शिनाख्त करती है। हिंदू महिलाओं की सुरक्षा और इज्जत के नाम पर हिंदुत्ववादी ताकतों ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण किया, लेकिन इस फिल्म में महिलाएं इस झूठ का पर्दाफाश करते हुए कहती हैं कि मुसलमान तो अल्पसंख्यक हैं, उनकी हिम्मत छेड़छाड़ करने की आमतौर पर नहीं होती, छेड़छाड़ तो अपनी ही जाति-बिरादरी के पुरुष अधिक करते हैं। यह फिल्म दिखाती है कि सांप्रदायिक धु्रवीकरण ने दलितों को भी विभाजित किया है। लेकिन अभी भी दलितों का एक बड़ा हिस्सा और भारत नौजवान सभा जैसे संगठन सांप्रदायिकता का प्रतिरोध कर रहे हैं। 

आज बाबरी मस्जिद ध्वंस और डाॅ. अंबेडकर के स्मृति दिवस पर सांप्रदायिकता, दलित प्रश्न, महिलाओं के अधिकार आदि पर इन फिल्मों ने गंभीर बहसों को जन्म दिया। 'मुजफ्फरनगर बाकी है' पर भी गंभीर संवाद हुआ।

प्रेस कांफ्रेंस

देश मे निवेश करने जो आएगा वह मुनाफे के लिए आएगा : प्रो. आनंद तेलतुंबडे़

आज प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए राजनीतिक विश्लेषक प्रो. आनंद तेलतुंबड़े कहा कि इस देश में कोई निवेश करने आएगा तो अपने मुनाफे के लिए आएगा, वह हमें दान देने नहीं आएगा। एफडीआई और निवेश के नाम पर लोगों को सिर्फ बुद्धू बनाया जा रहा है। आजकल सड़कों पर तो फुटपाथ भी नहीं बनते, फ्लाईओवर बनते हैं और उसी को विकास बताया जा रहा है। मोदी के विकास और अच्छे दिन के दावों पर बोलते हुए प्रो. तेलतुंबड़े ने कहा कि ये आने वाली पीढि़यों पर बोझ लाद रहे हैं। हमें तो इस तरह का विकास चाहिए कि जनता में ताकत आए। उन्होंने सवाल किया कि शिक्षा और चिकित्सा दो बुनियादी मुद्दे हैं, इनके लिए सरकारों ने क्या किया है? चिकित्सा सेवा का सबसे ज्यादा निजीकरण हुआ है। प्राथमिक से लेकर उच्चशिक्षा तक का बाजारीकरण हो गया। बंबई के सारे म्युनिसिपल स्कूल एनजीओ के हवाले किए जा रहे हैं। देश के देहाती इलाके गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से पूरी तरह कट चुके हैं। उन्होंने यह भी सवाल किया कि चीन ने जैसा विकास किया है, क्या इंडिया वैसा कर पाएगा? वहां के शासकवर्ग और यहां के हरामखोरों मेें बहुत फर्क है। 

दलित आंदोलन पर बोलते हुए प्रो. तेलतुमड़े ने कहा कि दलितों में भी जातियां हैं। जो बड़ी आबादी वाली जातियां हैं, दलित आंदोलन का उन्हें ही ज्यादा फायदा हुआ है। दलित नेताओं के भीतर भी सत्ता की प्रतिस्पर्धा बड़ी है, जिसके कारण वे कभी कांग्रेस और भाजपा में जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा-आरएसएस की ओर से दलितों को एडाॅप्ट करने की लगातार कोशिश की जा रही है। अंबेडकरवादी सिद्धांतों की बात करने वाले जो नेता कांग्रेस या भाजपा में गए हैं, दलाली के सिवा उनकी कोई दूसरी राजनीति नहीं है। उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि यहां जो 18-19 प्रतिशत दलितों का वोट है, उसे ही ध्यान में रखकर कांशीराम ने अपनी राजनीति की थी। लेकिन बहुजन से सर्वजन करने पर दलितों में संदेह बढ़ा। उन्होंने कहा कि 1997 के बाद से आरक्षण की स्थिति बदली है, अब नौकरियां सात प्रतिशत घट गई हैं। शिक्षा के बाजारीकरण और निजीकरण ने जो सत्यानाश किया है, उसका नुकसान भी दलितों को हुआ है। आईआईटी के रिजर्वेशन की सीटें भर ही नहीं रही है। मुट्ठी भर दलित भले उपर पहुंच चुके हों। बड़ी आबादी को रिजर्वेशन से फायदा हो ही नहीं रहा है। इसके जरिए शासकवर्ग ने दलितों का अराजनीतिकरण किया है। 

बिहार के राजनीतिक महागठबंधन पर बोलते हुए कहा कि ये सभी जेपी के आंदोलन से निकले हुए हैं, ये कोई सही विकल्प नहीं हो सकते। इसके जरिए व्यवस्था भावी परिवर्तन को थोड़ा लंबा खींच सकती है। आज वामपंथ भले कमजोर लग रहा हो, लेकिन यह इतिहास का अंत नहीं है। क्योंकि नवउदारवाद का जो यह दौर है, वह मुट्ठी भर लोगों के लिए ही है। दुनिया में सात अरब लोग हैं। बहुसंख्यक आबादी की जरूरतें पूरी नहीं होगी, तो संघर्ष जरूर तेज होगा।

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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