Welcome

Website counter
website hit counter
website hit counters

Thursday, February 27, 2014

बहस : दलित समाज और जूठन

बहस : दलित समाज और जूठन

Author:  Edition : 

चंद्रभान सिंह यादव

joothan-by-om-prakash-valmikiसदियों का संताप' से ओमप्रकाश वाल्मीकि का लेखन शुरू होता है, जो उनके सृजन के मूल में है। 'बस! बहुत हो चुका', 'अब और नहीं' जैसे काव्य संग्रहों के शीर्षक से विषयवस्तु का अंदाजा लगाया जा सकता है। आपको कवि हृदय मिला था जो प्रेम-सौंदर्य की जगह अपने समुदाय के दुख-दर्द में डूबा रहा। 'मैं, तुम' जैसी कविताओं में उठाए गए सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। 'दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र', 'मुख्यधारा और दलित समाज' और 'दलित साहित्य : अनुभव संघर्ष और यथार्थ' के माध्यम से दलित साहित्य का समाजशास्त्र ही नहीं गढ़ा गया, अपितु सैद्धांतिकी भी निर्मित की गई। 'सफाई देवता' वाल्मीकि समाज का अतीत है। यह भारतीय समाज-इतिहास के भूगोल को विस्तारित करने वाली रचना है।

'सलाम', 'घुसपैठिये' और 'छतरी' कहानी संग्रहों में कई स्थानों पर आत्मकथात्मक अंशों की प्रस्तुति है, जिससे लेखन में प्रामाणिकता आई है। कविता 'ठाकुर का कुआं', कहानी 'शवयात्रा' और आत्मकथा 'जूठन' मानक रचनाएं हैं, अपने-अपने विधा की। 'जूठन' हिंदी ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य की आत्मकथाओं के बीच दहकता दस्तावेज है। कांचा इलैया की मशहूर कृति 'वाई आइ ऐम नाट अ हिंदू' का अनुवाद 'मैं हिंदू क्यों नहीं' आपके कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। साहित्य की कोई प्रमुख विधा वाल्मीकि जी से अछूती नहीं रही। नाट्य निर्देशन, अभिनेता के साथ चित्रकारी की कला में भी माहिर थे। दलित वर्ग के लिए सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता तो थे ही।

'जूठन' जातिगत उत्पीडऩ और अतिदलित समाज के संघर्ष का आख्यान है। यह आत्मकथा नहीं अतीत की घटनाओं और पीड़ादायी अनुभवों से उपजी कराह है, जहां लेखक ही नहीं समय-समाज भी उपस्थित है—यातनामय भयावहता के साथ। आत्मकथा में उपेक्षा-अत्याचार का अनवरत सिलसिला है, जिससे आक्रोश-विरोध का उपजना स्वाभाविक है। इससे गुजरते हुए संवेदनशील पाठक की सांसें थम सकती हैं, नसें फट सकती हैं। ऐसी ही घटनाएं और परिस्थितियां दलित साहित्य के उद्भव के मूल में हैं। 'जूठन' के आरंभ में दलित साहित्य की विषयवस्तु और आत्मकथा लिखने के कारणों पर टिप्पणी है—'दलित-जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभव-दग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके।' वे अब दलित आत्मकथाओं में स्थान प्राप्त कर रहे हैं।

'जूठन' सिर्फ ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा नहीं अपितु दलित समाज का भोगा सच है, जहां जाति व्यवस्था की खतरनाक खायी है और वहां से आने वाली दर्दनाक चीखें हैं। पढ़ते समय लगता है कि 'जूठन' आह से उपजा हुआ आख्यान है। वर्णित घटनाएं और प्रसंग वर्णव्यवस्था की निमर्मता के प्रमाण हैं। प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश के समय बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि को तरह-तरह से परेशान किया जाता है। शिक्षक द्रोणाचार्य की भूमिका में हैं, तो सहपाठी अर्जुन-भीम की तरह तीर-कमान साधे हुए हैं। प्रवेश परीक्षा अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। तीन दिन तक लगातार झाड़ू लगवाया जाता है किंतु कक्षा में बैठने का मौका एक दिन भी नहीं मिलता।

हेडमास्टर की तेज आवाज, 'चूहड़ा हो के पढऩे चला है… जा चला जा… नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूंगा।' (पृष्ठ 16) में जातीय दंभ और अमानवीयता चरम पर है। परंतु पिता की जिद—'यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा… इसी मदरसे में। और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढऩे कू।' (पृष्ठ वही) दलित समाज के भावी स्वरूप का संकेत है, जहां शिक्षा के माध्यम से सवर्णवादी वर्चस्व को तोडऩे का प्रयास हो रहा है। जब हेडमास्टर का ऐसा व्यवहार है, तो छात्रों और अध्यापकों का व्यवहार कैसा होगा? इतनी उपेक्षा और प्रताडऩा के बाद भी ओमप्रकाश आठवीं कक्षा में पहुंचते-पहुंचते शरतचंद्र, प्रेमचंद और रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य का अध्ययन कर चुके थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि के पात्रों के संतुलन और समझदारी के मूल में उनकी अध्ययनप्रियता है, तो सामाजिक अनुभव भी।

बालक ओमप्रकाश के पास तर्क करने की क्षमता ही नहीं, शास्त्रों पर प्रश्न उठाने का साहस भी है—'अश्वत्थामा को तो दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का मांड। फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी भी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा?' (पृष्ठ 34) वाल्मीकि पर द्रोणाचार्य रूपी मास्टर ने महाकाव्य तो रचा, मगर उसकी पीठ पर और शीशम की छड़ी से। अकारण नहीं सनातन साहित्य सवालों के घेरे में आ जाता है। डॉ. धर्मवीर यूं ही नहीं सवाल उठाते हैं कि लेखन और चिंतन में दलित समुदाय उपेक्षित रहा है। हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष आचार्य शुक्ल बड़े साफ शब्दों में लिखते हैं कि—'चाकरी करेंगे नहीं चौपट चमार की।' अन्य अध्यापक बालक ओमप्रकाश से काम तो लेते हैं, परंतु सहयोग की जगह प्रताडऩा देते हैं। प्रश्न पूछने पर प्रोत्साहन के स्थान पर असहनीय शब्द मिलता है—'देखो चूहड़े का, बामन बन रहा है।'

तरह-तरह की उपेक्षाओं के बीच गरीबी-अभाव का जीवन कोढ़ में खाज से कम नहीं है। ओमप्रकाश के छठी कक्षा में प्रवेश के लिए भाभी अपनी पाजेब गिरवी रख देती है—वैद्य सत्यनारायण शर्मा के पास। इसके बाद देवर भाभी भाव-विह्वल होकर एक दूसरे से लिपट कर रोते हैं। अब शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब देवर द्वारा भाभी के शारीरिक-आर्थिक उत्पीडऩ का समाचार न आता हो। इस प्रसंग से तथाकथित सभ्य समाज के देवर-भाभियों को सीख लेनी चाहिए। बालक वाल्मीकि को सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर रखा जाता है, छठी कक्षा की अद्र्धवार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके मॉनीटर बनने के बाद भी। परीक्षार्थियों को सहयोग एवं स्नेह की जरूरत होती है, ताकि प्रसन्नचित्त रहें और अच्छे अंक प्राप्त कर सकें।

दलित विद्यार्थियों का पानी की पर्याप्त मात्रा के बाद भी प्यास बुझाना मुश्किल था, 'परीक्षा के दिनों में प्यास लगने पर गिलास से पानी नहीं पी सकते थे। हथेलियों को जोड़कर ओक से पानी पीना पड़ता था। पिलाने वाला चपरासी भी बहुत ऊपर से पानी डालता था। कहीं गिलास हाथों से छू न जाए।' (पृष्ठ 27) ऐसे परिवेश में एक ओर सवर्णवादी मानसिकता का विकास होगा, तो दूसरी ओर दलित विद्यार्थियों के अंदर हीनता-कुण्ठा का भाव विकसित होगा। अकारण नहीं कि शिक्षित लोग जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। पाठ्यक्रम निर्धारण से लेकर अध्यापकों की नियुक्ति तक जातीय वर्चस्व कायम है। प्रयोगात्मक परीक्षा में भेदभाव अपने चरम पर होता है। बारहवीं कक्षा में ओमप्रकाश को रसायनशास्त्र की प्रयोगात्मक परीक्षा में फेल कर दिया जाता है, जबकि सभी विषयों में अच्छे अंक मिले थे।

पिछड़ा-दलित समाज आंतरिक जातिवाद में जकड़ा हुआ है, जिसका कटु अनुभव ओमप्रकाश वाल्मीकि को है। क्योंकि भंगी (वाल्मीकि) जाति दलितों में भी दलित हैं। 'अबे चूहड़े किंधे घुसा आ रहा है? … हम चूहड़े-चमारों के कपड़े नहीं धोते, न ही इस्तरी करते हैं। जो तेरे कपड़े पे इस्तरी कर देंगे तो तगा हमसे कपड़े न धुलवाएंगे, म्हारी तो रोजी-रोटी चली जागी।' (पृष्ठ 28) धोबी के इस कथन में एक ओर उसकी मानसिकता व्यक्त है, तो तगा (त्यागी) का सवर्णवादी-छुआछूत का दबाव भी। साथ में भंगी का कपड़ा इस्तरी करने से रोजी-रोटी जाने का भय भी।

ऐसी परिस्थितियों में ओमप्रकाश को अहसास हो जाता है कि गरीबी-अभाव से तो निपटा जा सकता है, किंतु जाति से पार पाना आसान नहीं। गरीबी का कारण बेरोजगारी के साथ मजदूरी का कम मिलना भी है। महाजनी सभ्यता में कर्जदार का जीवन बद से बदतर होता है। ब्याज भरते-भरते जिंदगी चुक जाती है, मूलधन ज्यों का त्यों वारिस को विरासत में मिलता है। जिस समाज के ज्यादातर लोग कर्ज में डूबे हों, तो मान-सम्मान की रक्षा कैसे संभव है—'तमाम लोग खामोशी में सब-कुछ सह जाते थे। मान-सम्मान का कोई अर्थ न था। कोई भी आता, डरा-धमकाकर चला जाता था।' (पृष्ठ 29)

जीवन की मूलभूत आवश्यकता—रोटी कपड़ा और मकान से सदियों तक वंचित रहा है दलित समाज। आज भी इसकी मुकम्मल व्यवस्था नहीं है इनके पास। सरकारें पौष्टिक भोजन की उपलब्धता का दावा करती रही हैं। दूध तो दूर, दलित बच्चों को मांड (चावल का पानी) भी नियमित नसीब नहीं होता। 'शादी-विवाह के मौकों पर जब उनके घरों में चावल-दाल बनते थे, तो हमारी बस्ती के बच्चे बर्तन लेकर मांड लेने दौड़ पड़ते थे। फेंक दिया जाने वाला मांड हमारे लिए गाय के दूध से ज्यादा मूल्यवान था।' (पृष्ठ 34)

भय-भूख का यह दारूण दृष्य सभी दलित आत्मकथाओं में देखा जा सकता है। यह कल्पना की चीज नहीं, दलित समाज की हकीकत है—'पूरी के बचे-खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बांछें खिल जाती थीं। जूठन चटकारे लेकर खाई जाती थी।' (पृष्ठ 19) अभाव में अद्भुत उल्लास देखा जा सकता है। जीवन की दूसरी मूलभूत आवश्यकता कपड़ा बड़ी मुश्किल से नसीब होता था। गंदा पहनने पर लोग कहते थे—'चूहड़ा कितना गंदा पहना है।' स्वच्छ पहनने पर—'चूहड़ा होकर इतना अच्छा कपड़ा पहनता है।' जाड़े की रात काटना बहुत दुखदायी होता है। लेखक के शब्दों में—'देहरादून की पहली सर्दी मेरे लिए बहुत कष्टदायक रही थी। मेरे पास सर्दियों में पहनने के लिए कोई गर्म कपड़ा नहीं था।' (पृष्ठ 93)

सफायी कर्मियों की जर्सी का रंग बदलवाकर पहनने की उसके सामने विवशता है, किंतु इसे पहनने पर लड़के जमादार कहकर व्यंग्य कसते हैं। यह समस्या सिर्फ वाल्मीकि तक ही सीमित नहीं है, अपितु पूरे दलित समाज को अपने आगोश में समेटे हुए है। तुलसीराम 'मुर्दहिया' में बचपन का बखान करते हैं—'हमारे घर में सोने के लिए जाड़े के दिनों में घर की फर्श पर धान का पोरा अर्थात् पुआल बिछा दिया जाता था। उस पर कोई लेवा या गुदड़ी बिछाकर हम धोती ओढ़कर सो जाते। इसके बाद मेरे पिताजी ढेर सारा पुआल हम लोगों के ऊपर फैला देते।' (पृष्ठ 34)

दलित आत्मकथाकारों द्वारा किया गया अभाव-उत्पीडऩ का यथार्थ चित्रण कहीं-कहीं प्रेमचंद और 'रेणु' को पीछे छोड़ देता है। ऐसी दु:खद अनुभूतियां सभ्य-शहरी, संपन्न समाज के पास नहीं हो सकतीं। मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने और पांच सितारा होटलों में बैठकर दलित समाज के विकास के लिए योजना बनाने वालों के पास जमीनी हकीकत का ज्ञान नहीं है। थोड़ा बहुत है भी, तो उसका प्रयोग नहीं कर पाते क्योंकि योजनाएं वोट बैंक को ध्यान में रखकर लोक लुभावनी बनाने का दबाव जो है।

रोटी, कपड़ा के बाद तीसरी मूलभूत आवश्यकता है—मकान। गरीबी में दो जून की रोटी पाना मुश्किल है, तो मकान की मुकम्मल व्यवस्था कैसे संभव होगी। दलित गर्मी का दिन पेड़ के नीचे काटता है, तो रात खुले आसमान में। जाड़े का दिन अलाव-आग और पुआल के सहारे। दलित आत्मकथाओं में बरसात का वर्णन वेदनापूर्ण है। छत का चूना, दीवाल का दरकना आम बात है—'उस रात हमारी बैठक का एक हिस्सा गिर गया था। मां और पिताजी एक पल के लिए भी नहीं सोए थे। बस्ती में कई मकान गिर गए थे। लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं।' (पृष्ठ 31)

दिहाड़ी दलित मजदूरों के लिए बरसात के दिन नर्क से कम नहीं होते। बरसात के कारण बाहर काम नहीं होता, अछूत को घर के अंदर काम पर लोग रखते नहीं, शाम के लिए रोटी का जुगाड़ नहीं, घर गिरने के डर से रात को नींद नहीं आती। गलियों में कीचड़ और सुअरों की गंदगी रहती है, मक्खी-मच्छरों की संख्या में दिन दुनी रात चौगुनी की वृद्धि होती है। भंगी या महादलित के अच्छा-पक्का मकान बनवाने में तरह-तरह की अड़चनें खड़ी की जाती हैं, जिसका बखूबी वर्णन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानी 'शवयात्रा' में किया है।

मध्यकाल में संभ्रांत हिंदू समाज की विधवाओं को सती होना पड़ता था। पुनर्जागरण के बाद भी विधवा-विवाह को हीन दृष्टि से देखा जाता था। आधुनिक युग में विधवाओं पर समाज द्वारा सुविधाहीन जीवन जीने का दबाव है, किंतु दलित समाज में विधवा-विवाह को मान्यता आदिकाल से है। क्योंकि जहां स्त्रियां श्रम करती हैं, वहां उनका महत्त्व-आवश्यकता और कुछ स्वतंत्र व्यक्तित्व भी होता है। बड़े भाई सुखबीर की मृत्यु के बाद छोटे भाई जसबीर से भाभी की शादी करा दी जाती है। इस शादी को रिश्तेदार और समाज द्वारा स्वीकृति प्राप्त है। चाचा श्यामलाल की पत्नी को मायके वापस भेज दिया जाता है। श्यामलाल की दूसरी शादी रामकटोरी से होती है, वह भी कुछ दिनों बाद सोल्हड़ का हाथ थाम लेती है। अत: दलित समाज में विवाह-विच्छेद और पुनर्विवाह के नियम शिथिल हैं।

दलित और तथाकथित सवर्ण समाज की कुछ मान्यताएं परस्पर विरोधी हैं। सभ्य समाज के लिए जो हेय है, दलित समाज के लिए वह श्रेय भी हो सकता है। सभ्य समाज (हिंदू और मुसलमान दोनों) के लिए घृणित और अछूत जानवर है—सूअर, किंतु दलित-भंगी समाज में इसका महत्त्व गौ माता से कम नहीं है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में—'शादी-ब्याह, हारी-बीमारी, जीवन-मृत्यु सभी में सूअर की महत्ता थी। यहां तक की पूजा-अर्चना भी सूअर के बिना अधूरी थी। आंगन में घूमते सूअर गंदगी के प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक समृद्धि के प्रतीक थे, जो आज भी वैसे ही हैं।' (पृष्ठ 24) सूअर की महत्ता को स्थापित करने के लिए रूपनारायण सोनकर ने 'सूअरदान' (उपन्यास) लिखा है। दलित विमर्श में जब सूअर का जिक्र आता है, तो नागार्जुन की कविता 'पैने दांतों वाली' जेहन में कौंध जाती है। महाकवि की निगाह में 'यह भी तो मादरे हिंद की बेटी' है। इस कविता में सूअर शेरनी है।

आम धारणा है कि समाजशास्त्र समाज को समझने का सशक्त माध्यम है। समाजशास्त्र की अवधारणा, उपागम और निष्कर्ष पाश्चात्य समाजदर्शन पर आधारित है, तो भारतीय समाज का प्रामाणिक ज्ञान उससे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। स्वदेशी समाजशास्त्र का आधार इतिहास, धर्मशास्त्र और साहित्य है, जिसमें दलितों का न तो उचित प्रतिनिधित्व है और न ही महत्त्व। इसलिए समाजशास्त्र के माध्यम से दलित समाज की सही समझ नहीं विकसित की जा सकी है।

अकारण नहीं कि इस समाज के विकास के लिए बनी सरकारी योजनाएं फलीभूत नहीं हो पाती हैं। ऐसे में दलित आत्मकथाओं के माध्यम से जो सच निखरकर आ रहा है, उसे देखने और समझने की जरूरत है। 'जूठन' और उसके बाद आईं सभी दलित आत्मकथाओं में भूत-प्रेत, जादू-टोना का उल्लेख इस समाज की अज्ञानता और पिछड़ेपन को बयां करता है। तबीयत खराब होने पर डॉक्टर की जगह भगत (ओझा) को बुलाया जाता है और दवा की जगह भभूत या राख दी जाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि का आंखों देखा हाल—'भूत के प्रभाव का जिक्र करके भगत भूत पकडऩे की क्रियाएं करता था जिसके बदले में देवी-देवताओं पर सूअर, मुर्गे, बकरे और शराब चढ़ायी जाती थी। प्रत्येक घर में उन देवताओं की पूजा होती थी।' (पृष्ठ 37)

दलित समाज की धार्मिक आस्था और विश्वास सवर्ण समाज से भिन्न है। सनातन धर्म एवं ब्राह्मण ग्रंथों में राक्षस या दानव का चरित्र अमानवीय और विध्वंसक रूप में प्रस्तुत है, क्योंकि राक्षस और दानव ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध करते हैं। प्रतिरोध की संस्कृति के पोषक दानव का संबंध द्रविड़ से भी हो सकता है। दलित समाज की धार्मिक मान्यताओं पर स्थानीयता या क्षेत्रीयता प्रभावी है। उत्तर प्रदेश में चमरिया माई और शीतला देवी का महत्त्व है, तो हिमाचल और उसके आसपास के क्षेत्रों में ज्वाला देवी का। बच्चों पर कृपा करने वाली देवी पचौटे वाली है। धर्मशास्त्रों के दबाव में दलितों को ज्ञान एवं धन-संपदा से वंचित रखा गया, तो इनके यहां सरस्वती एवं लक्ष्मी का महत्त्व कैसे संभव है? रामकथा में शंबूक का वध किया जाता है और महाभारत में एकलव्य के दाहिने हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांग लिया जाता है, तो इन ग्रंथों की सहज स्वीकृति दलित समाज में कैसे संभव होगी?

जयप्रकाश कर्दम का मानना है कि दलित समाज में 'जाहर कथा रामकथा के विकल्प के रूप में विकसित दिखाई पड़ती है। इसका आधार राम और जाहर के बीच कई समानताओं का होना है। राम ने चौदह वर्ष वनवास में व्यतीत किए थे, तो जाहर पीर ने भी बारह वर्ष वनवास में व्यतीत किए थे। रामकथा का प्रमुख विषय राम-रावण युद्ध है, तो जाहर कथा में जाहर और अरजन-सरजन के बीच युद्ध प्रमुख है।' (समकालीन भारतीय साहित्य, अंक 158, पृष्ठ 154)

आत्मकथाएं दलित समाज का आईना हैं, जिसमें सामान्य जीवन व्यवहार के साथ धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों को भी देखा जा सकता है। अपने समाज की धार्मिक मान्यताओं-आस्थाओं का यथा अवसर उल्लेख मिलता है। 'दलित घरों में पूजे जाने वाले देवता हिंदू देवी-देवताओं से अलग होते हैं, जिनके नाम किसी पोथी-पुराण में ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। …जन्म हो या कोई शुभ कार्य, शादी-विवाह या मृत्यु-भोज!—इन देवी देवताओं की पूजा बिना अधूरा है।' (पृष्ठ 37)

आजादी के स्वर्णजयंती वर्ष में प्रकाशित 'जूठन' उसके खोखलेपन को व्यक्त करने में सफल रही। ऐसे जनतंत्र का क्या मतलब, जिसमें लोकतांत्रिक अधिकार चंद लोगों की मुट्ठी में हों? आजादी के बाद 'एक दुनिया समानांतर' के लोमहर्षक सच का यह दस्तावेज है, जिसकी सर्जनात्मक क्षमता से हिंदी में दलित आत्मकथा लेखक का मार्ग प्रशस्त हुआ। अकारण नहीं कि इसका देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और एन.सी.ई.आर.टी. सहित विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान मिला। पाठ्यक्रमों में दलित साहित्य को स्थान दिलाने में वाल्मीकि जी के रचनात्मक लेखन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 'आत्मकथा के बाद के पच्चीस वर्षों की कथा-दूसरा भाग लिखे बगैर उनका जाना दलित साहित्य की अपूरणीय क्षति का घटित हो जाना है। वाल्मीकि जी को अब इस रूप में याद किया जाए, ताकि दलित समूह/ वर्ग के लेखकों को काम के आधार पर अत्यधिक सहयोग और सम्मान मिले।' श्योराज सिंह बेचैन के इस कथन से बड़ी वाल्मीकि जी के लिए कोई दूसरी श्रद्धांजलि नहीं हो सकती।

No comments:

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

Tweet Please

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA

THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER

http://youtu.be/NrcmNEjaN8c The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today. http://youtu.be/NrcmNEjaN8c Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program ______________________________________________________ By JIM YARDLEY http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR

Published on 10 Apr 2013 Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya. http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP

[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also. He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT

THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk