बंगलौर से बंगलूरु तक
(1997 - 2007)
अक्टूबर 1997। दो रात और दो दिन। पूरे बयालीस घंटे। एक डिब्बे में। तीन मंजिला शयनयान। सोलह घंटे तो सोने में बीत गये। पर दिन! बीच वाले यात्री तमिल थे। वयोवृद्ध और कुछ ऐंठन वाले भी। उनका उठने को मन नहीं हो रहा था। इशारों-इशारों में एक-दो बार अनुरोध भी किया कि आप मेरी सीट पर लेट जायें। मैं शेष-शय्या पर लेटे भगवान विष्णु के चरणों के पास बैठी लक्ष्मी की तरह बैठे रहने को तैयार हूँ। वे महाशय नहीं माने। किनारे वाली सीट पर दो इंच आसन का अनुरोध कर सकता था, पर वहाँ नव दंपति अपने जीवन के सुनहरे सपनों में खोये हुए थे। क्रोंच मिथुनों से इस जोड़े को देख कर एक ओर तो अपने पुराने दिन याद आ रहे थे, तो दूसरी ओर वाल्मीकि की डाँट भी याद आ रही थी। मा निषाद त्वमगम प्रतिष्ठा शाश्वतीसमाः ...।
अगलबगल दिल्ली की हिन्दी से ऊब कर अपनी बोली में बात करने के लिए उतावले दक्षिण भारतीय इडलियों का बंडल लिए बैठे थे। पश्चिमी पर्यटकों की तरह एक पिठ्ठू में घर-संसार संभाले होता तो जहाँ ठाँव मिलती, चल देता। सामान था और सोने के हरिण की तलाश में भटकने का परिणाम मालूम था। जब अपने देश में बहुत पहले भी भगवान माने जाने वाले व्यक्ति को थोड़ी देर घर से बाहर रहने के कारण 'हा सीता केन नीता मम हृदयगता को भवान् केन दृष्टः' पुकारते हुए भटकना पड़ा था तो मैं तो जड़मति तुलसीदास। जस बन घास। पश्चिमी पर्यटकों की तरह एक खंजड़ी लिए सूरदास को भले ही लगे कि मैं व्यर्थ ही नलिनी को सुवटा बना हुआ हूँ, लेकिन यहाँ तो नलिनी में ही सब कुछ था। अतः 'ऊपर वाले' की कृपा को हाथों पर थमे चिबुक के सहारे झेलने और निराला जी की 'जुही की कली' की पहली पंक्ति 'विजन वन वल्लरी लेटी थी सुहाग भरी' से अपनी संगति बैठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। बस कभी चित कभी पट, कभी कल्पनाओं में और कभी पलपल बदलते प्राकृतिक परिवेश में रमने का प्रयास करता बंगलौर पहुँचा।
बंगलौर। कुछ खुला-खुला उद्यानों और सरोवरों का शहर। शहर के बीचों-बीच घने वन से आच्छादित कबन पार्क और सरोवर में फूलों और हरीतिमा से सज्जित अपने रूप को निहारता लालबाग। घरों के पार्श्व में नारियल के झुरमुट और मार्गों पर वन देवताओं की घनी छाया। सड़क भले ही घूम जाय, सीधी और सपाट न भी बने, कोई बात नहीं। वन देवता अक्षुण्ण रहेंगे। सारे मार्ग वृक्षों की छाया में चैन से पसरे से लगते थे। सड़कों पर अधिकतर तिपहिया वाहन दिखते। कभी कोई बस या कार किनारे से गुजर जाती। सबसे बड़ी विशेषता तो यह थी कि प्रायः सायं चार बजे बादल आते और थोड़ी देर रिमझिम करते हुए इस शहर की धूल और गंदगी को धो-पौंछ कर चले जाते। शामें और भी सुहानी हो जाती थीं।
जिस भवन में हम टिके, उसमें मेरे पुत्र सहित सात छड़े पाँच बड़े-बड़े कमरों में रह रहे थे। छड़े या नई-नई नौकरी में लगे कुवाँरे। दो पंजाबी, एक मराठा, एक बंगाली, एक तमिल, एक गुजराती और मेरा पुत्र हिमालयी और मकान का चौकीदार उड़िया, नाम निमाई। जैसे राष्ट्रगान का पूरा जन-गण आन्ध्र प्रदेश के एक जमीदार रेड्डी साहब के जे.पी. नगर स्थित नये-नवेले भवन में डेरा जमाये हुए था।
भवन में उन दिनों के हिसाब से सुविधाएँ भी आधुनिकतम थीं। किराया था मात्र आठ हजार रुपये मासिक। उसे किराये पर लेने वाले ये सात छड़े। बैठक के किनारे गंधाते जूतों का ढेर। एक कोने पर कई दिनों से जमा बचे-खुचे भोजन और केलों के छिलकों से आती गंध। सफाई कौन करे ? गंदगी भी तो मिली-जुली थी। अजीबो गरीब संसार। एक को बिना तेज रोशनी के नींद नहीं आती थी, दूसरे के लिए सोते समय टेलीविजन खुला रखना आवश्यक था। तीसरे को हल्की आवाज में संगीत सुनना पसन्द नहीं था और चौथे को कुछ सुरूर में आने पर ही नींद आती थी। बाकी तीन जैसे शरणार्थी। जेहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।
तकनीकी युग के इंजीनियर। फर्श पर बिना दरी का दो फिटा गद्दा। देर-सबेर जब भी आये, दरवाजे के पास रखा 'डिब्बे वाले' के टिफिन के डिब्बे का ठंडा, मिर्चीला खाना खाया। दिन भर पाँवों से चिपके जूतों को लात मारी। कहुँ पट, कहुँ निखंग धनु तीरा, सो गये। कल को सोने की लंका को जीत लेने की संभावना भले ही हो, अभी तो 'पिता दीन्ह मोहे कानन राजू' का ही दृश्य था।
अवधूतों के आश्रम में पहली बार दो सप्ताह टिकने का अवसर मिला। गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म को जरा सा बुहार कर अपने लिए जगह बना लेने वाले साधारण डिब्बे के यात्री की तरह कमरे की गंदगी दूर की और दो फिटा गद्दों पर लेट गये। सुबह हुई। छड़े अपने कार्यालय को और हम सड़क पर।
बंगलौर का ओर-छोर जितना उस बार के दो सप्ताह के निवास में देखा, उतना बाद के चार साल के प्रवास में भी दुबारा नहीं देख पाये। जे.पी. नगर के ईस्ट एंड सर्किल के चौराहे पर स्थित रेस्तराँ में केले के पत्ते पर रखी इडलियों और दोसों को उदरस्थ करते, यदा-कदा वामनाकार कुल्हड़ में चरणामृत परिमाण की चाय का आस्वाद लेते, वनशंकरी से इस्कान के मंदिर तक, माडीवाला से अलसूर, संकिया सरोवर और भारतीय विज्ञान-संस्थान तक, विधान सौध और विश्वेश्वरैया तकनीकी संग्रहालय से लेकर, एच.एम.टी. और यशवन्तपुर तक हर क्षेत्र का नजारा अपनी आँखों में और कुछ कैमरे की आँख में समेट लाये।
पहले-पहल दक्षिण भारतीय व्यंजनों का स्वाद लेने का जुनून सा चढ़ा। इडली, मसाला डोसा, मेदु बड़ा, मसाला बड़ा, पोंगल, रसम, उत्तपम, उप्पमा, बीसिबेले भात और अन्त में मीठे के स्थान पर केसरी भात। बीसि बेले भात में बीसि बीस सा लगा तो बेले कुमाऊनी के कटोरे की याद दिला गया। सोचा इतने बड़े परिमाण में भोजन हजम कैसे कर पायेंगे, लेकिन जब एक छोटे से केले के पत्ते पर परोसा चावल और अरहर की दाल में प्याज और बैगन की कतरनों, एक दो काजू की फाँकों, इलायची और गरम मसालों से संपुटित व्यंजन देखा तो लगा एक से क्या होगा, बीस तो होने ही चाहिए।
हर रोज नये व्यंजनों का आस्वाद लिया। पर कब तक। दो चार दिन में ही जोश ठंडा पड़ गया। धीरे-धीरे रोटी याद आने लगी। उडुपी के रेस्तराँ को छोड़ कर कहीं भी रोटी का अता-पता नहीं था। उडुपी भी तंदूरी ही देता था, वह भी शाम को और सात रुपये की एक। रात को घर पर दरवाजे के बाहर रखे कटारिया के डिब्बे में जो मरियल सी अकड़ी हुई, ठंडी रोटी मिलती थी, लगता था खाने से पहले उसकी कार्बन डेटिंग करवा लेते तो अच्छा होता।
तब बंगलौर अपने महानगरीय विकास के प्रथम चरण में ही था। आज के अनुपात में भीड़ भी बहुत कम थी। जाम पर जाम का युग भी आरंभ नहीं हुआ था। न होटलों में और न सड़कों पर। वाहनों में जगह भी मिल जाती थी। तिपहियों पर दिल्ली-रोग का संक्रमण भी नहीं हुआ था। मीटर से चलते थे। यदि कुछ गड़बड़ी भी होती होगी तो कुल दो-चार रुपये से अधिक नहीं।
लोग भी भले मानुष थे। कभी ना नहीं कहते थे। रहीम के पक्के चेले। 'उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहिं'। किसी से किसी जगह का पता पूछो, तो न जानते हुए भी बताने में देर नहीं करता था। बाकी आपके भाग्य पर निर्भर था कि आप सही जगह पहुँचें या कहीं और। यह उस व्यक्ति की क्या कम सज्जनता है कि आपने पूछा और उसने बता दिया।
भाषा-रोग से पीड़ित था, अतः जो भी अटपटा स्थान-नाम देखता, उसके बारे में जानने को बेचैन हो जाता। सबसे अधिक उलझाया बैंगलूरु ने। बंगलौर तो कब का सुन चुका था। पढ़ने के दिनों में बात-बात में 'लुर' को भी पहचान चुका था। टाँगों के बीच पूँछ दबाये मरियल से कुत्ते से किसी की तुलना करने के लिए इतने छोटे किन्तु चित्रात्मक शब्द को सुनने का अवसर जितना छात्र जीवन में मिला, अब कहाँ मिलता है ! अतः बंग+लुर तो संभव ही नहीं था। अलबत्ता या सन्निवेश वाचक बंगल+उर (पुर) हो सकता था। लेकिन यह बंगल क्या बला है? किसी जानकार से लगने वाले व्यक्ति से पूछा, उसने बताया कि बहुत पहले यह एक जंगल था। यहाँ एक बुढ़िया रहती थी । एक दिन राजा वीर बल्लाल शिकार खेलने आये। रास्ता भटक गये। भूख लग आयी। बुढ़िया की झोपड़ी दिखाई दी। उसने राजा को बेंडा काल (उबले बीन) खाने को दिये। राजा ने कहा आज से इस स्थान का नाम बेंडाकाल उरु (उबले बीनों का गाँव) होगा। यही घिसते-घिसते बंगलौर हो गया।
वही बात हुई। ना तो कहना ही नहीं है। बाकी कुछ भी कह दो। लोक कल्पना। पृथ्वीराज चौहान के नाना अनंगपाल ने अपने महल के परिसर में एक कील ठोंकी। सोचा देखें कितनी गहरी गयी है। हिला कर निकाली। पता लगा शेषनाग के फन तक पहुँची है। शेषनाग ने शाप दिया। 'तू ने इसे हिला कर मुझे और भी कष्ट दिया है। अतः अब यह ढीली ही रहेगी और तेरी राजधानी भी'। तब से उस स्थान का नाम ही ढिल्ली या दिल्ली हो गया। ढीली कील से दिल्ली और बेंडाकाल उर से बंगलौर या बंगलूरु। औरंगजेब ने जहाँ पर रस बनाया वह बनारस। मैं एक व्युत्पत्ति अपनी ओर से जोड़ने में पीछे क्यों रहूँ! जहाँ आपस में पटे ही नहीं वह पटना ।
मन नहीं माना। इतिहास टटोला। पता लगा बंगलौर के बेगुर उपनगर में स्थित पार्वती नागेश्वर मंदिर में 890 ई. के एक वीरगल्लु या वीरस्तंभ ( कु. विरखम) पर अंकित अभिलेख में इसका नाम बैंगावलुरु अंकित है। बैंगावल उरु या सैनिकों का सन्निवेश । क्या आज की तरह तब भी बंगलौर मुख्यतः छावनी ही था? जो भी हो उबले बीन से छावनी का सहारा लेना अधिक जँचता है।
लोग वर्तमान बंगलौर को बसाने का श्रेय विजयनगर साम्राज्य के एक सामन्त कैंपेगोडा को देते हैं। जिसने 1537 ई. में वर्तमान नन्दी मंदिर के पास अपना छोटा सा किला बनाया। इसे अपनी गंडुभूमि (वीरभूमि) माना ।
इस नगर के पुराने मुहल्लों को दक्षिण के अनेक कस्बों की तरह ही पेट कहा जाता था। ब्रिटिश शासन के दौरान ये क्षेत्र महाराजा मैसूर के अधीन थे और इनके निवासी बहुलांश में कन्नडिगा थे। केवल छावनी क्षेत्र ही अंगे्रजी शासन के अधीन था और इसके निवासी बहुप्रदेशीय, विशेष रूप से तमिल थे।
राजस्थान की तरह सरोवर ही दक्षिण के पठार की जीवन रेखा हैं। समय-समय पर विभिन्न नरेशों ने अपने-अपने क्षेत्र में अनेक सरोवरों का निर्माण किया। बंगलूरु का नैसर्गिक सौन्दर्य भी इन्हीं सरोवरों और उद्यानों की देन है। कहा जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में कैंपेगौडा ने जलापूर्ति के लिए, यहाँ, अनेक सरोवरों का निर्माण किया। उसके द्वारा निर्मित मुख्य सरोवर केम्पांबुधिकेरे, कब का विकास की भेंट चढ़ चुका है। आरंभिक बस्तियाँ इन्हीं छोटे-छोटे सरोवरों के आस-पास बसीं थीं। नीलसांद्रा, नागसान्द्रा, जक्कसान्द्रा, देवसान्द्रा, थिप्पासान्द्रा, माठीकेरे, अराकेरे, चल्लाकेरे, थावरकेरे जैसे अनेक स्थान-नाम जिनके साथ 'सान्द्रा' और 'केरे' या 'गेरे' जुड़े हैं इन्ही सरोवरों की देन हैं। आज भले ही ये सरोवर इतिहास बन गये हों, लेकिन जब भी थोड़ी सी वर्षा होती है तो ये सड़कों पर उतरने में देर नहीं करते।
भारत के अन्य नगरों की अपेक्षा आज भी बंगलूरु एक रमणीय नगर है। यह रमणीयता उसकी लगभग वातानुकूलित सी जलवायु, विशाल छावनी क्षेत्र, सरोवर और उद्यान संस्कृति की देन है। भारत के हर नगर की तरह यह भी पुराने और नये में विभक्त है। पुराना बंगलूरु 'पेटों' में समाहित है। चिकपेट, बिन्नीपेट, चामराजपेट, वन्नारपेट, कौट्टनपेट जैसे पेटों में। पेट या पैंठ (हि.) या वह स्थान जहाँ बाजार लगता हो। इन पेटों में आज भी छोटे व्यापारियों और मध्यमवर्गीय कन्निडिगाओं की बहुलता है। सड़कें तंग है और गलियाँ महातंग।
नया बंगलूरु विशाल छावनी क्षेत्र और उसके आस-पास विस्तीर्ण है। खुला-खुला, वृक्षों के झुरमुटों और लालबाग और कबनपार्क की वनानी से परिवेष्टित। बीच में गरमी के दिनों की नैनीताल की मालरोड सी सदाबहार एम.जी. रोड, जो कभी महात्मागांधी के नाम पर नामांकित हुई होगी पर अब केवल एम.जी. है। मुझे लगता है यदि ब्रिटिश शासकों ने इतने बड़े क्षेत्र को छावनी क्षेत्र में नहीं बदला होता तो न तो यह वातानुकूलित सी जलवायु रह पाती और न इसका बहुजातीय स्वरूप।
इसके अलावा जो 'सुपर' नया बंगलौर उभर रहा है वह न्यूयार्क के मेनहटन का छोटा भाई सा लगता है। विशाल माल, मल्टीप्लेक्स, साफ्टवेयर और अन्य औद्योगिक प्रतिष्ठानों के भव्य परिसर। नगर के बीचों-बीच स्थित विमान पत्तन के कारण, भवन वहाँ की तुलना में अभी बौने हैं। विमानपत्तन के नगर से दूर देवनहल्ली जाते ही सिर उठाने लगेंगे।
1997 से दो हजार सात के बीच मैं लगभग चार साल बंगलौर रहा। हर रोज बंगलौर बदल रहा था। जलवायु की स्निग्धता के कारण एक के बाद एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान अंकुरित होते जा रहे थे। कार्मिकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। आबादी पैतीस लाख से बढ़ कर पचपन लाख हुई तो वाहन आठ लाख से बढ़ कर तीस लाख तक पहुँच गये। सड़कें तंग पड़ गयीं। आवास कम पड़ते गये। नये महामंजिले सन्निवेशों की बाढ़ आने लगी। आवासों के किराये आसमान छूने लगे। बाजारों में पाँव रखने की जगह नहीं बची। होटलों के बाहर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते लक्षाधिपति ग्राहकों की भीड वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर के बाहर भिखारियों की भीड़ से टक्कर लेने लगी। विदेशी डिपार्टमेंटल स्टोर्स को हीन भावना से ग्रस्त करने में समर्थ अनेक सिनेमा हालों वाले विशाल माल और मल्टीप्लैक्स खुलते चले गये। सिनेमा का सामान्य टिकट एक सौ पचास रुपये का और यदि सिनेमा और भोजन का संयोग चाहते हों तो पाँच सौ रुपया हो गया। उसके लिए भी कम से कम एक सप्ताह पूर्व आरक्षण की आवश्यकता पड़ने लगी। वहाँ भी तिल रखने को जगह नहीं बची। क्रेताओं और नयन सुखार्थियों की अपरिमेय भीड़ के कारण दम सा घुटने लगा। दिन नहिं चैन रात नहिं निदिया। जिन्दगी मात्र आपाधापी बन कर रह गयी है।
इस तूफानी प्रगति का लाभ, सूचना तकनीकी से जुड़ी तथा अन्य कंपनियों में कार्यरत विशेषज्ञों, भू-स्वामियों, दूकानदारों, होटल और रेस्तराँ मालिकों को हुआ। विशेषज्ञों का वेतन लाखों में पहुँचा तो किसी बहुमंजिली अट्टालिका में फँसे तीन शयनकक्षों वाले आवास का मूल्य एक करोड़ से भी आगे निकल गया। यही नहीं किसी भी मध्यम कोटि के रेस्तराँ में हम दो हमारे दो परिवार का एक बार का भोजन व्यय एक हजार की सीमा को पार चला गया। वह भी तभी जब एक घंटा प्रतीक्षा करने का साहस हो और बच्चे कुलबुला न रहे हों।
सारी अर्थ व्यवस्था, ले उधार, खा उधार पर सीमित हो गयी। बैंकों ने अपने दरवाजे खोल दिये। जितना चाहिए, धन हाजिर है। लोग इस मुक्त हस्त ऋण वितरण से इतने सम्मोहित हुए कि वे भूल गये कि जो वह ले रहे हैं वह ऋण है, अनुदान नहीं। नौबत यहाँ तक पहुँची कि ऋण वसूलने के लिए बैंकों को न्यायपालिका की अपेक्षा लठैतपालिकाओं की शरण में जाना उचित लगा। लठैत पालिकाओं के प्रकोप की हायतोबा इतना बढ़ी कि सरकार को बैंकों को फटकार लगानी पड़ी।
अल्पांश में घरेलू नौकरी से आजीविका चलाने वाले श्रमिकों की भी पगार बढ़ी, पर इतनी नहीं कि वे अपनी गंदी बस्तियों से बाहर निकल सकें। सबसे बड़ी मार निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ी। वह पिसता चला गया। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएँ आम आदमी के बूते से बाहर हो गयीं। निजी क्लीनिकों में ही नहीं चिकित्सालयों में चिकित्सक की मुँह दिखाई में हर बार कम से कम तीन सौ पचास रुपये की चपत लगने लगी। लोग सरकारी अस्पतालों के वैराग्य शतक की बेरुखी सहने और झोलाछाप चिकित्सकों और ओझाओं की शरण में जाने के लिए लाचार होने लगे। बंगलौर के संभ्रान्त क्षेत्रों में शाम को किसी भी रेस्तराँ के सामने खाते-पीते लोगों की भीड़ दिखाई देती थी तो उससे बड़ी भीड़ तरसते भिखारियों की होती थी। पूँजीवादी विकास का इससे अधिक स्पष्ट चेहरा और क्या हो सकता है ।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हम हिन्दुस्तानियों की, बसे हुए में ही बसने की बीमारी और चिपक कर रहने की आदत के कारण हमारे शहरों का सर्वनाश ही हुआ है। देहरादून, कल तक एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति का रमणीय नगर था। जहाँ एक बार बस जाने के बाद अभिजन किसी अन्य स्थान की कामना करना ही भूल जाते थे। बडे़-बड़े पदों से निवृत्त लोगों को वह गीता के परमधाम सा लगता था। 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम'। उत्तराखंड बना। देहरादून अस्थायी राजधानी बना। बना तो बना। बगल में ही आइ.डी.पी.एल. का विशाल परिसर खाली पड़ा है। एक सुगठित और संपूर्ण राजधानी बन सकती है। पर हम तो स्लमडोग मिलेनियर हैं न! रमणीय नगर को स्लम में बदले बिना चैन कहाँ। बंगलौर की भी यही दशा है। मलयेशिया की तरह राजधानी को ही उभरते हुए उद्योगों से कुछ दूर बसा लेते। या उन्हें ही कुछ दूर ठौर दे देते, पर जब कोई स्वस्थ सोच हो, तब न!
केवल दस वर्ष में यह तमाशा हो गया है। 1997 में जहाँ घरों में पंखों की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता था आज वातानुकूलन आवश्यक लगने लगा है। रोज शाम को इस शहर को धो-पोंछ कर चली जाने वाली फुहारें अतीत की याद बन कर रह गयी हैं। उसके स्थान पर अकस्मात आकर एक ही झौंके में प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देने वाले प्राकृतिक प्रकोप बढने लगे हैं। हवा में धूल-धक्कड और धुएँ के कारण आक्सीजन का भी दम घुटने लगा है। एक सदाबहार नगर बीमार होता जा रहा है।
यह घुटन हवा में ही हो ऐसा नहीं है। बाहरी लोगों के प्रति भी है। अधिकतर आव्रजक सूचना तकनीकी से जुड़े हैं। युवा हैं। लाखों से खेलते हैं। स्थानीयों को लगता है कि वे उनकी कीमत पर मौज कर रहे हैं। उनके कारण उन्हें महँगाई की मार झेलनी पड़ रही है। व्यवसाय उनके घर में पनप रहे हैं पर उसका लाभ आव्रजक उठा रहे हैं। यह आक्रोश कई रूपों में उभरता है। कभी गैर कन्नड़ नाम पट्टों की शामत आती है तो कभी कर्नाटक केवल कन्नडिगाओं के लिए की आवाज उठती है। बातचीत में आम आदमी उत्तर भारतीयों को अविश्वसनीय मानता है तो कभी उसे यह आपत्ति होने लगती है कि एक उत्तर भारतीय आता है और अगले साल अपने साथ पाँच और को ले आता है।
उद्योगपतियों और सरकार के बीच शीतयुद्ध जारी है। उद्योगपतियों को बंगलौर से बाहर कुछ नहीं दिखाई देता। उनका अहं कहता है कि वे नोट ला रहे हैं। प्रान्त को ही नहीं देश को भी समृद्धि की ओर ले जा रहे हैं। अतः सरकार को सबसे पहले उनकी राह आसान बनानी होगी। नगर का आधारभूत ढाँचा ठीक करना होगा। सरकार जानती है कि ये नोट भले ही ला रहे हों, वोट नहीं ला सकते। सरकार को वोट चाहिए। वोट गाँवों में हैं। उनके लिए काम भले ही न हो, बात तो उनकी ही करनी होगी। बस इसी तुनुक मिजाजी में तलवारें खिंची हुई हैं।
बंगलूरु के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि अधिक से अधिक लाभ कमाने के चक्कर में भवन.निर्माता, अगस्त्य की तरह बचे.खुचे सरोवरों का जल सोख कर सोने की लंका का 'ले आउट' न प्रस्तुत कर दें। . ( लेखक की पुस्तक ' महाद्वीपों के आर-पार का एक यात्रा संस्मरण) कृपया मित्रों के बीच अवश्य शेयर करें.
Saturday, December 14, 2013
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मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha
হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!
मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड
Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!
हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।
In conversation with Palash Biswas
Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg
Save the Universities!
RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!
जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।
#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি
अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास
ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?
Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION!
Published on Mar 19, 2013
The Himalayan Voice
Cambridge, Massachusetts
United States of America
BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7
Published on 10 Mar 2013
ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH.
http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM
http://youtu.be/oLL-n6MrcoM
Download Bengali Fonts to read Bengali
Imminent Massive earthquake in the Himalayas
Palash Biswas on Citizenship Amendment Act
Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003
Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003
http://youtu.be/zGDfsLzxTXo
Tweet Please
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS BLASTS INDIANS THAT CLAIM BUDDHA WAS BORN IN INDIA
THE HIMALAYAN TALK: INDIAN GOVERNMENT FOOD SECURITY PROGRAM RISKIER
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
The government of India has announced food security program ahead of elections in 2014. We discussed the issue with Palash Biswas in Kolkata today.
http://youtu.be/NrcmNEjaN8c
Ahead of Elections, India's Cabinet Approves Food Security Program
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By JIM YARDLEY
http://india.blogs.nytimes.com/2013/07/04/indias-cabinet-passes-food-security-law/
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
THE HIMALAYAN VOICE: PALASH BISWAS DISCUSSES RAM MANDIR
Published on 10 Apr 2013
Palash Biswas spoke to us from Kolkota and shared his views on Visho Hindu Parashid's programme from tomorrow ( April 11, 2013) to build Ram Mandir in disputed Ayodhya.
http://www.youtube.com/watch?v=77cZuBunAGk
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk
THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICAL OF BAMCEF LEADERSHIP
[Palash Biswas, one of the BAMCEF leaders and editors for Indian Express spoke to us from Kolkata today and criticized BAMCEF leadership in New Delhi, which according to him, is messing up with Nepalese indigenous peoples also.
He also flayed MP Jay Narayan Prasad Nishad, who recently offered a Puja in his New Delhi home for Narendra Modi's victory in 2014.]
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS CRITICIZES GOVT FOR WORLD`S BIGGEST BLACK OUT
THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM
Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia.
http://youtu.be/lD2_V7CB2Is
THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE
अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।'
http://youtu.be/j8GXlmSBbbk
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