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Wednesday, June 5, 2013

प्रचंड और बाबूराम भट्टराई जनतान्त्रिक राजनीति में आ सकते हैं तो भारत के माओवादियों क्यों नहीं

प्रचंड और बाबूराम भट्टराई जनतान्त्रिक राजनीति में आ सकते हैं तो भारत के माओवादियों क्यों नहीं


नक्सली हिंसा : नजरिया अपना-अपना

 ललित सुरजन

भारत, जैसा कि नाम से ही अभिव्यंजित होता है, बुद्धिमानों का देश है। इसीलिये इस विशाल भूमण्डल पर ऐसी कोई भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान चुटकी बजाते इस देश के वासी न कर सकें। हर व्यक्ति जैसे अपने साथ रामबाण औषधियों की पेटी लेकर चलता है। मुश्किल तब होती है जब एक बीमारी के लिये हजार तरह के इलाज तजवीज़ किये जाने लगते हैं और ऐसा कोई भी हकीम नहीं होता जो अपने फार्मूले को दूसरे से बेहतर न मानता हो। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन की पुस्तक 'द आर्ग्युमेन्टिव इण्डियन' की ऐसे में इसलिये याद आती है कि उन्होंने अन्तहीन बहस करने की जिस प्रवृत्ति को भारतीयों का सद्गुण बताया है वही नाजुक मौकों पर देश के लिये सिरदर्द बन जाता है जब बहस काँव-काँव का रूप ले लेती है। पहले सार्वजनिक बहसें अखबारों तक सीमित थीं अब टीवी और सोशल मीडिया के चलते शोर इतना बढ़ जाता है कि बहस कहीं भी पार नहीं लगती।

देश में खासकर छत्तीसगढ़ में माओवाद अथवा नक्सलवाद के रूप में जो समस्या पिछले कई सालों से चली आ रही है उसका भी यही हाल है। 25 मई को दरभा (बस्तर) के पास काँग्रेस के काफिले पर हमला कर जो अभूतपूर्व हिंसा नक्सलियों ने की उसके बाद एक तरफ जिम्मेदार लोग यदि समझदारी के साथ नपे-तुले शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ऐसा मंजर बन गया है, जिसमें कोई तर्कसम्मत बात शायद सम्भव ही नहीं है। समझदारी और नासमझी के बीच जो फर्क है उसे स्पष्ट देखा जा सकता है।केन्द्रीय रक्षा मन्त्री व वरिष्ठ कांग्रेसी ए.के. एंटोनी ने दिल्ली में साफ-साफ कहा कि बस्तर में सेना नहीं भेजी जायेगी। ठीक इसी तरह छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री व प्रमुख भाजपा नेता डॉ. रमनसिंह ने भी यही कहा कि नक्सल समस्या से निपटने के लिये सेना की जरूरत नहीं है। उन्होंने इसके आगे कहा कि यह कोई सीमा पार की लड़ाई नहीं है। मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि ऐसे विचार मुख्यमन्त्री पहले भी व्यक्त कर चुके हैं।

Lalit Surjan, ललित सुरजन

ललित सुरजन, लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवम् साहित्यकार हैं। प्रतिष्ठित देशबंधु समाचारपत्र के समूह सम्पादक हैं। उनका यह स्तम्भ मूल रूप से देशबंधु में प्रकाशित है।

जब अलग-अलग पार्टियों से सम्बंध रखने वाले व अपने-अपने दायरे में निर्णयकारी भूमिका निभाने वाले दो जिम्मेदार नेता एक बिन्दु पर सहमत हैं तब उसके बारे में क्या कम से कम इस समय प्रतिक्रिया देने का कोई औचित्य है? यह सब जानते हैं कि भाजपा में एक बड़ा वर्ग है जो नक्सलियों से लड़ने के लिये सेना का इस्तेमाल करना चाहता है। ऐसे जन अपने निजी विचार रखने के लिये स्वतन्त्र हैं, लेकिन क्या उन्हें अपनी ही पार्टी के चुने हुये मुख्यमन्त्री को मौका नहीं देना चाहिये कि वह अपनी सोच के अनुसार फैसले ले सके? यही बात उन काँग्रेस समर्थकों पर भी लागू होती है, जो काँग्रेस अध्यक्ष व प्रधानमन्त्री दोनों की संयमित प्रतिक्रिया के बावजूद राष्ट्रपति शासन और मुख्यमन्त्री के इस्तीफे की माँग कर रहे हैं। कहने का आशय यह कि यह जरूरी नहीं कि आप अपने निजी विचारों को बिना मौके व्यक्त करते रहें।

पिछले दिनों से राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर जो बहस चल रही है उसमें एक सुझाव की ओर मेरा ध्यान खासकर गया। सुश्री किरण बेदी का मैं न तो कभी प्रशंसक रहा हूँ और न कभी उनसे सहमत, लेकिन उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिये जो सुझाव दिया वह गौरतलब है। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार को विशेष सचिव (गृह) जैसे वरिष्ठ अधिकारी का पद बस्तर में निर्मित करना चाहिये ताकि वह वहीं बैठ समस्या के समाधान के लिये समन्वित कार्यनीति बनाकर उसे प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। उन्होंने इसके साथ यह भी कहा कि जो सिविल सोसायटी संगठन इस क्षेत्र में प्रयत्नशील हैं उन्हें भी बस्तर में रहकर समस्या को सुलझाने में अपना समय देना चाहिये। मुझे यह सुझाव इसलिये ठीक लगा क्योंकि स्वयम् मैंने आज से कुछ साल पहले राज्य सरकार को सुझाव दिया था कि राज्य के मुख्य सचिव स्तर का एक अधिकारी बस्तर में तैनात किया जाये जिसकी कर्तव्यनिष्ठा, सम्वेदनशीलता और कार्यक्षमता असंदिग्ध हो और जो सिर्फ मुख्यमन्त्री के प्रति जवाबदेह हो। मैंने ऐसे दो-तीन अफसरों के नाम भी सुझाये थे। यह अलग बात है कि राज्य सरकार ने इस प्रस्ताव पर गौर करना जरूरी नहीं समझा।

किरण बेदी और मेरे सुझाव में कुछ अन्तर हो सकता है, लेकिन लक्ष्य सम्भवत: एक ही है। रायपुर, भोपाल अथवा दिल्ली में बैठकर चर्चायें बहुत हो सकती हैं, निर्णय लिये जा सकते हैं, कार्ययोजना अथवा रणनीति भी बनायी जा सकती है, लेकिन यक्ष प्रश्न है कि उसे लागू कौन करे? आप बस्तर में चाहे सशस्त्र बलों की कार्रवाई कर रहे हैं, चाहे विकास कार्यों को बढ़ाना चाहते हैं, यदि जमीनी स्तर के अधिकारियों एवम् कर्मचारियों में अपने को सौंपे गये दायित्वों के प्रति उत्साह नहीं है, वे भयाक्रान्त हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, खरीद लिये गये हैं,  या कि बस्तर को "पनिशमेंट पोस्टिंग" मान रहे हैं तो सरकारी इरादों की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती। पच्चीस मई की घटना से स्पष्ट है कि बस्तर का सरकारी अमला इसी तरह की मानसिकता में जी रहा है। यह सोचने की बात है कि देश के सीमान्त क्षेत्रों में हमारा सूचनातन्त्र सौ में से शायद पिच्यानवे बार सफलतापूर्वक कार्य करता हैलेकिन बस्तर से बार-बार सूचनातन्त्र के विफल होने की खबर ही क्यों मिलती है? अगर इसी मुद्दे पर और गौर किया जाये तो यह विचार उभरता है कि बस्तर में सेना तैनात करने की नहीं, बल्कि पुलिस व प्रशासनतन्त्र को मजबूत करने की है, जिसे एक सक्षम नेतृत्व की तलाश है।

सिविल सोसायटी संगठनों के बारे में भी मैं समझता हूँ कि सुश्री बेदी ने कोई गलत बात नहीं कही है, लेकिन इसे सन्दर्भ सहित समझने की जरूरत है। यदि राजसत्ता सिविल सोसायटी को अपना दुश्मन मानकर चलेगी, उनकी सकारात्मक भूमिका को मानने से इंकार कर देगी, उन्हें हद से बाहर जाकर प्रताड़ित करेगी तो फिर ऐसे संगठन वहाँ काम कैसे कर पायेंगे? किरण बेदी को सम्भवत: यह स्मरण नहीं है कि छत्तीसगढ़ में सिविल सोसायटी के छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं की बात तो दूरदेश के जाने-माने बुद्धिजीवियों के साथ पिछले बरसों में क्या सलूक किया गया है। मैं नोट करना चाहूँगा कि जयप्रकाश नारायण के सहयोगी रह चुके वरिष्ठ पत्रकार (स्व.) अजीत भट्टाचार्य सलवा जुड़ूम के अध्ययन के लिये यहाँ आये तो मैं कोशिश करके भी उनकी भेंट प्रदेश के मुखिया से नहीं करवा सका। इसी तरह प्रोफेसर यशपाल ने देश के साथ-साथ इस प्रदेश की विशेषकर जो सेवा की, उसे भूल कर उनके साथ भी यथोचित व्यवहार नहीं किया गया। आज की परिस्थिति में यदि मुख्यमन्त्री सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में पुनर्विचार करने को राजी हों, तो किरण बेदी की सलाह मानने योग्य हो सकती है।

मैं इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूँगा। जिसे हम सिविल सोसायटी कहते हैं वह नागरिक समाज का वह अंग है जो राजसत्ता से हटकर लोक महत्व के विभिन्न मुद्दों पर एक वैकल्पिक सोच प्रस्तुत करता है। राजसत्ता उसके विचारों को माने या न माने, उन्हें सुनने का धीरज और संयम तो उसमें होना ही चाहिये। यह सम्भव है कि ऐसे कार्यकर्ताओं में कुछ लोगों का रवैया व्यवहारिक न हो, रूमानियत का हो, कुछ हो सकता है कि सरकार को ही एक तरफा दोषी मानते हों, यहाँ तक कि यह भी सम्भव है कि कुछ लोग नक्सलियों से बौद्धिक सहानुभूति रखते हों, लेकिन यदि ऐसे लोग जनतान्त्रिक मर्यादा के भीतर रहकर बात कर रहे हों, तो तमाम असहमति और असहजता के बावजूद इनकी उपस्थिति को स्वीकार करना चाहिये।

मैं स्वयम् सिविल सोसायटी के उन कार्यकर्ताओं से सहमत नहीं हूँ जो नक्सलियों की अविचारित हिंसा का खुलकर नहीं बल्कि सशर्त विरोध करते हैं। हमारी व्यवस्था में जो कुछ भी खामियाँ हों, उनका प्रतिकार जनतान्त्रिक व अहिंसक तरीके से ही करना चाहिये। यदि आपको काँग्रेस अथवा भाजपा पसन्द नहीं है तो आप कम्युनिस्ट पार्टी को चुनने के लिये स्वतन्त्र हैं। यदि आप उनसे भी निराश हैं तो कोई और राजनीतिक संगठन बना लीजिये। जो बन्दूक की नली से परिवर्तन लाना चाहते हैं, उन्हें जनतान्त्रिक राजनीति में भाग लेने के लिये आह्वान कीजिये। अगर नेपाल में प्रचंड और बाबूराम भट्टराई सशस्त्र अभियान छोड़कर जनतान्त्रिक राजनीति में आ सकते हैं तो भारत के माओवादियों को इसके लिये राजी क्यों नहीं किया जा सकता? इस बिन्दु पर केन्द्र, राज्य, राजनीतिक दल व सिविल सोसायटी- इन सबके बीच गम्भीर चर्चा होना चाहिये। जो मीडिया में अपनी अक्लमन्दी दिखाना चाहते हैं, दिखाते रहें।

देशबंधु में प्रकाशित

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