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Monday, April 30, 2012

देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

http://www.jankipul.com/2012/04/blog-post_1246.html

MONDAY, APRIL 30, 2012

देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं?

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के लेख पर पहले कवि-संपादक गिरिराज किराडू ने लिखा. अब उनके पक्ष-विपक्षों को लेकर कवि-कथाकार-सामाजिक कार्यकर्ता अशोक कुमार पांडे ने यह लेख लिखा है. इनका पक्ष इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि श्री मंगलेश डबराल अपनी 'चूक' संबंधी पत्र इनको ही भेजा था और फेसबुक पर अशोक जी ने ही उस पत्र को सार्वजनिक किया था. आइये पढते हैं- जानकी पुल.
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थानवी साहब का लेख जितना लिखे के पढ़े जाने की मांग करता है उससे कहीं अधिक अलिखे को. एक पत्थर से दो नहीं, कई-कई शिकार करने की उनकी आकांक्षा एक हद तक सफल हुई तो है लेकिन यह पत्थर कई बार उन तक लौट के भी आता है. खैर मेरी यह प्रतिक्रिया 
"अनामंत्रित" हो सकती है कि उन्होंने कहीं मेरा नाम नही लिया था, लेकिन फेसबुक/ब्लॉग पर उपस्थित व्यापक साहित्य-समाज का एक अदना सा हिस्सा, और मंगलेश डबराल सम्बंधित उस पूरे मामले में अपने स्टैंड के साथ उपस्थित रहने के कारण मुझे इस बहस में हस्तक्षेप करना ज़रूरी लगा, सो कर रहा हूँ- अशोक कुमार पांडे
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थानवी साहब, एक मजेदार सवाल करते हैं  "दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का अहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का?" ज़ाहिर है कि इन सबके सहारे वह अपनी घोषित पुण्य भूमि अज्ञेय तक पहुँचते हैं और "वामपंथियों" को अज्ञेय को उचित स्थान न देने के लिए "कटघरे" में खड़ा करते हैं. देखना होगा कि ऐसे कटघरे कहाँ-कहाँ हैं? वैसे अज्ञेय के संबंध में पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कि उनकी सबसे तीखी आलोचना कलावादी खेमे के शहंशाहों ने ही की. उन्हें "बूढ़ा गिद्ध" किसी नामवर सिंह ने नहीं अशोक बाजपेयी ने कहा था (प्रसंगवश उसी लेख में सुमित्रा नन्द पन्त को भी अज्ञेय के साथ बूढ़ा गिद्ध कहा गया था, लेकिन बहुत बाद में नामवर सिंह के पन्त साहित्य में एक हिस्से को कूड़ा कहे जाने पर जो बवाल मचा उस दौरान अशोक बाजपेयी के कहे को किसी ने याद करना ज़रूरी नहीं समझा). अब उन कटघरों और अनुदारताओं की भी बात कर ली जाए. सीधा सवाल थानवी साहब से. पिछले साल जिन बड़े साहित्यकारों की जन्मशताब्दी थी उनमें अज्ञेय के अलावा केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन, फैज़ अहमद फैज़, उपेन्द्र नाथ अश्क, गोपाल सिंह नेपाली प्रमुख थे. फिर ओम थानवी ने केवल अज्ञेय पर ही आयोजन क्यूं करवाया? अज्ञेय के अलावा इनमें से किसी और पर उन्होंने इस साल या इसके पहले कौन सा आयोजन करवाया, कौन सी किताब संपादित की, क्या लिखा?

ज़ाहिर है कि उन्हें अपना नायक चुनने का हक है. बाक़ी कवियों/लेखकों की उनके द्वारा जो "उपेक्षा" हुई, उसकी शिकायत कोई "पंथी" उनसे करने नहीं गया. हम उन वजूहात को अच्छी तरह से जानते हैं, जिनकी वजह से केदार नाथ अग्रवाल या नागार्जुन को छूने में बकौल नागार्जुन, अशोक बाजपेयी या थानवी साहब को "घिन आयेगी". लेकिन थानवी साहब या उनके लगुओं/भगुओं को यह अनुदारता कभी दिखाई नहीं देगी. वह अशोक बाजपेयी से यह सवाल पूछने की हिम्मत कभी नहीं कर पायेंगे कि उन्हें अज्ञेय के अलावा सिर्फ शमशेर ही क्यूं दिखे और उन्हें भी अपने चश्में के अलावा किसी रंग से देखना उनसे संभव क्यों नहीं होता? (इस मुद्दे पर आप मेरा लेख यहाँ देख सकते हैं). उनसे यह पूछने कि हिम्मत कभी किसी की नहीं होगी कि वामपंथ को लेकर जो उनका हठी रवैया है उसे अनुदारता क्यूं न कहा जाए? क्या थानवी या बाजपेयी की तरह हमें भी अपने कवि चुनने का हक नहीं? क्या कभी थानवी या अशोक बाजपेयी या उनके लोग किसी अदम गोंडवी पर कोई आयोजन करेंगे? नहीं करेंगे. तो जाहिर है हमें भी कुछ कवियों से "घिन" आती है. यह हमारा हक है. जिन्हें आप या अज्ञेय जीवन भर विरोधी घोषित किये रहे उनसे किसी समर्थन की उम्मीद क्यूं (और जो समर्थन में जाके दुदुम्भी या पिपिहरी बजा रहे हैं, वे क्यूं बजा रहे हैं इसका उत्तर उन्हीं के पास होगा, मैं इसे उदारता नहीं अवसरवाद मानता हूँ)

आवाजाही का समर्थन करने वाले कभी अपनी ब्लैक लिस्टों का विवरण नहीं देंगे. यह एक खास तरह का दुहरापन है, जिसमें दुश्मन से खुद के लिए सर्टिफिकेट न जारी होने पर सीने पीटे जाते हैं. यह कौन सी उदारता है जिसका सर्टिफिकेट हत्यारों के मंचों पर बैठ कर ही हासिल होता है? हत्यारे और उसके आइडियोलाग में अगर फर्क करना हो तो मैं आइडियोलाग को अधिक खतरनाक मानूंगा. एक आइडियोलाग हजार हत्यारे पैदा कर सकता है, हजार हत्यारे मिल कर भी एक आइडियोलाग पैदा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता हिटलर या मुसोलिनी ने अपनी पिस्तौल से किसी की ह्त्या की थी या नहीं...मैं मुतमईन हूँ कि हेडगेवार या मुंजे या सावरकर या गोलवरकर ने किसी की ह्त्या नहीं की थी. क्या फासिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वालों से सच में कोई सार्थक बहस संभव है? क्या वे अपने मंचों पर आपको इसलिए बुलाते हैं कि वे आपसे कोई "सार्थक संवाद" करना चाहते हैं?  ऐसा भोला विश्वास संघ या दूसरे फासिस्ट संगठनों के इतिहास से पूरी तरह अपरिचित या फिर उनकी साजिश में शामिल लोगों को ही हो सकता है. विदेश का उदाहरण थानवी साहब इस तरह दे रहे हैं मानो वाम-दक्षिण की बहस शुद्ध भारतीय फेनामना हो. उस पर इतना कह देना काफी होगा कि वह शायद"पश्चिम अभिभूतता" से पैदा हुई समझ है. केवल "काँग्रेस फॉर कल्चरल फ़्रीडम" के सी आई ए द्वारा वित्तपोषण और इसके खुलासे के बाद मचे हडकंप का भी अध्ययन कोई कर ले, या ब्रेख्त जैसे लेखक की आजीवन निर्वासन वाली स्थिति को समझने की कोशिश कर ले तो यह वैचारिक विभाजन साफ़ दिखेगा. चार्ली चैप्लिन के ज़रा से समाजवादी हो जाने पर क्या हुआ था, यह कोई छुपी हुई बात नहीं है. दुनिया भर की सत्ताओं ने वामपंथी लेखकों के साथ क्या सुलूक किया है वह भी कोई छुपी बात नहीं है, बशर्ते कोई देखना चाहे.

वैसे इस रौशनी में तमाम कलावादियों/समाजवादियों/वामपंथियों द्वारा महात्मा गांधी हिन्दी विश्विद्यालय और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान जैसे मंचों के बहिष्कार को भी देखा जाना चाहिए (इन दोनों के बहिष्कार में मैं खुद शामिल हूँ और इसे किसी तरह की अनुदारता की जगह वैचारिक दृढता मानता हूँ)

और ऐसा भी नहीं कि हिन्दी में वैचारिक विरोधियों से संवाद की परम्परा रही ही नहीं. रघुवीर सहाय और धूमिल ही नहीं, बल्कि लोहियावादी समाजवाद की विचारधारा के मानने वाले तथा कट्टर कम्यूनिस्ट विरोधी तमाम लेखकों के बारे में वाम धारा के भीतर हमेशा एक सम्मान वाली स्थिति रही, वे मुख्यधारा की बहसों में शामिल रहे और आज भी हैं. कलावाद के साथ भी वाम का संवाद लगातार हुआ, एक ही पत्रिका में दोनों तरफ के लोग छपते और बहस करते रहे (जनसत्ता के पन्नों पर भी यह निरंतर होता रहा है), दलित विमर्श और स्त्री विमर्श जैसी धुर मार्क्सवाद विरोधी धाराओं के साथ हिन्दी के वामपंथियों का न केवल सार्थक और सीधा संवाद है, बल्कि उन्हें आदर सहित मुख्यधारा की पत्रिकाओं में लगातार स्थान मिलता रहा है. अज्ञेय पर आलेख काफी शुरू में जसम की पत्रिका में छपा. प्रभास जोशी लोहियावादी और कम्यूनिस्ट विरोधी ही थे, लेकिन क्या वाम धारा के लेखकों के साथ उनका संवाद नहीं था? क्या खुद थानवी साहब का संवाद नहीं है? फिर "स्टालिन काल" की याद इसलिए करना कि किसी के "हिटलर" के प्रशंसकों के हाथ पुरस्कार लेने की आलोचना हुई है, क्या है? मैंने कल भी लिखा था, फिर लिख रहा हूँ  संवाद करना और किसी के अपने मंच पर जाकर शिरकत करना दो अलग-अलग चीजें हैं. हम ओम थानवी को इसलिए भाजपाई नहीं कहते कि उनके यहाँ तरुण विजय का कालम छपता है या इसलिए कम्यूनिस्ट नहीं कहते कि वहाँ किसी कम्यूनिस्ट का कालम छपता है. कारण यह कि जनसत्ता के न्यूट्रल मंच है. किसी टीवी कार्यक्रम में या यूनिवर्सिटी सेमीनार में आमने-सामने बहस करना और किसी संघी संस्था के मंच पर जाकर बोलना दो अलग-अलग चीजें हैं.

अब थोड़ा इस आलेख की चतुराइयों पर भी बात कर लेना ज़रूरी है. थानवी साहब बात करते हैं मंगलेश जी के "वैचारिक सहोदरों" के आक्रमण की, लेकिन जिन्हें कोट करते हैं (प्रभात रंजन, सुशीला पुरी, गिरिराज किराडू आदि) उनमें वामपंथी बस एक प्रेमचंद गांधी हैं और जसम का तो खैर कोई नहीं. जबकि उसी वाल पर हुई बहस में आशुतोष कुमार जैसे जसम के वरिष्ठ सदस्य और तमाम घोषित वामपंथी उपस्थित थे. लेकिन थानवी जी ने अपनी सुविधा से कमेंट्स का चयन किया.

उदय प्रकाश को कोट करते हुए यह तो स्वीकार किया कि उन्होंने आदित्यनाथ से पुरस्कार लिया था लेकिन साथ में दो पुछल्ले जोड़े  पहला यह कि उदय प्रकाश को यह पता नहीं था और दूसरा कि परमानंद श्रीवास्तव जैसे लोग वहाँ सहज उपस्थित थे लेकिन हल्ला दिल्ली में मचा. दुर्भाग्य से दोनों बातें तथ्य से अधिक "चतुराई" से गढ़ी हुई हैं. उस घटना के तुरत बाद उठे विवाद के बीच अमर उजाला के गोरखपुर संस्करण में २० जुलाई को छपी एक परिचर्चा में आदित्यनाथ ने कहा था  "इस समारोह में जाने से पहले मैंने खुद आगाह किया था कि उदय प्रकाश जी को कठिनाई हो सकती है"ज़ाहिर है यह वार्तालाप कार्यक्रम के पहले का था और मेरी जानकारी में उदय जी ने अब तक कहीं इसका खंडन नहीं किया है. परमानंद जी ने उसी परिचर्चा में कहा है कि  "जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं रचना समय नाम की एक पत्रिका में उदय प्रकाश का इंटरव्यू लेने के सिलसिले में उनसे मिलने भर गया था न कि उसमें भाग लेने के उद्देश्य से."और गोरखपुर का कोई और साहित्यकार उस समारोह में उपस्थित नहीं था, बल्कि अलग से प्रेमचंद पार्क में मीटिंग कर इसके बहिष्कार का निर्णय लिया गया था. इन सबकी रौशनी में थानवी साहब की इस अदा को क्या कहा जाना चाहिए.

खैर, बात यहीं तक नहीं. थानवी जी ने लिख दिया कि मंगलेश जी ने अब तक चुप्पी बनाई हुई है, जबकि सच यह है कि मंगलेश जी ने अपना स्पष्टीकरण मुझे मेल किया था और मैंने उसे सार्वजनिक रूप से अपनी वाल पर पोस्ट किया था जिसे अन्य मित्रों के साथ प्रभात रंजन ने भी शेयर किया था. मोहल्ला वाले अविनाश दास ने मुझसे फोन पर पूछा भी था और मैंने उन्हें यह जानकारी दी थी. जाहिर है, मंगलेश जी की चुप्पी थानवी साहब के लिए सुविधाजनक थी, अब वह थी नहीं तो गढ़ ली गयी. इसे पत्रकारिता के सन्दर्भ में गैर-जिम्मेवारी कहें या अनुदारता?

लिखने को और भी बहुत कुछ है...लेकिन यह कह कर बात खत्म करूँगा कि यह चतुराई भरा आलेख सिर्फ और सिर्फ मार्क्सवाद का मजाक उड़ाने और प्रतिबद्ध साहित्य पर कीचड़ उछलने के लिए लिखा गया है..और दुर्भाग्य से इसका मौक़ाहमारे ही लोगों ने उपलब्ध कराया है.

*इस लेख के 'रिज्वाइनडर' के रूप में छपे गिरिराज किराडू के आलेख को मैं बहसतलब मानता हूँ लेकिन फिलहाल उस पर कुछ नहीं कह रहा. उस पर अलग से लिखे जाने की ज़रूरत है और लिखा ही जाएगा.

13 comments:

  1. अशोक कुमार पाण्‍डेय ने तथ्‍यपरक और खरी बातें कही है। दरअसल जनसत्‍ता मे छपी ओम थानवी की टिप्‍पणी का शीर्षक भले 'आवाजाही के हक में' रखा गया हो, उनके सोच और बयानगी में इस आवाजाही (वस्‍तुपरक संवाद) की गुंजाइश बहुत कम है। ध्‍यान से देखें तो उनकी और गिरिराज की टिप्‍पणियां प्रकारान्‍तर से उनके जग-जाहिर 
    वाम-विरोध का ही पुनराख्‍यान हैं।

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  2. आपने बहुत गहराई से हर मुद्दे की पड़ताल की है ...लेकिन मेरा कहना है कि यह आलेख व्यक्तिगत त्रुटियों को रेखांकित करने से अधिक व्यापक महत्व रखता है .ऐसे समय में जब लोग कदम कदम पर एक नया रूप धर रहें हैं ,तब यह आलेख कलई खोलने वाला है . इस बहुरुपिया समय में वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्व कतई कम नहीं हुआ है ,इसलिए भी हमें हर 'कटघरे ' को ध्यान में रखना जरूरी है .

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  3. आपने इस आलेख में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात की है हत्यारे और उसके आइडियोलाग के सन्दर्भ में . आपके शब्दों में इसे देखता हूँ -- "मैं आइडियोलाग को अधिक खतरनाक मानूंगा. एक आइडियोलाग हजार हत्यारे पैदा कर सकता है, हजार हत्यारे मिल कर भी एक आइडियोलाग पैदा नहीं कर सकते. मुझे नहीं पता हिटलर या मुसोलिनी ने अपनी पिस्तौल से किसी की ह्त्या की थी या नहीं...मैं मुतमईन हूँ कि हेडगेवार या मुंजे या सावरकर या गोलवरकर ने किसी की ह्त्या नहीं की थी. क्या फासिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वालों से सच में कोई सार्थक बहस संभव है? "

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  4. इस टिप्पणी में उद्धृत शमशेर बहादुर सिंह पर लिखा आलेख यहाँ है 

    http://samalochan.blogspot.in/2011/08/blog-post_09.html

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  5. जरूरी हस्तक्षेप. आवाजाही बहुत अच्छी चीज़ है , लेकिन वहीं तो हो सकती है , जो सचमुच आवाजाही के हक में हों . जिहोने हुसैन जैसे जगत्प्रसिद्ध कलाकार को अपने ही देश में जीने और मरने का हक नहीं दिया , जिन्होंने गांधी जी जैसे आवाजाही के महानतम समर्थक को ज़िंदा रहने का हक नहीं दिया , जो अरुंधती और प्रशांत भूषन को बोलने नहीं देते , जो यासीन मलिक को मार -पीट कर भगा देते हैं , जब वो निहत्था अपनी बात कहने के लिए लोगों के बीच आता है , जो संजय काक की फिल्मों का निजी प्रदर्शन तक नहीं होने देते , उन के साथ आवाजाही, आवाजाही नहीं, लीपापोती है . किसी से 'रणनीतिक भूल' हो सकती है , किसी से 'गलत जानकारी के कारण निर्णय की चूक' हो सकती है ( विवाद में आये लेखकों ने यही कहा है ), लेकिन इस भूल- चूक को सराहनीय रणनीति के रूप में पेश किया जाए तो कहना पडेगा -भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक....

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  6. वाकई ......हो हल्ला की बजाये वैचारिक उदारता की ज़रूरत है जो दिन पर दिन गायब ही होती जा रही है ....एक भ्रामक लेख के जबाब में लिखा गया तथ्यपरक , खरा और ईमानदार लेख !

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  7. चालाकी छिप नहीं सकती. अशोक ने सारे प्रकरण से धूल हटाकर स्थिति साफ की है. सवाल किसी के पक्ष या विपक्ष में लिखने का नहीं, अपने स्टेंड का है. जाहिर है, यह स्टैंड कोई भी नहीं ले सकता, वही ले सकता है जिसे लेखन की ताकत पर भरोसा है. और यह भरोसा सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें कर देने से या बड़े लोगों के उद्धरण दे देने से नहीं पैदा होता, उसी में आ सकता है जो जमीन से जुड़ा हो, जो अपने समय की सच्चाई के साथ हो. अशोक का यह लेख दिल से निकला है.

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  8. साहित्य जगत में भी कितना छल-कपट भरा है यह देख कर आश्चर्य होता है ! बहुत अच्छी तरह इस कपट को उजागर किया गया है लेख में ! अशोक कुमार पांडे जी को इसके लिए बधाई !

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  9. वाह.. बेबाक और दो टूक नजरिया। दरअसल, अज्ञेय को लेकर कुछ लोग प्रगतिशील वैचारिक आधारों पर वैमनस्‍यपूर्ण हमले कर रहे हैं, इनका वाजिब प्रतिरोध जरूरी है। बधाई अशोक जी..

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  10. इस लेख के लिए दिल से बधाई आपको......हमारे यहाँ जनसता एक दिन बाद आता है ...कल ही मिला और कल ही उस लेख को देखा ...सचमुच उस लेख में चतुराई के साथ अपने समर्थन वाली बाते उठाई गयी हैं ...मंगलेश जी वाले प्रकरण पर चली बहस में से कुछ ऐसे ही कमेन्ट उठाये गये हैं , जो उन्हें सूट करते हैं | ..बाकि बाते जैसे फेसबुक पर हुई नहीं हों ....| कहने के लिए तो वह लेख आवाजाही की बात करता हैं , लेकिन स्थापनाए अपनी बातो को मनवाने और उन्हें सही साबित करने की हैं |.....अशोक ने बेहतरीन तरीके से इस लेख में अज्ञेय विवाद से लेकर विचारधारा तक के सवालों को भी रखा है ...| एक बार पुनः बधाई आपको ...

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  11. इस देश में एक ऐसा वर्ग भी है जो चीजों को सिर्फ" सही "ओर "गलत" के परिपेक्ष्य में देखता है . जो ये नहीं देखता उसे कहना वाला कौन है .किस वाद का है ? उसे प्रवीण तोगड़िया से भी उतनी नफरत है जितनी बुखारी से ,उसके लिए भगत सिंह सिर्फ भगत सिंह है मार्क्सवादी भगत सिंह नहीं , वो सुभाष चन्द्र बोस को भी प्यार करता है ओर वल्लब भाई पटेल को भी . उसके मन में विनायक सेन के लिए भी सम्मान है ओर उस क्षेत्र में काम करने वाले कलेक्टर की भी वो हिम्मत की दाद देता है ओर उन आदिवासियों के लिए वो घुटता है . उसके लिए कश्मीरी सिर्फ कश्मीर में रहने वाले मुसलमान नहीं कश्मीरी पंडित भी है वो सेना के उस शहीद जवान पर भी आंसू बहाता है ..कही भी चली गोली उसे उतना ही दुःख देती है . उसके पास शब्दों को सलीके से रखने का अदब नहीं है हुनर नहीं आर्ट नहीं है वो एक आम आदमी है रोजमर्रा की जिंदगी की ज़द्दोज़हद में उलझा हुआ पर उसने कही पढ़ा था "अदब ओर आर्ट कभी तटस्थ नहीं हो सकते . उसके लिए तटस्थता की कोई "एक तय डाईमेंशन" नहीं होती . 
    बौद्धिकता जब किसी वाद के प्रति पूर्वाग्रह रखती है तो वो अपनी ईमानदारी ओर निष्पक्षता खो देती है , सीमीत हो जाती है . सरोकार के प्रति अनुशासन नहीं रख पाती. सर्जनात्मक प्रव्रति के ये इस दुर्भाग्यपूर्ण विस्थापन कहाँ जा कर रुकेगे ??
    गुंटर ग्रास की साधारण सी कविता से उपजी" आयातित क्रांति " के विमर्श कहाँ किस मोड़ पर पहुंचे है ? मुआफ कीजिये ओर बस कीजिये हिंदी का पाठक भाषा के जंगल में शब्दों से लड़े जाने वाले इन अनिर्णीत युद्दो से उब गया है .इन अहंकारो की परिणति क्या है ? .भाषाई कौशल की ऐसी जुगलबंदिया देखकर लगता है बुद्धिजीवियों में एक किस्म का रुढ़िवाद है ,?पढ़े लिखो लोगो में एक खास किस्म का" छूआ छूत "पसर गया है . बुझ जाता है उसका मन जब वो देखता है कितना "क्रत्रिम " है रचनाकार का निजी संसार ! कितना आसान है विम्बो ओर प्रतीकों से दंद ओर आत्म संघर्षो की काव्यात्मक बनावट तैयार कर कागजो में उकेरना !! कितना मुश्किल है ठीक चीजों को व्योव्हार में उतारना . क्या निजी जीवन में साहित्यकार हर झूठ बोलने वाले व्यक्ति से सम्बन्ध काट लेता है ? हर भ्रष्टाचारी इंसान से सारे सम्बन्ध तोड़ लेता है ? . क्षमा करे ऐसा लगता है हिंदी का संसार कितना छोटा है

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  12. बिना "वाद" की बौद्धिकता का एक तयशुदा वाद होता है "अवसरवाद". विचारधारा का अर्थ ही होता है विचारों का सुसंगत प्रवाह. जो सुभाष चन्द्र बोस से प्यार करते हुए अंग्रजों को भगाने की जल्दबाजी में हिटलर से लेकर मुसोलिनी और तोजो तक से गठबंधन करने के प्रयास के उनके विचलन की आलोचना नहीं कर सकता, जो वल्लभ भाई पटेल से प्यार करते हुए उनके दक्षिणपंथी भटकावों और तिलंगाना के क्रूर दमन में उनकी या नेहरु की भूमिका की आलोचना नहीं कर सकता, जो बिनायक सेन का सिर्फ "सम्मान" कर सकता है और उनके पक्ष में आवाज़ उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता. जिसे "कहीं भी चली गोली" बराबर दुःख देती है, बिना यह देखे कि सीना किसका है...मैं उसे अचूक अवसरवाद से भरा एक लिजलिजा और बेहद चतुर व्यक्ति कहूँगा. अगर थोड़ा सम्मान से कहें तो "भावुक अवसरवादी" कह लें. जब देश भर में बकौल अदम "अमीरी और गरीबी के बीच एक जंग" छिड़ी हो तो ऐसी सार्वजनीन आस्थाओं और भावुकताओं से आप सिर्फ कातिल की मदद कर रहे होते हैं.

    इतिहास में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप लिजलिजी भावुकता से नहीं, अपना पक्ष तय करने से होता है. जब युद्ध चल रहा हो तो नो मैन्स लैंड में बाँसुरी नहीं बजाई जाती. 

    और गुंटर ग्रास हों या ब्रेख्त या मुक्तिबोध...ज्ञान किसी एक देश की सीमा में नहीं बंधता. किसी जुकेरबर्ग की खोज "फेसबुक" और किसी अन्य की तलाश "ब्लॉग" को किसी अन्य देश की तकनीक से बने लैपटाप पर आपरेट करते हुए अपनी सक्रियता से आत्ममुग्ध लोग जब किसी कविता पर चली बहस में अपना पक्ष तय न कर पाने पर उसे "आयातित" कहते हैं तो बस उन पर हंसा जा सकता है. 

    हाँ, 'पढ़े-लिखों' के प्रति उपजी इस कुंठा के स्रोत तलाशना मुश्किल है. अब कुछ लोगों की तरह सबके "निजी संसार" को देख-जान-समझ लेने का दावा तो नहीं ही किया जा सकता. 

    कितना आसान है सबके लिए मानक तय कर देना - "हर भ्रष्टाचारी से संबंध तर्क कर देना, हर झूठ बोलने वाले से संबंध तर्क कर देना" क्या कहने हैं...कौन न मर जाए इस सादगी पर. कल तक हत्यारों के यहाँ आवाजाही के समर्थन में पन्ने रंग रहे अब उन आवाजाहियों पर सवाल उठा रहे हैं! 

    ऐसे जबानी जमाखर्च से ओढ़े गए महान लबादों की असलियत बार-बार देखी गयी है. जब पक्ष चुनना मुश्किल हो तो ऐसी ही कुछ गोल-मोल बातें कर, कुछ वैयक्तिक लफ्फाजियाँ कर मुक्ति पा ली जाती है. अचूक अवसरवाद की ये जानी-मानी प्रविधियां हैं...

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शेखर जोशी की अद्भुत प्रेम कहानी कोसी का घटवार

http://www.sahityashilpi.com/2012/05/blog-post_4007.html

कोसी का घटवार {विरासत} [कहानी] – शेखर जोशी

विरासत में इस बार हम दे रहे हैं चर्चित कहानीकार शेखर जोशी की अद्भुत प्रेम कहानी कोसी का घटवार
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अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूं शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाडक़र
एक ढेर बना दिया।

बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झांककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी हैं, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेशद्वार बहुत कम ऊंचा था, खूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला। सर के बालों और बांहों पर आटे की एक हलकी सफेद पर्त बैठ गई थी।

खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहां का कहां चला गया है। कैसी अनहोनी बात!

बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों का नाम-निशान ही नहीं। अन्य वर्षों अब तक लोगों की धान-रोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पडे हैं। खेतों की सिंचाईं तो दरकिनार, बीज की क्यारियां सूखी जा रही हैं। छोटे नाले-गूलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं। कोसी के किनारे हैं गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोडे क़ी चाल को मात देती हैं।

चक्की के निचले खंड में छिच्छर-छिच्छर की आवाज के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहां सुनाई दे जाय।

छप्प ..छप्प ..छप्प ..पुरानी फौजी पैंट को घुटनों तक मोडक़र गुसांईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सूराख-निकास हो, तो बंद कर दे। एक बूंद पानी भी बाहर न जाए। बूंद-बूंद की कीमत है इन दिनों। प्रायः आधा फलांग चलकर वह बांध पर पहुंचा। नदी की पूरी चौडाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बांध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गूल के किनारे-किनारे चलकर घट पर आ गया।

अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोडा-बहुत गेहूं शेष था। वह उठकर बाहर आया।

दूर रास्ते पर एक आदमी सर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गुसांईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, हैं हो! यहां लंबर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।

उस व्यक्ति ने मुडने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। खूब ऊंचे स्वर में पुकारकर वह बोला,जरूरी है, जी! पहले हमारा लंबर नहीं लगा दोगे?

गुसांईं होंठों-ही-होठों में मुस्कराया, स्साला कैसे चीखता है, जैसे घट की आवाज इतनी हो कि मैं सुन न सकूं! कुछ कम ऊंची आवाज में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, यहां जरूरी का भी बाप रखा है, जी! तुम ऊपर चले जाओ!

वह आदमी लौट गया। मिहल की छांव में बैठकर गुसांईं ने लकडी क़े जलते कुंदे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड-ग़ुड क़रता धुआं उडाता रहा। खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था। किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिरानेवाली चिडिया पाट पर टकरा रही थी।

छिच्छर-छिच्छर की आवाज क़े साथ मथानी पानी को काट रही थी। और कहीं कोई आवाज नहीं। कोसी के बहाव में भी कोई ध्वनि नहीं। रेती-पाथरों के बीच में टखने-टखने पत्थर भी अपना सर उठाए आकाश को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।

सूखी नदी के किनारे बैठा गुसांईं सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च पडे पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।

कभी-कभी गुसांईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगी-भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं, बीबी-बच्चे नहीं, खाने-पीने का ठिकाना नहीं ..

घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड क़ो गुसांईं ने खोला। गूल में चलते हुए थोडा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसांईं ने हुक्के की नली से मुंह हटाया। उसके होठों में बांएं कोने पर हलकी-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद गुसांईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है ..नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी, बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती।

ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसांईं फौज में गया था। पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।

पैंट के साथ और भी कितनी स्मृतियां संबध्द हैं। उस बार की छुट्टियों की बात ..

कौन महीना? हां, बैसाख ही था। सर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड वन की आग की तरह खबर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढे, सभी उससे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एकदम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एकदम साफ, जगमग, लाल-नीली धारियोंवाली दरी आंगन में बिछानी पडी थी लोगों को बिठाने के लिए। खूब याद है, आंगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढे, सभी आए थे। सिर्फ चना-गुड या हल्द्वानी के तंबाकू का लोभ ही नहीं था, कल के शर्मीले गुसांईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसांईं की आंखें उस भीड में जिसे खोज रही थीं, वह वहां नहीं थी।

नाला पार के अपने गांव से भैंस के कटया को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसांई उस दिन उससे मिल न सका। गांव के छोकरे ही गुसांईं की जान को बवाल हो गए थे। बुढ्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसांईं को देखकर सोबनियां का लडक़ा भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है। दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीडी या गपशप के लोभ में।

एक दिन बडी मुश्किल से मौका मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से कांकड क़े शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गांव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड क़े नीचे गुसांईं के घुटने पर सर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल। खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसांईं ने लछमा की मुठ्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बांह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी। वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हंस दी थी।

पुरानी बात - क्या कहा था गुसांईं ने, याद नहीं पडता ..तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूंगा, मेरी सुवा! या कुछ ऐसा ही।

पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी - पहाडी पार के रमुवां ने, जो तुरी-निसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?

जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम? लछमा के बाप ने कहा था।

उसका मन जानने के लिए गुसांईं ने टेढे-तिरछे बात चलवाई थी।

उसी साल मंगसिर की एक ठंडी, उदास शाम को गुसांईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खडे-ख़डे उससे कहा था, हमारे गांव के रामसिंह ने जिद की, तभी छुट्टियां बढानी पडीं। ऌस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है, एकदम पटाखा! बडी हंसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गांव के नजदीक की ही है। लछमा-लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।

गुसांई को याद नहीं पडता, कौन-सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था, रम-डे थे उस दिन। हमेशा आधा पैग लेनेवाला गुसांईं उस दिन पेशी करवाई थी - मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में। सोचते-सोचते गुसांईं बुदबुदाया, स्साल एडजुटेन्ट!

गुसांईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से बिदा होने से एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था।

गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी! आंखों में आंसूं भरकर लछमा ने कहा था।

वर्षों से वह सोचता आया है, कभी लछमा से भेंट होगी, तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित जरूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लडक़पन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैदानों में चले गए हैं। गांव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता।

जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गांव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा - लगातार पंद्रह साल तक।

पिछले बैसाख में ही वह गांव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिजर्व में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचडी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।

आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसांईं अपनी जिंदगी की किताब पढक़र सुनाता! शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने ..

पर नदी किनारे यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-पटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को निष्प्रयोजन गुडग़ुडाता गुसांईं। और चारों ओर अन्य कोई नहीं। एकदम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान -

एकाएक गुसांईं का ध्यान टूटा। सामने पहाडी क़े बीच की पगडंड़ी से सर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसांईं ने सोचा वहीं से आवाज देकर उसे लौटा दे। कोसी ने चिकने, काई लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहां तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे। दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत से वह तंग आ चुका था। इस कारण आवाज देने को उसका मन नहीं हुआ। वह आकृति अब तक पगडंडी छोडक़र नदी के मार्ग में आ पहुंची थी।

चक्की की बदलती आवाज को पहचानकर गुसांईं घट के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्नवाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिडियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मथानी की छिच्छर-छिच्छर की आवाज भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल चक्की ऊपरवाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत चल रहा था। तभी गुसांईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।

सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुसांईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुडक़र देखा। कपडे में पिसान ढीला बंधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुसांईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुडा, लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिडियां किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसांईं को अपने हृदय की धडक़न का आभास हो रहा था।

घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्य का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसांईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृध्द-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।

उसने दुबारा वे ही शब्द दुहराए। वह अब भी तेज धूप में बोझा सर पर रखे हुए गुसांईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पांव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती।

दूसरी बार के प्रश्न को गुसांईं न टाल पाया, उत्तर देना ही पडा, यहां पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही। उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।

स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पडी।

गुसांईं झुककर घट से बाहर निकला। मुडते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाडक़र एक-दो कदम आगे बढा। उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज देकर उसे बुला लेने को उसने मुंह खोला, परंतु आवाज न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थता थी, जो उसका मुंह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुंच चुकी थी। गुसांईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लडख़डाती आवाज में उसने पुकारा, लछमा!

घबराहट के कारण वह पूरे जोर से आवाज नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज नहीं सुनी। इस बार गुसांईं ने स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, लछमा!

लछमा ने पीछे मुडक़र देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे, यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी दुबारा उसे बुला रहा है या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वहीं से पूछा, मुझे पुकार रहे हैं, जी?
गुसांईं ने संयत स्वर में कहा, हां, ले आ, हो जाएगा।

लछमा क्षण-भर रूकी और फिर घट की ओर लौट आई। अचानक साक्षात्कार होने का मौका न देने की इच्छा से गुसांईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छांह में चला गया।

लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आंचल के कोर से मुंह पोंछा। तेज धूप में चलने के कारण उसका मुंह लाल हो गया था। किसी पेड क़ी छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा। मिहल के पेड क़ी छाया में घट की ओर पीठ किए गुसांईं बैठा हुआ था। निकट स्थान में दाडिम के एक पेड क़ी छांह को छोडक़र अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।

गुसांईं की उदारता के कारण ॠणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बडा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में लंबर मिलता।

अजाज संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसांईं ने मन-ही-मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखें, इससे पूर्व ही उसने कहा, जीते रहे तेरे बाल-बच्चे लछमा! मायके कब आई?

गुसांईं ने अंतर में घुमडती आंधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो।

दाडिम की छाया में पात-पतेल झाडक़र बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसांईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसांईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आंखें फाडक़र वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसांईं ही है।

तुम? जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।

हां, पिछले साल पल्टन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया। गुसांईं ने ही पूछा, बाल-बच्चे ठीक हैं?

आंखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। जमीन पर गिरे एक दाडिम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुडियों को एक-एक कर निरूद्देश्य तोडने लगी और गुसांईं पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।

बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसांईं ने पूछा, तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?

अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्, वह सर नीचा किए आंसूं गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसांईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।

इतनी देर बाद सहसा गुसांईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में चरेऊ (सुहाग-चिह्न) नहीं था। हतप्रभ-सा गुसांईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी।

आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसांईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आंसूं पोंछती हुई अपना दुखडा रोने लगी, जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुडाकर यहां मां की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोडक़र चली गई। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बांधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।
यहां काका-काकी के साथ रह रही हो? गुसांईं ने पूछा।
मुश्किल पडने पर कोई किसी का नहीं होता, जी! बाबा की जायदाद पर उनकी आंखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक न जमा लूं। मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुजर कर लूंगी, किसी की आंख का कांटा बनकर नहीं रहूंगी।

गुसांईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा। दाडिम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोडक़र बैठी थी। गुसांईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड ग़या था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।

कितनी तेज धूप है, इस साल! लछमा का स्वर उसके कानों में पडा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो।

और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहां लछमा बैठी थी। दाडिम की फैली-फैली अधढंकीं डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड रही थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसांईं एकटक उसे देखता रहा।

दोपहर तो बीत चुकी होगी, लछमा ने प्रश्न किया तो गुसांईं का ध्यान टूटा, हां, अब तो दो बजनेवाले होंगे, उसने कहा, उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छांव में। कहता हुआ गुसांईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
नहीं, यहीं ठीक है, कहकर लछमा ने गुसांईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।

घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।

धीरे-धीरे चलकर गुसांईं गुल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।

आस-पास पडी हुई सूखी लकडियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुंह कर कह गया, चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाय, तो पत्ती डाल देना, पुडिया में पडी है।

लछमा ने उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जानेवाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।

सडक़ किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसांईं को काफी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।

बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, इस छोकरे को घडी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहां भी पहुंच गया है।

गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर मां से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है। एक बार झुंझलाकर लछमा ने उसे झिडक़ दिया, चुप रह! अभी लौटकर घर जाएंगे, इतनी-सी देर में क्यों मरा जा रहा है?

चाय के पानी में दूध डालकर गुसांईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूंथने लगा। मिहल के पेड क़ी ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।

लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियमके मैसटिन में गुसांईं ने चाय डालकर आपस में बांट ली और पत्थरों से बने बेढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियां बनाने का उपक्रम करने लगा।

हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसांईं ना न कह सका। वह खडा-खडा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियां चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसांईं ने ऐसी रोटियां देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बेडौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बडी तेजी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चांदी के कडे ज़ब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकरानेवाली काठ की चिडियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसांईं ने आज पहली बार अनुभव किया।

किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बडी देर तक खाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा। वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।

गुसांईं ने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसांईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएंगी।

मैं तो अपने टैम से ही खाऊंगा। यह तो बच्चे के लिए .. स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो।

न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियां बनाकर रख आई थी, अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।

अैंऽऽ, यों ही कहती है। कहां रखी थीं रोटियां घर में? बच्चे ने रूआंसी आवाज में वास्तविक व्यक्ति की बतें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड ग़या था।

चुप! आंखें तरेरकर लछमा ने उसे डांट दिया। बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी, इस कारण लज्जा से उसका मुंह आरक्त हो उठा।

बच्चा है, भूख लग आई होगी, डांटने से क्या फायदा? गुसांईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियां उसकी ओर बढा दीं। परंतु मां की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी मां की ओर देख लेता था।

गुसांईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियां लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिडक़ दिया, मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहां जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!

इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसांईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकडा गुड क़ा रखकर बच्चे के हाथों में दिया। भरी-भरी आंखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसांईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा।

इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे गुसांईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे।

स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसांईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कराकर कहा, लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।

लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी ओर देखा। गुसांईं हो-होकर खोखली हंसी हंस रहा था। कुछ साग-सब्जी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता। गुसांईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की। ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पडता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोडे पैसे मिले हैं, आज ले जाऊंगी कुछ सौदा।

हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसांईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, लछमा! 

लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। गुसांईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढाते हुए कहा, ले, काम चलाने के लिए यह रख ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ्तर से मनीआर्डर आया था।

नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोडे क़ह रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा, कहकर लछमा ने सहायता लेने से इन्कार कर दिया

गुसांईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में वह बोला, दुःख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!

परन्तु गुसांईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अडी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम से हंस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।

गुसांईं ने गौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां कोई चिह्न शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंधकर शांत हो चुका था।

रूपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहां से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने नीजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के करीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाडता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा। ऊपर बांध पर किसी को घूमते हुए देखकर उसने हांक दी। शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोडना चाहता था।

बांध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खडा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, लछमा ..।

लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। गुसांईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने क्या कहना चाहता है, इस बात की आशंका से उसके मुंह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसांईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, कभी चार पैसे जुड ज़ाएं, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी मांग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए। लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रूका।

पानी तोडनेवाले खेतिहार से झगडा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामनेवाले पहाड क़ी पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाडी क़े मोड तक पहुंचने तक टकटकी बांधे देखता रहा।

घट के अंदर काठ की चिडियां अब भी किट-किट आवाज कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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