गिरदा, तुम्हारे समय को सलाम
इतवार, 22 अगस्त। बारह बजे के आसपास मोबाइल फोन कुनमुनाया। देखा, लखनऊ से नवीन का संक्षिप्त एस एम एस था- ''हमारे गिरदा चल दिए इस दुनिया से। अभी थोड़ी देर पहले आखिरी साँस ली।''…..पढ़ कर दिल धक्क से रह गया और मन सोच में डूब गया। अभी सोच में डूबा ही था कि सामने खम्म से हँसता हुआ गिरदा आ खड़ा हुआ। वही कुर्ता, वास्कट, वही पेंट, सिर पर वही गरम ऊन की टोपी और कंधे में लटका वही झोला। मन ने पूछा, ''अरे गिरदा ?''
गिरदा मुस्कुराता रहा। मैं हैरान, परेशान। ''गिरदा, आप ? आप तो चल दिए सुना, अभी खबर मिली। एस एम एस से।''
''नब्बू ने भेजा होगा, मुझे पता है। जाने क्यों मेरी इतनी फिकर करता है। इतना मोह रखता है। उससे तो मैं लखनऊ में ही कह आया था- 'मुझे जो क्या होता है कुछ! मान लो कुछ हो भी गया तो भी मैं यहीं रहूँगा। लेकिन, अपने समय में। और, देखो देवेनदा अपने समय में मैं यहीं हूँ। हूँ कि नहीं?' गिरदा अपने खास अंदाज में हँसते हुए बोले, ''कहाँ जाता हूँ मैं ? तुम लोगों के बीच में ही तो रहूँगा।''
''बिल्कुल गिरदा,'' मन ने कहा, ''हम जाने भी कहाँ देंगे तुमको। अच्छा, बात आ ही गई है तो चलो बीते हुए दिनों को याद करते हैं।''
''क्या बात है! चलो, तो करो याद। कहाँ से शुरू करोगे ?''
"किलै, सन् 1977 में पंतनगर में आपसे हुई उस पहली मुलाकात से, जब आप साथी लोग वहाँ पहुँचे थे।"
मुझे लगा, गिरदा उस घटना को याद करके उदास आँखों से हवा में ताक रहे हैं। उन्होंने जैसे बीड़ी चूसी और होंठों को गोल करके हवा में धुआँ छोड़ते हुए कहा 'हँ'।
13 अप्रैल 1977 को पंतनगर में मजदूरों के जुलूस पर पुलिस की गोलियाँ चली थीं। सड़कों पर खुन्यौल हो गई थी। सैक्टर-5 के सामने गन्ने के फार्म में आग लगा दी गई थी। शक था कि उसमें मजदूर मार कर डाल दिए गए हैं। मेरा क्वार्टर उसी फार्म के किनारे पर था।
"याद है गिरदा, आप, शमशेर (बिष्ट), शेखर (पाठक) और अन्य साथी गोलीकांड की खबर सुन कर दौडा़-दौड़ चले आए थे ? आप लोगों ने वहाँ आकर वह गन्ने का फार्म भी देखा था और फिर इंटरनेशनल गेस्ट हाउस के चौराहे के पास जमा भारी भीड़ को कुछ साथियों ने संबोधित भी किया था। तब आपको पहली बार देखा था। आप बड़े मोह से मिले थे, इस तरह कि लगा था जाने कब से मुझे जानते हैं।"
गिरदा जैसे धीरे से हँसे।
''और पूरे रंग में देखा आपको नैनीताल में 5 जून 1978 के पर्यावरण जुलूस में। आप थे, शेखर था, राजीव था, हरीश था बहुत सारे साथी थे और मैं, मेरी पत्नी लक्ष्मी और मेरी दो छोटी-सी बेटियाँ भी थीं। ओहो रे, क्या भीड़ थी टूरिस्टों की ? रेला लगा था उनका।
तल्लीताल की उसी भीड़ भरी बाजार में आपने अचानक हुड़के पर थाप दी- दुंग तुकि दुंग….तुकि तुकि दुंग दुंग! और, फिर आँखें बंद करके आपने गौर्दा के गीत 'वृक्षन को विलाप' के बोल उठाए- 'मानुष जाती सुणिया मणी हो वृक्षन की ले विपति का हाल/सब जन हरिजन उन्नति में छन, हमरो ले कुछ करला ख्याल/बुलै नि सकना तुमन अध्याड़ी, लागिया भै जनमें मुख म्वाल/जागा है हम हलकि नि सकना, स्वर्ग टुका में जड़ा पाताल!'
हम सब आपकी आवाज में आवाज मिला कर गा रहे थे गिरदा। टूरिस्ट देख-सुन कर हपकपाल हो रहे थे। गीत का मतलब पूछते थे। मतलब जान कर पेड़-पौधों के दर्द की बात समझ रहे थे।
वह गीत पूरा हुआ तो याद है आप शेरदा 'अनपढ़' का गीत गाने लगे थे …'बोट हरीया हीरों का हारा, पात सुनूँ का चुड़/बोटों में बसूँ म्यर पहाड़ा, झन चलैया छुर' और, फिर वह 'ऋतु औनी रौली भँवर उड़ाला बलि/हमारा मुलुका भँवर उड़ाला बलि/यो गैली पातला भँवर उड़ाला बलि. ..'
गिरदा गीतों में कितना डूब कर गा रहे थे तुम। हम सोचते थे, रास्ता कैसे देखते होगे आँख मूँद कर! याद है, रास्ते में बिपिन त्रिपाठी ने कैसा जोशीला भाषण दिया था ? हम लोग टूरिस्टों की भीड़ को पार करते हुए मल्लीताल रामलीला मैदान तक गए थे। वहाँ कितने जो संगी-साथियों ने पहाड़ और पेड़ों के रिश्ते पर भाषण दिए थे।
गिरदा अपनी उसी अंदर को साँस खींच कर 'अँ' कहने की इस्टाइल में हुंगुर देकर बोले, ''किलै नैं, याद क्यों नहीं ठैरा। तुमने भी कैसी बात कर दी ददा, मुझे सब कुछ याद है। अरे, इसी सब में तो परान ठैरा मेरा।''
''अच्छा तो उस दिन की बात भी याद होगी जब हम 'नैनीताल समाचार' के बाहर के कमरे में बैठे गीतों-कविताओं की बातें कर रहे थे। पहाड़ों पर साँझ उतरने लगी थी। मुझे 'हरिऔध' के 'प्रिय प्रवास' की शुरूआत याद हो आई थी-'दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला/तरु शिखा पर थी अब राजतीं, कमलिनी कुलवल्लभ की प्रभा..'। फिर हमने सुमित्रानंदन पंत की 'संध्या' पर बात की थी कि ''कहो तुम रूपसि कौन ? व्योम से उतर रही चुपचाप/छिपी निज छाया छवि में आप….''। अच्छा बताओ, तब आपने अपनी कौन-सी कविता सुनाई थी ?''
''किलै मेरी याददाश्त की परीक्षा ले रहे हो क्या ?'' गिरदा ने हँस कर कहा और आँख मूँद कर सुनाने लग गए अपनी वही कविता,
'पार पछ्यूँ धार बटी, माठू-माठू, ठुमुकि – ठुमुकि
रत्यालि जै छबिलि – सुघड़ि, हुलरि ऐ गै ब्याल !
…अदम बाटै खालि घड़ ल्हि, बावरि राधिका जसि
चैय्यै रैगै ब्याल, चैय्यै रैगै ब्याल!…''
क्यों दाज्यू, यही सुनाई ना ? भौत पुराणि याद दिलै देछ….''
''बिल्कुल यही सुनाई थी गिरदा। अरे, आप तो आँखें बंद करके सुनाते-सुनाते, हाथों के इशारे से उसे माठु-माठु,
ठुमुकि-ठुमुकि उतार कर भी ला रहे थे। आँखें तो आपने 'चाय्यै रैगै ब्याल' कह कर ही खोली थीं! आपने कहा था उस दिन गिरदा-''अद्भुत हैं कुमाउँनी लोक कविता की उपमाएँ। ओ हो रे! अब देखो, कोई तोड़ है मालूशाही की इन उपमाओं का ?''
'दुती कसी ज्यून है गैछ,
पुन्यू कसी चाना
बैसाखी सुरिज जसी,
चैत की कैरुवा जसी
पूस की पालंगा जसी…'
ओ हो हो, क्या बात है!
और हाँ, उस दिन, जब आप मुझे मल्लीताल में नैनीताल क्लब से जरा-सा आगे नाले के पास की अपनी उस कोठरीनुमा कमरे में ले गए थे, जहाँ आपके साथ कुछ नेपाली मजदूर भी रहते थे तो आपके नेपाली भैया ने चाय पिलाई थी। उस दिन भी कितनी सारी बातें की थीं हमने, है ना ?'
उसाँस के साथ फिर 'अँ'
''और, वह शेखर के घर पर बिताई रात! बिताई क्या, आँखों में ही कट गई थी पूरी रात। शाम को आप लोगों ने बताया था, यहाँ इसी कमरे में बैठ कर की थी जागर के उन गीतों की रिकार्डिंग……'जैंता एक दिन त आलो उधिन यो दुनि में,' 'कन प्यारो चौमास, डाँड्यों माँ लागी गे' और भी बहुत से गीत। आपने बताया था- कोई स्टूडियो जो क्या ठैरा ? बस यहीं, इशारा करते तो बाजे बजने लगते और हम लोग बोल उठाते थे। गीत खतम होते ही चुप्प हो जाना ठैरा! ….गिरदा हमने वे गीत जून 1984 में अपनी अस्कोट-आराकोट यात्रा पर खूब बजाए थे।
''हाँ, तो मैं कह रहा था, आँखों में कटी थी वह रात। बाद में शेखर भी सो गया था। आप और मैं जागते रहे। बातें ही खतम नहीं होती थीं! वह पहला मौका था, जब हमने इतनी बातें की थीं- पहाड़ों की, पहाड़ के कठिन जीवन की, भोले-भाले लोगों की, संगी-साथियों की, अपनी, अपने जीवन के लक्ष्य की…..बातें ही बातें। उस दिन हम एक-दूसरे की जिंदगी की किताब पढ़ते रहे। आपने अपने पीलीभीत में पी.डब्लू.डी. के दिनों के अनुभव सुनाए। मैंने अपने गाँव-बचपन से लेकर तब तक की जिंदगी की बातें सुनाईं। अपने लेखन के बारे में बताया। याद है, विज्ञान कथाओं की बात सुन कर आपको एक फिल्म की याद आ गई थी ? उसका नाम याद नहीं आया था। आपने उसके बारे में बताते हुए कहा था- 'गजब की फिल्म थी दाज्यू। क्या आइडिया था! कुछ आदिमानव भोजन खोज रहे ठैरे। उनके पास कुछ नहीं ठैरा। वे एक जगह पानी पीना चाहते हैं, तभी दूसरे आदिमानव आकर उन्हें मारपीट कर वहाँ से खदेड़ देते हैं। वे पत्थरों के एक उडियार में रात बिताते हैं। सुबह सामने एक बड़ा काला पाथर देख कर भौंचक रह जाते हैं कि अरे, ये कहाँ से आ गया ? खुशी से नाचते-कूदते हैं, उसे झसकते हुए छूते हैं। ….ददा, एक आदिमानव के हाथ में एक हड्डी आ गई थी। उसने उसे अपना औजार और हथियार बना लिया। वे शिकार करना सीख जाते हैं। उस हथियार के बल पर दूसरे आदिमानव कबीले के मुखिया को मार देते हैं और पानी पर कब्जा कर लेते हैं। दाज्यू, क्या गजब का सीन और सोच था…..ओ हो रे! वह आदिमानव उस हड्डी के हथियार को पूरी ताकत से हवा में उछाल कर फैंकता है- भन्न्! और, क्या होता है, वह कहाँ पहुँच जाती है, यह देखने की चीज थी। वह हमें लाखों बरस आगे इक्कीसवीं सदी के अंतरिक्ष में घूमते उपग्रहों तक ले आती है। क्या ? वही हड्डी जो औजार भी थी और हथियार भी! यौ, देखा! क्या बात है! आदिमानव से आज तक की टैक्नोलॉजी की बात कर रही थी वह फिल्म। क्या डायरेक्शन था! कुछ ऐसी चीजें सोचो दाज्यू। बहुत पहले देखी थी, फिल्म का नाम भूल गया हूँ….''
''लेकिन, मैं नहीं भूला गिरदा। आपने जिन हाव-भावों के साथ जिस नाटकीय अंदाज में वह सारा वर्णन सुनाया था, उसे भूलना संभव ही नहीं था। मैं तो सोचता रह गया। मुझे बहुत बाद में जाकर पता लगा कि आप उस दिन प्रसिद्ध कथाकार आर्थर क्लार्क की कहानी 'सेंटिनल' पर आधारित प्रख्यात फिल्म निर्देशक स्टेंले क्यूब्रिक की फिल्म '2001: अ स्पेस ऑडिसी' की बात कर रहे थे।
''उन्हीं दिनों आपने मुझसे पूछा था कि मेरी कितनी किताबें छप चुकी हैं। मैं चौंक गया था। आपने यह भी कहा था मुझसे- दाज्यू, बराबर लिखते रहो। समय न किसी के लिए रुकता है, न वापस लौटता है। आपने कितना और क्या लिखा है- उसी से पता लगेगा, आपने जीवन में क्या किया है। इसलिए लिखो, खूब लिखो।''
''सच मानो गिरदा, आपकी वह बात दिल में बैठ गई। दिल्ली लौट कर मैं लिखने में जुट गया। कई विज्ञान कथाएँ लिखीं। लेखमालाएँ लिखीं। रात-रात भर लिखता था। जल्दी ही मेरी तीन-चार किताबें प्रकाशित हो गईं। मैंने आपसे कभी कहा तो नहीं, लेकिन आपकी उस बात ने मुझमें लिखने के लिए नई ताकत भर दी थी।
''लो आप तो बस मुस्कुरा रहे हैं। मैं जानता हूँ, मन ही मन आप क्या सोच रहे हैं, यही ना कि जो आप चाहते थे, वह हो गया। और क्या! और हाँ गिरदा, आपकी वह बात मैं न भूला हूँ और न भूलूँगा।''
गिरदा 'अँ'' कह रहे हैं।
''अच्छा, वह कविता जो साल-दो साल पहले आपने मुझे सुनाई थी, यह कह कर कि देखो, इसके बिंब देखो …
छानी खरिक में धुवां लगा है, ओ हो रे, आ हा रे, ओ हो रेऽऽऽ,
ओ दिगौ लाली।
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी कि गीला धुँवा है,
साग क्या छौंका कि गौं महका है रे,
ओ हो रे, आ हा रे ऽऽऽ'
''इसे तो जब मन चाहा हम कंप्यूटर पर भी सुन लेते हैं। फोन पर एक बार आपसे बात हुई थी तो आप कह रहे थे ना कि'अब आराम ठैरा। गिरदा कंप्यूटर में ही हुआ, जब मन किया तब बुला कर सुन लिया!''
''इतवार, 4 अक्टूबर को नैनीताल समाचार के पुरस्कार समारोह में आप तबियत खराब होने के बावजूद झमाझम बारिश में भी चले आए थे। बच्चों से बात करने और संगी-साथियों से मिलने का मोह आपको राजकीय इंटर कालेज के हॉल तक खींच लाया था।
मुझे याद है गिरदा, अपनी कविता सुन कर बच्चे कितने खुश हो गए थे-
''जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े,
ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ किताबें निर्भय बोलें,
ऐसा हो स्कूल हमारा।
मन के पन्ने पन्ने खोले,
ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ बालपन जी भर चहके,
ऐसा हो स्कूल हमारा।''
उस बारिश में, उस दिन आपसे वही आखिरी मुलाकात थी।'
मन में खड़े गिरदा हँसे, ''मुलाकात का क्या है, मन में झाँको और लो मुलाकात हो गई। क्यों ? अपने समय में से खम्म आ जाउँगा मैं। अभी भी तो आ ही गया हूँ ना ? काया को छोड़ आया हूँ तो अब कभी भी, कहीं भी जा सकता हूँ। अपने पहाड़ के सभी डान-कानों, नदियों, घाटियों, खेत-खलिहानों, हवा-पानी और संगी-साथियों व हर याद करने वाले के मन में तक बेरोकटोक घूम सकता हूँ।
है कि नहीं ? ऐसा समझ लो, दिक् और काल में रह रहा हूँ। इसलिए तुम लोग जब भी याद करोगे, मन में मुझे खड़ा पाओगे।''
"अरे गिरदा यानी आप तो कालयात्री हो गए हैं। और, मन में ही क्या आप तो सपने में भी दिख रहे हो। आपको याद
कर-करके कुछ लिखने की सोच रहा था तो कल रात आप हँसते हुए सपने में ही चले आए। कहने लगे- मैं तो दीवाल पर बनी किताबों की अलमारी में सोउँगा। और, वहाँ आराम से पैर पसार कर, हाथ की सिरांड़ी लगा कर यह कहते हुए लेट भी गए कि 'म्यर लिजि य बढ़िय जाग छ!"
मुझे लगा गिरदा कह रहे हैं- 'यौ, तुम भी यार देवेनदा! दाज्यू, याद भी बहुत लोग कर रहे हैं। माया ठैरी। अरे, ऐसे मोह से बाँध रखा हूँ कि क्या कहूं? हर किसी के मन में मुलाकात के लिए जा रहा हूँ। अपने समय से उन सबके समय में। कालयात्रा हुई ये। साइंस फिक्शन में आप लोग यही तो कहते हैं ना ? टाइम ट्रैवल! काल-यात्रा। वही कर रहा हूँ।"
'अब चलूँ फिर ?' बीड़ी का कस खींच कर शायद गिरदा कह रहे हैं, 'जब भी याद करोगे, फिर आ जाउँंगा।'
"ठीक है गिरदा, अपना ख्याल रखना।"
गिरदा ने शायद कहा, 'अब तो दाज्यू मैं समय का हिस्सा हो गया हूँ। समय ही मेरा ख्याल रख रहा है। और, आप जानते ही हो- समय तो सृष्टि का हिस्सा ठैरा….।'
"एक मिनट गिरदा। आपने क्या कहा सृष्टि ? अरे, सृष्टि की रचना की आप क्या बढ़िया व्याख्या कर गए हैं अपने नाटक 'नगाड़े खामोश हैं' में:-
(घ्यान कुटि, घ्यान कुटि, घ्यान कुटि दु दुंग दुंग !….)
जिसने इंड से पिंड और पिंड से ब्रह्मांड रचा क्या किया ?
कि सुनहरे-रुपहले नर और मादा गरुड़ों की सर्जना की
कि जिनका अंड फूटने से ब्रह्मांड की रचना हुई…
'तो आब हिटौं (चलूं) मैं आपण समय में ?'
"ठीक है गिरदा, आपके समय को सलाम।"
और, गिरदा अंतर्धान होकर अपने समय में चले गए।
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