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Thursday, August 26, 2010

Fwd: राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय



---------- Forwarded message ----------
From: reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
Date: 2010/8/26
Subject: राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय
To: alok putul <alokputul@gmail.com>


राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय


फ्रांज फैनन ('दि रेचेड ऑफ दि अर्थ') बताते हैं कि यूरोप खुद तीसरी दुनिया की सृष्टि है. उपनिवेशों और अन्य उत्पीड़ितदेशों के बौद्धिक समुदाय का एक हिस्सा न सिर्फ उन दिनों पश्चिम में प्रचलित विभिन्न विचाशाखाओं से गहरे रूप में प्रभावित था और उन्हीं की रोशनी में, उन्हीं के नक्शेकदम पर अपने समाज की भावी तस्वीर देखता था, बल्कि उसकी नजर में मानवजाति में जो भी उदात्त है, वरेण्य है, उन सब का मूर्त्तिमान रूप था यूरोप.

पूरा पढ़िएः http://hashiya.blogspot.com/2010/08/blog-post_26.html

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Nothing is stable, except instability
Nothing is immovable, except movement. [ Engels, 1853 ]

राष्ट्रवाद और हिंदी समुदाय

Posted by Reyaz-ul-haque on 8/26/2010 05:58:00 PM राष्ट्र, आधुनिकता, समुदाय और इतिहास लंबे समय से विवादग्रस्त विषय रहे हैं. प्रस्तुत लेख हिंदी समुदाय और उससे संबंधित इतिहास की पृष्ठभूमि की टोह में इन अवधारणाओं से पुनः दो-चार होते हुए इस संबंध में नई सोच को प्रस्तावित करता है। इस लेख की कई स्थापनाओं से बहस व असहमतियां हो सकती हैं. हम उन बहसों और असहमतियों को सार्थक चर्चा के लिए आमंत्रित करते हैं। -संपादक, हंस


प्रसन्न कुमार चौधरी

राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद
सन 1648. तीस साला (1618-1948) युरोपीय युद्ध का अंत वेस्टफेलिया की संधि में हुआ. इस युद्ध में एक ओर कैथोलिक झंडे तले पोप की अगुवाई में स्पेन और आस्ट्रिया का हैब्सबर्ग राजघराना था और उसके साथ कैथोलिक जर्मन राजकुंवर थे, तो दूसरी ओर जर्मन प्रोटेस्टेंट राज्यों के साथ बोहेमिया, डेनमार्क, स्वीडन और नीदरलैंड्‌स के प्रोटेस्टेंट राज्य थे, धर्म सुधार आन्दोलन की पृष्टभूमि में चले इस युद्ध का हृदयस्थल जर्मन क्षेत्र था. इस युद्ध की खास बात यह थी कि कैथोलिक फ्रांस प्राटेस्टेंट राज्यों के पक्ष में उतर आया था. फ्रांस के इस कदम के पीछे हैब्सबर्ग घराने के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता थी. वेस्टफेलिया की संधि ने जर्मनी के बंटवारे पर मुहर लगा दी थी. बाद में, नेपोलियन के पतन के बाद संपन्न वियेना कांग्रेस (1815 ई.) ने भी जर्मनी के बंटवारे को जारी रखा.

बहरहाल, इसी वेस्टफैलियन शांति से यूरोप में राष्ट्र-राज्यों वाली व्यवस्था अस्तित्व में आई. लेकिन इस 'शांति' को ऑरवियन डबलस्पीक के रूप में लिया जाना चाहिए. वेस्टफैलियन व्यवस्था ने राष्ट्र-राज्यों के बीच वर्चस्व के लिए, यूरोप में और उपनिवेशों में, युद्धों के एक नए सिलसिले का आगाज किया, जो अनेक छोटे-छोटे युद्धों, नेपोलियन के अभियानों, फ्रैंको-प्रशियन युद्ध (1870-71) से होते हुए बीसवीं सदी में दो विश्व-युद्धों तक, ओर उसके बाद भी, जारी रहा.

राष्ट्र-राज्यों के रूप में यूरोप के नए उदीयमान मध्यवर्ग (बुर्जुआ वर्ग) को आखिरकार संप्रभुता का वह माध्यम मिल गया था जिसके लिए वे लंबे समय से संघर्ष करते आ रहे थे. मजहबी सोपानों पर आधारित संप्रभुता का सामंती स्वरूप उनके विकास में बाधक था और उससे छुटकारा पाने के क्रम में संप्रभुता के कुछ संक्रमणकालीन रूप भी सामने आए-खासकर निरंकुश राजतंत्रों के शासन-काल में.

राष्ट्र-राज्यों के विकास की इसी प्रक्रिया में राष्ट्रवाद की विचाधारा अस्तित्व में आई. राष्ट्र को इस ऐसे समुदाय के रूप में परिभाषित किया गया जिसकी समान भाषा हो, एक खास भौगोलिक क्षेत्र में जिसके लोगों के बीच रक्त-संबंधों का एक जैविक नैरंतर्य हो, जीविकापार्जन की प्रक्रीया में एक समान ऐतिहासिक अनुभव हो, और इन सबके परिणामस्वरूप जिनका एक समान मनोवैज्ञानिक गठन हो. पंथ पर आधारित संप्रभुता का स्थान अब राष्ट्रीय संप्रभुता ने ले लिया.

राष्ट्रवाद ने यूरोप के नए पूंजीपति वर्ग को अपना घरेलू (राष्ट्रीय) बाजार संगठित और संरक्षित करने का तथा 'राष्ट्रीय हित' के लिए दूसरे देशों तथा उपनिवेशों पर अपना आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने का एक सशक्त वैचारिक आधार प्रदान कर दिया. राष्ट्र-राज्य के साथ-साथ एक अमूर्त राष्ट्र-जनता का भी निर्माण किया गया-एक ऐसी राष्ट्र-जनता जिसके हित के लिए, उसके गौरव और सम्मान के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहती है. इस तरह राष्ट्र के अंदरूनी भेदों, टकरावों और संघर्षों को पृष्ठभूमि में धकेलकर इस वर्ग ने अपने वर्चस्व के हित में, देश और विदेश में, समय-समय पर अमूर्त राष्ट्र-जनता की मूर्त राष्ट्र-जनता के रूप में गोलबंदी की. नवजागरण, ज्ञानोदय और धर्म-सुधार के साथ-साथ राष्ट्र-राज्य भी आधुनिक युग का प्रतीक बन गया.

कुल मिलाकर, सामंतवाद के पराभव के साथ यूरोप में जिस नए, आधुनिक युग की शुरूआत हुई, उसकी शिनाख्त निम्नलिखित परिघटनाओं से की जाती है- नवजागरण, धर्म-सुधार, ज्ञानोदय, न्यूटोनियन (वैज्ञानिक) क्रांति, मैन्युफैक्चरिंग और आगे चलकर औधोगिक क्रांति, विश्व-व्यापार और उपनिवेशीकरण, बड़े पैमाने पर शहरीकरण और नागर जीवन, राष्ट्र-राज्य, सेक्युलर विचारधाराओं का उत्थान, हिंसात्मक जन क्रांति, गणतंत्रवाद, गद्य लेखन और खासकर उपन्यास विधा का विकास.

राष्ट्रवाद और यूरोप


राष्ट्रवाद की विचारधारा ने सर्वप्रथम यूरोप में ही वर्चस्व के लिए युद्धों के एक नए युग का सूत्रपात कर दिया. यूरोप के कमजोर राष्ट्रों को वर्चस्वशाली राष्ट्रों की बंदरबांट का शिकार बनना पड़ा.
    यूरोप का एक भी देश ऐसा न था, जहां दूसरी राष्ट्रीयता के लोग न बसे थे. उनमें से तो अधिकांश सैकड़ों वर्षों के इतिहास में उन राष्ट्रों के साथ इस तरह घुलमिल गए थे कि अपने मूल राष्ट्र-राज्यों में वापस जाने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे. इतिहास में विभिन्न कारणों से आबादी का स्थानांतरण होता रहा है-खासकर, जीविकोपार्जन के लिए अधिक उपयुक्त स्थल की तलाश में, या फिर किसी शासकीय दमन से बचने के निमित. फलतः राष्ट्र-राज्यों के सीमाएं प्रायः संबंधित राष्ट्रीयताओं की स्वाभाविक सीमाओं से मेल नहीं खातीं. जर्मन और फ्रेंच भाषी अच्छी-खासी आबादी जर्मनी और फ्रांस के बाहर बसी थी. फ्रांस के ब्रितानी में केल्ट आबादी निवास करती थी. ब्रिटेन में हाइलैंड गेल्स और वेल्स आबादी थी जो निस्संदेह इंगलिश राष्ट्रीयता से भिन्न थी. स्विट्‌जरलैंड में अच्छी-खासी संख्या में जर्मन और फ्रेंच रहते थे. पोलैंड में मुख्य पोल आबादी के साथ उत्तरी (बाल्टीक) प्रदेशों में लिथुआनियन बसते थे, तो पूरब में 'व्हाइट रसियन्स' और दक्षिण में 'लिटिल रसियन्स' निवास करते थे.

    उपर्युक्त तथ्यों से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्र-राज्य के सिद्धांत ने किस तरह यूरोप की तत्कालीन प्रमुख शक्तियों के हाथों विभिन्न देशों में हस्तक्षेप का शक्तिशाली हथियार सौंप दिया था. पैनस्लाविज्म के नाम पर, राष्ट्रीयताओं के उसूल की दुहाई देकर, रूस ने पूरे पूर्वी यूरोप में-सर्ब, क्रोट, रूथेनियन, स्लोवाक, चेक, और तुर्की, हंगरी और जर्मनी में कभी बसी स्लाव आबादी वाले क्षेत्रों में-अपने पंजे फैला द्यरखे थे. एक देश में बसे दूसरी राष्ट्रीयता के लोग वर्चस्व की लड़ाई के मोहरे बना दिए गए और इन 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों' को शक की निगाह से देखा जाने लगा. यहां, इस छोटे आलेख में, तत्कालीन यूरोप की पूरी तस्वीर रखना तो संभव नहीं, तथापि उदाहरण के बतौर पोलैंड का संक्षिप्त जिक्र किया जा सकता है.

    रूस, प्रशिया और आस्ट्रिया ने तीन बार (1772, 1793 और 1795 में) पोलैंड का आपस में बंटवारा किया. पोलैंड का यह बंटवारा जिस तरह संपन्न हुआ, वह भी कम दिलचस्प नहीं. अठारहवीं सदी फ्रेंच एनलाइटेनमेंट (ज्ञानोदय) की सदी भी थी. विदेरो, वाल्टेयर, रूसो और अन्य फ्रांसीसी विचारकों ने यूरोप में 'ज्ञानोदय' का जो आभामंडल तैयार कर रखा था, उससे रूस भी अछूता नहीं था. रूस की जारीना कैथरीन द्वितीय ने पोलैंड के विघटन के पक्ष में 'सेलिब्रिटी इंडोर्समेंट' की पूरी व्यवस्था कर रखी थी. थोड़े समय कि लिए ही सही, कैथरीन द्वितीय के दरबार को यूरोप के 'एनलाइटेंड' लोगों का मुख्यालय बना दिया गया-खासकर फ्रेंच विचारकों का. वह मास मीडिया का युग नहीं था, फिर भी जारीना ने यूरोपीय जनमत का पूरा ख्याल रखा. उसी दरबार में जारीना ने अपने राष्ट्रीयता के उसूल मजहबी सहिष्णुता और उदारवादी विचारों की घोषणा की. महारानी का जादू ऐसा चला कि खुद वाल्टेयरा और अन्य फ्रेंच विचारकों ने कैथरीन की प्रशंसा में कसीदे पढ़े, उदारवादी विचारों का हृदय-स्थल और मजहबी सहिष्णुता का अलमबरदार घोषित कर दिया.

    'ज्ञानोदय' द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीयता के उसूल को रूस, प्रशिया और आस्ट्रिया द्वारा जो व्यावहारिक रूप दिया गया, उसका परिणाम हुआ पोलैंड का विघटन. पोलैंड के खात्मे के खिलाफ यूरोप में कहीं कोई आवाज नहीं उठी. उल्टे, लोग इस बात पर चकित थे कि रूस ने प्रशिया और आस्ट्रिया के इस भूभाग का इतना बड़ा टुकड़ा देकर कितनी दरियादिली दिखाई है.

    इस प्रसंग का समापन करने से पहले रूस की प्रगतिशील उदारता और मजहबी सहिष्णुता पर भी नजर दौड़ाई जा सकती है. यह सर्वविदित है कि तत्कालीन रूस में भूदास-प्रथा अपनी बर्बरताओं के साथ विद्यमान थी, रूस अपने आस-पड़ोस के देशों को हड़पता रहता था या हड़पने की फिराक में रहता था, ग्रीक ऑथोडॉक्स चर्च के अलावा रूस में किसी और मजहब पर पाबंदी थी और पंथद्रोह अपराध माना जाता था. यही रूस पोलैंड में मजहबी सहिष्णुता का हिमायती बन बैठा था. पोल रोमन कैथेलिक थे, लेकिन पूर्वी प्रांतों के 'लिटिल रसियन्स' ग्रीक मतावलंबी थे. ये ग्रीक मतावलंबी मुख्यतः भूदास थे और उनके स्वामी मूख्यतः रोमन कैथोलिक. इन्हीं 'उत्पीडीत ग्रीक मतावलंबी लिटिल रसियन्स' के हित में रूस ने हस्तक्षेप का दावा किया था. पोलैंड के अधिग्रहण के बाद ये भूदास पूनः अपने स्वामियों के हवाले कर दिए गए. ('दि कॉमनवेल्थ' के संपादक के नाम फ्रेडरिक एंगेल्स का पत्र : 31 मार्च, 1866.)

    प्रसंगवश, 1937 में हिटलर ने जब तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया के जर्मन बहुल सुडेटनलैंड पर कब्जा कर लिया, तो ब्रिटेन ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलैन की इस कार्रवाई को इतिहास में नाजीवाद के प्रति तुष्टीकरण की संज्ञा दी जाती है. कहा जाता है कि नाजियों के विस्तार की दिशा को पूरब (सोवियत संघ) की ओर मोड़ देने के लिए ऐसा किया गया. बहरहाल, इस तुष्टीकरण का एक कारण खुद यूरोपीय राष्ट्रवाद था. इस राष्ट्रवादी नीति के तहत यूरोप के कई प्रभावशाली राष्ट्र-राज्य राष्ट्रीय समायोजन या पुनर्गठन के तहत ऐसी कार्रवाई करते रहते. ब्रिटेन खुद आयरलैंड को आजादी देने के बाद भी उसके उत्तरी हिस्से (अल्सटर) पर इसलिए कब्जा जमाए हुए था कि वह प्रोटेस्टेंट-बहुल क्षेत्र था, जबकि आयरलैंड की मुख्य आबादी रोमन कैथोलिक थी. इस प्रकार, नाजियो की कार्रवाई का विरोध करने का उनके पास कोई नैतिक आधार नहीं था.

यूरोप और शेष दुनिया

शेष दुनिया में यूरोप के वर्चस्वशाली राष्ट्र-राज्यों ने जो कहर ढ़ाया, उसका ब्यौरा कई खंडों में भी नहीं समा सकता. राष्ट्र के रूप में यूरोपीय देशों की 'आत्म-पहचान' के शेष दुनिया के अनेक जनों और देशों की पहचानों को रौंदने तथा मिटाने की प्रक्रिया से अभिन्न रूप से जुड़ी थी. यहां उसकी एक संक्षिप्त झलक ही प्रस्तुत की जा सकती है.

    1451 से 1600 ई. के बीच करीब पौने तीन लाख अफ्रीकी दासों को यूरोप और अमेरिका भेजा गया. सत्रहवीं सदी में (खासकर कैरेबियाई द्वीपसमूह. में ईख की खेती में बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए) यह संख्या बढ़कर करीब 13,41,000 तक जा पहुंची. अठारहवीं सदी में (1701 से 1810 ई. के बीच) साठ लाख से अधिक अफ्रिकी दासों को अफ्रीका से अमेरिका ले जाया गया. वेस्टइंडीज की उपन्यासकार जमैका किनकैड लिखती हैं कि क्रिस्टोफर कोलम्बस के पांव धरने के बारह साल के भीतर ही इस भूभाग में निवास करने वाले करीब दस लाख लोग मौत के गाल में समा चुके थे. 'अफ्रीका से अमेरिका की समुद्री यात्रा के दौरान जितने अफ्रीकियों को जहाज से समुद्र में फेंक दिया गया, उसे देखते हुए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अटलांटिक महासागर अफ्रीका का ऑशवित्ज था.'

    यूरोपीय राष्ट्रों के बीच अफ्रीका की लूट और उसके औपनिवेशीकरण की प्रतिद्वंद्विता उन्नीसवीं सदी के अंत तक चलती रही. अफ्रीका में तब मौजूद कई साम्राज्यों-अशांति, घना और इदो साम्राज्यों की हस्ती मिटा दी गई. नाइजीरिया की हौसा, योरूबा और इगबो संस्कृतियां भी बर्बरतापूर्वक नई सभ्यता को भेंट चढ़ा ही गई. सोलहवीं सदी के आरंभ में एज्टेक साम्राज्य की राजधानी टेनोखटिटलान (मेक्सिको सिटी) एक भरा-पूरा महानगर था-स्पेन के सेविल या कारडोबा जैसा ही विशाल. सम्राट मोंटेजुमा द्वितीय के इस साम्राज्य की आबादी थी करीब डेढ़ करोड़. 1519 ई. में हरनांडो कोर्टेस की अगुआई में जब एक स्पेनी सैन्यदल यहां पहुंचा, तो वे जंगली लोगो की जगह अत्यंत खूबसूरत, मंदिरों तथा पिरामिंडों वाले महानगर को देखकर चकित रह गए. जलापूर्ति की जटिल प्रणाली से युक्त इस महानगर के बाजार में दुनिया भर में मिलने वाली लगभग सारी चीजें सजी थीं- और औसतन साठ हजार लोग वहां रोज खरीद-बिक्री के लिए जमा होते. इस डेढ़ करोड़ आबादी वाली सभ्यता की अपनी भाषा थी, अपना पंचांग था, अपनी उपासना-पद्धति थी और अपनी केंद्रीय सरकार थी. मोंटेजुमा द्वितीय के विशाल राजप्रासाद में पूरा स्पेनी सैन्यदल समा सका  था.

    'सभ्य' यूरोप के कोर्टेस ने 'बर्बर' अमेरिका के मोंटेजुमा को अपना सारा सोना सौंप देने या फिर जान से हाथ धोने की धमकी दी. मोंटेजुमा इस तरह का आदमी पहले कभी नहीं देखा था. थोड़े असमंजस के बाद उसने अपना सारा सोना कोर्टेस को सौंप दिया. लेकिन कोर्टेस ने अपना वायदा नहीं निभाया. उसने मोंटेजुमा को मार डाला और टेनोखटिटलान की घेराबंदी कर दी. सारे मार्ग बंद कर दिए गए. जलापूर्ति प्रणाली अवरूद्ध कर दी गई. अस्सी दिनों के भीतर इस महानगर के दो लाख चालीस हजार बाशिंदे भूख से तड़पकर मर गए. दो वर्षों के अंदर (1521 ई. तक) पूरा एज्टेक साम्राज्य (जिसके जड़ें ईसा से कई शताब्दी पूर्व तक फैली हुई थीं) धराशायी हो गया.
    करीब ग्यारह वर्षों बाद 1521 ई. में यही कहानी इंका साम्राज्य के साथ दुहराई गई. फ्रांसिस्को पिजारियो की अगुवाई में स्पेनी सेना ने इंका साम्राज्य का सारा सोना हथियाने बाद इंका राजा अताहुआल्पा को मौत के घाट उतार दिया. दो साल के भीतर स्पेनियों ने इंका साम्राज्य को भी नेस्तनाबूद कर दिया. (ओरी ब्रेफमैन और रॉड ए. बेकस्ट्रॉम, 'दि स्टारफिश एंड दि स्पाइडर', लंदन, 2006) भारत, चीन और एशिया के अन्य देशों के उदाहरण हम यहां छोड़ दे रहे हैं.
    लूट, फरेब, धोखधड़ी, जनसंहार और अकल्पनीय बर्बरता के जरिए 'सभ्य' यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्र-राज्यों ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका में अपनी विजय पताका फहराई.
   
राष्ट्रवाद की सैद्धांतिकी


राष्ट्र-राज्यों के विकास के साथ-साथ राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता संबंधी सैद्धांतिकी का भी विकास हुआ. इस सैद्धांतिकी में यूरोप के लगभग सभी प्रमुख विचारकों ने अपना योगदान दिया. तथापि इस संदर्भ में जो नाम प्रमुखता से उद्‌धृत किए जाते रहे हैं, वे हैं : ज्यों बोदिन, गियामबातिस्ता विचो, योहान्त गॉटफ्राइड हर्डर, एमानुएल-जोसेफ सिएस,थॉमस हॉब्स, हेगेल, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, मैक्स वेबर, लेनिन, रोजा लक्जमर्ग आदि. इस सैद्धांतिकी के विभिन्न पक्षों पर चर्चा में प्रायः जे.एस. मिल, अंटोनियो ग्राम्शी, मिशेल फूको, थियोडोर अदोर्नो और बेनिडिक्ट एंडरसन आदि भी उद्‌धृत किए जाते हैं. चूंकि राष्ट्र यूरोप में आधुनिकता का अंदरूनी अंतरविरोध भी इस विमर्श में प्रतिबिंबित हुआ.
   इतिहास में जीविकोपार्जन की विभिन्न रूपों में पुनस्संगठन होता रहा है. शिकारी और फलसंग्राहक दौर में मातृसत्ताक और पितृसत्ताक जनों एवं आगे चलकर, जनों के संघ के रूप में आई. मानव समुदाय का आदिम रूप सामने आया. जनों की क्षेत्रीय संप्रभुता सरदारी-प्रथा (चीफडम) के रूप में अस्तित्व में आई. मानव समुदाय के इस रूप की विभिन्न भौगोलिक अंचलों में अपनी विशिष्टताएं भी रहीं. कृषि युग में कृषि-कर्म-जनित श्रम-विभाजनों पर आधारित जनपदीय समाज के रूप में, मानव समाज का पुर्नगठन हुआ, जिसकी मूल इकाई ग्राम थे. इस युग में भू-स्वामियों की संप्रभुता जनपदीय राजतांत्रिक प्रणाली और फिर साम्राज्य के रूप में सामने आई. विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में इस प्रणाली के भी विशिष्ट रूप विकसित हुए. रक्त-संबंधों पर आधारित जनों के सदस्यों का कृषि युग में राजा की प्रजा के रूप में रूपांतरण हुआ.

    विनिमय के युग में यूरोप के पूंजीवादी देशों में, मानव समुदाय का पुनस्संगठन राष्ट्रों के रूप में सामने आया और इस नए वर्ग की संप्रभुता राष्ट्र-राज्य, और इन राष्ट्र-राज्यों की औपनिवेशिक प्रणाली के रूप में फलीभूत हुआ. बहरहाल, मानव समुदाय का यह रूप यूरोप की विशिष्ट परिस्थियों की उपज था, जहां सामंती कृषि युग में रोमन चर्च संप्रभुता सर्वोपरि थी-मजहबी सोपानों पर आधारित जनपदीय राज्य तथा रजवाड़े चर्च की संप्रभुता के अधीन थे. (दरअसल जर्मनी के एकीकरण की दिशा मे उठाया गया पहला महत्वपूर्ण कदम 1834 ई. में कई जर्मन राज्यों द्वारा गठित 'कस्टमस यूनियन' था.)
   
इस प्रकार, राष्ट्र एक ऐतिहासिक उपज था. वह यूरोप मे, पूंजी के युग में, मानव समुदाय का एक विशिष्ट रूप था. लेकिन उसे मानव समुदाय के 'स्वाभाविक रूप' के बतौर पेश किया गया जैसे मानव जाति ने समुदाय के रूप में अपना अस्तित्व का स्वाभाविक रूप आखिरकार पा लिया था. इसे विशिष्ट युरोपीय रूप को भी सर्विक रूप देते हुए इन पूंजीवादी राष्ट्र-राज्यों ने इसे शेष दुनिया पर भी थोपने की कोशिश की. इस कोशिश, और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी राष्ट्रों की प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप अफ्रीका के कई देश-नाइजीरीया, कांगा, अंगोला, रूवांडा, बुरूंडी आदि लंबे समय तक रक्तपातपूर्ण गृहयुद्धों का शिकार बने जिनमें दसियों लाख आबादी मौत के घाट उतार दी गई. अन्य जगहों पर भी कमोवेश ऐसी ही स्थिति थी. भारत-पाक विभाजन, इजराइल-फिलिस्तीन समस्या आदि भी इसी का परिणाम था. अफ्रीका में निर्यात किया गया राष्ट्र-राज्य आज सोमालिया में दम तोड़ रहा है. अफगानिस्तान और इराक में 'राष्ट्र-निर्माण' का कहना ही क्या?

    अतः माइकल हार्ट और अंटोनियो नेग्री ने ठीक ही लक्षित किया है : सवाल यह नहीं है कि राष्ट्र. यह कल्पित समुदाय है अथवा नहीं, बल्कि यह है कि समुदाय के रूप में मल्पना का एकमात्र जकरया बन गया राष्ट्र. यह कल्पना की दरिद्रता थी-उसे बस एक खास रूप में सीमित कर देना था (माइकल हार्ट और अंटोनियो नेग्री, 'एम्पायर,' लंदन, 2001) विनिमय के युग में भी मानव-समुदाय देश-काल भिन्नताओं के कारण अलग-अलग रूप ले सकता है और उसे लेना चाहिए-इस संभावना को कल्पना के स्तर पर भी खारिज कर दिया गया.
   
उपर्युक्त सोच का स्वाभाविक परिणाम यह था कि यूरोप के कतिपय राष्ट्रवादी विचारकों की नजर में स्वतंत्रता के बाद भारत का बिखराव, उसका 'बाल्कनाइजेशन' तय माना गया. उनके अनुसार, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष में बनी भारत की विभिन्न राष्ट्रीयताओं की एकता स्वतंत्रता के बाद टिकने वाली नहीं थी. इसीलिए उन्हें उम्मीद थी कि स्वतंत्रता के कुछ दशकों बाद ही भारत में कई स्वाधीन राष्ट्र-राज्य बन जाएंगे.
   
बहरहाल, आजादी के करीब बासठ वर्षों बाद, कश्मीर घाटी और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों की छोड़कर, शेष भारत की एकता, अपनी तमाम विविधताओं के बावजूद और सुदृढ़ हुई है. दूसरी ओर यूरोप में 1648 ई. के बाद से ही शृरू राष्ट्र-राज्यों के बनने-बिगड़ने का दौर साढ़े तीन सौ साल बाद आज भी बदस्तूर जारी है. बीसवीं सदी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में सबसे ज्यादा नए राष्ट्र-राज्य यूरोप में ही बने हैं. कई पश्चिमी लेखक इसे यूरोप के 'बाल्कनाइजेशन' का दौर भी कहते हैं.

    1922 ई. में रूस के जो पूर्व-उपनिवेश 'स्वेच्छा से' सोवियत संघ में शामिल हुए थे, वे 1992 ई. के बाद (सोवियत संघ के पतन की स्थिति में) 'स्वेछा से' राष्ट्रो के आत्म-निर्णस के अधिकार का उपयोग करते हुए, रूस से नाता तोड़ बैठे. फलतः पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में अनेक राष्ट्र-राज्यों का पुनरोदय हुआ-एस्टोनिया, लाटविया, लिथुआनिया, बेला रूस (बेला रूस को पहले भी संयुक्त राष्ट्र संघ में वोट का अधिकार प्राप्त था), उक्रेन, मोल्डाविया, जार्जिया, अजरवैजान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान. खुद रूसी फेडरेशन को भीषण रक्तपूर्ण चेचेन विद्रोह से निपटना पड़ा. इन राष्ट्र-राज्यों के पुनरोदय की पृष्ठभूमि में यह क्षेत्र अमेरिका-नाटो और रूस के बीच तनावपूर्ण राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का क्षेत्र बना हुआ है. जार्जिया के दो बागी प्रदेशों अबखाजिया तथा दक्षिण ओसेटिया को लेकर रूस-जार्जिया युद्ध में, और सर्बिया से स्वतंत्रता की घोषणा कर चुके कोसोवो में भी, यह खुलकर प्रकट हुआ. उक्रेन में भी गैलीसिया, बुकोविना और उप-कार्पेथियन क्षेत्र में बसी आबादी (जो मूल उक्रेनियन आबादी से भिन्न है) पृथक राष्ट्र-राज्य के लिए प्रयासरत है. उक्रेन का ट्रांसनीस्त्र क्षेत्र रूस के सैनिक पहरे में है.

    कम्युनिस्ट शासन की समाप्ति के बाद युगोस्लाविया कि भी सारे संघटक अब स्वाधीन राष्ट्र-राज्य बन चुके हैं-सार्बिया, मोंटेनीग्रो, क्रोएशिया, स्लोवेनिया, बोस्निया-हर्जेगोविना और मेसीडोनिया. इन राष्ट्र-राज्यों के गठन की प्रक्रिया अनेक जगहों पर, खासकर बोस्निया-हर्जेगोविना और कोसोवो में, काफी रक्तपातपूर्ण रही. स्वाधीन मेसीडोनिया और यूनान के मेसीडोनिया प्रदेश के एकीकरण की मांग के कारण मेसीडोनिया-यूनान संबंध भी तनवग्रस्त है. चेकोस्लोविया भी अब दो राष्ट्र-राज्यों-चेक और स्लोवाकिया में बंट चुका है.

    बहरहाल, यह प्रक्रिया सिर्फ पूर्व कम्युनिस्ट-शासित देशों तक ही सीमित नहीं हैं जैसा कि हम पहले. देख चुके हैं, यूरोप में राष्ट्र-राज्यों के स्वाधीन विकास ने अनेक राष्ट्रीय युद्धों और बीसवीं सदी में यूरोप की धरती पर दो-दो विश्वयुद्धों को जन्म दिया. 1950 के दशक में यूरोपीय आर्थिक समुदाय, और फिर यूरोपिय संघ के गठन का एक उद्देश्य नाजीवाद जैसी उग्र राष्ट्रीय प्रवृतियों पर अंकुश लगाना भी था. तथापि, यूरोपीय संघ के गठन ने भी राष्ट्रीयता-जनित आंदोलन को रोकने में कामयाबी हासिल नहीं की. उल्टे ऐसे आंदोलन को एक यूरोपीय मंच हासिल हो गया. छोटी-छोटी राष्ट्रीयताएं जहां अपने-अपने मूल राष्ट्र-राज्यों से पृथक होना चाहती हैं, वहीं वे यूरोपीय संघ तथा नाटो का सदस्य बने रहकर यूरोप के एकीकृत बाजार तथा अपनी सुरक्षा का लाभ भी उठाना चाहती हैं.

    यूरोपीय संघ का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में है. फ्रेंच-भाषी ब्रुसेल्स डच-भाषी फ्लेमिंग्स और फ्रेंच-भाषी वलूंस के बीच बढ़ती खाई अब विभाजन के कगार पर जा पहुंची है- फ्लेमिंग्स अब स्वाधीन फ्लैंडर्स की मांग की ओर बढ़ रहे हैं. स्पेन में बास्क पृथकतावादी आंदोलन काफी पुराना है. इटली के लोम्बार्डी में भी पृथकता की भावना बलवती हुई है.

1707 ई0 में 'एक्ट ऑफ यूनियन' के जरिए स्कॉटलैंड और इंगलैंड ने अपनी-अपनी पृथक संसदों की जगह पूरे ग्रेट ब्रिटेन के लिए संसद की स्थापना की थी. करीब तीन सौ साल बाद युनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) के स्कॉट अब स्कॉटलैंड की आजादी की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं.

राष्ट्र-राज्य अपने अंदरूनी अंतरविरोधों और सूचना-संचार क्रांति तथा ज्ञान-अर्थव्यवस्था-जनित वैश्वीकरण के दबावों के कारण आज अपनी प्रासंगिकता के प्रश्नों से जूझ रहा है. पश्चिम के ही कई विचारक (जिनमें 'एम्पायर' के लेखक भी शामिल हैं) राष्ट्र-राज्य को अप्रासंगिक मानने लगे हैं, या फिर उसकी भूमिका को गौण अथवा काफी सीमित मानते हैं. राष्ट्र-राज्यों के विश्व संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका पहले भी कोई खास सशक्त नहीं थी, अब और भी दयनीय हो गई है. एक ओर उसके पुनर्गठन की मांग जोर पकड़ रही है, वहीं जी-आठ, जी-बीस, शांघाई-पांच (शांघाई सहयोग संगठन) जैसे वैश्िवक और क्षेत्रीय संगठनों की सक्रियता बढ़ी है । आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्यावरण-संबंधी, आदि विभिन्न क्षेत्रों में वैश्विक, क्षेत्रीय तथा द्विपक्षीय सम्मेलनों, संघियों तथा संस्थाओं के जरिए नए शक्ति समीकरण बनाने के प्रयासों को साफ-साफ लक्षित किया जा कसता है. मानव समुदाय का पुनस्संगठन नए-नए रूपों में सामने आ रहा है और इंटरनेट उसका माध्यम बन रहा है. वर्ल्ड सोशल फोरम से लेकर इंटरनेट के चैट-रूम्स तक, जमीनी स्तर के विविध संगठनों से लेकर ब्लॉग्स, फाइल शेयरिंग साइट्‌स, यू ट्‌युब, विकीपीडिया, सेकंड लाइफ, ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर मूवमेंट तथा इनेवेशन कम्युनिटीज तक नए-नए समुदाय बन रहे हैं और वर्चुअल तथा रीयल का एक-दूसरे में रूपांतरण हो रहा है. (एरिक वॉन हिप्पेल, 'डिमोक्रेटाइजिंग इन्नोवेशन,' लंदन, 2005, ओरी ब्रेफमैन और रोडए, बेकस्ट्रॉम, वही,)

इन चंचल समूहों की एक खास लाक्षणिकता उनकी अंदरूनी संरचना में विविधता का होना है. आज किसी व्यक्ति, संस्था और राजनीतिक आंदोलन का एक प्रमुख यूएसपी (यूनिक सेलिंग प्रोपोजिशन) उसकी एकल राष्ट्रीयता नहीं, उसमें अंतर्निहित बहुलता अथवा विविधता है. पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा की ऐसी ही छवि आकर्षण का केंद्र बनी-केन्याई मूल के अफ्रीकी-अमेरिकन मुस्लिम पिता, श्वेत अमेरिकी क्रिश्चियन मां, इंडोनेशियाई सौतेली बहन, आदि.

    राष्ट्रवाद के पराभव का एक और लक्षण क्षुद्र प्रतीकों में उसका सिमटना है. लहसुन, फ्रेंच फ्राइ आदि राष्ट्रवाद के प्रतीक बना दिए गए हैं. ब्रिटेन की महारानी जब इटली के दौरे पर गईं, तो वहां उन्होने खाने में लहसुन नहीं लेने की घाषणा की. ब्रिटेन में भारतीय करी के बढ़ते क्रेज के बरअक्स महारानी का यह कदम ब्रिटिश राष्ट्रवाद का प्रतीक माना गया-नो गार्लिक नेशलिज्म! इराक के मामले में सहयोग नहीं करने के कारण कुछ अमेरिकियों ने फ्रेंच फ्राइ का बहिष्कार कर फ्रांस के प्रति अपना राष्ट्रवादी रोष प्रकट किया.

    राष्ट्र-राज्यों के पतन की स्थिति में विश्व के कई अंचलों में अराजक दलों के रूप में हथियारबंद गिरोहों, युद्ध-सरदारों और आतंकवादी समूहों का बोलबाला बढ़ा है. (अमेरिका काफी पहले से ही विश्व के कुछ हिस्सों में अपने 'राष्ट्रीय हितों' का कार्यान्वयन भाड़े के गिरोहों का 'आउटसोर्स' करता रहा है.) ये 'नन-स्टेट एकटर्स' किसी क्षेत्र की अनसुलझी समस्याओं के साथ जुड़कर कहीं-कहीं राष्ट्र-राज्य के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहे हैं.
    राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की विश्व में अब भी महतवपूर्ण भूमिका बनी हुई है, लेकिन यूरोप की जिन विशिष्ट स्थितियों में उनका उत्थान हुआ, लगता है, उसका एक चक्र अब पूरा होने वाला है.

यूरोप में राष्ट्रवाद को चुनौती


यूरोप में राष्ट्रवादी विचारधारा को आरंभ से ही चुनौती मिलनी शुरू हो गई थी. कहने की जरूरत नहीं कि यूरोप के बुर्जुआ आंदोलन में हमेशा एक रैडिकल पक्ष भी रहा जिसका सामाजिक आधार सामान्य मेहनतकश समूह थे-कारीगर, छोटे व्यवसायी, मजदूर, गरीब किसान, शहरी मध्यवर्ग का निचला हिस्सा आदि. ये समूह तब विभिन्न गुप्त सम्प्रदायों, क्रांतिकारी तथा कम्युनिस्ट दलों और रैडिकल राजनीतिक आंदोलन में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कर रहे थे. इंगलैंड मे लेवलर्स के पीछे डिगर्स थे,जर्मनी में मार्टिन लूथर (1483-1546) के पीछे थॉमस मुंजर (1498-1525) थे, धर्म सुधार आंदोलन के दौरान स्विट्‌जरलैंड, जर्मनी और नीदरलैंड्‌स में एनोबैपटिस्ट थे, तो फ्रांस में जेकोबिंस और फ्रांक्वा नोएल बेब्यूफ (1760-1797) थे. इसक अलावा, फ्रीमेजन्स तथा क्वेकर जैस संप्रदाय थे. आगे चलकर चार्टिस्ट, कम्युनिस्ट और समाजवादी-जनवादी दल सामने आए. इन आंदोलनों ने लोकप्रिय संप्रभुता की अवधारण को बल पहुंचाया, राष्ट्र की एकरूपता को चुनौती दी और कालक्रम में राष्ट्रों के जनतांत्रीकरण का मार्ग प्रशस्ता किया. तथापि जनतांत्रिक संस्थाओं का विकास बीसवीं सदी के प्रथम अर्धांश तक जारी रहा-यहां तक कि सार्विक वयस्क मताधिकार भी बीसवीं सदी में आकर ही फलीभूत हुआ.

    इसके अलावा, यूरोप में ही राष्ट्रवादी विचारों के समानांतर ऐसी विचार प्रणालियां भी सामने आई, जिनमें राष्ट्र को गौण महत्व ही दिया गया. अधिक से अधिक उसे एक संक्रमणकालीन भूमिका ही प्रदान की गई. राष्ट्र को मानव समुदाय का स्वाभाविक रूप मानने के बजाय पंथ-समुदायों को, वर्ग को, या फिर सभ्यतामूलक समाजों को मानव समुदाय का अग्रणी रूप माना गया. ये सारी श्रेणियां राष्ट्रोपरि श्रेणियां थीं. राष्ट्र-चेतना या सभ्यतामूलक चेतना को अधिक तरजीह दी गई. उत्पादक शक्ति और उत्पादन-संबंध के बीच के अंतरविरोध के आधार पर मानव समाज के इतिहास का निरूपण करते हुए मार्क्सवादी वर्गीय अस्मिता और वर्गीय अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर जोर देते हैं. टॉयनबी इतिहास के अपने अध्ययन में मानव समाज की कुल इक्कीस प्रजातियों (स्पीसीज) की खोज करते हैं, जिनमें कुछ मृत हो गई. शेष 'एपरेंटेशन-एंड-एफिलिएशन' के जरिए नए-नए रूपों में अवतरित होती रहीं. जीवित प्रजातियों में उन्होंने (1) पश्चिमी क्रिश्चियन समाज, (2) ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियन समाज, (3) इस्लामी समाज, (4) हिन्दू समाज और (5) फार ईस्टर्न समाज का जिक्र किया है. उनके अनुसार, फार ईस्टर्न समाज (जो खुद सिनिक समाज का उत्तराधिकारी था) दो भागों में बंट गया-मुख्य भाग के रूप में चीनी समाज और शेष कोरियाई-जापानी समाज. इस प्रकार वे राष्ट्र की जगह मानव समाज की इन प्रजातियों को अधिक महत्व देते हैं. हंटिंग्स की सभ्यताओं से संबंधित थीसिस दरअसल टॉयनबी की प्रस्थापनाओं का ही सरलीकृत रूप है. बहरहाल, यहां इन सारी चीजों की पड़ताल में जाना संभव नहीं. उग्र राष्ट्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए जहां अंतरराष्ट्रीय संगठन बने, उनमें समय-समय पर राष्ट्रवाद-जन्य दरारें भी पड़ती रहीं.

इन सबसे आगे बढ़कर, खुद यूरोप में आधुनिकता के मानक समझे जाने वाले सभी संघटक तत्वों (नवजागरण, धर्म-सुधार, ज्ञानोदय आदि) की आलोचनात्मक समीक्षा की गई.
यहां उन सारे विमर्शों का सार-संक्षेप देना भी संभव नहीं. इटली, जो यूरोपीय नवजागरण का केंद्र था, के ही एक विचार बेनेदितो क्रोचे (1866-1852) का एक उद्धरण नमूने के तौर पर पेश हैः 'नवजागरण का आंदोलन एक कुलीनवर्गीय आंदोलन बना रहा और उसका प्रभाव अभिजन-मंडलों तक सीमित रहा. इटली में अभिजन-मंडल ही इस आंदोलन की जननी और धाय दोनों था. वह दरबारी मंडलों ने नीचे नहीं उतरा... दूसरी तरफ धर्म-सुधार आंदोलन में सामर्थ्य थी कि वह जनता के बीच पहुंच सके. लेकिन उसने इसकी कीमत अपने अंतरंग विकास के नाश के रूप में और अपने जीवंत जीवन-तत्वों के मंद और प्रायः अवरूद्ध परिपक्वता के द्वारा चुकाई. ...लूथर... साहित्य और अध्ययन के प्रति उपेक्षा और दुश्मनी का नजरिया अपनाते हैं. इसकी वजह से इरैजमस को यह कहने का साहस हुआ कि जहां भी लूथरवार का राज है, वहां सात्यि की मृत्यु हो जाती है.निश्चित रूप से जर्मन प्रोटेस्टेंटवाद लगभग दो सदियों तक अध्ययन समीक्षा और दर्शन के क्षेत्र में बहुत कुछ अनुर्वर ही रहा...' (प्रसंगवश, ग्राम्शी की वैचारिक यात्रा एक हद तक क्रोचे की आलोचनात्म्क समीक्षा के जरिए ही आगे बढ़ती है.)
उत्तर-आधुनिक विमर्श दरअसल यूरोप की उसी विचार-यात्रा का एक पड़ाव है. यूरोप का अपना आत्मानुसंधान है, उसे उस वैचारिक भंवर से बाहर निकाल लाने की कोशिश जिससे उसका बच पाना काफी होता जा रहा था. चूंकि यह यूरोप (और 'पश्चिम') के समक्ष उत्पन्न वैचारिक चुनौती की उपज है, इसीलिए यह गैर-पश्चिमी देशों का, जिनका ऐतिहासिक अनुभव भिन्न रहा है और जिनकी समृद्ध वैचारिक परंपरा रही है, मार्गदर्शक नहीं हो सकता. आधिक से अधिक हम उनका संदर्भ के रूप में ही इस्तेमाल कर सकते हैं. उत्तर-आधुनिकता की आलोचनात्मक समीक्षा के पूरे क्षेत्र (स्पेस) पर पुनः यूरोप अथवा पश्चिम के वैचारिक वर्चस्व को कायम रखने का एक प्रयास भी है. हम जो (यूरोपीय अर्थो में) आधुनिक नहीं हैं, उत्तर-आधुनिकता भला हमारा मार्गदर्शन कैसे कर सकती है?

कुल मिलाकर, एक खास ऐतिहासिक अवस्था में यूरोप में पनपा राष्ट्रवाद भारतीय समाज के मूल्यांकन का वैचारिक आधार प्रदान नहीं करता. अगर कोई उसे आधार मानकर भारतीय समाज को समझने का प्रयास करेगा, तो वह विभिन्न यूरोपीय चिंतकों की भांति गलत निष्कर्ष पर ही पहुंचेगा.


गैर-पश्चिमी देशों में राष्ट्रवादी विमर्श

राष्ट्रवाद समेत आधुनिकता के विभिन्न पहलुओं की आलोचना का एक बड़ा साहित्य उपनिवेशों, अर्ध-उपनिवेशों और अन्य उत्पीड़ित देशों में मिलता है. इन देशों के प्रबुद्ध लोगों के लिए यूरोप एक विचित्र स्थिति उपस्थित करता रहा. सच है कि यूरोप का कोई एक चित्र, कोई एक पाठ, कोई एक भाष्य नहीं हो सकता था. एक ही साथ, एक ही समय में यूरोप बहुत कुछ था-दादावादी कोलाज की तरह सब कुछ एक जगह. (ओरहान पामुक, 'अदर कलर्स,' लंदन, 2007) नवजागरण भी सच था और बर्बर औपनिवेशीकरण भी, ज्ञानोदय भी सच था और दास व्यापार भी, सुधार आंदोलन भी सच था और उपनिवेशों में जबरन धर्मांतरण भी. औद्योगिक क्रांति भी सच थी, और उपनिवेशों की खुली लूट के जरिए किया गया आदिम संचय भी.
यूरोप (और पश्चिम) सचमुच सम्मोहनकारी था. उसके पास दांते थे, मिल्टन थे, सर्वातीज, शेक्पीयर और गोएठे थे. माइकल एंजेलो और टिशियान थे, राफेल और रेम्ब्रां थे, और सर्वोपति, उसके पासलियोनार्डो दा विंची थे. यूरोप के पास कोपरनिकस थे, गेलीलियो और न्यूटन थे, लिबनीज और कारडानो थे, जेम्स वाट, एडिसन, बेल और फैरेडे थे. बेकन थे, देकार्त्त थे, हाब्स थे, कांट, सिप्नोजा और हेगेल थे. एडम स्मिथ, रिकोर्डो, सिसमोंडी और कार्ल मार्क्स थे. रूसो, दिदेरो बौर वाल्तेयर थे. उसके पास इंगलैंड की क्रॉमवेलियन (1648) और गौरवशाली क्रांति (1688) थी, अमेरिकी स्वातंत्र्य-युद्ध (1776) और फ्रांसीसी राज्य क्रांति (1789) थी. जीवन के हर क्षेत्र में उसके पास आधुनिक मानक थे. यूरोप यूं ही हर नए विचार, नए विज्ञान, नई तकनीक, नए समाज और नई राजनीतिक संस्थाओं का प्रस्थान-बिंदु नहीं बन गया था.

और यही यूरोप शेष दुनिया के लिए सचमुच दुःस्वप्न भी था. जहां-जहां उसके फेमिश्ड रोड कदम पड़े, वह जमीन लहूलुहान हो उठी. जली हुई धरती-बेन ओकरी की 'दि'.

'स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा' के यूरोप ने शेष दुनिया में परतंत्रता, विषमता और नस्लभेद की रक्तरंजित मुहिम छेड़ रखी थी. उसके कई महान साहित्यकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ उसकी इस मुहिम के उत्साही समर्थक थे. दुनिया को 'अंधकार से निकालने' और 'सभ्य बनाने' के अभियान में अगुवाई करने वाले उनके राजनयिक, सैन्य अधिकारी, विचारक और पुरोहित झूठ, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार, नशीले पदार्थों के व्यापार, सोना-चांदी तथा कलाकृतियों की लूट में सानी नहीं रखते थे. थॉमस जेफरन ने अपनी 'नोट्‌स ऑन दि स्टेट ऑफ वर्जीनिया' में लिखा, 'ईश्वर न्यायप्रिय है, इसका ख्याल आते ही, अपने देश के बारे में सोचकर मेरी तो कंपकंपी छूट जाती है.'

वे एक ही साथ महान थे और मक्कार भी, चमत्कारी भी थे और चालबाज भी, ईश्वर भी थे और शैतान भी. पश्चिम के इसी पाखंड पर मार्क ट्वेन ने लिखा था, 'हमारे देश में तीन वर्णनातीत अनमोल चीजें हैं : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अंतरात्मा की स्वतंत्रता और इन दोनों स्वतंत्रताओं पर कभी अमल न करने की चतुराई.'
सच है कि शेष दुनिया के समाजों की अपनी बर्बरताएं थीं, अपनी क्रूरताएं थीं. क्या ये समाज अपनी बर्बरताओं से मुक्ति के लिए यूरोप के आईने में अपना भावी चेहरा देख सकते थे? क्या यूरोप उन्हें अपनी क्रूर सामाजिक रूढ़ियों और संस्थाओं से मुक्त कर स्वतंत्रता, समानता और प्रगति की एक नई दुनिया का साक्षात करा सकता था? ये समाज बार-बार यूरोप के आईने में झांकने की कोशिश करते. लेकिन आईना टूट जाता, टूटे जाईने में उन्हें अपना चेहरा टूटा-फूटा, बदरंग, स्किजोफ्रेनिक नजर आता. (जेम्स ज्वॉयस, यूलीसिस') केन केसी ('बन फ्ल्यू ओवर दि कक्कूज नेस्ट') द्वारा एक भिन्न संदर्भ में प्रयुक्त शब्द-समूह भी हम यहां ले सकते हैं : 'साइको-सिरामिक्स-द क्रैक्ड पॉट्‌स ऑफ मैनकाइंड.'

बहरहाल, यूरोप अथवा पश्चिम की इस चुनौती से निपटने के लिए उत्पीड़ित देशों में वैचारिक विमर्श की एक भिन्न परंपरा मिलती है. दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविंद राणडे, महात्मा गांधी, सन यात सेन, रवींद्रनाथ ठाकुर, जवाहर लाल नेहरू, माओ त्से तुंग, लू शुन, रजनी पाम-दत्त, प्रेमचंद, एम.एन. राय से लेकर ऐमी सीजैर ('डिस्कोर्स ऑन कोलोनियलिज्म,' 1950), फ्रांज फैनन ('ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्कस,' 1952; 'दि रेचेड ऑफ दि अर्थ,' 1961), अल्बर्ड मेंम्मी (दि कोलोनाइजर एंड दि कोलोनाइज्ड,' 1965), क्वामें एनक्रूमा ('कनसिएन्सिज्म,' 1970) एडवर्ड सईद ('ओरिएंटलिज्म,' 1978; 'कल्चर एंड इम्पीरियलिज्म,' 1993), चिनुआ अचेबे ('थिंग्स फॉल एपार्ट'), एनगुनी वा थियोंगो('डिकोलोनाइजिंग दि माइंड : दि पोलिटिक्स ऑफ लैंग्वेज इन अफ्रीकन लिटरेचर'), आदि विमर्श की एक लंबी परंपरा रही है, जिसकी एक झलक देना भी यहां संभव नहीं. इस विमर्श में ज्यां पॉल सार्त्र, मिशेल फूको, फ्रैंकफुर्ट स्कूल के विचारक अदोर्नो और मैक्स होर्खइमर एवं अन्य उत्तर-आधुनिक दार्शनिक भी प्रायः उद्‌धृत किए जाते हैं.

ऐमी सीजैर यह दिखलाते हैं कि किस तरह उपनिवेशवाद खुद औपनिवेशिक ताकतों को 'डिसिविलाइज' करता हैः यातना, हिंसा, नस्लीय घृणा और अनैतिकता तथाकथित सभ्य राष्ट्रों के लिए बोझ बनती जाती है और उपनिवेश के स्वामियों को बर्बरता के गर्त्त में डुबोती जाती है. इसका अंतिम परिणाम खुद यूरोप की अधोगति है. 'यूरोप का बचना नामुमकिन है.' उन्होंने लिखा कि किस तरह अपनी श्रेष्ठता के दंभ में, दुनिया को सभ्य बनाने में मदमत्त यूरोप एक 'बर्बर अन्य' की सृष्टि करता है. 'बर्बर नीग्रो का विचार एक यूरोपीय आविष्कार है- नेग्रीट्‌युड इस बर्बर नीग्रो को उखाड़ फेंकने का चमत्काराी हथियार साबित हुआ है.'

फ्रांज फैनन ('दि रेचेड ऑफ दि अर्थ') बताते हैं कि यूरोप खुद तीसरी दुनिया की सृष्टि है. उपनिवेशों और अन्य उत्पीड़ितदेशों के बौद्धिक समुदाय का एक हिस्सा न सिर्फ उन दिनों पश्चिम में प्रचलित विभिन्न विचाशाखाओं से गहरे रूप में प्रभावित था और उन्हीं की रोशनी में, उन्हीं के नक्शेकदम पर अपने समाज की भावी तस्वीर देखता था, बल्कि उसकी नजर में मानवजाति में जो भी उदात्त है, वरेण्य है, उन सब का मूर्त्तिमान रूप था यूरोप. वह भी यूरोप यूरोप होना चाहता था, उसे जीना चाहता था. रोजमर्रे की आदतों से लेकर, टेबल मैनर्स और यौन आचरण तक में इस तबके के जेहन में हमेशा 'यूरोप में लोग जैसा  कहते हैं, वैसा ही करने' की बात घूमती रहती. उनके मन में यूरोप की एक परी-कथा सरीखी छवि थी. यूरोप के वे लेखक भी उनके आदर्श थे जो उनहें 'जाहिल और असभ्य' मानते. (ओरहान पामुक, वही) तुर्की के संबंध में ओरहान पामुक ने इस प्रवृति का दिलचस्प विवरण दिया है. 1947 में फ्रेंच लेखक आंद्रे जिद को नोबेल पुरस्कार दिए जाने से आधुनिक तुर्की साहित्य के महान रचनाकार अहमत हमदी तानपिनार कितने आह्लादित थे, जबकि जिद तुर्कों के प्रति काफी हिकारत का भाव रखते थे. तानपिनार के (और खुद पामुक और हम जैसे कइयों के) आदर्श लेखक थे दोस्तोएव्स्की. दोस्तोएव्स्की पैनस्लाविज्म के उत्साही समर्थक थे और 1877-78 में रूस-ऑटोमन युद्ध शुरू होने पर उन्होंने कैथेड्रल जाकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से रूसियों की जीत के लिए प्रार्थना की थी. (तुर्की में यह रिवाज था कि दोस्तोएव्स्की के प्रसिद्ध उपन्यास 'ब्रदर्स करामाजोव'  के तुर्की अनुवादों में, युद्ध के उन्माद में तुर्की के बारे में कहे गए उनके शब्दों को हटा दिया जाता.) बहरहाल, यूरोप के प्रति तुर्की लेखकों के द्वैतभाव को पामुक ने खुद इन शब्दों मे व्यक्त किया है, 'मेरे जैसे व्यक्ति के लिए मात्र भविष्य की एक दृष्टि के रूप में यूरोप दिलचस्प था-और एक खतरे के रूप में. ...एक भविष्य, लेकिन एक स्मृति कभी नहीं.'
    इसी प्रसंग में गालिब (1797-1869) की चर्चा यहां बेमानी नहीं होगी. 'घर में था क्या कि तिरा गम उसे गारत करता/वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-ता'मीर सो है'-गालिब के इस द्रोर के संदर्भ में अली सरदार जाफरी (1958) में लिखते हैं, ''...अंग्रेजी के लाए हुए विज्ञान ने उसे इतना प्रभावित किया कि जब गदर से कई वर्ष पहले सर सैय्यद अहमद खां ने अबुल फजल की 'आईन-ए-अकबरी' का परिशोधन किया और गालिब से उसकी समीक्षा लिखने की इच्छा प्रकट की तो गालिब ने गजल के रूपकों के सारे आवरण अलग रखकर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आंखें खोलकर साहिबान-ए-इंग्लिस्तान को देखो कि ये अपने कला-कौशल में अगलों से आगे बढ़ गए हैं. उन्होंने हवा और लहरों को बेकार कर के आब और धुएं की शक्ति से अपनी नावें सागर में तेरा दी हैं. यह बिना मिजराब के संगीत उत्पन्न कर रहे हैं और उनके जादू से शब्द चिड़ियों की तरह उड़ते हैं, हवा में आग लग जाती है और फिर बिना दीप के नगर आलोकित हो जाते हैं. इस विधान के आगे बाकी सारे विधान जीर्ण हो चुके हैं. जब मोतियों का खजाना सामने हो तो पुराने खलियानों से दाने चुनने की क्या आवश्यकता है. यह कहने के बाद गालिब ने जो निष्कर्ष निकाला है वह महत्वपूर्ण है. आईन-ए-अकबरी के अच्छा होने में क्या संदेह है, लेकिन उदार सृष्टि को कृपण नहीं समझना चाहिए क्योंकि गुणों का अंत नहीं है. खूब से खूबतर का क्रम जारी रहता है. इसलिए मृतकोपासना शुभ कार्य नहीं है.''

    इतने सारे विरोधाभासी यथार्थों को एक साथ एक ही समय ढोते इन मुल्कों के साहित्यकारों को भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए नए शिल्प ढूंढने पड़े. कोई अतियथार्थवाद के सहारे आत्मा की अतल गहराइयों में उतरने, 'चमत्कार के लिए सदैव तत्पर रहने' (सुजेन सीजेर) की कोशिश करता है. कोई इन असंख्य विरोधाभासों को जादुई यथार्थ की दुनिया में पकड़ने की जद्दोजहद करता है. तो कोई अपने चेतन प्रवाह से उसके साथ होकर उसे महसूस करना चाहता है. पामुक कहते हैं कि इस विकट स्थिति से निपटने में उन्हें 'बोर्खेसियन माइंडफ्रेम' से मदद मिली. 'बोर्खेस और कैल्विनो ने मुझे मुक्त किया.' (पामुक, वही.)

    भारत के आरंभिक विचारकों पर इंगलिश उपयोगितावाद और पिता-पुत्र (जेम्स तथा जॉन स्टुअर्ट) मिल का अच्छा-खासा प्रभाव था. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल के कुछ बौद्धिक हल्कों में फ्रांसीसी पोजिटिविज्म (ऑगस्ट कोम्टे) भी लोकप्रिय हुआ-बावजूद इसके कि इंगलैंड के तत्कालीन प्रभावशाली चिंतकों (जॉन स्टुअर्ट मिल, हर्बर्ट स्पेंसर और टी. एच. हक्सले) ने इसकी भर्त्सना की थी. ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के प्रभावशाली जमींदार संरक्षक जोगेंद्रनाथ घोष इन प्रोजिस्टिविस्टों के प्रमुख व्यक्ति थे बंकिम चंद्र चटर्जी-उन्होंने अपने उपन्यास 'देवी चौधरानी' (1884), अपने निबंध 'चित्तशुद्धि' (1885) और अपनी एक अन्य रचना 'धर्मतत्व' (1888) में कोम्टे का उद्‌धृत भी किया था. भारतीय राश्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अध्यक्ष उमेश चंद्र बनर्जी भी कुछ समय तक इन लोगो के साथ जुड़े. इस आंदोलन के पिता-तुल्य रिचर्ड कांग्रीव ने 1857 की अपनी एक रचना 'इंडिया' में भारत में ब्रिटिश आधिपत्य अविलंब समाप्त करने का प्रस्ताव किया था. बहरहाल, ये पोजिटिविस्ट्‌स सामाजिक मामलों में अत्यंत रूढ़िवादी थे. जोगेंद्रनाथ घोश के अनुसार, ब्राह्मणों तथा अभिजातों की प्रभुता और उनके प्रति श्रद्धा समाप्त होने, और हमारे लोकप्रिय नेताओं द्वारा समानता, प्रतिद्वंद्विता तथा परिवर्तन का प्रचार करने के कारण हमारे समाज की 'शानदार एकजुटता' तेजी से नष्ट हो रही है. 1896 ई. में कोलकाता से प्रकाशित अपनी रचना 'दि पोलिटिकल साइड ऑफ ब्राह्मणिज्म' में वे स्थिरता तथा कुलीन-ब्राह्मण नेतृत्व बरकरार रखने पर जोर देते हैं, और समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थित करोडो़ मूक लोगों को नियंत्रित करने के एकमात्र उपाय के रूप में पश्चिमीकरण के हिमायती कांग्रेसी नेताओं से संसदीय रास्ते का परित्याग करने तथा पुनरूत्थानवादियों से सहयोग करने का आह्‌वान करते हैं. (वैसे, कोम्टे के पोजिटिविज्म में जनतांत्रिक संस्थाओं के प्रति अभिजातवर्गीय बेरूखी अंतर्निहित थी.) (सब्यसाची भट्टाचार्य, 'पोजिटिविज्म इन दि नाइनटींथ सेंचुरी बेंगाल,' इंडियन सोसाइटी : हिस्टोरिकल प्रोविंग्स,' नई दिल्ली, 1974) जो लोग उन्हीं दिनों ज्योतिबा फुले के अंग्रेजी राज के पक्ष में दिए गए बयानों को उद्‌धृत करते हैं, उन्हें भारतीय रूढ़िवादियों के उपर्युक्त बयानों पर भी अवश्य गौर करना चाहिए.

    बाद कि दौर में भारत के बौद्धिक समुदाय पर फेबियन समाजवाद, अराजकतावाद, मार्क्सवाद-लेनिनवाद, सामाजिक जनवाद और नाजीवाद का भी प्रभाव परिलक्षित हुआ. औपनिवेशिक स्थिति में भारत कि चिंतन परंपरा पर भी गंभीर मंथन हुआ. इस संदर्भ में जिन दो व्यक्तियों ने बौद्धिक जगत पर सबसे गंभीर असर डाला, वे थे स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद. विभिन्न पंथों तथा जातियों में चले सुधार आंदोलन और वैचारिक हलचलों का ब्यौरा देना यहां संभव नहीं.
    1978 में देंग शियाओं फेंग के आर्थिक सुधारों के बाद, चीन में भी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक अध्ययनों के एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ. इन राष्ट्रीय अध्ययनों (गुओच्च्यू) में 'पश्चिम' का प्रश्न एक बार फिर चीन के बौद्धिक हलकों में जोर-शोर से उठा.1988 में एक हिट टेलिविजन धारावाहिक 'हे शांग' (रिवर एलेजी) का प्रसारण किया गया. इसमें पीली नदी का बतौर रूपक इस्तेमाल करते हुए परंपरागत चीनी सभ्यता के पिछडे़पन और उसकी बर्बरता का मार्मिक चित्रण किया गया था. वहीं दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता के 'नीले सागर' की स्तुति की गई, जिसकी मुक्तिदायिनी लहरों पर अब चीनी लोक गणराज्य की नैया को सवार होना था. जाहिर है, इस सीरियल की आलोचना भी हुई (और इसका संबंध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव झाओ जियांग से जोड़ा गया. 4 जून 1989 की घटना के बाद झाओ को पदमुक्त कर नजरबंद कर दिया गया था).

    बहरहाल, पश्चिमी देशों से प्रगाढ़ होते रिश्तों की पुष्ठभूमि में चीन के शीर्ष नेता अब पश्चिम की उन्नत संस्कृति के साथ खुद को जोड़ने और उसे बतौर अपना प्रेरणास्त्रोत बताने में पीछे नहीं रहे. पूर्व राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने बताया कि तीस और चालीस के दशक में अपनी युवावस्था के दिनों में शंघाई में जिन तीन फिल्मों ने उन पर गहरी छाप छोड़ी और जिन्हें वे आज भी पसंद करते, वे थे- 'गॉन विद द विंड,' 'ग्रीन बैंक ऑन अ स्प्रिंग मॉनिंग' (एक ब्रॉडवे म्यूजिकल), और (चोपिन परआधारित) 'अ सांग टू रिसेम्बर.' (चाओ-हुआ वांग, संपादक, 'वन चाइना, मेनी पाथ्स,' न्यूयार्क, 2003)

    अस्सी के दशक के मध्य में फ्रेडरिक जेमसन के सौजन्य से चीन में उत्तर-आधुनिकता का प्रवेश हुआ और बीजिंग विश्वविद्यालय के कुछ तेज-तर्रार युवा स्नातक इसके मुरीद भी हुए. एक दशक बाद, जब झाओ यिवू, जेन श्याओं मिंग, आदि ने इसे चीनी परिस्थितियों में लागू करने की कोशिश की, तो शीघ्र ही उनका इससे मोहभंग भी हो गया. जेमसन उत्तर-आधुनिकता को 'प्रौढ़ पूंजीवाद के सांस्कृतिक तर्क' के रूप में परिभाशित करते थे. 'मास कल्चर' की उनकी तीखी आलोचना इन चीनी बुद्धिजीवियों को रास नहीं आई. चीन में पूंजीवाद अभी परवान ही चढ़ रहा था और 'सांस्कृतिक क्रांति के काले दिनों' के वे 'मास कल्चर' के उत्साही समर्थक थे क्योंकि इससे वे 'लोकप्रिय स्वतंत्रता' का नया अवसर देख रहे थे.

    बीजिंग विश्वविद्यालय में चीनी साहित्य के पूर्व प्रोफेसर कियान लीकुन ने पश्चिम के प्रति द्वैतभाव को हेमलेट और क्विक्जोट के बिंबों में प्रकट करते हुए चीनी बुद्धिजीवियों द्वारा 'क्विक्जोट की भावना से हेमलेट की चुनौती' स्वीकार करने की जरूरत पर बल दिया. शंघाई विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक अध्ययन विभाग तथा ईस्ट चायना नार्मल युनिवर्सिटी में चीनी साहित्य के प्रोफेसर वांग श्याओमिंग ने 'सांस्कृतिक अध्ययनों के लिए एक घोषणापत्र' में चीन की विषम स्थिति का विवरण देते हुए लिखा है, ''फिलहाल चीन अनेक पश्चिमी तकनीकों, प्रबंधकीय व्यवहारों, सांस्कृतिक उत्पादों और मूल्यों का आयात कर रहा है, लेकिन वह कोरिया या जापान की तरह पश्चिमी शैली का आधुनिक समाज बनने की खातिर अपनी व्यवस्थाओं में आसानी से परिवर्तन कर पाएगा, इसमें मुझे संदेह है. ...चीन किसी नियंत्रण को चुनौती देते एक महाकाय प्राण की तरह है, बीसवीं सदी के इतिहास में सामाजिक परिवर्तन का सबसे कठिन और अभूतपूर्व विषय है.' (चाओहुआ वांग, वही)।
    बहरहाल, यूरोपीय (और पश्चिमी) वैचारिकी एवं गैर-पश्चिमी वैचारिकी के विस्तार में जाना यहां संभव नहीं, तथापि इन दोनों धाराओं के बीच एक महत्वपूर्ण फर्क को यहां रेखांकित किया जा सकता है. यह फर्क मूलतः विचार-दृष्टि का है.
साभारः- हंस (अगस्त, 2010)

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