डेस्क ♦ मैत्रेयी पुष्पा को ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी ने नया ज्ञानोदय की वह संशोधित प्रति भिजवायी, जिसमें से अपशब्द को हटा दिया गया था। पलट कर मैत्रेयी जी ने भी साहू अखिलेश जैन को एक चिट्ठी लिखी…
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
विश्वविद्यालय, शब्द संगत »
राजकिशोर ♦ कुछ कहेंगे, नमक अदायगी कर रहा है; कुछ का मत होगा, यह टिप्पणीकार अंतर्विरोधों का मारा हुआ है, कुछ इसे पतन की पहली सीढ़ी बताएंगे। लेकिन जैसे किसी स्त्री को छिनाल करार देने भर से वह छिनाल नहीं हो जाती, उसी तरह मैं ऐसे विशेषणों से विचलित नहीं होता। विष्णु खरे की तरह मुझे भी पता है कि हिंदी जगत में आरोप लगाने के पीछे अक्सर किस तरह के इरादे होते हैं। जब मैत्रेयी पुष्पा पर अश्लीलता का इलजाम लगाया जा रहा था, तब मैंने उनके बचाव में लिखा था। जब अशोक वाजपेयी को दारूकुट्टा कहा गया था, तब मैंने पीने को नैतिकता या चरित्र से जोड़ने का प्रतिवाद किया था। न मैं मैत्रेयी की कृपा पर अवलंबित था न वाजपेयी की उदारता पर। आज भी अपनी जीविका के मामले में आत्मनिर्भर हूं।
शब्द संगत »
अनामिका ♦ देहवाद क्या होता है? सर्वथा देहवादी तो कोई भी चित्रण नहीं होता – अगर वह साहित्यिक और सौंदर्य शास्त्रीय ताने-बाने में गुंथा हुआ है और उसे पढ़ने वाली गांव-कस्बों तक की स्त्रियां उसमें अपनी समस्याओं का प्रतिबिंबन पाती हैं। कौन माई का लाल कहता है कि स्त्री आत्मकथाकारों के यहां दैहिक दोहन का चित्रण पोर्नोग्राफिक है? घाव दिखाना क्या देह दिखाना है? पूरा स्त्री-शरीर एक दुखता टमकता हुआ घाव है। स्त्रियां घर की देहरी लांघती हैं तो एक गुरु, एक मित्र की तलाश में, पर गुरु मित्र आदि के खोल में उन्हें मिलते हैं भेड़िये। और उसके बाद प्रचलित कहावत में 'रोम' को 'रूम' बना दें तो कहानी यह बनती नजर आती है कि 'ऑल रोड्स लीड टु अ रूम।'
सिनेमा »
आशुतोष श्याम पोतदार ♦ इस फिल्म का फॉर्म अलग है। सटायर का मामला ऐसा ही होता है। और निर्देशक ने बखूबी से दिखाया है। उसके लिए उनका अभिनंदन करना जरूरी है। मुझे लगता है कि निर्देशक बहुत अंदर से जानते हैं मीडिया वालों का हंगामा। इनसाइडर का रोल अदा करते हुए वो आउटसाइड रहके भी देख सकते हैं। ये इसकी महत्वपूर्ण खूबी है। उसको सराहना चाहिए। आजकल जो अर्बन और रूरल में बढ़ती हुई दूरियां हैं, वो कॉम्प्लेक्सिटी से दिखाने का प्रयत्न करती है ये फिल्म। बट ये सिर्फ प्रयत्न कहूंगा। इस प्वाइंट को लेकर मुझे रिजर्वेशन है फिल्म के बारे में। रूरल खड़ा नहीं कर पाती है। सिर्फ हारमोनियम पर गाना गाने से या रूरल जियोग्राफी से रूरल नहीं आएगा। उसका कॉन्टेक्स्ट नहीं आता है। ये इस फिल्म की कमी है।
मोहल्ला दिल्ली, मोहल्ला पटना »
मुकेश कुमार ♦ बिहार और झारखंड के पत्रकारों ने पेड न्यूज के खिलाफ कमर कस ली है। पत्रकारों और पत्रकारिता की साख को चौपट करने वाली इस बीमारी का विरोध करने के लिए वे एकजुट हो रहे हैं और आगामी 28 अगस्त को बाकायदा अपनी आवाज भी बुलंद करेंगे। पत्रकारों ने पेड न्यूज को रोकने की दिशा में सक्रिय हस्तक्षेप करने की गरज से एंटी पेड न्यूज फोरम का गठन किया है। ये संगठन पेड न्यूज के कारोबार पर नजर रखेगा और इस तरह की तमाम गतिविधियों को लोगों के सामने लाने की कोशिश भी करेगा। संगठन में कोई भी पद नहीं रखा गया है। केवल एक कोर कमेटी होगी, जो सबसे सलाह-मशवरा करके काम करेगी। पेड न्यूज पर लगाम लगाने की दिशा में एंटी पेड न्यूज फोरम 28 अगस्त को महासम्मेलन करने जा रहा है।
नज़रिया, मोहल्ला पटना »
विश्वजीत सेन ♦ माओवादियों को संदेश भेजने के अलावा, ममता बनर्जी ने आजाद की मौत को 'सुनियोजित साजिश' की संज्ञा दी। 'ग्रीन हंट' को वापस लेने की मांग की। क्या यह वही ममता बनर्जी हैं, जो सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्रित्व काल में युवा कांग्रेस के हत्यारों का नेतृत्व किया करती थीं। वैसे हत्यारे भारत ने न कभी देखा है, न उसे देखना ही चाहिए – बंगाल के कितने घर उजड़ गये, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। उन घरों के बचे खुचे लोग ममता को सुन रहे हैं। खेद है कि उन लोगों के पास कोई मंच नहीं है। वरना, वे ममता को जवाब देते। ममता के साथ दो और लोग मंच पर थे – मेधा पाटकर तथा स्वामी अग्निवेश। आजकल इन लोगों के पास कोई मुद्दा नहीं है।
शब्द संगत »
प्रभात रंजन ♦ मैं ज्ञानपीठ का एक लेखक हूं। मेरा पहला कहानी संग्रह 'जानकी पुल' ज्ञानपीठ से छपा है। एक समय था जब ज्ञानपीठ से पुस्तक छपना गर्व की बात समझी जाती थी। लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से नया ज्ञानोदय का बेवफाई सुपर विशेषांक प्रकाशित हुआ तथा उसमें जिस तरह से वीएन राय के साक्षात्कार में अपशब्द का प्रकाशन हुआ, उसने ज्ञानपीठ के प्रति गर्व के भाव को शर्म के भाव में बदल दिया है। शर्मनाक यह है कि पत्रिका के संपादक महोदय उसे लेकर माफ़ी ऐसे मांग रहे हैं जैसे लेखक समाज पर एहसान कर रहे हों। अंक वापसी की घोषणा इतनी देर से हुई कि उस बीच पत्रिका के सारे अंक लगभग बिक चुके होंगे। मुझे लगता है, पत्रिका और संपादक ने इस प्रसंग में बेहयाई का परिचय दिया है।
मीडिया मंडी, विश्वविद्यालय, शब्द संगत »
डेस्क ♦ मृणाल जी की एक टिप्पणी आज के द हिंदू में छपी है। विभूति की माफी के साथ इस प्रसंग को समाप्त मान लेने वालों के लिए यह भी सूचना है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में इस पर टिप्पणियां आनी समाप्त नहीं हुई हैं। कल मृणाल जी ने ही दैनिक भास्कर में इस मसले पर कलम चलायी थी और आज द हिंदू के ओपेड पेज पर उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर की है। कई बार व्यवस्था जिस प्रसंग को अपनी परिधि में मैनेज कर लेती है, वह प्रसंग तब भी धधकता हुआ एक बड़ी नागरिकता के आंगन में घूमता रहता है। विभूति नारायण का प्रसंग कुछ ऐसा ही है।
शब्द संगत »
सैन्नी अशेष ♦ हम दूर-दराज़ के साधारण पहाड़ी लोगों को क्यों तुम्हारे दरबार में हाजिर होना चाहिए? स्नोवा बार्नो की रचनाएं स्वीकार करने और छापने वाले हंस, पहल, वागर्थ, वसुधा, पाखी, समकालीन भारतीय साहित्य, इंडिया टुडे, आउटलुक, सरिता आदि किसी भी पत्रिका ने ज्ञानोदय जैसा बर्ताव नहीं किया। यहां तक कि भारतीय भाषा परिषद ने स्नोवा बार्नो के अस्वीकार करने पर भी उसके प्रथम पुरस्कार की राशि भेज दी। संवाद प्रकाशन ने डंके की चोट पर स्नोवा की दो किताबें इस साल जारी कीं। ठीक है, हिमाचल के लेखकों ने स्नोवा बार्नो की लड़ाई लड़ी और सरकार ने भी हमें निर्दोष पाकर हमें स्वतंत्रता दे दी। लेकिन अब हम लिखना छोड़ चुके हैं। हिंदी की इस दुनिया से बहुत बेहतर काम हैं हमारे पास करने को।
--
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment