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Sunday, May 18, 2008

लाक्षागृह भूमंडलीय बाजार में मनुष्य की नियति। विनाश और सर्वनाश का चौतरफा इंतजाम। कारपोरेट वातानुकूलित जीवनशैली का अत्मघाती जाल में फंसा राष्ट्र।


लाक्षागृह भूमंडलीय बाजार में मनुष्य की नियति। विनाश और सर्वनाश का चौतरफा इंतजाम। कारपोरेट वातानुकूलित जीवनशैली का अत्मघाती जाल में फंसा राष्ट्र।



पलाश विश्वास



विनाश का एक पहलू भोपाल गैस त्रासदी है तो दूसरा पहलू सोदपुर अग्निकांड, जहां चाल दुकान के विस्तार के दौरम्यान आग लगने से चौदह लोग एअर कंडीशनर के कार्बन मोनोक्साइड से मिनटों में लाश में तब्दील हो गए। इस शो-रूम में लगभग एक हजार ग्राहक प्रतिदिन आते हैं। घटना के समय भी 30 से 35 ग्राहक शो-रूम में मौजूद थे। पूरा शो-रूम एयरकंडिशन है। मृतकों में 12 ग्राहक थे। इनमें एक गोविन्द तालपात्रा और उनकी पत्नी रेखा थी जो जमाई षष्ठी पर अपनी बेटी और दामाद के लिए उपहार खरीदने आए थे। शो-रूम के मालिक नारायण साहा की भतीजी रंजना भी इस हादसे का शिकार हुई है।



शापिंग मॉल की दूसरी मंजिल पर एक रेडीमेड सेंटर में दोपहर बारह बजे के करीब उस समय आग लगी जब पास ही एक दुकान में वेल्डिंग का काम चल रहा था। अचानक एक चिंगारी रेडीमेड सेंटर में रखे कपड़े पर जा गिरी जिससे आग लग गई। देखते ही देखते पूरा शापिंग मॉल धू-धू कर जलने लगा। दमकल के आने के पूर्व ही दुकानदार और ग्राहक समेत 32 लोग दम घुटने से बेहोश हो गए। उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां एक महिला समेत 14 लोगों की मौत की पुष्टि की गई। शेष की हालत गंभीर बनी हुई है। आग बुझाने के लिए सात दमकल घटनास्थल पर पहुंचे लेकिन शापिंग मॉल को खाक होने से बचाने में कामयाब नहीं हुए। शाम तक आग पर काबू पाया जा सका।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक आग लगने के बाद डर से दुकानदारों ने दुकान का शटर गिरा दिया। लेकिन वातानुकूलित मशीन की लाइन से दुकान के भीतर भी आग लग गई। मॉल के भीतर धुंआ भर जाने से लोगों का दम घुटने लगा और 32 लोग बेहोश हो गए। घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं।



बाकी देश भी या तो गैस चैंबर बाजार या फिर जीवन और आजीविका से मूलनिवासियों की बेदखली का सेज। अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र के ऐसे उत्पादों को मूलत: कमोडिटीज (वस्तु) कहते हैं जिनका वाणिज्यिक मूल्य हो। इसमें कृषि उत्पाद जैसे खाद्यान्न, दलहन, तिलहन व धातुएं आदि शामिल हैं। वैसे व्यापक तौर पर द्वितीयक क्षेत्र के उत्पाद भी कमोडिटी में शामिल हैं जैसे खाद्य तेल, पॉवीमर्स आदि।



कमोडिटी मार्केट के तीन प्रकारों में सबसे उन्नत चरण या प्रकार फ्यूचर्स मार्केट है। इस क्रम में पहला चरण स्पॉट मार्केट या हाजिर बाजार है। ऐसे परंपरागत बाजारों से सभी परिचित हैं। इसमें कमोडिटी का सीधा नकद क्रय-विक्रय होता है। अगला प्रकार फारवर्ड मार्केट है। इसमें क्रेता-विक्रेता के बीच तुरंत भुगतान व भविष्य में कमोडिटी की डिलेवरी का अनुबंध होता है। इससे कीमतों में भविष्य में होने वाले उतार चढ़ावों से बचने का प्रयास किया जाता है। इसमें क्रेता या विक्रेता के डिफाल्टर होने का भय रहता है। इसकी कमियों को फ्यूचर्स मार्केट में दूर किया गया। इसमें कमोडिटी एक्सचेंज क्रेता-विक्रेता को ट्रेडिंग के लिए प्लेटफार्म उपलब्ध करवाता है। अर्थात निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका निभाता है, जिसमें मांग-पूर्ति के आधार पर स्टेंडडीइन्ज कांट्रेक्ट के तहत कीमतें तय की जाती हैं।



कोलकाता के उपनगर सोदपुर की ख्याति इन दिनों उच्च मध्यवर्गीय आवासीय कालोनियों और रेडीमेड सेंटर, श्रीनिकेतन जैसे शापिंग माल समृद्ध बाजार की वजह से हैं। यहां संपन्न खरीददार मोलभाव नहीं करता। फुटपाथिया दुकानों से खरीददारी नही करता और आम जीवन शैली महानगरीय और वातानूकुलित है। दो किलोमीटर के मध्य विशाल, रिलायंसफ्रेश , मोरे, खादिम खजाना, श्रीनिकेतन और रेडीमेड सेंटर जैसे शापिंग माल है। विशाल बगल के कमारहाटी में है तो श्रीनिकेतन और रेडीमेड सेंटर व्यस्त स्चेशन रोड पर। अमरावती में चालू बिड़ला का मोरे स्थानीय व्यापारियों के प्रतिरोध के कारण बंद हो गया तो रिलांयस फ्रेश चालू ही नहीं होपाया। खादिम खजानानिर्माणाधीन है।



माकपा के सत्तारूढ़ होने से पहले तक बीटी रोड के आर पार और हुगली के आरपार तमाम इलाका औद्योगिक इलाका हुआ करता था। सोदपुर में बंगलक्ष्मी काटन मिल, सुलेखा और बेलघरिया में मोहिनी मिल का बाजार देशभर में था। सबकुठ अब बंद है। बंगलक्ष्मी मिल की जमीन पर पीयरलेस कालोनी है। तो बरानगर, बेलघरिया, आगरपाड़ा, सोदपुर, खड़दह, टीटीगढ़, बैरकपुर, पलता, इछापुर, श्यामनगर, कांकीनाड़ा, नैदाटी के तमाम कलकारखाने बंद हो गये। जूटपट्टी श्मशान में तब्दील हो गयी। सूती मिलों का नामोनिशान नहीं है। इन कारखानों से बेरोजगार हुए लोग इन बाजारों में छोटे मोटे कामकाज और कारोबार चलाकर पेट पालते थे। पर देखते गेखते हालात बदल गया। रिहायशी बस्तियों में सुपर मार्केट और शापिंग माल, बार और रेस्तरा, बहुमंजिली महंगी आवासीय कालोनियां बन जाने से यह तमाम इलाका अब मेहनतकश जनता के लिए चकाचौंध वाला मरघट बन गया है। १९७७ में कांग्रेस के पतन के बाद समान विचारधारा वाले वामपंथी दलों माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने सरकार बनायी और निर्बाध रूप से सत्ता में हैं। बाद में इसमें भाकपा भी शामिल हो गई है। रिकार्ड समय २५ साल तक सत्ता संभाले माकपा के पुरोधा ज्योति बसु ने घटक दलों के साथ तब ऐसी तालमेल बैठाई कि कभी कोई उपेक्षा का सवाल तक नहीं खड़ा कर पाया। लालदुर्ग की कमान अब कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में है। और शायद दुःसमय झेल रहा है। यह शायद उनके कट्टर कामरेड होने की बजाए उदारवादी होने का नतीजा है। कभी सोवियत संघ के मजबूत कम्युनिष्ट गढ़ को भी इसी उदारवाद ने बिखराव पर ला खड़ा किया। ग्लास्नोस्त और पेरोत्रोइका ने वहां वही काम किया जो आज के लालदुर्ग बंगाल में पूंजी के प्रति उदार हुई वाममोर्चा सरकार के लिए सेज और कृषि जमीन अधिग्रहण शायद कर दे। वाममोर्चा के अध्यक्ष व माकपा राज्य सचिव विमान बोस ने स्वीकार किया कि पंचायत चुनाव के लिए आपसी तालमेल से प्रत्याशी खड़े करने के मामले में मोर्चा के घटक दलों में आम सहमति नहीं बन पाई। बोस सोमवार को कोलकाता प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस से मिलिए कार्यक्रम के दौरान पूछे गए सवालों का जवाब दे रहे थे। उन्होंने बताया कि इस बार ग्राम पंचायत की सीटों की संख्या घटी है। पंचायत चुनाव में विजयी होने के लिए आधुनिक और उग्र चुनाव प्रचार के बाद भी माकपा को कोई विशेष लाभ होता नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में चल रहे पंचायत चुनाव में माकपा को पहले की अपेक्षा कोई विशेष सफलता मिलने की संभावना कम ही दिख रही है। हाल की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा, स्वास्थ्य और ढांचागत संरचना के क्षेत्र में भी बंगाल पहले की अपेक्षा पिछड़ा है।



पश्चिम बंगाल में जारी पंचायत चुनावों के लिए वोटिंग के आखिरी दौर में हुई हिंसक झड़पों में रविवार को 7 लोगों के मारे जाने की खबर है। पुलिस के मुताबिक इन मौतों के अलावा 13 अन्य लोग जख्मी भी हुए हैं। सत्ताधारी लेफ्ट पार्टियों के समर्थकों और उनके विरोधियों में पिस्तौल और देसी बमों से घमासान हुआ।

5 लोग तो केवल बांगलादेश की सीमा से लगे जिले मुर्शिदाबाद में मारे गए। पुलिस के मुताबिक यहां के एक गांव में लेफ्ट और कांग्रेस समर्थकों में हुए झगड़े में एक महिला समेत 3 लोग मारे गए। मुर्शिदाबाद के रानी नगर में एक कांग्रेस कार्यकर्ता मारा गया जबकि गांव मधु में एक लेफ्टिस्ट कार्यकर्ता मारा गया।

एक लेफ्टिस्ट समर्थक की लाश पुलिस ने उत्तरी जलपाईगुड़ी जिले के मदारीहाट से बरामद की। जबकि बीरभूम जिले के नान्नुर गांव में तृणमूल कांग्रेस का एक समर्थक मारा गया।

गौरतलब है कि इससे पहले पंचायत चुनावों के दूसरे दौर में गुरुवार को भी 6 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। जबकि 11 मई को इन चुनावों के पहले दौर में भी 3 लोगों की मौत हो गई थी।



रेडीमेड सेंटर का विस्तार एक बंद कारखाना विद्यासागर काटन मिल की जमील के अंतर्गत तालाब में पिलर खड़ा करके किया जा रहा था, जबकि अभीतक जमीन का हस्तांतरण ही नहीं हुआ। रेडीमेड सेंटर का बड़ा हिस्सा तालाब पर खड़ा है।

दुकान बंद किये बगैर दोमंजिले पर गैसकटरों की मदद से निर्माणकार्य जारी था। हादसे के वक्त दोमंजिले में करीब पचास कर्मचारी और दर्जनों आम खरीदार मौजूद थे। कई दिनों से .ह काम चल रहा था। हम लोग ऊपर से गिरती चिनगारियों और सीमेंट, पत्थर, लोहे के टुकड़ों से बचने के लिए बेहद चाल सोदपुर बारासात रोड के बीचोंबीच चलने को मजबूर थे। पर किसी को चूं तक करने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि पार्टी की इजाजत मिलने के बाद कानून, पुलिस प्रशासनकोई कुछ नहीं कर सकता। माकपाई विधायक गोपाल भट्टाचार्य का घर मौके से बमुश्किल पांच मिनट की दूरी पर। सड़क के उसपार। तो नगरपालिका भी इतनी ही दूरी पर। पूर्व विधायक तृणमुल कांग्रेस के निर्मल बाबू का घर भी बगल में। सबके सामने यह गैरकानूनी कारोबार चल रहा था। आग गैस कटर से निकली चिनगारियों से कार्पेट में लगी और गैस करचों के लिए अनेक गैस सिलिंडर मौजूद थे। आग लगने के बाद अफरा तफरी में दुकान में लूटपाट न हो जाये, इसके मद्देनजर मालिकान के निर्देश पर दोमंजिला का शटर गिरा दिया गया। घनी बस्ती और घने बाजार, बगल में दूसरा शापिंग माल श्रीनिकेतन। छोटे दुकानदारों, आटो चालकों और स्थानीय लोगों ने दमकल की मदद से आग तो आधा घंटे में बुझा दी, पर दोमंजिले में फंसे लोगों की लाशें ही निकाली जा सकी। इनमें रेडीमेड सेंटर के मालिक की सगी भतीजी भी शामिल है।

सेंट्रलाइज्ड एअर कंडीशनर से कार्बन मोनोआक्साइड लीक होने से सभी चौदह लोगों की दम घुटने सौत हो गयी। आग से झुलसे लोग तो फिर भी बच गये। दो मिनट में ही रक्तप्रणाली को विषैली बना देने वाली कार्बन मोनोक्साइड के शिकार लोगों को बचाने का कोई मौका नहीं था।



रेडीमेड सेंटर में कोई आपात कालीन दरवाजा नहीं था


आग बुझाने का कोई इंतजाम नहीं था।


कार्पेट अत्यन्त ज्वलनशील थी।


न बाल था न जल।



प्रत्याक्षदर्शी के अनुसार आग लगने की सूचना पाने के बाद नारायण साहा अपने भाई जीवन और शंकर के साथ बाहर की ओर भागे। जल्दीबाजी में वे 33 वर्षीय रंजना को साथ ले जाना भूल गये। पीछे पीछे रंजना भी भागी पर दरवाजे तक पहुंच कर गिर गई। तब तक नारायण ने शटर गिरा दिया था। भीतर से रंजना कहती रही - काका मुझे साथ ले चलो, मैं फंस गई हूं। पर नारायण भागने की इतनी जल्दी में थे कि उन्हें भतीजी का वह करुण आवाज नहीं सुनाई पढ़ी।

इस घटना में बचे अमित घोष के अनुसार अपने रंजना को तड़प-तड़प कर मरते हुए देखा है। रंजना अपने चाचा से नये फ्लैट में जाने की योजना पर विचार करने के लिए आई थी। रंजना के आलावा मालिक का एक और रिश्तेदार विमलेन्दु राय भी हादसे का शिकार हुआ है। एयरकंडीशन शो-रूमों के मशीन में आग लगने के बाद पूरा क्षेत्र किस तरह लाक्षागृह बनता है उसका जीता-जागता उदाहरण है सोदपुर का रेडीमेड सेंटर। महानगर में सैकड़ों ऐसे एयर कंडीशन शो-रूम, शॉपिंग मॉल, शॉपिंग सेंटर हैं। लगभग तीन साल पहले सत्यनारायण पार्क के एसी मार्केट के भी एयरकंडीशन डक्žट में आग लग गई थी। उस समय भी पूरे बाजार में धुआं और गैस भर गया था। पर संयोग से यह घटना रात में हुई थी। इसलिए उसमें लोग ड्डंञ्से नहीं। आग लगने के बाद इस तरह के शो-रूम और मॉल में सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं।

दमकल मंत्री का कहना है कि निर्माण के समय सुरक्षा नियमों को अनदेखी की जाती है। पर सवाल यह उठता है कि प्रशासन घटना के बाद जांच का शोर तो मचाता है, पर पहले इस पर कार्रवाई क्žयों नहीं करता। सोदपुर रेडीमेड सेंटर में भी घटना का कारण वेल्डिंग को बताया जा रहा है। स्थानीय लोगों का अभियोग है कि अवैध रुप से मालिक निर्माण कार्य कर रहे थे। यह शो-रूम तो दोमंजिला था जबकि बड़े-बड़े मॉल बहुमंजिला होते हैं। उनमें सैकड़ों दुकानें होती हैं। हजारों की संख्žया में ग्राहक हर समय मौजूद रहते हैं। ऐसे में इस तरह का हादसा ही तो भगदड़ में ही कई लोग कूचले जा सकते हैं। निकासीद्वार की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से इसी तरह दमघोंटू वातावरण में बड़ी घटना की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।





बगल के श्रीनिकेतन में भी यही हाल है। पांच मंजिले इस शापिंग माल की सीढी से दो से ज्यादा लोग एक साथ चढ उतर नहीं सकते। आग बुझाने का वहां भी कोई इंतजाम नहीं है।



अग्निकांड की वजह से रेडीमेड सेंटर की अनियमितताओं की तो जांच हो रही है, पर महानगर कोलकात और उपनगरों में तमाम शापिंग माल, मल्टीप्लेक्स, प्लाजा, सिनेमाघरो और दूसरे सार्वजनिक स्थलों पर आपातकालीन इंतजाम, जनसुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है। पर्यावरण की पूरी तरह अनदेखी की जात है। श्रम कानून कहीं भी लागू नहीं है।



ब्रांड बुद्ध के नेतृत्व में मार्क्सवादी पूंजीवादी विकास की अंधी दौड़ में अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगीकरण में परंपरागत बाजार, आजीविका और उत्पादन प्रणाली से आम लोगों को, मूलनिवासियों को बेदखल करके बेहतचर वामपंथ का जो नजारा पेश है, उसमें शापिंग माल, बहुमंजिली आवासीय कालोनी, सुपर मार्केट. प्लाजा, रिसार्ट, पांच सितारा होटल, बार, रेस्तरां, डिस्कोथेक, मल्टीप्लेक्स की बाढ़ आगयी है। नंदीग्राम और सिंगुर जैसे जनविद्रोह के दमन के जरिए विपर् और तथाकथित सिविल सोसाइटी, समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों की वैज्ञानिक मिलीभगत से अंधाधंध जमीन अधिग्रहण हो रहा है तो राज्य में बंद करीब छप्पन हजार कलकारखानों को प्रोमोटरों, बिल्डरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दिया गया है पानी के मोल। जूट मिलों और कपड़ा कारखाना के अलावा दमदम कैंट के जेसाप कारखाना इसके ज्वलन्त नमूने हैं। जो कारखाने हजारों लाखों लोगों के भरण पोषण में मददगार थे, आज शाइनिंग इंडिया सेनसेक्स इंडिया के सत्तावर्ग की मौज मस्ती का जरिया बन गये हैं। पंचायत प्रधान, विधायक, माकपा लोकल कमिटी के नेता, पार्टी होलटाइमर, सांसद, मंत्री, विपक्ष और सिविल सोसाइट इस खतरनाक खेल के दक्ष खिलाड़ी हैं।



नंदीग्राम विवाद अब राजनीतिक रंग ले रहा है। मामला पश्चिम बंगाल सरकार और गृह मंत्रालय के बीच का नहीं रहा। सीआरपीएफ बनाम सीपीएम होते जा रहे इस संग्राम की पंचायत प्रधानमंत्री कार्यालय जा पहुंची है। सरकार के सामने चुनौती बेहद जटिल है। एक तरफ सरकार की बैसाखी बने वामपंथियों के आगबबूला होने का डर है तो दूसरी तरफ सुरक्षा बलों का मनोबल टूटने का खतरा।



नंदीग्राम जाते बुद्धिजीवियों को हावड़ा के बागनान में रोक दिया गया। राज्य के गृह सचिव अशोक मोहन चक्रवर्ती ने बताया कि राज्य सरकार को बुद्धिजीवियों के नंदीग्राम जाने पर आपत्ति नहीं है, लेकिन सुरक्षा कारणों से इन्हें रोक दिया गया। उनके नंदीग्राम मेंं रहने से तनाव फैल सकता है। रवीन्द्र सदन से फिल्म निदेशक अपर्णा सेन, नाट्य कलाकार साबली मित्र, फिल्म अभिनेता कौशिक सेन सहित विभिन्न बुद्धिजीवी नंदीग्राम के लिए रवाना हुए।



माकपा के सांसद लक्ष्मण सेठ और सीआरपीएफ के डीआईजी आलोक राज के बीच रविवार को नंदीग्राम में टेलीफोन पर गर्मा-गर्म बहस हुई। दोनों एक-दूसरे की सीमा और औकात बताने में लगे रहे। डीआईजी को सांसद ने कहा कि वे अपनी सीमा में रहते हुए ही काम करें। इसके जवाब में डीआईजी ने सांसद को भी उनकी औकात बताते हुए कहा कि उन्हें पता है कि उन्हें क्या करना है। किसी की सलाह की जरूरत नहीं है। उनके कार्य में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाए।



पूर्वी मेदिनीपुर के नंदीग्राम के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। नंदीग्राम के शिमुलकुंडू गांव की तीन महिलाओं ने मंगलवार को आरोप लगाया कि माकपा कैडरों ने सोमवार को उन्हें निर्वस्त्र कर दौड़ाया। मालती जाना, कृष्णा दास और तुलसी दास ने मंगलवार को बताया कि सोमवार को माकपा के 50 कैडर ममता दास के नेतृत्व में शिमुलकुंडू आए और उनसे माकपा का प्रचार करने को क हा, किंतु उन्होंने एेसा करने से मना कर दिया।



'नंदीग्राम' एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही औरों के भीतर भले ही कोई प्रतिक्रिया न देखने को मिले लेकिन बेलदा में आश्रय लेने वाली करीब 72 वर्षीय कनकलता की रूह कांप जाती है। उसके दिलो-दिमाग पर 'नंदीग्राम' शब्द का आतंक ऐसा छा गया है कि भले ही आप उसकी ओर मुखातिब हुए बिना ही इस शब्द का उच्चारण करते हुए पास से गुजर रहे हो, तो कनकलता अपनी रक्षा के लिए इधर-उधर पागलों की भांति भागने लगती है।



कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक शाहरुख खान, उनकी पत्नी गौरी, साझीदार जूही चावला और अभिनेत्री कैटरीना कैफ को नंदीग्राम में हिंसा के विरोध में तृणमूल कांग्रेस के सड़क मार्ग अवरुद्ध करने के कारण ट्रैफिक जाम में फँसना पड़ा। यह सभी बेंगलोर रॉयल चैलेंजर्स के खिलाफ ईडन गार्डन्स में होने वाले कोलकाता नाइट राइडर्स के मुकाबले के लिए मेजबान टीम की हौसलाअफजाई के लिए जा रहे थे, लेकिन होटल से निकलने के बाद बाईपास पर जाम में फँस गए। ...



कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव से पहले नंदीग्राम का मुद्दा उठाते हुए स्थिति से सही ढंग से निपटने में नाकाम रहने पर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार की तीखी आलोचना की। गांधी ने बहरामपुर और माल्दा में जनसभाओं को संबोधित करते हुए कहा कि राज्य में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति शोचनीय है। उन्होंने नन्दीग्राम के पीड़ित लोगों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की और



हर सरकार के साथ रंग बिरंगी विचाधाराओं और अपने अपने पार्टी एजंडे के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियां बदलती रही हैं। पर १९९० में डा मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के बाद से अब तक भारत सरकार और तमाम राज्य सरकारों की आर्थिक नीतियों में गजब की निरंतरता बनी हुई है। डा अशोक मित्र ने अपनी जीवनी में इसका खुलासा कर दिय है कि किस तरह अमेरिका ने डा मनमोहन सिंह को पहले वित्तमंत्री , फिर प्रधानमंत्री बनाकर भारतराष्ट्र की स्वतंत्रता और संप्रभुता को गिरवी पर रख लिया। भारत की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करने वाले चारों लोग डा णनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी, चिदम्बरम और आहलूवालिया विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और अमेरिकी आर्थक संस्थानों के चाकर रहे हैं। दूसरी ओर, वियतनाम के कसाई हेनरी कीसिंजर से वामपंथी बुद्धदेव का गठबंधन है। बुद्ध, मोदी, देशमुख, मायावती,नवीन पटनायक, वसुंधरा और करुणानिधि शाइनिंग इंडिया का ब्राण्ड हैं। एक फिल्म बनी थी शापिंग माल के विरोध में नृत्य के जरिए जनप्रतिरोध पर। माधुरी दीक्षित के उस फिल्म पर विवाद खड़ा कर दिया गया। ग्लोबीकरण के झंडावरदार हैं दलित चिंतक और आइकन। चंद्रभान प्रसाद अंग्रेजी और ग्लोबीकरण को दलित मुक्ति की राह बताने से अघाते नहीं। भारतीय लोकतंत्र के पैरोकार एनडीटीवी. टाइम्स आफ इंडिया. हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, स्टार टीवी, आईबीएन टीवी, आनन्दबाजार प्रकाशन समूह की अगुवाई मे मीडिया सार्वभौम बाजार की वकालत कर रहा है। पक्ष विपक्ष की राजनीति एक हो गयी है। किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। सेज बनाकर देश के कोने कोने में मूलनिवासियों का आखेटगाह बनाया जा रहा है। थोक कारोबार पर भी कारपोरेट कब्जा। राजनीति भी अब कारपोरेट। सत्तापक्ष के कब्जे में हैं तमाम विचारधाराएं। सूचनाएं प्रायोजित। ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व कायम। ई पीढ़ी मोबाइल, टीवी और नेट की नीली संस्कृति में निष्णात। क्रकेट कार्निवाल के सिवाय अब कोई भविष्य नहीं है। सेल और मार्केटिंग के अलावा कोई काम धंधा नहीं है।
फिर भी आम आदमी की चर्चा?
कारें अब टाप प्रायोरिटी पर हैं। प्राकृतिक संसाधन, जल, जंगल, जमीन और आसमान कारपोरेट के हवाले। भोपाल गैस त्रासदी को दोहराने के लिए कैमिकल हब। डाउज और सलेम को न्यौता। रसायन उद्योग के लिए पश्चिम में शून्य प्रदूषण की अनिवार्य शर्त। हमारे कानून में सिर्फ रियायतें हैं। सेज एरिया में तो भारत का कोई कानून लागू ही नहीं होगाष सेज से जुड़ी कंपनियों के सशस्त्र जवानों की सेनी भारतीय सेना से ज्यादा। आखिर राट्रद्रोही हैं कौन? स्विस बैंक भारत में चुनाव संचालित करते हें। साझेदार सीआईए। फिर भी आप को बदलाव की उम्मीद? आरक्षण निजीकरण और विनिवेश के चलते अप्रासंगिक। आरक्षण से छह हजार जातियों में बंटे मूलनिवासियों को लड़कर वोट बैंक साधे जा सकते हैं। नौकरियां हरगिज नहीं मिल सकती। नौकरियां हैं कहां? कल कारखाने बंद हो गये। खेती, काम धंधे चौपट। देसी उत्पादन प्रणाली ध्वस्त। मेट्रो, राजमार्ग,फ्लाई ओवर, इंफ्रास्ट्रक्चर, सेतु, उड़न पुल, स्सती वायुसेवा, कारपोरेट रेलवे, शापिंग माल, इंटरनेट, आउटसोर्सिंग, सूचना प्राद्योगिकी, शेयर बाजार, वेतनमान, आयकर, सीमाशुल्क में छूट किसके लिए?
मूलनिवासी जीवन और आजीविका से बेदखल। मातृभाषा से वंचित। भूमिपुत्रों को वंचित करके, संविधान और जनपद, लोक, राष्ट्रीयताओं और भाषाओं की हत्या करके क्या हम राट्र को एकताबद्ध और अखंड रख पायेंगे?
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का अड्डा बन गया यह महादेश। संघपरिवार की सुतीव्र मुस्लिम घृणा वोट बैंक के सबसे फायदेमंद समाकरण में तब्दील। मोदी और वामपंथी जिसका समान इस्तेमाल करते हैं। सुनीता विलियम्स हमारी आइकन। बाजार के तमाम ब्रांड और ऐंबेसेडर हमारे आइकन। राजनेता हमारे आइकन। और आर्थिक विकास दर , शेयर सूचकांक पर देश की सेहत तय होती हैं। चायबागानों में मृत्यु जुलूस, किसानों की आत्म हत्या, बेरोजगारी, भुखमरी, अस्पृश्यता, औरतों और बच्चों का हालत, मानवाधिकार, नागरिक अधिकार और लोकतंत्र, कपास, कपड़ा और जूट की बदहाली पर किसी की नजर नहीं। जासूसी उपग्रह नष्ट करने के बहाने अमेरिका ने अंतरिक्ष युद्ध शुरु कर दिया। हथियार उद्योग पर टिकी अमेरिकी यहूदी अर्थव्वस्था का रंगभेद अब भारतीय ब्राह्मणवादी व्यवस्था की मनुस्मृति से जुड़कर ब्रह्मांड की उत्तर आधुनिक सत्ता में तब्दील। राजनीतिक भूगोल बेमायने। ग्लोबल ससत्तावर्ग के सिपाहसालार सर्वत्र राजपाट सम्हाले। मेधा दलाली का पर्याय। सिविल सोसाइटी ग्लोबल सिस्टम का कारगर हथियार। नैनो की लांचिंग देखी नहीं?
अमेरिकी अर्थ व्यवस्था,राजनीति, सैन्यतंत्र और कारपोरेट संकुल का पिछलग्गू बनाकर भारतीय लोकतंत्र का खेल सारी मूलनिवासी आबादी के सफाए के बगैर चरमोत्कर्ष पर नहीं पहुंचनी वाली है।



पिछले कुछ दिनों में अमेरिका का हित इस कदर दुनिया के साथ जुड़ गया है कि अमेरिकी हितों को ही व्यापक रूप से वैश्विक हित के रूप में परिभाषित किया जाता है और उसी आधार पर हर देश वहां के सत्ता प्रतिष्ठान के साथ अपने हितों को जोड़ता है। इनमें से कुछ देशों के हित अमेरिका के साथ कुछ ज्यादा जुड़े होते हैं और कुछ देशों के थोड़े कम होते हैं। जहां तक भारत की बात है नई उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के बाद अमेरिका के साथ इसके हित कुछ ज्यादा जुड़ गए हैं। बुश प्रशासन ने जिस तरह से विश्व व्यवस्था में हस्तक्षेप किया और दुनिया के शांतिपूर्ण ढंग से विकसित होने की संभावनाओं को जितना नुकसान पहुंचाया है, उसकी भरपाई मुश्किल है। एक तरह से बुश प्रशासन ने तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और संधियों पर सवालिया निशान लगा दिया है। कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए किए गए क्योटो संधि को बुश ने ठुकरा दिया। ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए की गई इस अंतरराष्ट्रीय संधिा में अमेरिका के नहीं होने से इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है क्योंकि वह सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। इसी तरह से गर्भपात आदि के लिए तीसरी दुनिया को मिलने वाली मदद पर रोक लगा कर बुश प्रशासन ने एक और प्रतिक्रियावादी काम किया। अंतर महाद्वीपीय मिसाइल संधि को एकतरफा ढंग से तोंड कर बुश प्रशासन ने दुनिया के देशों के बीच अविश्वास पैदा किया और हथियारों की रेस शुरू कर दी। अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय की स्थापना का प्रयास बुश प्रशासन के सहयोग की वजह से सालों तक लटका रहा और जब दुनिया के देशों ने संयुक्त राष्ट्र संधा के तत्वावधान में इसका गठन कर लिया, तब भी अमेरिका इससे बाहर रहा। अफगानिस्तान पर हुए हमले का तर्क तो एक बार दिया जा सकता है क्योंकि वह अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के ठीक बाद किया गया था, लेकिन इराक वार को न्यायसंगत ठहराने वाले किसी तर्क का कोई आधार नहीं है। अमेरिका के ही जांच दल ने साबित कर दिया है कि इराक में जनसंहार का कोई हथियार नहीं मिला है। अमेरिका के दो पत्राकारों ने हाल ही में एक पत्र प्रकाशित किया है, जिसके मुताबिक जार्ज बुश और उनके प्रशासन ने दूसरा इराक वार शुरू होने के बाद से अब तक इस युद्ध के बारे में कुल 935 झूठ बोले हैं। इन झूठों के आधार पर ही बुश प्रशासन ने युद्ध को न्यायसंगत ठहराया। आतंकवाद के खतरे का हवाला देकर अमेरिका में आंतरिक सुरक्षा के कानून इतने सख्त बना दिए गए हैं कि आम आदमी की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इसका खामियाजा रिपब्लिकन पार्टी को झेलना पड़ रहा है। दो साल पहले तक कहा जाता था कि अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी की जीत का स्थायी बंदोबस्त हो गया है। 1960 के दशक में जॉन एफ कैनेडी और बाद में लिंडन बी जॉनसन के समय जो सुधार किए गए और अश्वेतों को मताधिकार दिया गया और उन्हें समान नागरिक अधिकार दिए गए तो एक बड़ा मधयवर्ग डेमोक्रेट पार्टी से नाराज होकर रिपब्लिकन पार्टी के साथ चला गया था। 2001 में अमेरिका पर हुए हमले और उसके बाद छिड़े आतंकवाद विरोधी युद्ध ने रिपब्लिकन पार्टी के आधार को और मजबूत किया। लेकिन पिछले दो साल में यह आधार बुरी तरह खिसका है। कांग्रेस के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा और अभी जो हालात हैं उनमें राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की संभावनाएं कुछ खास अच्छी नहीं दिख रही हैं।




भूमंडलीकरण एक नीति-एक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनितिक नीति का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक ऐसी नीति है जिसकी कुछ शक्तिशाली हितों द्वारा आक्रामक रूप से वकालत की जाती है और उन लोगों के गले में जबर्दस्ती उतारने का प्रयास किया जाता है जो असहाय हो कर इसे स्वीकार कर सकते हैं या इसका विरोध करने का प्रयास कर सकते हैं, हालांकि उन्हें अधिक सफलता नहीं मिल सकती हैं। ऐसे भी लोग हैं जो यह कहते हैं कि आप इसे उतना ही पीछे कर सकते हैं जितना आप किसी लहर को पीछे कर सकते हैं। यह देर-सबेर प्रत्येक देश को अपने आगोश में ले लेगा।
भूमंडलीकरण वास्तव में `नव-उदारवादी´ की संतति हो सकता है और अपने अभिभावक की भांति यह भी एक नीति है जिसे साम्राज्यवादी देशों द्वारा आगे बढ़ाया जाता है और वह तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ नििर्दष्ट है जिन्हें वह अपना िशकार बनाता है। तीन बहनें- उदारवाद, निजीकरण और भूमंडलीकरण साथ-साथ चलती हैं।
तीसरी दुनिया के देशों ने पिछली दो या तीन सदियों से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व के तहत तकलीफें भोगी हैं। उन्होंने अपने उननिवेशी स्वामियों से पिछड़ेपन की विरासत प्राप्त की है। 20वीं सदी के मध्य या उत्तरार्ध के दौरान स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से वे अपने को कठोर स्थिति में पाते हैं, खासकर पूंजी तथा प्रौद्योगिकी के मामले में जिसकी विकास के लिए जरूरत है। वे हर क्षेत्र में अर्धविकास से पीिड़त हैं। भयंकर गरीबी, उच्च बेकारी, निरक्षरता, स्वास्थ्य-देखभाल का अभाव ही उनकी नियति बन गयी है।
द्वितीय विश्वययुद्ध की समाप्ति के बाद जो इतिहास का सर्वाधिकार विध्वंसकारी युद्ध था- विजेता ब्रेटनवूड्स सम्मेलन में शामिल हुए और उन्होंने पुनिर्नर्माण तथा विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों की स्थापना की। इन संस्थानों पर विकसित पूंजीवादी देशों खासकर अमरीका का प्रभुत्व कायम हो गया । जल्द ही वे यह निर्देश देने के औजार हो गये कि अपनी जरूरतों के लिए इन संस्थाओं से कर्ज लेने वाले ग्राहक देशों की किस तरह की आर्थिक नीतियां अपनानी चाहिए। कर्जों के साथ लगातार `शर्तो´ को भी थोप दिया गया। इसके साथ ही उन्होंने एक पूर्ण संरचनात्मक समायाजोन कार्यक्रम को जोड़ दिया जो सभी विकासशील देशों के लिए एक रामबाण हो गया, चाहे उनकी खास विशेषता जो भी हो।
संयुक्त राष्ट्र ने एक `नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था´ की रूपरेखा तैयार की। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद एक ऐसी व्यवस्था की बातें बंद हो गयीं और उसकी जगह अमरीका निर्देिशत `नयी आर्थिक व्यवस्था´ की बात की जाने लगी। ` नव- उदरतावाद ´ का आर्थिक दशZन इस क्षेत्र में प्रभावी होने लगा। `मुक्त बाजार´ प्रतिस्पर्धा, निजी उद्यम, संरचनात्मक समायोजन आदि की बातों के आवरण में तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों जो अमरीका तथा ग्रुप-8 देशों से काम करती हैं, नवगठित विश्व व्यापार संगठन के औजार साथ जो असमान गैट संधि द्वारा सामने लाया गया, साम्राज्यवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर नियंत्रण करने का निष्ठुर अभियान शुरू कर दिया है। यह और कुछ नहीं बल्कि नये रूप में, नये तरीके से समकालीन विश्व स्थिति में नव उपनिवेशी शोषण थोपने का एक तरीका था। उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडीकरण प्रिय मुहावरा हो गये हैं।





एक ऐसे दौर में जब राजनीति बाजार को बढ़ावा दे रही है और न्यायपालिका भी खुद को उसी सांचे में ढाल रही है, ऐसे में गरीबों के लिए तो कोई अवसर हीं नहीं बचा है। राजनीति और न्यायपालिका बाजार अर्थव्यव्यवस्था की जरूरतें पूरी कर रही हैं ताकि अरबपतियों के और ज्यादा अमीर बनने के 'अधिकारों' की रक्षा हो सके तो दूसरी ओर गरीब और ज्यादा गरीब बने रहें। 'बाजार अर्थव्यवस्था में समान भागीदारी और समानता' पर इंडियन लॉ इंस्टीटयूट के गोल्डन जुबली समारोह में उपेंद्र बख्शी का व्याख्यान ................

'बाजार अर्थव्यवस्था' जैसी है, वैसी दिखती नहीं है। इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें उत्पादन और प्रलोभन में अंतर समझना होगा। उत्तर आधुनिक काल के फ्रांसीसी विचारक ज्यां ब्रादिया ने अपने एक निबंध 'द मिरर ऑव प्रोडक्शन' में इस अंतर को स्पष्ट किया है : उत्पादन अदृश्य वस्तुओं को दृश्य बनाता है और लालच दृश्य वस्तुओं को अदृश्य कर देता है, हमें निश्चित रूप से यह सवाल उठाना चाहिए कि आज के 'सुधारों के युग' में भारतीय संविधान ने क्या बनाया, जिसे लालच ने बिगाड़ दिया।
संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के बीच कई अंतर्विरोधों को पठनीय बना दिया, आंबेडकर ने भी 'विरोधाभासों से भरा जीवन' पर अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय की भरपूर प्रशंसा की। उपनिवेशी शासन से मुक्त होने के बाद भारत में अन्तर्विरोधों से भरे समान सामाजिक विकास के मूल्यों की ञेषणा के साथ संविधान में अनुच्छेद 31 के तहत 'संपत्ति का अधिकार' भी जोड़ दिया गया।
अगर हम संविधान में किये गए 1 से 44 तक के संशोधनों और न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याओं पर नजर डालें तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि किस तरह राज्यों के नियमों के तहत भागीदारी और समानता के नाम पर उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति अधिकार लागू कराने की कोशिशें की गईं। पर अन्त में 44वें संविधान संशोधन द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया, सच में खत्म हुआ या फिर इसे संवैधानिक अधिकार के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। यहां मैं यह पूरी कहानी बयां करने नहीं जा रहा हूं, बल्कि यह याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि संवैधानिक व्याख्या के पहले दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने जो कुछ भी कहा था अब वह अपने ही दिये गए फैसलों से मुकर रहा है। पहले दिये गए फैसलों में मौलिक अधिकारों के सामने सभी करारों और संपत्ति को नगण्य बताया था। मैं ऐसे पांच उदाहरण दे सकता हूं, जिसमें न्यायालय का बदला हुआ रूप साफ दिखाई देता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल्य, गरीब और पिछड़े लोगों के मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और नागरिकों के मूल कर्तव्य सब कुछ नीति-निर्माताओं और न्यायाधीशों ने मिलकर खत्म कर दिया है। हमारे नीति- निर्देशक तत्व खासतौर पर संवैधानिक विकास की तस्वीर बनाने के लिए संविधान में रखे गए थे जो आज के आर्थिक सुधारों के दौर में फिट नहीं हो रहे हैं।
एक समारोह में भाग लेते समय, बहुत से लोगों ने हमारे से यह सवाल पूछा कि क्या भारतीय कानूनी शिक्षा, शोध, व्यवसाय और यहां तक कि न्यायपालिका वैश्विक बाजार की जरूरतों को पूरा कर पाएगी?
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि 'न्याय तक पहुंच' (एक्सेस टू जस्टिस) शब्द उतना ही रहस्यवादी है जितना कि 'वैश्विक अर्थव्यवस्था'। जिन लोगों ने डब्ल्यूटीओ की विफल हुई दोहा वार्ताओं को देखा है वे जरूर इस बात से सहमत होंगे। इस वार्ता में 'नॉन एग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस' (नामा)भी शामिल था, जिसका मुख्य लक्ष्य था कि मुक्त बाजार पर सभी प्रकार के शुल्क संबंधी और गैर शुल्क सम्बंधी प्रतिबंधों को सभी देश हटा लें। जैसा कि हम सभी को पता है कि 'अमेरिका की जीरो टैरिफ कोएलिशन' जिसके एक कर्मचारी डॉव केमिकल्स से थे, ने मांग की कि बहुत से क्रूशियल सेक्टरों में जीरो टैरिफ कर दिया जाए। इनमें खेल का सामान, खिलौने, लकड़ी की मशीनें और लकड़ी का सामान भी शामिल था। कुछ आलोचकों ने नामा को कंपनियों के लिए एक ऐसा स्वप्निल वाहन बताया जो पूरी दुनिया में करों और नियमों को कुचल रहा है। जैसा कि हमें पता है जी-90 ने भी खतरे के लिए भय व्यक्त किया था कि कहीं मुक्त अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता छोटे उद्योगों और छोटी फर्मों को खत्म न कर दे। उन्हें यह भी डर था कि जीरो टैरिफ आगे चलकर अनौद्योगीकरण, बेकारी और गरीबी जैसे संकट पैदा कर देगा। वैश्विक पूंजी से प्रोत्साहित होकर 'नामा' की प्राकृतिक संसाधनों की खोज विनाश का मिशन न बन जाए।
असल में 'वैश्विक अर्थव्यवस्था' की धारणा 'वैश्विक पूंजी' द्वारा लूट के नये तरीकों को परिभाषित करती है। भूमंडलीकरण का मतलब नए तरह का उपनिवेशवाद है, इसके पुराने रूप में प्रदेशों, साधनों और लोगों पर हुकूमत साफ तौर पर दिखाई तो देती थी, लेकिन अब नए रूप में तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, सब कुछ अदृश्य रूप से हो रहा है, जो और भी ञतक है।
वर्तमान भूमंडलीकरण के कई रूप हैं, लेकिन इनमें कानूनी और न्यायिक भूमंडलीकरण की मुख्य भूमिका है। कानूनी भूमंडलीकरण में कई बाते हैं। यह कानूनी नौकरियों के लिए विश्व बाजार में एक 'प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बनाता है और महानगरीय कानूनी व्यवसाय को आधुनिक भी बनाता है। इस प्रक्रिया में कुछ प्रतिष्ठत राष्ट्रीय लॉ स्कूलों के वाइस-चांसलर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे संवैधानिक बदलाव, आर्थिक नीति और कानून में सुधार आदि के मामलों में सलाह देने के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों को कॉरपोरेट ढंग से काम करने के लिए भी तैयार करते हैं।
कानूनी भूमंडलीकरण नए कानूनी सुधार के एजेंडे को भी व्यक्त करता है जो आर्थिक भूमंडलीकरण के तीन 'डी' डीनैशनलाइजेशन (विराष्ट्रीयकरण), डिस-इंवेस्टमेंट (विनिवेश) और डीरेग्युलेशन (विनियमन) को साकार कर रहा है। इस एजेंडे में खासतौर पर नई कार्यान्वयन संस्थाओं, प्रक्रियाओं, और संस्कृतियों को अपने ढंग से मोड़ना, विवादों के वैकल्पिक निर्णय पर जोर देना, निवेश और व्यावसायिक कानूनों को सरल बनाना है। इसका झुकाव 'श्रम बाजार' के लचीलेपन को बढ़ावा देने की ओर है। कानूनी सुधारों में न्यायिक प्रशासन की कार्यकुशलता खासतौर पर नई आर्थिक नीति का यंत्र नजर आती है। 'फॉर ग्लोबलाइजेशन' नाम की इस प्रक्रिया ने कई महत्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन किये हैं, जैसे- रोजगार गारंटी योजना अधिनियम, बाल श्रम कानूनों को लागू करना, उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा-व्यवस्था और सूचना का अधिकार। संक्षेप में कहें तो कानूनी भूमंडलीकरण्ा भारत के नए उभरते मध्य वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ जरूरतों को बढ़ावा भी दे रहा है।
मुझे यकीन है कि इस नए विषैले न्याय की वैश्विक सामाजिक उत्पत्ति पर सवाल जरूर उठेंगे कि वैश्विक स्तर पर न्याय पर बात करने वाले कौन से दबाव, मैनेजर और एजेंट हैं? हम उनकी असली मंशा कैसे जान सकते हैं? मुझे तो यह बिल्कुल साफ नजर आ रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय और प्रांतीय वित्तीय संस्थाएं, अमेरिका, यूरोपीय संञ्, जापान और बुरी तरह से ञयल हुआ डब्ल्यूटीओ, इनका एक ही मकसद है कि तीसरी दुनिया के श्रम और पूंजी बाजार में ञ्ुसपैठ करना ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों के लिए साफ-सुरक्षित रास्ता तैयार हो सके।
न्यायिक भूमंडलीकरण के संदर्भ में मैं 'एक्सेस' शब्द के दु:खद पहलू पर रोशनी डालना चाहता हूं। न्यायिक भूमंडलीकरण विषय पर उपलब्ध थोड़े बहुत साहित्य से यह पता चलता है कि यह दुनिया के शीर्ष न्यायालयों और न्यायाधीशों के बीच सौहार्द और सहयोग की नयी व्यवस्था है। पहली नजर में, इस बात पर प्रश्न उठता है कि शीर्ष न्यायाधीशों को एक दूसरे के साथ मिलकर उनकी उपलब्धियों को जानना चाहिए या फिर उन्हें राष्ट्रीय और वैश्विक न्याय के कामों का पालन करते हुए 'सहकारी समाज' बन जाना चाहिए। अक्सर साधारण सी दिखने वाली बातों में कुछ बड़ा एजेंडा छिपा होता है। न्यायिक सौहार्द अक्सर आधिपत्य और कभी-कभी तो सामान्य प्रभुत्व में रंगा होता है।
उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस कांड में जज कीनान ने कहा कि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के कारण हुए महाविनाश की इस जटिल परिस्थिति के बारे में निर्णय लेने में 'भारतीय न्यायालय' सक्षम नहीं है। इस सारे प्रकरण्ा में खास बात यह थी कि हानि के लिए भरपाई 'शेष प्रक्रिया' पूरी होने पर ही की जाएगी और यह कार्रवाई भारत के 'स्माल कॉजिज कोर्ट' निचली अदालतों की बराबरी करने वाले 'न्यूयॉर्क' कोर्ट द्वारा की जाएगी और उसी कोर्ट को कहा गया है कि वह निर्णय ले कि इस सबके लिए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय योग्य है या नहीं? संक्षेप में, न्यायिक भूमंडलीकरण का मतलब है दक्षिण के सर्वोच्च न्यायालयों पर उत्तर के न्यायालयों का प्रभुत्व।
'गुड गवर्नेंस' की धारणा भी न्यायिक भूमंडलीकरण का ही रूप है, जिसमें सरकारी और अंतर्शासकीय सहायता और विकास एजेंसियों के तहत निर्णय में सुधार शामिल है। ऐसी खास एजेंसियां अक्सर कानूनी सुधारों और न्यायिक प्रशासन को अपने हाथ में ले लेती हैं और उन्हें अपनी ही आर्थिक और स्ट्रेटेजिक जरूरतों के मुताबिक ढाल लेती हैं। खासतौर पर व्यापारिक उदारीकरण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, कम्पनी टाउन की स्थापना, मुक्त व्यापार आर्थिक क्षेत्र और लचीला श्रम बाजार जैसे मामलों में न्यायिक रूप से स्वयं को नियंत्रित करने को बढ़ावा देती हैं।
'ढांचागत समायोजन' एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं सहारा लेकर उन देशों की आजादी को निगल रही हैं जो कभी साम्राज्यवादी ताकतों के गुलाम रह चुके हैं। यह व्यवस्था न्यायिक शक्ति सामर्थ्य और प्रक्रिया से भी परे है। मुझे तो लगता है कि विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, यूएनडीपी और इनसे जुड़े 'गुड गवर्नेंस' के कार्यक्रम सभी 'न्यायिक सक्रियतावाद' को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी न्यायिक व्याख्याओं फैसलों और शासन के सभी रूपों को बाजार सहयोगी और व्यापार-संबंधी बनाना चाहते हैं। न्यायिक नीति की आधार 'मैक्रो-इकॉनोमिक पॉलिसी' से जुड़े न्यायिक प्रतिबंधनों को पहले से ही 'हाइपर- ग्लोबलाइज' हुए 'इंडियन एपिलेट बार' ने अपने ढंग से ढाल दिया है। न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया का जो हाल है उसने तो 'भारतीय भूमंडलीकरण के आलोचकों' के मनों से न्यायपालिका के प्रति सम्मान ही खत्म कर दिया है।
संक्षेप में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि न्याय सुलभता (न्याय तक पहुंच विषय पर विचार) समस्या बनी रहेगी, समाधान नहीं। इसका हल ढूंढने के लिए कुछ सवालों के जवाब खोजने होंगे- हम ज्यूडिशियल एक्सेस को ही डी-ग्लोबलाइज कैसे कर सकते हैं, जबकि देश में समुद्रपारीय पूंजी से कामगार वर्ग की जीविका और सम्मान के अधिकारों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता? हम यह कैसे मान सकते हैं कि नए ग्लोबल शहरों और सेज जैसे एंक्लेव को बनाकर विस्थापित और पीड़ित शहरी लोगों को पहले जैसे ही मानव अधिकार बहाल किये जाएंगे? हम अपने लोकतंत्र और संविधान में गुड गवर्नेंस' जैसी बाहरी उधार ली हुई धारणा को कैसे अपना सकते हैं? निर्वाचित और गैर- निर्वाचित (न्यायाधीश) अधिकारियों के शासन में नई आर्थिक नीति निष्पक्ष मानव अधिकारों को लागू करने में कितनी प्रभावशाली साबित होगी, हम कैसे न्यायपालिका की गरिमा को फिर से वापस ला सकते हैं? अंत में मैं ज्याँ फ्रास्वाँ ल्योता के शब्दों को दोहराना चाहूंगा। उन्होंने कहा था : ''हम इतिहास के उन सबसे बुरे प्रभावों को खोजने के लिए जरूरतों के आधार में गिरावट को कैसे समझ सकते हैं, जो सच्चाई की पूरी और कठोर तस्वीर के निर्माण का विरोध करते हैं... (जो केवल सुनते हैं)... अस्पष्ट भावनाओं, नेताओं के दम्भ, कामगारों का दुख, किसानों का अपमान और शासित लोगों का गुस्सा और विद्रोह की ञ्बराहट, यही ञ्बराहट फिर से वर्गीय अव्यवस्था को दावत देती है। ''जस्टिस गोस्वामी ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय के बारे में कहा था कि यह ञ्बराए और सताए लोगों का आखिरी सहारा है। शायद ग्लोबलाइज हुए भारतीय न्यायालय को फिर से अपनी खोई न्यायिक गरिमा को बरकरार रखने की जरूरत है। (पीएनएन- काम्बैट लॉ)






लाक्षागृह
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अपने उत्तम गुणों के कारण युधिष्ठिर हस्तिनापुर के प्रजाजनों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गये। उनके गुणों तथा लोकप्रियता को देखते हुये भीष्म पितामह ने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर के राज्याभिषेक कर देने के लिये कहा। दुर्योधन नहीं चाहता था कि युधिष्ठिर राजा बने अतः उसने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा, "पिताजी! यदि एक बार युधिष्ठिर को राजसिंहासन प्राप्त हो गया तो यह राज्य सदा के लिये पाण्डवों के वंश का हो जायेगा और हम कौरवों को उनका सेवक बन कर रहना पड़ेगा।" इस पर धृतराष्ट्र बोले, "वत्स दुर्योधन! युधिष्ठिर हमारे कुल के सन्तानों में सबसे बड़ा है इसलिये इस राज्य पर उसी का अधिकार है। फिर भीष्म तथा प्रजाजन भी उसी को राजा बनाना चाहते हैं। हम इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते।" धृतराष्ट्र के वचनों को सुन कर दुर्योधन ने कहा, "पिताजी! मैंने इसका प्रबन्ध कर लिया है। बस आप किसी तरह पाण्डवों को वारणावत भेज दें।"

दुर्योधन ने वारणावत में पाण्डवों के निवास के लिये पुरोचन नामक शिल्पी से एक भवन का निर्माण करवाया था जो कि लाख, चर्बी, सूखी घास, मूंज जैसे अत्यन्त ज्वलनशील पदार्थों से बना था। दुर्योधन ने पाण्डवों को उस भवन में जला डालने का षड़यन्त्र रचा था। धृतराष्ट्र के कहने पर युधिष्ठिर अपनी माता तथा भाइयों के साथ वारणावत जाने के लिये निकल पड़े। दुर्योधन के षड़यन्त्र के विषय में विदुर को पता चल गया। अतः वे वारणावत जाते हुये पाण्डवों से मार्ग मे मिले तथा उनसे बोले, "देखो, दुर्योधन ने तुम लोगों के रहने के लिये वारणावत नगर में एक ज्वलनशील पदार्थों एक भवन बनवाया है जो आग लगते ही भड़क उठेगा। इसलिये तुम लोग भवन के अन्दर से वन तक पहुँचने के लिये एक सुरंग अवश्य बनवा लेना जिससे कि आग लगने पर तुम लोग अपनी रक्षा कर सको। मैं सुरंग बनाने वाला कारीगर चुपके से तुम लोगों के पास भेज दूँगा। तुम लोग उस लाक्षागृह में अत्यन्त सावधानी के साथ रहना।"

वारणावत में युधिष्ठिर ने अपने चाचा विदुर के भेजे गये कारीगर की सहायता से गुप्त सुरंग बनवा लिया। पाण्डव नित्य आखेट के लिये वन जाने के बहाने अपने छिपने के लिये स्थान की खोज करने लगे। कुछ दिन इसी तरह बिताने के बाद एक दिन यधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, "भीम! अब दुष्ट पुरोचन को इसी लाक्षागृह में जला कर हमें भाग निकलना चाहिये।" भीम ने उसी रात्रि पुरोचन को किसी बहाने बुलवाया और उसे उस भवन के एक कक्ष में बन्दी बना दिया। उसके पश्चात् भवन में आग लगा दिया और अपनी माता कुन्ती एवं भाइयों के साथ सुरंग के रास्ते वन में भाग निकले।

लाक्षागृह के भस्म होने का समाचार जब हस्तिनापुर पहुँचा तो पाण्डवों को मरा समझ कर वहाँ की प्रजा अत्यन्त दुःखी हुई। दुर्योधन और धृतराष्ट्र सहित सभी कौरवों ने भी शोक मनाने का दिखावा किया और अन्त में उन्होंने पाण्डवों की अन्त्येष्टि करवा दी।


दैनिक भास्कर चीन को देखे और सीखे भारत
दैनिक भास्कर - 27 अप्रैल 2008
... बगैर वैश्विक बदलाव को आत्मसात कर पूंजीवादी देशों के साथ कैसे खड़ा रहा जा सकता है। शेर अब न सिर्फ जाग गया है, बल्कि दहाड़ रहा है और दुनिया उसे डरी-सहमी निहार रही है। चीन का समाज अब खुला-खुला है। यहां के होटल, रेस्त्रां और विशालकाय शॉपिंग मॉल्स में पश्चिम के आधुनिक वातावरण की पूरी छाप है। लड़कियां अकेले घूमती हैं और धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलती हैं। आज चीन 11-12 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद विकास दर (जीडीपी ग्रोथ) दर्ज कर रहा है, ...




November 21, 2007

नंदीग्राम : माकपा मार्क्सवाद को अश्लील कर रही है
http://hashiya.blogspot.com/2007/11/blog-post_21.html

रविभूषण
समकालीन हिंदी कवि नवीन सागर (९ नवंबर १९४८- १४ अप्रैल २०००) के पहले
कविता संग्रह नींद से लंबी रात की एक कविता 'अच्छी सरकार' में एक साथ
सरकार द्वारा सितार बजाने और हथियार चलाने की बात कही गयी है, ' यह बहुत
अच्छी सरकार है. इसके एक हाथ में सितार, दूसरे में हथियार है. सितार
बजाने और हथियार चलाने की तजुर्बेकार है्व'
पश्र्िचम बंगाल में माकपा ने अपने कार्यकाल के आरंभ में भूमि संबंधी
कानूनों से सितार बजाने की जो शुरुआत की थी, वह कुछ समय बाद ही समाप्त हो
गयी. आर्थिक उदारीकरण ने राज्य समर्थित पूंजीवाद को तिलांजलि देकर
स्वतंत्र बाजार के पूंजीवाद को गले लगाया. माकपा ने भी यही राह पकडी.
माकपा की आर्थिक नीति और कांग्रेस-भाजपा की अर्थनीतियों में क्या कोई
अंतर हैङ्क्ष आर्थिक सुधार और उदारीकरण की वकालत कर विकास की पूंजीवादी
अवधारणा से सहमत होकर इस मार्ग पर चलना मार्क्सवाद नहीं है. आर्थिक सुधार
का सही नाम 'पूंजीवादी विकास' है. नंदीग्राम इसी पूंजीवादी विकास मार्ग
से उत्पन्न है. प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य इस मार्ग के
मार्क्सवादी पाथिक हैं.
१९७० के दशक और २००७ में अंतर है. '७० के दशक में प्रकाश करात जेएनयू
छात्र संघ के पहले अध्यक्ष चुने गये थे. इस वर्ष जेएनयू के छात्र संघ के
चुनाव में माकपा और भाकपा के छात्र संगठनों- एसएफआइ और एसएसएफ में जेएनआइ
ने- विकास के लिए नंदीग्राम की हत्याओं का पक्ष लेकर माकपा की कार्यशैली
को उचित ठहराया और वे चुनाव में बुरी तरह हारे, पहली बार जेएनयू के
इतिहास में धुर वाम छात्र संगठन आइसा (माले लिबरेशन की छात्र शाखा) ने
सारी सीटें जीतीं.
मार्च '०७ के बाद नवंबर '०७ में नंदीग्राम में जो भी घटित हुआ है, उसे
भुलाया नहीं जा सकता. मार्च में पुलिस ने ग्रामीणों पर गोलियां चलायी
थीं और नवंबर में माकपा के हथियारबंद कैडरों ने. क्या पुलिस और माकपा के
हथियारबंद कैडर भाई-बंधु हैंङ्क्ष क्या नंदीग्राम एक युद्धस्थल हैङ्क्ष
किसानों पर गोलियां चलानेवाले माकपा के कैडर किन अर्थों में मार्क्सवादी
हैंङ्क्ष माग्नुस एजेंस बर्गर की एक छोटी कविता मार्क्स पर है : मैं
देखता हूं, तुम्हें ाधेखा दिया/ तुम्हारें शिष्यों ने/ केवल तुम्हारे
शत्रु/ आज भी वही हैं, जो पहले थे.
मार्च २००७ की घटनाओं के बाद मार्क्सवादी इतिहासकार सुमित सरकार ने पहली
बार नंदीग्राम की तुलना गुजरात नरसंहार से की. क्यों अब नरेंद्र मोदी के
नाम के साथ बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम जोडा जाता हैङ्क्ष मोदी ने गोधरा
की प्रतिक्रिया में गुजरात नरसंहार की बात कही थी; बुद्धदेव भट्टाचार्य
के अनुसार माओवादियों को उन्हीं की शैली में जवाब देकर माकपा के कैडरों
ने सही कार्य किया है. दूसरी ओर प्रकाश करात मनमोहन सिंह को उद्धृत कर
रहे हैं- 'माओवादी राष्टीय सुरक्षा के लिए सबसे बडा खतरा हैं.'
१४ मार्च २००७ को माकपा सरकार की पुलिस ने नंदीगा्रम में निर्दोष
ग्रामीणों की हत्या की थी और अगले दिन १५ मार्च को कलकत्ता हाइकोर्ट ने
मीडिया रिपोर्ट को ध्यान में रख कर सीबीआइ को जांच के आदेश दिये थे. तब
नंदीग्राम के वासियों को राज्य सरकार सुरक्षा नहीं दे सकी थी. अब
हाइकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर अपराधियों पर केस दायर करने का आदेश दिया
है और एक महीने के भीतर रिपोर्ट जमा करने को कहा है. हाइकोर्ट ने राज्य
सरकार को घटना में मरे लोगों के परिजनों और घायलों को मुआवजा देने का भी
आदेश दिया है.
नंदीग्राम में पहले पुलिस और बाद में माकपा के कैडरों द्वारा की गयी
हत्याओं को क्या किसी प्रकार उचित और न्यायसंगत सिद्ध किया जा सकता है
ङ्क्ष माकपा के साथ अब नंदीग्राम सदैव के लिए जुड गया है. कैडरों द्वारा
नवंबर में एक सप्ताहिक हिंसा और उपद्रव जारी रखना क्या सिद्ध करता
हैङ्क्ष माकपा के कार्यकर्ताओं ने सीआरपीएफ के जवानों को नंदीग्राम जाने
नहीं दिया. कलकत्ता हाइकोर्ट ने १४ मार्च ०७ को नंदीग्राम में हुई
फायरिंग को असंवैधानिक और अनुचित कहा है ङ्क्ष क्या नवंबर में नंदीग्राम
पर कब्जा करने के लिए माकपा कैडरों द्वारा की गयी हत्या संवैधानिक और
उचित है ङ्क्ष माकपा की कार्रवाई का सबने विरोध किया है. वाम सरकार के एक
मंत्री ने तो इस्तीफे की पेशकश भी की थी. राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने
ज्योति बसु के घर जाकर उनसे नंदीग्राम में शांति कायम करने का आग्रह किया
था. माकपा के सहयोगी दलों- भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लॉक ने उनके
नाजायज तरीकों पर आपत्ति की है. स्वयं बुद्धदेव भट्टाचार्य के अनुसार ७००
व्यक्ति रहात शिविरों में हैं. माकपा के कैडरों पर सैकडों घर जालाने,
हत्या और बलात्कार के आरोप हैं. राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के बयान पर
माकपा की बौखलाहट के पीछे उसकी घबराहट थी.
माकपा भूल चुकी है कि लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा और राजग को
उनकी आर्थिक नीतियों के कारण सत्ता से हटा दिया था. भारतीय जनता आर्थिक
सुधार के कार्यक्रमों के खिलाफ है. यह अकारण नहीं है कि गुजरात में रतन
लाल टाटा नरेंद्र मोदी की विकास नीतियों के साथ हैं; और पश्र्िचम बंगाल
में बडे पूंजीपति बुद्धदेव भट्टाचार्य के साथ हैं. बुद्धदेव किसानों,
गरीबों और सामान्य व्यक्तियों के साथ नहीं हैं. हाथ से सितार छूट चुका
है.
माकपा के खिलाफ बंगाल बंद हो चुका है. १४ नवंबर को कोलकाता में कवियों,
लेखकों, कलाकारों, रंगकर्मियों, अभिनेताओं, फिल्मकारों के साथ हजारों की
संख्या में मौन जुलूस संदेश को क्या बुद्धदेव भट्टाचार्य भूल पायेंगे
ङ्क्ष माकपा के कैडर और कार्यकर्ता के सामने मृणाल सेन, गौतम घोष अपर्णा
सेन, ऋतुपर्णा घोष, जोगेन चौधुरी, शंख घोष, जय गोस्वामी, महाश्र्वेता
देवी, सुचित्रा भट्टाचार्य, विभाष चक्रवर्ती, सांवली मित्र, कौशिक सेन,
मेघा पाटेकर आदि क्या कोई अर्थ नहीं रखतेङ्क्ष १४ नवंबर को ही लोकसभा
अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने जेएनयू में जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल व्याख्यान
में नेहरू के लोकतंत्र संबंधी विचारों को उद्धृत किया था. अपने इस
व्याख्यान में सोमनाथ चटर्जी ने जनता के प्रति सरकार की एकाउंटिबिलिटी
की बात की थी. बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री से अधिक पार्टी से
जुडाव-लगाव को महत्व दे रहे हैं और अपनी पार्टी के कैडरों के
क्रियाकलापों को उचित ठहरा रहे हैं.
नंदीग्राम ने राज्य बनाम पार्टी, भारतीय संविधान और संसदीय लोकतंत्र से
जुडे कई अहम प्रश्र्न उपस्थित कर दिये हैं. राज्य और राजनीतिक दल में
सर्वोपरि कौन हैङ्क्ष संविधान की शपथ लेकर संविधान के उसूलों के खिलाफ
कार्य करना क्या सही हैङ्क्ष संसदीय लोकतंत्र के नियमों को नष्ट करना
लोकतंत्र के हित में कैसे हैङ्क्ष संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन का
प्रश्र्न बडा प्रश्र्न है. गयारह महीनों से नंदीग्राम पर भूमि उच्छेद
प्रतिरोध कमेटी का कब्जा था और अब माओवादियों ने स्वीकारा है कि वे
नंदीग्राम में हैं. नंदीग्राम 'मुक्तक्षेत्र' नहीं था. अब वहां के किसान
स्थानीय माकपा नेताओं की अनुमति के बगैर खेतों से अपनी फसल अपने घर नहीं
ले जा सकते. वहां राज्य नहीं, माकपा के कैडर कार्यरत हैं. क्या यह स्थिति
लंबे समय तक कायम रह सकेगीङ्क्ष माकपा ने नंदीग्राम में 'केमिकल हब' और
'सेज' के लिए भूमि अधिग्रहण न करने की बात अवश्य कही है, पर मुख्य सवाल
यह है कि पूंजीवादी विकास के मार्ग से वह अपने को अलग करेगी या नहींङ्क्ष
रणधीर सिंह पश्र्िचम बंगाल में माकपा की राजनीति के जिन वर्तमान संकटों
और टैजिडी की जडें की ओर ध्यान दिलाते हैं, उस ओर प्रकाश करात और
बुद्धदेव भट्टाचार्य को ध्यान देना चाहिए. रणधीर सिंह ने फ्यूचर ऑफ
सोशलिज्म में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि तीस वर्ष तक लगातार सत्ता
में बने रहने के बाद भी दूसरे राज्यों की तुलना में माकपा ने उनसे भिन्न
और कुछ विशिष्ट नहीं किया है. उसने भी अन्य राज्यों की तरह विकास के
पूंजीवादी मार्ग का ही चयन किया है. अब माकपा नेता समाजवाद और वर्ग
राजनीति की भाषा में बात नहीं करते हैं. मार्क्सवाद को उद्धृत करते हैं,
उसे अश्लील करने के लिए. पूंजीवादी विकास - मार्ग को 'रिजेक्ट' कर ही
सच्चा मार्क्सवादी हुआ जा सकता है. रणधीर सिंह प्रश्र्न करते हैं कि
समाजवादी सिद्धांतों की रोशनी में पश्र्िचम बंगाल में क्या किया जा सकता
है और क्या नहीं किया जा सकता हैङ्क्ष अच्छी सरकार एक हाथ में सितार और
दूसरे में हथियार नहीं रखती.





साहित्यिक निबंध


भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ : संचार माध्यम
और हिंदी का संदर्भ
—डॉ. ऋषभदेव शर्मा
http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2007/bhumandalikaran.htm

भूमंडलीकरण ने विगत दो दशकों में भारत जैसे महादेश के समक्ष जो नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं उनमें सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रा-तफ़री और उसे सँभालने के लिए जनसंचार माध्यमों के पल-प्रतिपल बदलते रूपों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान संदर्भ में भूमंडलीकरण का अर्थ व्यापक तौर पर बाज़ारीकरण है।



भारत दुनियाभर के उत्पाद निर्माताओं के लिए एक बड़ा ख़रीदार और उपभोक्ता बाज़ार है। बेशक, हमारे पास भी अपने काफ़ी उत्पाद हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाज़ार में उतार रहे हैं क्योंकि बाज़ार केवल ख़रीदने की ही नहीं, बेचने की भी जगह होता है। इस क्रय-विक्रय की अंतर्राष्ट्रीय वेला में संचार माध्यमों का केंद्रीय महत्व है क्योंकि वे ही किसी भी उत्पाद को ख‍रीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं। यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है। यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है तथा मातृबोलियाँ सिकुड़ और मर रही हैं।
आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चरित रूप भर बनकर रह जाने का ख़तरा उपस्थित है क्योंकि संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिक माध्यम टी.वी. अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी में बोलता भर है, लिखता अंग्रेज़ी में ही है। इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है। विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आनेवाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है। इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है।

सूचना संचार प्रणाली किसी भी व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अंग्रेज़ रहे हों या हिटलर जैसे तानाशाह, सबको यह मालूम था कि सैन्य शक्ति के अलावा असली सत्ता जनसंचार में निहित होती है। आज भी भूमंडलीकरण की व्यवस्था की जान इसी में बसती है। दूसरी तरफ़ समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है जो सूचनाओं का व्यापक संप्रेषण करता है। साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना-बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं। भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं कराए हैं, इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतर्राष्ट्रीयता के नए अस्त्र-शस्त्र भी मुहैया कराए हैं। परिणामस्वरूप संचार माध्यमों की त्वरा के अनुरूप भाषा में भी नए शब्दों, वाक्यों, अभिव्यक्तियों और वाक्य संयोजन की विधियों का समावेश हुआ है।

इस सबसे हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है। संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसा भाषा के द्वारा ही करते हैं। अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है। वह अदालतनुमा कार्यक्रमों के रूप में सरकार और प्रशासन से प्रश्न पूछती है, विश्व जनमत का निर्माण करने के लिए बुद्धिजीवियों और जनता के विचारों के प्रकटीकरण और प्रसारण का आधार बनती है, सच्चाई का बयान करके समाज को अफ़वाहों से बचाती है, विकास योजनाओं के संबंध में जन शिक्षण का दायित्व निभाती है, घटनाचक्र और समाचारों का गहन विश्लेषण करती है तथा वस्तु की प्रकृति के अनुकूल विज्ञापन की रचना करके उपभोक्ता को उसकी अपनी भाषा में बाज़ार से चुनाव की सुविधा मुहैया कराती है। किस्सा कोताह कि आज व्यवहार क्षेत्र की व्यापकता के कारण संचार माध्यमों के सहारे हिंदी भाषा की भी संप्रेषण क्षमता का बहुमुखी विकास हो रहा है। हम देख सकते हैं कि राष्ट्रीय ही नहीं, विविध अंतर्राष्ट्रीय चैनलों में हिंदी आज सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को व्यक्त करने के अपने सामर्थ्य को विश्व के समक्ष प्रमाणित कर रही है। अत: कहा जा सकता है कि वैश्विक संदर्भ में हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

एक तरफ‍ साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ़ संचार माध्यम की भाषा ने जनभाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की है। समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है। इसी प्रकार पौराणिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, पारिवारिक, जासूसी, वैज्ञानिक और हास्यप्रधान अनेक प्रकार के धारावाहिकों का प्रदर्शन विभिन्न चैनलों पर जिस हिंदी में किया जा रहा है वह एकरूपी और एकरस नहीं है बल्कि विषय के अनुरूप उसमें अनेक प्रकार के व्यावहारिक भाषा रूपों या कोडों का मिश्रण उसे सहज जनस्वीकृत स्वरूप प्रदान कर रहा है। एक वाक्य में कहा जा सकता है कि संचार माध्यमों के कारण हिंदी भाषा बड़ी तेज़ी से तत्समता से सरलीकरण की ओर जा रही है। इससे उसे अखिल भारतीय ही नहीं, वैश्विक स्वीकृति प्राप्त हो रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हिंदी दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परंतु आज स्थिति यह है कि वह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है तथा यदि हिंदी जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी भाषा प्रयोक्ताओं को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए तो हो सकता है कि हिंदी दुनिया की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह कहना ग़लत न होगा कि संचार माध्यमों ने हिंदी के जिस विविधतापूर्ण सर्वसमर्थ नए रूप का विकास किया है, उसने भाषासमृद्ध समाज के साथ-साथ भाषावंचित समाज के सदस्यों को भी वैश्विक संदर्भों से जोड़ने का काम किया है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग के दिमाग़ी शगल की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है।

हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृत्ति है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता। बाज़ारीकरण की अन्य कितने भी कारणों से निंदा की जा सकती हो लेकिन यह मानना होगा कि उसने हिंदी के लिए अनुकूल चुनौती प्रस्तुत की। बाज़ारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ। अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है।

यहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि बाज़ारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुड़ी हुई है। यदि इसका माध्यम अंग्रेज़ी हुई होती तो अंग्रेज़ियत का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाज़ार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं है। विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। अनुवाद को इसकी सीमा माना जा सकता है। फिर भी, कहा जा सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने बाज़ारवाद के खिलाफ़ उसी के एक अस्त्र बाज़ार के सहारे बड़ी फतह हासिल कर ली है। अंग्रेज़ी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अंग्रेज़ी नहीं। और उन सबमें हिंदी की सार्वदेशिकता पहले ही सिद्ध हो चुकी है।

बाज़ार और हिंदी की इस अनुकूलता का एक बड़ा उदाहरण यह हो सकता है कि पिछले पाँच-सात वर्षों में संचार माध्यमों पर हिंदी के विज्ञापनों के अनुपात में सत्तर प्रतिशत उछाल आया है। इसका कारण भी साफ़ है। भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्नवित्त समाज का है जिसकी समझ और आस्था अंग्रेज़ी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इस नए भाषिक परिवेश में विभिन्न संचार माध्यमों की भूमिका केंद्रीय हो गई है।

हम देख सकते हैं कि इधर हिंदी पत्रकारिता का स्वरूप बहुत बदल गया है। अनेक पत्रिकाएँ यद्यपि बंद हुई हैं परंतु अनेक नई पत्रिकाएँ नए रूपाकार में शुरू भी हुई हैं। आज हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी और हिंदीतर राज्यों का अंतर मिटता जा रहा है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का पाठक वर्ग तो संपूर्ण देश में है ही, उनका प्रकाशन भी देशभर से हो रहा है। डिजिटल टेकनीक और बहुरंगे चित्रों के प्रकाशन की सुविधा ने हिंदी पत्रकारिता जगत को आमूल परिवर्तित कर दिया है।

इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि प्रकाशन जगत में भी वैश्वीकरण के साथ जुड़ी नई तकनीक के कारण मूलभूत क्रांति संभव हो सकी है। विभिन्न आयु और रुचियों के पाठकों के लिए हिंदी में विविध प्रकार का साहित्य प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो रहा है तथा मनोरंजन, ज्ञान, शिक्षा और परस्पर व्यवहार के विभिन्न क्षेत्रों में उसका विस्तार हो रहा है।

रेडियो तो हिंदी और भारतीय भाषाओं का प्रयोग करने वाला व्यापक माध्यम रहा ही है, प्रसन्नता की बात यह है कि टेलिविज़न बहुत थोड़े समय के भीतर ही हिंदी-माध्यम बन गया है। प्रतिदिन होने वाले सर्वेक्षण इस बात का प्रमाण है कि हिंदी के कार्यक्रम चाहे किसी भी विषय से संबंधित हों, देश भर में सर्वाधिक देखे जाते हैं, अर्थात व्यावसायिकता की दृष्टि से हिंदी संचार माध्यमों के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र उपलब्ध कराती है। यही कारण है कि अंग्रेज़ी के तमाम, जानकारीपूर्ण और मनोरंजनात्मक दोनों प्रकार के, कार्यक्रम हिंदी में डब करके प्रसारित करने की बाढ़-सी आ गई है। इससे अन्य भारतीय भाषाओं में भी उनके अनुवाद में सुविधा होती है। कहना न होगा कि टेलीविजन ने इस तरह हिंदी के भाषावैविध्य और संप्रेषण क्षमता को सर्वथा नई दिशाएँ प्रदान की हैं।

इसी प्रकार फ़िल्म के माध्यम से भी हिंदी को वैश्विक स्तर पर सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज अनेक फ़िल्मकार भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों के अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं और हिंदी सिनेमा ऑस्कर तक पहुँच रहा है। दुनिया की संस्कृतियों को निकट लाने के क्षेत्र में निश्चय ही इस संचार माध्यम का योगदान चमत्कार कर सकता है। यदि मनोरंजन और अर्थ उत्पादन के साथ-साथ सार्थकता का भी ध्यान रखा जाए तो सिनेमा सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि सिनेमा ने हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ाई है और व्यावहारिकता भी।

यहाँ यदि मोबाइल और कंप्यूटर की संचार क्रांति की चर्चा न की जाए तो बात अधूरी रह जाएगी। ये ऐसे माध्यम हैं जिन्होंने दुनिया को सचमुच मनुष्य की मुट्ठी में कर दिया है। सूचना, समाचार और संवाद प्रेषण के लिए इन्होंने हिंदी को विकल्प के रूप में विकसित करके संचार-तकनीक को तो समृद्ध किया ही है, हिंदी को भी समृद्धतर बनाया है। इसी प्रकार इंटरनेट और वेबसाइट की सुविधा ने पत्र-पत्रिकाओं के ई-संस्करण तथा पूर्णत: ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध कराकर सर्वथा नई दुनिया के दरवाज़े खोज दिए हैं। आज हिंदी की अनेक पत्रिकाएँ इस रूप में विश्वभर में कहीं भी कभी भी सुलभ हैं तथा अब हर प्रकार की जानकारी इंटरनेट पर हिंदी में प्राप्त होने लगी है। इस तरह हिंदी भाषा ने 'बाज़ार' और 'कंप्यूटर' दोनों की भाषा के रूप में अपना सामर्थ्य सिद्ध कर दिया है। भविष्य की विश्वभाषा की ये ही तो दो कसौटियाँ बताई जाती रही हैं!

इस प्रकार कहा जा सकता है कि 21वीं शताब्दी में मुद्रित और इलेक्ट्रानिक दोनों ही प्रकार के जनसंचार माध्यम नए विकास के आयामों को छू रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप हिंदी भाषा भी नई-नई चुनौतियों का सामना करने के लिए और-और शक्ति का अर्जन कर रही है।

1 मई 2007


सत्ता की साजिश और भूमंडलीकरण
Nov 8th, 2006 | विषय-वस्तु : विश्लेषण |

http://srijanshilpi.com/?p=70

सत्ताधारी वर्ग की हमेशा से यह रणनीति रही है कि वह अपना सार्वजनिक मुखौटा उदार और भलमनसाहत का बनाए रखने का प्रयास करता है, जबकि उसके असली इरादे शोषणमूलक और वर्चस्ववादी होते हैं। भूमंडलीकरण का एक सिद्धांत यह है कि जैसे-जैसे इसकी रफ्तार तेज होगी और आय के नए स्रोतों का सृजन होगा तो धीरे-धीरे ‘आय का रिसाव’ सामाजिक व्यवस्था के निचले वर्गों तक भी होगा। इस तरह कुछ देर से ही सही, भूमंडलीकरण का फायदा गरीबों को भी होगा। दरअसल, बगैर समाज के निचले वर्गों के बहुसंख्यक लोगों के हितों को अपनी सैद्धांतिक परिधि में समाहित किए कोई भी विचारधारा सत्ता की नीति बन ही नहीं सकती। इसलिए सत्ता हमेशा सबको साथ में लेकर चलने और सबके हित में काम करने की बात करती है। भूमंडलीकरण के पैरोकार अगर गरीबी दूर करने या ‘भूमंडलीकरण के मानवीय चेहरे’ की बात करते हैं तो ऐसा वे अपनी उसी रणनीति के अनुरूप ही करते हैं। हालाँकि उन्हें भी यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि भूमंडलीकरण के कारण अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ रही है, जिसे पाटने के लिए ‘सुरक्षा छतरी’ बनाने जैसे कुछ विशेष प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन इसे उनकी बौद्धिक ईमानदारी का सूचक या आत्मग्लानि का प्रतिफलन मान लेना हद दर्जे की मासूमियत ही होगी, क्योंकि यह वास्तव में शोषणमूलक पूँजीवाद के नकारात्मक प्रभावों को कल्याणकारी राजनीति के छद्म आवरण की ओट देने की पुरानी कुटिल साजिश है, जिसे उन्हें लोकतांत्रिक राजनीतिक परिवेश के दबाव के कारण मजबूरी में अपनाना पड़ता है।


लेकिन चिंता की मुख्य बात यह है कि पूँजीवादी सत्ता के इन साजिशों को समझ सकने और उनकी स्वतंत्र एवं मुखर आलोचना के द्वारा प्रतिरोध कर सकने की संभावनाएँ लगातार क्षीण होती जा रही हैं। सोवियत संघ के पतन और चीन की समाजवादी व्यवस्था के बाजारवादी अनुकूलता में ढल जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में पूँजीवाद की राह के रोड़े समाप्त हो गए। तीसरी दुनिया के सामने कोई और विकल्प ही नहीं रहा। भारतीय राजनीतिक पटल में दिखायी दे रही विकल्पहीनता का मौजूदा दौर भी इसी की उपज है। सत्ता की राजनीति का अब यह स्थापित दर्शन बन गया है कि आम जनता के हितों के मुद्दे चुनाव में उठाकर सत्ता हासिल करो और सत्ता में आते ही वे सारे कृत्य करो जो आम जनता के हितों के खिलाफ हो, लेकिन यह सावधानी जरूर बरतो कि बीच-बीच में आम जनता और गरीबी की बातें भी करते रहो, यानी आत्मालोचन का भ्रम भी फैलाए रखो।

सत्ता पक्ष का नया पैंतरा यह है कि वह विपक्ष की भूमिका में सेंध मारकर उसकी आवाज चुरा लेता है। ऐसा इसलिए संभव हो पाता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच विचारधारा और नीतियों के मामले में कोई स्पष्ट अंतर नहीं रह गया है। विपक्ष के पास न तो कोई ठोस विकल्प बचा है और न ही जनता के हित में संघर्ष करने की उनमें प्रतिबद्धतापूर्ण ईमानदारी बची है। वे विपक्ष में रहते हुए जिस बात का विरोध करते हैं, सत्ता में आते ही बेशर्म होकर उसी के प्रवक्ता बन जाते हैं।


भारत में आज कोई भी विपक्षी राजनीतिक दल यह विकल्प प्रस्तुत करने को तैयार नहीं है कि यदि वे सत्ता में आ जाएंगे तो गरीबों, छोटे किसानों, असंगठित मजदूरों और देशी लघु एवं कुटीर उद्योगों के हित में विश्व व्यापार संगठन से बाहर निकलना पसंद करेंगे और भूमंडलीकरण का रास्ता छोड़ देंगे। क्योंकि भूमंडलीकरण के अनिवार्य खतरों से अवगत होने के बावजूद उनकी मजबूरी यह है कि उनके पास ऐसा कोई ठोस विकल्प है ही नहीं कि भूमंडलीकरण का रास्ता छोड़ने के बाद वे किधर जाएंगे। ऐसे में उन्हें सत्ता प्राप्ति के लिए मक्कारी वाला रास्ता अपनाना पड़ता है। वे गरीब किसान, मजदूर आदि की बातें करके सत्ता हासिल करते हैं और सत्ता हासिल होते ही ठीक उसके विपरीत काम करने लगते हैं। क्योंकि सत्ता हासिल होने के बाद गरीब आम जनता के हित में काम करना उनके लिए फायदे का धंधा नहीं रह जाता है। चूँकि राजनेताओं का सत्ता-प्राप्ति का अभियान मूल रूप से पैसा बनाने के लिए होता है और पैसा उन्हें पूँजीपतियों को पहुँचाए गए लाभ के प्रतिशत के रूप में प्राप्त होता है और पूँजीपतियों को लाभ आम जनता के शोषण से होता है, इसलिए आम जनता के प्रति शोषणमूलक नीति अपनाना राजनेताओं की नियति बन जाती है। लेकिन सबसे त्रासदीपूर्ण विकल्पहीनता तो खुद आम जनता की है। वह राजनेताओं के इस दोहरे चरित्र को भली-भाँति जानते-समझते हुए भी कोई निरापद विकल्प चुनने की स्थिति में नहीं है। दरअसल, भूमंडलीकरण के नियंताओं को सबसे जबरदस्त कामयाबी इसी में मिली है। उन्होंने प्रतिरोध के सभी संभावित स्वरों को स्खलित करके बिखेर दिया है। इसलिए आम आदमी के हित में कोई साझी जोरदार आवाज उठने का कोई संयोग ही नहीं बन पा रहा और प्रतिरोध के सन्नाटे में उन्हें अपनी इस मक्कारी को वह उदार छवि पहनाने का अवसर मिल जाता है कि गरीब आदमी के लिए भी सबसे अधिक चिंतित वे ही हैं। ऐसे में जबकि भूमंडलीकरण के मोहपाश में आबद्ध सत्ता पक्ष विपक्ष की भूमिका में सेंध लगाकर उसकी आवाज को चुरा लेने के कुटिल षड्यंत्र में जुटा है, सवाल उठता है कि उसके षड्यंत्र का पर्दाफाश कैसे किया जाए और कैसे उसके खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध खड़ा किया जाए? इसके लिए सबसे पहले भूमंडलीकरण के शिकार लोगों को संगठित होकर अपना एक ठोस वैकल्पिक आधार तैयार करने की जरूरत है। हमें अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, परिस्थिति और प्रयोजन को ध्यान में रखकर विकास का अपना एक मॉडल विकसित करना पड़ेगा। इस समय सत्ता द्वारा समाज के ऊपर के जिन तीन प्रतिशत कुलीन वर्ग के हितों और आकांक्षाओं के दबाव में राष्ट्रीय नीतियाँ तैयार की जा रही हैं, उसके सारे सपने अंतर्राष्ट्रीय कुलीन बिरादरी का अंग बन जाने के हैं। उन्हें सबकुछ ‘ग्लोबल’ स्तर का चाहिए। वे स्वदेशी संसाधनों को दरकिनार करके विदेशी संसाधन उधार लेकर विकास का अपना महल खड़ा करने की कोशिश में जुटे हुए हैं। भूमंडलीकरण का सारा खेल इसी वर्ग के लिए हो रहा है। सरकार उसी वर्ग के हितों के लिए अपनी आर्थिक नीतियाँ तैयार कर रही है। बजट उन्हीं की सुविधाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं।हमें इसको चुनौती देनी पड़ेगी। हमें बताना होगा कि हमें विदेशी संसाधन उधार लेने की जरूरत नहीं है और अगर विदेशी संसाधन हमें चाहिए भी तो अपनी शर्तों पर चाहिए, अपनी जरूरतों के हिसाब से चाहिए। हमें यह बताना होगा कि हम अपने संसाधनों के बल पर अपना विकास कर सकते हैं, हमें यह दिखाना होगा कि विकास और प्रगति का हमारा अपना भारतीय मॉडल है। हमें मँहगी विदेशी कारें नहीं, बल्कि सक्षम सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था चाहिए। हमें पेप्सी और कोकाकोला नहीं, बल्कि स्वच्छ पेयजल चाहिए। हमें पाँच सितारा निजी स्कूल और अस्पताल नहीं, बल्कि सबके लिए बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहिए। विदेशी सहयोग की हमें उच्च प्रौद्योगिकी और अनुसंधान जैसे चुनिंदा क्षेत्रों में ही जरूरत है। विदेशी पूँजी भी हमारे लिए आकस्मिक रूप से ही जरूरी हो सकती है। लेकिन इस तरह का ठोस वैकल्पिक आधार प्रस्तुत करने के लिए पहले हमें वैचारिक गुलामी और पराभिमुखता से निजात पानी होगी। इस समय केवल हमारे राजनेता ही नहीं, बल्कि हमारे अधिकांश बौद्धिक जन भी मानसिक दिवालिएपन के शिकार दिखाई देते हैं। उन्हें मौलिक रूप से कुछ सूझता ही नहीं। वे पश्चिमी विचारधारा, सिद्धांत और मॉडल का अंधानुकरण करने में लगे हैं। इस स्थिति से अधिक घातक हमारे लिए कुछ और नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, वे अपने अहंकार और स्वार्थ के संकीर्ण दायरों में सिमटे अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापने में लगे हुए हैं। हमारे सामने जो आसन्न चुनौती है वह सामूहिक है और उससे संगठित होकर लड़ने की जरूरत है। भूमंडलीकरण के पीछे की शक्तियाँ अत्यंत ताकतवर हैं और उनको जोरदार टक्कर देने के लिए बहुत बड़े संगठित अभियान की जरूरत है। लेकिन यहाँ तो लोग अपना निजी व्यक्तित्व चमकाने में लगे हुए हैं।

भूमंडलीकरण के खिलाफ एक संगठित, सशक्त और निर्णायक आंदोलन शुरू हो पाने में अभी लम्बा वक्त लगेगा। जब जनता भूमंडलीकरण के अभिशापों को और अधिक झेलने से इनकार कर देगी और उसके खिलाफ सामूहिक विद्रोह के लिए स्वत:स्फूर्त ढंग से आंदोलित हो जाएगी, तभी उस सामूहिक संकट के भाव को भाँपकर उसके दबाव में हमारे बौद्धिक जन भी नए सिरे से सोचने के लिए विवश होंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तब तक हमें हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना चाहिए। हमें इस वक्त अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में संघर्ष करते हुए अपने-आपको समकालीन व्यापक संदर्भों से जुड़ने का निरंतर प्रयास करना चाहिए और अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुरूप विकास और प्रगति का वैकल्पिक ठोस आधार तैयार करने के लिए साझे प्रयास का माहौल विकसित करना चाहिए।



संभावनाओं से भरे हैं द्वितीय श्रेणी के नगर
http://www.bbc.co.uk/hindi/business/story/2006/04/060426_nri_secondcities.shtml

आलोक पुराणिक
आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ





भारत के दूसरी श्रेणी के शहरों की प्रापर्टी में अच्छी संभावनाएँ हैं
अंतरराष्ट्रीय सलाहकार संस्था अर्नस्ट एंड यंग की हाल में आई एक रिपोर्ट में रिटेल क्षेत्र के विकास के मामले में भारत को नंबर एक देश बताया है.
अभी इस देश में क़रीब एक करोड़ बीस लाख खुदरा दुकानों में से 80 प्रतिशत दुकानें छोटे पारिवारिक कारोबार के तौर पर चलाई जाती हैं.

अभी क़रीब 230 अरब डालर के खुदरा बाज़ार में सिर्फ़ तीन प्रतिशत संगठित खुदरा कारोबार है, जिनमें मॉल, सुपर बाजार वगैरह शामिल हैं.

पर इसमें बहुत तेज़ बढ़ोत्तरी के आसार हैं, अभी क़रीब 7 अरब डालर के कारोबार से इसके 2010 तक 30 अरब डालर तक होने के आसार हैं.

दूसरी श्रेणी के शहरों में इस समय 81 शापिंग मॉल निर्माणाधीन है. मुंबई, दिल्ली के अलावा चंडीगढ़, जयपुर, कोचीन, मैसूर, कोयंबटूर, तिरुवंनतपुरम, अहमदाबाद, नासिक, विशाखापट्टनम् और आगरा जैसे क्षेत्र भविष्य के बेहतर क्षेत्र के रुप में उभरेंगे.

जिन इलाकों में शापिंग मॉल बन रहे हैं, उनके आसपास की प्रापर्टी के भाव खुद-ब-खुद बढ़ जायेंगे. दिल्ली के पास गाज़ियाबाद के कुछ इलाक़े इसका उदाहरण हैं.

दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद के कुछ इलाक़ों में चार-पांच शापिंग मॉल के आने के बाद इन क्षेत्रों की प्रापर्टी के भावों में 50 से लेकर 80 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दो सालों में हो गई है.

भविष्य के शहर

इसी तरह की कहानी उन शहरों में दोहराई जानी है, जहां शापिंग मॉल निर्माणाधीन हैं.

ऐसे शहरों में द्वितीय श्रेणी के चंडीगढ़, जयपुर, कोचीन, मैसूर, कोयंबटूर, तिरुवनंतपुरम, अहमदाबाद, नासिक, विशाखापट्टनम और आगरा जैसे शहर शामिल हैं.

इसके अलावा एक और वजह है, जिसके चलते द्वितीय श्रेणी के शहरों में प्रापर्टी के भाव बढ़ेंगे.

साफ्टवेयर कारोबार की प्रतिनिधि संस्था नासकौम के मुताबिक साफ्टवेयर कारोबार के आठ प्रमुख क्षेत्र हैं- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (नोएडा, गुड़गांव, ग्रेटर नोएडा) मुंबई, बंगलौर, चेन्नई, कोलकाता, हैदराबाद, कोचीन और पुणे.

इन क्षेत्रों और इनके आसपास के क्षेत्रों में प्रापर्टी के भावों में तेज़ बढ़ोत्तरी के पूरे आसार हैं.

ये शहर तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों, शापिंग मॉल, काल सेंटर कारोबारियों, कंपनियों के दृष्टिपटल पर हैं.

इन शहरों में क्रय क्षमता का अभाव नहीं है इसलिए यहां शापिंग मॉल वगैरह खोलना फ़ायदे का सौदा है.

इन शहरों के संभावित तेज विकास की दूसरी वजह यह है कि भारत में अब जिस तरह का विकास हो रहा है, उसमें ऐसे कारोबारों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिनमें महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्रों की नजदीकी ज़रुरी नहीं है. कॉल सेंटरों का कारोबार ऐसा ही कारोबार है.

इनमें से कोलकाता, हैदराबाद, कोचीन और पुणे में अभी बहुत संभावनाएं हैं. गौरतलब है कि बंगलौर की कई साफ्टवेयर कंपनियां अपना कारोबार हैदराबाद में ले जा रही हैं.

कॉल सेंटर और साफ्टवेयर कंपनियां जिन शहरों में जा रही हैं, वहां उन्हें दफ़्तरों की जगह के साथ-साथ अपने कर्मचारियों के लिए रहने की जगह भी चाहिए.

दिल्ली के निकट नोएडा में हाल में जो भाव बढ़े हैं, उनके पीछे यही कॉल सेंटर और साफ्टवेयर कंपनियां हैं.

कोलकाता निकट भविष्य में ऐसा शहर हो सकता है, जो बीपीओ कारोबार के महत्वपूर्ण केंद्र के रुप में उभरे.

महानगर होने के बावजूद इस शहर में प्रापर्टी के भाव उन ऊंचाइयों पर नहीं गए हैं, जहां मुंबई या दिल्ली के जा चुके हैं.






















































































































इतिहास को भुला दें भारत-पाक: पीएम http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_4390231/
Apr 25, 10:21 pm

अखनूर/कटरा [जम्मू-कश्मीर]। पाकिस्तान में नई सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शुक्रवार को उम्मीद जताई कि दोनों पड़ोसी देश इतिहास को भुला देंगे और झूठी आशंका तथा संकुचित एजेंडे के बिना तात्कालिक जरूरत को समझते हुए आगे बढ़ेंगे।

प्रधानमंत्री ने कहा कि सीमाएं जरूरत नहीं बदलतीं। भारत व पाकिस्तान को साझी आर्थिक तथा सामाजिक चुनौतियों का सामना करने के लिए साथ-साथ काम करना चाहिए। चिनाब नदी पर एक पुल का उद्घाटन करने के बाद सिंह ने यहां कहा कि वह नए नेताओं [पाकिस्तान] द्वारा दिए गए बयानों से खुश हैं। उन्होंने कहा कि भारत व पाकिस्तान ने उन सभी मुद्दों पर मित्रवत बातचीत की है जो जम्मू-कश्मीर की जनता को प्रभावित करते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत इस्लामाबाद में नवगठित लोकतांत्रिक सरकार के साथ बातचीत को दृढ़ता प्रदान करता रहेगा। जम्मू-कश्मीर की दो दिवसीय यात्रा पर गए सिंह ने कहा कि मुझे उम्मीद है कि हम [भारत व पाकिस्तान] इतिहास को भुलाने में सक्षम होंगे और निर्मूल आशंकाओं तथा संकुचित एजेंडे के बिना तात्कालिक जरूरत को ध्यान में रखकर आगे बढ़ेंगे।

प्रधानमंत्री ने कहा कि दोनों देश एक जैसी आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करते हैं। इसलिए इनका सामना करने की कई वजहें हैं। आखिरकार लोकतांत्रिक सरकार के लिए सर्वाेच्च जिम्मेदारी अपनी जनता की उम्मीदों और जरूरतों को पूरा करना है। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में लोगों की जरूरतें और उम्मीदें समान हैं। सबके सामने रोटी, कपड़ा और मकान की चुनौतियां हैं। सीमाएं जरूरतें या चुनौतियां नहीं बदलतीं।

बाद में माता कटरा स्थित वैष्णो देवी विश्वविद्यालय के पहले दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए सिंह ने कहा कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के बाद भारत व पाकिस्तान के पास शांति के युग में प्रवेश करने का विशेष अवसर है। भूमंडलीकरण की आधुनिक दुनिया में संचार के साधनों के चलते सीमाओं की प्रासंगिकता अब नहीं रही है। हर जगह लोग अपने पड़ोसियों से जुड़ना चाहते हैं। यह नियंत्रण रेखा के दोनों ओर रहने वाले लोगों सहित भारत व पाकिस्तान की जनता के बारे में भी सही है। उन्होंने कहा कि पानी की तरह मानवीय संवेदनाएं भी शांति और मित्रता के पक्ष में बहती हैं और सच्चा लोकतंत्र ऐसा है, जिसमें संवेदनाओं को अभिव्यक्ति की आजादी मिलती है।

इस दौरान देश में कई विश्वविद्यालयों के अध्ययन की दुकान में तब्दील हो जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए मनमोहन सिंह ने इस प्रवृत्ति को बदलने और विश्वविद्यालय में शोध के साथ अध्ययन पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने को कहा। उन्होंने कहा कि यह चिंता की बात है कि कुछ साल से कई विश्वविद्यालय अध्ययन की दुकान और डिग्री देने वाले बनकर रह गए हैं। हमें निश्चित रूप से इस प्रवृत्ति को बदलना होगा और विश्वविद्यालय प्रणाली में अध्ययन तथा शोध की परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा। अच्छी शिक्षा के साथ शोध की परंपरा को पुनर्जीवित किए जाने की जरूरत पर बल देते हुए सिंह ने कहा कि वह ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वह स्वयं शिक्षक रह चुके हैं। उन्होंने कहा कि वे हमेशा कहते रहे हैं कि वे गलती से राजनीति में आ गए। कैरियर के लिहाज से मेरी पहली वरीयता अध्यापन था। उन्होंने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा कि जब वे छात्र और शिक्षक थे तो उस समय विश्वविद्यालयों में शोध और अध्यापन पर खासा जोर दिया जाता था। उन्होंने कहा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नए चरण के विकास के मसौदे की पेशकश की गई है। 30 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय गठित किए जाएंगे। इनमें से आधे विश्व स्तर के होंगे।

...कुछ इस कदर रखी गई थी देश में उदारीकरण की बुनियाद

सीरज कुमार सिंह / May 07, 2008
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=3091


भारतीय अर्थतंत्र में 1991 को मील के पत्थर के रूप में याद किया जाता है। इस वर्ष आर्थिक सुधारों और ढांचागत पुनर्गठन की जो बुनियाद रखी गई, देश की अर्थव्यवस्था की मौजूदा इमारत उसी पर खड़ी है।

इससे पहले के कुछ दशकों में देश की आर्थिक दशा और दिशा में कई गंभीर रुकावटों की वजह से एक ठहराव या यूं कहें कि बदहाली की सी स्थिति आ गई थी। इन सबने कुल मिलाकर एक गंभीर वित्तीय और भुगतान संतुलन का संकट पैदा कर दिया, जो 1991 तक एक नासूर का रूप ले चुका था।

ऐसे समय में आर्थिक सुधारों को भारतीय संदर्भ में एक क्रांति के रूप में देखा गया। इसे नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने शुरू किया और आजाद भारत के चुनिंदा महत्वपूर्ण अर्थशास्त्रियों में से एक, मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में इसका निर्देशन किया।

नियंत्रण में जकड़े, अंतर्मुखी और ठहराव में फंसते देश के अर्थतंत्र में सुधारों की जरूरत अर्से से महसूस की जा रही थी। साठ के दशक के मध्य में इस दिशा में नाकाम कोशिश भी की गई थी। 70 के दशक में कुछ सुधार लागू भी किए गए, जिसे 'चोरी-छिपे सुधार' कहा जाता है।

इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में वापस लौटने के बाद उदारीकरण के कुछ कदम उठाने की कोशिश की गई। यह काम मुख्य रूप से औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम करने के रूप में किया। पर ये 1991 के सुधारों के मुकाबले बेहद छिछले कहे जा सकते हैं।

1984 में सत्ता में आने के बाद राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर-नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम जल्दी-जल्दी उठाए। पर उस वक्त भी बड़े पैमाने पर आर्थिक असंतुलन का सवाल अनसुलझा छोड़ दिया गया। बाद के कुछ वर्षों में बोफोर्स की आंधी और राजनीतिक अस्थिरता की वजह से राजीव गांधी द्वारा शरू की गई सुधारों की छिपपुट कोशिशों को भी तिलांजलि दे दी गई।

दरअसल, उस वक्त वित्तीय अनुशासन और श्रम सुधारों जैसे सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत थी। पर इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कही जाए या फिर तत्कालीन सरकारों की मजबूरियां, ऐसे कदम नहीं उठाए जा सके। नौकरशाही और उद्योगों के कुछ निहित स्वार्थ इसके खिलाफ थे, जिनके हित कहीं न कहीं तत्कालीन व्यवस्था से सधते थे। वामपंथियों का विचारधारात्मक विरोध भी इस प्रक्रिया की शुरुआत मे आड़े आ रहा था।

1991 में भुगतान संकट चरम सीमा पर पहुंच गया। उस वक्त तक विचारधारात्मक और निहित स्वार्थों के विरोध काफी कमजोर पड़ चुके थे। लिहाजा नरसिंह राव की अगुआई में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने पुरानी मानसिकता पर चोट करते हुए असाधारण और व्यापक सुधार आरंभ किए। गौरतलब है कि चीन 13 वर्ष पहले ही उस नक्शेकदम पर चल चुका था।

बहरहाल, भारत ने 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर चलते हुए कई कदम उठाए। इसके तहत तुरंत वित्तीय सुधार (जिसके तहत रुपये की विनियम दर को बाजार से जोड़ दिया गया और शुरू में ही रुपये का 20 फीसदी अवमूल्यन हो गया), आयात आसान बनाए जाने, औद्योगिक लाइसेंसिंग का काफी हद तक सरलीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र का धीरे-धीरे निजीकरण और पूंजी बाजार व वित्तीय क्षेत्र में सुधार जैसे कदम उठाए गए।

इतना ही नहीं, विदेशी निवेश का रास्ता आसान करने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर से कई बंदिशें हटाए जाने जैसे कुछ ज्यादा विवादास्पद कदम उठाए जाने से भी गुरेज नहीं किया गया। कुल मिलाकर यह संदेश दिए जाने की कोशिश की गई कि भारत को इस हिसाब से तैयार किया जा रहा है कि यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में हिस्सा ले सके। हालांकि तब से लेकर अब तक इन कदमों की मुखालफत करने वालों की भी कमी नहीं रही है।

आंकड़ों की बात करें तो 1991-92 में देश में जीडीपी की विकास दर महज 0.8 फीसदी थी, 1993-94 में बढ़कर 6.2 फीसदी हो गई। यह पहली दफा पूर्वी एशिया की ज्यादातर सफल अर्थव्यवस्थाओं के करीब थी। इसी तरह, 1991-92 में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर 1 फीसदी से भी कम थी, जो 1993-94 में बढ़कर 6 फीसदी हो गई। केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा 1990-91 में जीडीपी के 8.3 फीसदी पर पहुंच चुका था।

यह 1996-97 में 5.2 फीसदी पर आ गया, जिनमें 4.7 फीसदी सूद भुगतान पर खर्च हो रहा था। भारत का विदेशी कर्ज 1991-92 में जीडीपी का 41 फीसदी था, जो 1995-96 में गिरकर 28.7 फीसदी हो गया। इसी तरह, विदेशी निवेश और शेयर मार्केट के बाजार पूंजीकरण में भी काफी अच्छी तरक्की दर्ज की गई।

इन तमाम आंकड़ों के बावजूद गरीबों की माली हालत में किसी तरह का गौरतलब सुधार न होने (और कई मामलों में बदतर होने) का जबाव सुधार के पैरोकार नहीं दे पाते। सार्वजनिक बचत बढ़ाने, सरकारी खर्च और वित्तीय घाटे को कम किए जाने का मसला आज भी अनसुलझा है। सब्सिडी में कटौती की बात हो या फिर तेल-पुल घाटा कम किए जाने की, इन सभी मुद्दों बहुत ठोस कामयाबी नजर नहीं आती।

सरकार की लोकलुभावन नीतियां (किसानों को दी गई हालिया कर्जमाफी इसका उदाहरण है) भी एक बड़ी अड़चन है। जीडीपी की विकास दर अब भी दहाई अंकों में नहीं पहुंच पाई है। आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर को कायदे से लागू किए जाने का इंतजार आज भी देश का जनमानस कर रहा है।




माकपा के खिलाफ लड़ाई में हम भी हैं साथ : ममता बनर्जी

http://janpathsamachar.co.in/newsdtl.php?type=YjA3&id=RS9SZjA0ajA0YjA1


बालुरघाट/रायगंज (निज संवाददाता)। माकपा को हराने के लिये आरएसपी उम्‍मीदवारों को वोट देने की अपील तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी ने की है। वे दक्षिण दिनाजपुर जिले के हिली के त्रिमोहिनी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि माकपा के खिलाफ जो लोग लड़ाई कर रहे है, उनके साथ हम सदा ही है। उन्होंने कहा कि जहां तृणमूल उम्‍मीदवार नहीं है, वहां लोग आरएसपी या फारवर्ड ब्‍लाक के उम्‍मीदवारों को मत दे।

बासंती की घटना के प्रसंग में उन्होंने कहा कि यह घटना मार्मिक है और इस राज्य में आम लोगों की सुरक्षा धूलि धुसरित हो गयी है। माकपा के राज में आज बार बार महिलाओं पर अत्याचार हो रहे है। माकपा कैडरों के लिये महिलाओ के साथ बलात्कार छोटी मोटी बात हो गयी है। राज्य के सिंचाई मंत्री सुभाष नस्कर के घर बमबाजी और उनके भतीजे और बहू पर हमले के संबंध में उन्होंने कहा कि माकपा का आतंक अब इतना बढ़ गया है कि उसके शरीक दल और राज्य के मंत्री के परिवार भी नहीं बच पाये है। ममता बनर्जी ने आरएसपी की लड़ाई को नैतिक समर्थन देने की बात कहते हुए कहा कि आरएसपी के जो लोग माकपा के आतंक के खिलाफ लड़ रहे है, जनता उनका समर्थन करे। उन्होंने कहा कि वामपंथ का मतलब सिर्ड्ड बुरा नहीं है। घटक दलों को संबोधित कर उन्होंने कहा कि जो लोग बातचीत के लिये निर्णय लेना चाहते है, वे निर्णय ले। तृणमूल नेत्री ने राज्य में आतंक की एक के बाद एक घटना पर केंन्‍द्र सरकार की भूमिका की भी आलोचना की। उन्होंने कहा कि केंन्‍द्र सरकार नंदीग्राम, सिंगुर और बासंती कही भी राज्य की जनता को सुरक्षा उपलब्‍ध कराने में नाकाम रही है। कांग्रेस को दलाल कहते हुए उन्होंने कहा कि जो दल राज्य में माकपा की दलाली कर रहा है, उसके पक्ष में मतदान नहीं करे। उन्होंने अगले लोकसभा चुनावों में तृणमूल उम्‍मीदवारों के पक्ष में मतदान करने की लोगों से की।

उधर उत्‍तर दिनाजपुर जिले के रायगंज में पत्रकारों से बातचीत करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि तीसरे चरण के पंचायत चुनावों में माकपा मुर्शीदाबाद, चोपड़ा थाना क्षेत्र और कूचबिहार जिले में हिंसा का सहारा ले सकती है और इसके लिये इन इलाकों में हथियार जमा किये जा रहे है। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य में माकपा पुलिस और प्रशासन का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये कर रही है। इसके बावजूद केंन्‍द्र सरकार चुपचाप बैठी हुई है।



सिंचाई मंत्री की बहू की मौत से वाममोर्चा में मतभेद गहराया


कोलकाता (निज संवाददाता)। पश्चिम बंगाल में कल बम विस्फोट में घायल हुई राज्य के मंत्री सुभाष नास्कर की एक रिश्तेदार की आज मौत हो जाने के साथ ही सात्žतारुढ़ वाममोर्चा में माक्žर्सवादी कम्žयुनिस्ट पार्टी (माकपा) और रिवोल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) के बीच तनाव बढ़ गया है।

ज्ञात हो कि बासंती में कल बम विस्फोट में बुरी तरह जली मंत्री सुभाष नस्कर की बहू गौरी नस्कर की देर रात एसएसकेएम अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 35 वर्षीय गौरी नस्कर को 80 प्रतिशत जली हुई अवस्था में अस्पताल में भर्ती किया गया था। गौरी ने अस्पताल में दिये बयान में बताया कि दोपहर 2.30 बजे ख्žत्žतात्žताने के बाद कुछ आवाज सुनकर जब वह बाहर आई तभी एक विस्फोट हुआ और उसके बाद उसे कुछ याद नहीं। आरएसपी नेताओं का अभियोग है कि माकपा समर्थित समाजविरोधियों ने मंत्री के घर पर विस्फोट किया था जिसके बाद आग लग गयी। इसी में गौरी नस्कर बुरी तरह जल गई हैं।

गौरतलब है कि पंचायत चुनाव को लेकर मंगलवार से ही बासंती में सत्žतारुढ़ दल के दो घटक माकपा और आरएसपी में हिंसक संघर्ष छिड़ गया था। मतदान के दिन बुधवार को संघर्ष में ही चार लोगों की मौत हो गई, जिसमें तीन आरएसपी और एक माकपा समर्थक था। हिंसक घटना को देखते हुए अब वाममोर्चा ने शांति के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। आज अलीमुद्दीन स्ट्रीट में भाकपा और माकपा के बीच बैठक हुई। मुख्žयमंत्री के आदेश पर राज्य के तीन वरिष्ठ मंत्री बासंती में मौजूद हैं जिससे कि फिर वहां हिंसक संघर्ष न हो। फिर भी इसको लेकर आज विभिन्न स्थानों पर माकपा और आरएसपी समर्थकों में संघर्ष की खबर है। कल भी संघर्ष हुआ था। इधर, गौरी नस्कर को देखने अस्पताल में मंत्री क्षिति गोस्वामी की पत्नी सानन्दा गोस्वामी भी पहुंची। उन्होंने बासंती में हुई हिंसा पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि एक इंसान होने के नाते मैं यही कहना चाहूंगी कि आरएसपी को तुरन्त ही खूनी माकपा से नाता तोड़कर सरकार से हट जाना चाहिए। श्रीमती गोस्वमी ने कहा कि इस तरह की हिंसा की बर्दाश्त करना भी जुर्म है। पुलिस महानिरीक्षक (कानून व्यवस्था) राज कनोजिया ने बताया कि बांसती इलाके में सीमा सुरक्षा बल के अतिरिक्त जवान तैनात किये गये हैं और राज्य फोरेंसिक विभाग से विस्फोट के संबंध में रिपोर्ट मांगी गयी है।

आरएसपी ने आरोप लगाया है कि मोटरसाइकिल से आये माकपा समर्थकों ने नस्कर के परिवार पर बम फेंके जबकि माकपा का कहना है कि घर में रखे गये विस्फोटकों के अचानक फटने से गौरी नस्कर की मौत हुई। पंचायत चुनाव में वाममोर्चा के घटक दलों में सीटों का तालमेल नहीं होने के कारण इस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं।

दल-बदल से खफा माकपा समर्थकों ने तोड़ा फाब समर्थक का मकान


दिनहाटा/कूचबिहार (निज संवाददाता)। माकपा छोड़ कर फारवर्ड ब्‍लॉक में शामिल होने से खफा माकपा समर्थकों द्वारा दिनहाटा थाने के रूयरकूठी गांव के निवासी सुधीर अधिकारी का घर तोडऩे के आरोप उठे है। फारवर्ड ब्‍लॉक का आरोप है कि हाल ही में सुधीर अधिकारी माकपा छोड़ कर फाब में शामिल हुए थे और इसके चलते कल रात माकपा समर्थकों ने उसके घर में व्यापक तोड़-फोड़ की।फाब के दिनहाटा एक नम्‍बर लोकल सचिव विश्र्वनाथ दे आमिन ने कहा कि माकपा के गुंडावाहिनी ने सुधीर अधिकारी के घर पर हमला किया। उधर माकपा नेता वेणूबादल चक्रवर्ती ने पूरी घटना पर अनभिज्ञता जाहिर की। पुलिस ने बताया कि पूरी घटना की जांच शुरू हो गयी है।


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