एक अंग्रेजी अखबार में गिरिराज किशोर की गलत तस्वीर पर हिंदी के लेखक पत्रकार तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि अंग्रेजी वाले हिंदी की परवाह नहीं करते और वे किसी गिरिराज किशोर को नहीं जानते।
भारत में अंग्रेजी ज्ञान विज्ञान की नही सत्ता की भाषा है और इसलिए आम जनता भी आजकल हिंदी को तिलांजलि देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के घटिया स्कूलों में भेजने लगी है। जहां टीचर इस लायक भी नहीं होते की कोई विषय जानते समझते हों। ज्ञान विज्ञान के लिए नहीं , अछि नौकरी पाने के लिए लोग हिंदी छोड़ रहे हैं।
असमिया, ओड़िया, बंगला, पंजाबी, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगु में किसी भी बड़े साहित्यकार को लोग न सिर्फ जानते हैं,उन्हें पढ़ते भी हैं।
हिंदी वालो को अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपनी संस्कृति अपने नायकों की कितनी परवाह है?
हिंदी पढ़े लिखे लोग अखबारों के अलावा कौन सा साहित्य पढ़ते हैं। कवियों के नाम कबीरदास सूरदास से आगे वे कितना जानते हैं?
गिरिराज किशोर या हिंदी के किसी भी आधुनिक साहित्यकार को कितने लोग जानते है?
उनका साहित्य कौन पड़ता है?
हिंदी के नाम खाने कमांड वालों में से कितने लोगों गिरमिटिया पढा है?
भारत तो क्या दुनियाभर की किसी भाषा के साहित्य और साहित्यकार से उस भाषा को जानने पढ़नेवाले लोग इतने अनजान नहीं होते।
आजादी से पहले हिंदी की इतनी दुर्गति नहीं होती थी। तब स्वतन्त्रता मनग्राम की भाषा थी हिंदी देशभर में, अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी। तब हिंदी न राजनीति, न सत्ता और न बाजार की भाषा थी। तब यह सही मायने में जनभाषा थी।हिंदी के नाम खाने कमानेवालों की जमात तब तैयार नहीं हुई थी।
हिंदी के आलोचकों, सम्पादकों और प्रकाशकों ने सरकारी खरौद के भरोसे किताबें किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा महंगी करके हिंदी को आमलोगों के लिए लिखने पढ़ने की भाषा रहने नही दिया।
एकाधिकार कुलीन वर्चस्व के कारण आम लोगों के हिंदी में पढ़ने लिखने का कोई मौका नहीं है।
हिंदी अखबारों से साहित्य का नाता दशकों पहले खत्म हो गया है। उनमें साहित्य या साहित्यकारों की कोई चर्चा नहीं होती। बंगला, मराठी, ओड़िया, पंजाबी, असमिया, तमिल, तेलगु,कन्नड़, मलयालम में अखबारों में साहित्य और साहित्यकफोन के बारे में आम जनता को सिलसिलेवार जानकारी देते हैं।
अब टीवी के चीखते चिल्लाते एंकर ही हिंदी जनता के नायक हैं और घृणा, हिंसा, अपराध, भ्र्ष्टाचार के माफिया ही हिन्दीवालों के महानायक हैं
हम खुद हिंदी के साहित्य और साहित्यकार की चर्चा नहीं करते, उन्हें नहीं पहचानते तो कैसे उम्मीद पालते हैं कि अंग्रेजी में उन्हें पहचान जाए।
भारत में अंग्रेजी ज्ञान विज्ञान की नही सत्ता की भाषा है और इसलिए आम जनता भी आजकल हिंदी को तिलांजलि देकर अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के घटिया स्कूलों में भेजने लगी है। जहां टीचर इस लायक भी नहीं होते की कोई विषय जानते समझते हों। ज्ञान विज्ञान के लिए नहीं , अछि नौकरी पाने के लिए लोग हिंदी छोड़ रहे हैं।
असमिया, ओड़िया, बंगला, पंजाबी, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलुगु में किसी भी बड़े साहित्यकार को लोग न सिर्फ जानते हैं,उन्हें पढ़ते भी हैं।
हिंदी वालो को अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपनी संस्कृति अपने नायकों की कितनी परवाह है?
हिंदी पढ़े लिखे लोग अखबारों के अलावा कौन सा साहित्य पढ़ते हैं। कवियों के नाम कबीरदास सूरदास से आगे वे कितना जानते हैं?
गिरिराज किशोर या हिंदी के किसी भी आधुनिक साहित्यकार को कितने लोग जानते है?
उनका साहित्य कौन पड़ता है?
हिंदी के नाम खाने कमांड वालों में से कितने लोगों गिरमिटिया पढा है?
भारत तो क्या दुनियाभर की किसी भाषा के साहित्य और साहित्यकार से उस भाषा को जानने पढ़नेवाले लोग इतने अनजान नहीं होते।
आजादी से पहले हिंदी की इतनी दुर्गति नहीं होती थी। तब स्वतन्त्रता मनग्राम की भाषा थी हिंदी देशभर में, अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी। तब हिंदी न राजनीति, न सत्ता और न बाजार की भाषा थी। तब यह सही मायने में जनभाषा थी।हिंदी के नाम खाने कमानेवालों की जमात तब तैयार नहीं हुई थी।
हिंदी के आलोचकों, सम्पादकों और प्रकाशकों ने सरकारी खरौद के भरोसे किताबें किसी भी भाषा के मुकाबले ज्यादा महंगी करके हिंदी को आमलोगों के लिए लिखने पढ़ने की भाषा रहने नही दिया।
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6 comments:
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