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Tuesday, December 2, 2025

मेरा खून आदिवासी का है,मिजाज से मैं योद्धा हूं और मेरी अंतरात्मा स्त्री है

मेरे पिताजी पुलिनबाबू को बेहद अफसोस था कि इस महादेश के करोड़ों वंचितों की आपबीती कहीं दर्ज नहीं होती। उन्हें अफसोस था कि उन्हें पढ़ने लिखने का मौका नहीं मिला। भारत विभाजन के बाद दो सौ साल का वंचितों का अखंड अनवरत शिक्षा आंदोलन खंडित हो गया। विस्थापन के अलावाआजादी की यह भी बड़ी भारी कीमत हमारे लोगों ने चुकाई कि विषम अमानवीय परिस्थितियों में सिर्फ जैविक रूप में जीने के लिए हम पीढ़ी दर पीढ़ी वजूद के लिए लड़ते रहे। पीढ़ी दर पीढ़ी हम मातृभाषा से वंचित रहे। वे कहते थे कि मनुस्मृति राज में वंचितों को पढ़ने लिखने का हक नहीं था। जो हक हमने दो सौ सालों की निरंतर लड़ाई से हासिल किया वह खंडित हो गया। वे कहते थे कि दो सौ साल हीं नहीं, हजारों साल के महासंग्राम के बाद हम फिर
इतिहास, भूगोल,भाषा, साहित्य,कला संस्कृति ,विरासत और मनुष्यता से से बेदखल छिन्नमूल मूक जनता है। यही विभाजन विभीषिका है कि हमें आदिम अंधकार में फिर धकेल कर नामानुष बना दिया गया। #पुलिनबाबू कहते थे कि हमारे करोड़ों लोगों की आवाज बुलंद करने के लिए भाषा,साहित्य, संस्कृति,विरासत, हक हकूक और सभ्यता मनुष्यता की बहाली के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है ताकि हम अपने करोड़ों वंचित छिन्नमूल लोगों की अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz बुलंद कर सके। हमारे पास कुछ नहीं था। फिरभी उन्होंने सबकुछ दांव पर लगाकर मुझे उच्च शिक्षा के लिए नैनीताल में रखकर पढ़ाया। ताकि उनकी लड़ाई जारी रख सकूं। हम क्या कर सके! क्या हम वह कर पा रहे हैं जो वे चाहते थे? वे चाहते थे कि जो हमारे लोग हजारों साल से लिख न सके,उसे हम डंके की चोट की तरह लिख दूं। मेरे पिता सड़क पर रहे हमेशा। धोती और चादर उनकी संपत्ति थी। मैं भले ही सड़क पर नहीं हूं। लेकिन जमीन कीचड़ पानी में अब भी धंसे हैं मेरे पांव। अब भी मैं खुले आसमान के नीचे हूं। मेरा कोई दांव नहीं है। जैसे मेरे पिता के लिए खोने को कुछ नहीं था। मेरे पास भी खोने को कुछ नहीं है। हम किसी को खुश करने के लिए नहीं लिखते पढ़ते। हम सिर्फ मनुष्यता की अनसुनी आवाज़ बुलंद करते हैं। वैसे भी मेरा खून आदिवासी का है। मेरा मिजाज योद्धा का है। मेरी अंतरात्मा स्त्री है। सविताजी ने गृहस्थी जमा रखी है। उन्हीं के कारण सभ्य, पढ़ा लिखा मनुष्य जैसा दिखता हूं। मैं फिर पिता की तरह सड़क पर आ गया या हमारे पुरखों की तरह लड़ते हुए खेत हो गए, तो इतिहास भूगोल और मनुष्यता को क्या फर्क पड़ेगा? हमारे पुरखे शिक्षा से वंचित लोग थे। इसीलिए हम पढ़ने लिखने की संस्कृति की बहाली को सबसे जरूरी मानते हैं। क्या आप हमारे साथ हैं? सड़क पर आपका भी स्वागत है।मेरा खून आदिवासी का है,मिजाज से योद्धा जिन और मेरी अंतरात्मा स्त्री है

बच्चों को उनका साहित्य क्यों नहीं देते?

नमस्कार। प्रेरणा अंशु का बाल विशेषांक दो, दिसंबर अंक प्रकाशित हो गया है। रचनाकारों और देशभर के सहयोगियों को स्पीड पोस्ट से पत्रिका भेज दी जाएगी। रचनात्मक सहयोग के लिए रचनाकारों का आभार। विशेष तौर पर अतिथि संपादक Shiv Mohan Yadav और आवरण चित्रकार #राजकुमार_घोष का बहुत बहुत आभार। बड़ी संख्या में देश के कोने कोने से रचनाएं आईं हैं।दोनों अंकों में सौ से ज्यादा नए पुराने बाल साहित्यकारों के लिए हम जगह बना सके।सीमित संसाधनों के कारण हम मोटे विशेषांक नहीं निकाल सकते। आप सभी के आर्थिक सहयोग से ही पत्रिका निकलती है। सबको मुद्रित प्रति भी नियमित भेज नहीं सकते। पीडीएफ भी अब सबको भेजना संभव नहीं है। पीडीएफ जारी कर दी गई है और यथासंभव अधिकतम लोगों तक पहुंच सके इसके लिए जरूरी है कि आप भी अपने नेटवर्क को पीडीएफ शेयर करें। जो साथी पत्रिका का प्रकाशन जरूरी मानते हैं, वे जरूर आर्थिक सहयोग Rupesh Kumar Singh के मोबाइल नंबर 9412946162 पर गूगल पे या पेटीएम या फोन पे से भेज सकते है।आप ही के सहयोग से पत्रिका निकलती है। मार्च में प्रकाशित हो रहे स्त्री विशेषांक के लिए आपसे खास सहयोग का अनुरोध है। इस अंक में किशोरियों की रचनात्मकता और उनकी समस्याओं पर फोकस करें। आप लिखें तो स्वागत।लेकिन अपने परिवार, शिक्षा संस्थान, परिचित अध्यापिकाओं के माध्यम से इस अंक में देशभर की किशोरियों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने में हमारी जरूर मदद करें। जनवरी और फरवरी अंक सामान्य होंगे। *प्रेरणा अंशु का मार्च 2026 अंक स्त्री विशेषांक होगा।* इस अंक की अतिथि संपादक होंगी *अध्यापिका, कथाकार, चिंतक डॉ ऋचा पाठक जी।* रचनाओं पर अंतिम निर्णय उनका ही होगा। उन्हें सीधे मेल से रचनाएं भेज सकते हैं। उनका मेल: dr.richapathak5@gmail.com हमें कैसी सामग्री चाहिए और आपको क्या लिखना है इस पर ऋचा जी से कृपया सीधे उनके मोबाइल नंबर +91 89232 03995 पर बात की जा सकती है। आप हमें भी मेल कर सकते हैं। हमारा mail- prernaanshu@gmail.com रचना भेजने की अंतिम तिथि 15 जनवरी 2026 है। यह अंक सभी तबके की स्त्रियों और विशेष तौर पर किशोरी कन्याओं की समस्याओं और उनके संघर्ष पर केंद्रित होगा। कथा रिपोर्ताज को प्राथमिकता दी जाएगी। लघुकथा, कहानी, ग़ज़ल और काव्य विधाओं में रचनाएं आमंत्रित हैं। आलेख की शब्दसीमा डेढ़ हजार शब्द है। स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं की रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। वे अपने स्कूल कॉलेज, कक्षा का उल्लेख जरूर करें। पुरुष रचनाकारों की रचनाओं का भी इन मुद्दों पर स्वागत है। अस्मिता, स्त्रीवाद, स्त्री विमर्श के अलावा स्त्रियों की जो व्यवहारिक समस्याएं, मुद्दे और उनकी रचनात्मकता है,उसकी गहन पड़ताल के लिए आप सभी का स्वागत है। कृपया सहयोग बनाए रखें। पलाश विश्वास कार्यकारी संपादक प्रेरणा अंशु, दिनेशपुर, उत्तराखंड

Wednesday, November 26, 2025

हरिचांद, गुरुचांद,हेमलता और एक अदद शुतुरमुर्ग

#हरिचांद_गुरुचांद की वंशज मेरी ताई #हेमलता और एक अदद # शुतुरमुर्ग कल अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz के रुद्रपुर दफ्तर से लौटकर हरिदासपुर में बेटी गायत्री की दुकान पर बैग रखकर खड़े ही हुए थे कि तीन चार कुत्ते लड़ते हुए मेरे पैरों से पीछे से टकरा गए।संतुलन खोकर गिर गए हम और मामूली सी चोट लगी। आवारा घुमंतू पशुओं के कारण सड़क दुर्घटनाएं अब रोजमर्रा की आम बात है। आगे कोई किताब लिखने की किंचित संभावना नहीं है। प्रिंट में छपने के लिए कहीं स्पेस नहीं है। जिंदगी में इतना प्यार मिला है हर कहीं देशभर में कि इस प्यार का कर्ज और फर्ज दोनों मेरे वजूद पर भारी है। इसके बारे में कहीं कुछ दर्ज न कर सकूं तो ठीक नहीं होगा। हमारी जिंदगी को शक्ल देने वाले लोगों के बारे में अब कुछ लिखने की कोशिश करूंगा। सबसे पहले मेरी ताई, हरिचांद गुरु चांद की वंशज हेमलता जी के बारे में। उनकी मां यानी हमारी नानी प्रभा देवी प्रमथ नाथ ठाकुर की बहन थी। जो 1964 के दंगों के बाद अपनी इकलौती बेटी के पास रहने आई। वह पूर्वी पाकिस्तान में ठाकुर परिवार के गांव ओडाकांदी से आई थी।उनके आने के बाद ठाकुरनगर ,पश्चिम बंगाल से केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर की दादी और हमारी नानी की भाभी ,पीआर ठाकुर की पत्नी वीणा पानी देवी अपने बड़े बेटे और शांतनु के ताऊ कपिल कृष्ण ठाकुर के साथ उत्तराखंड के हमारे गांव हमारे घर होकर गए। हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम 1973 में ठाकुरनगर जाकर पिताजी पुलिनबाबू के साथ तत्कालीन सांसद पीआर ठाकुर से भी मिलकर आए। मतुआ संघ अधिपति सांसद कपिल कृष्ण ठाकुर जो बसंतीपुर आए थे और सांसद भी थे तृणमूल के,पहले माकपा में थे और उनसे हमारी कोलकाता में अंतरंगता थी। मातु आ आंदोलन के लड़ाके और मातबर थे हमारे दादा, चारों भाई। जमींदारों के खिलाफ घर में मोर्चा संभालती थी स्त्रियां। हमारी दादी शांतिदेवी भी किसान योद्धा थीं। बसंतीपुर में उनका निधन हुआ। प्रभा देवी ने गुरु चांद ठाकुर को देखा था और ठाकुर परिवार के शिक्षा आंदोलन के तहत पढ़ी लिखी भी थी। हमने हरिचांद गुरुचांद के किस्से और संस्मरण अपनी नानी से बचपन में सुने थे। आंदोलन के बारे में तो बहुत बाद में जन सका। मुझे सही मायने में मेरी सीधी सादी नाबालिग सी मां बसंती देवी ने नहीं, मेरी ताई हेमलता ने पाला। मैं उन्हीं की देख रेख में बड़ा होता गया। तराई का जंगल तब आबाद हो रहा था। गांव के भीतर और बाहर जंगल और दलदल थे। पलाश के पेड़ बहुत थे।दहकते हुए पलाश को देखकर ताई जी यानि जेठी मां ने मेरा नाम भी पलाश रख दिया। हमारे महकने की कोई संभावना नहीं थी,लेकिन वे शायद मुझे दहकते हुए देखना चाहती होंगी। जेठी मां घर की मुखिया थी।घर से बाहर सबकुछ पिताजी थे।गांव,घर और इलाके के लिए।खेती बाड़ी संगीतकार जेठमशाय के जिम्मे थी और घर जेठी मां की जिम्मेदारी में था।उनका फैसला ही अंतिम थी।बहुत आजाद थी। अकेली रुद्रपुर आती जाती थी साठ के दशक में। साझा परिवार था हमारा। दादी,नानी, छोटो काका,काकी मां, बुआ सरला देवी ,जिन्होंने 1954 के आंदोलन के दौरान तराई के जंगल में पुनर्वास के लिए पहलीबार भूख हड़ताल की थी,जेठा मशाय,पिताजी,मीरा दीदी, वीणा और सुभाष। घर में बच्चों को पढ़ानेवाले गृह शिक्षक और संगीत शिक्षक अलग थे। कचहरी घर में मेला लगा रहता था। तीन भाइयों की खेती साझा होती थी। हर मौसम में दासियों कामगार होते थे जो ज्यादातर पूरब से आते थे। गांव बसंतीपुर और बंगाली विस्थापित समाज का साझा परिवार और साझा चूल्हा भी हमारे परिवार के साथ ही थे। एक विराट साझा परिवार में हमारा बचपन बीता। अपने गांव ही नहीं, दिनेशपुर ही नहीं, पूरी तराई में बंगाली, पंजाबी, पहाड़ी, पुरबिया,देशी घरों में मेरे बचपन की कितनी ही स्मृतियां बिखरी पड़ी है। अनगिनत स्त्रियों के अंचलभरे प्यार की छांव में पला है मेरा बचपन। वे नहीं होती तो इतनी संवेदनाओं की सुनामी में जिंदगीभर न फंसा रहता। स्त्री मेरे लिए विमर्श नहीं, अस्मिता नहीं, साक्षात् मनुष्यता है। सभ्यता और संस्कृति हैं।विमर्श भी अंततः स्त्री को स्त्री अस्तित्व में समाहित कर देता है। जबकि सामाजिकता का प्रारंभ स्त्री की कोख से और विस्तार उसके आंचल से होता है। यह अहसास मुझे मेरी मां,ताई, छोटो काकी मां,मेरी गांव की सभी औरतों और तराई की हर स्त्री के सान्निध्य में हुआ कि यह सरासर गलत है कि स्त्री सिर्फ देह है।मन अगर है तो स्त्री मन। पुरुष का कोई मन होता है क्या? संवेदनाएं, सहानुभूति, दया,करुणा, सहायता , स्नेह और प्रेम सारे मानवीय तत्व हर स्त्री में है,चाहे वह जहां हो,जैसी भी हो। डोडो के साथ रात दिन ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजरते हुए हजारों हजारों साल की धारावाहिक स्मृतियों की अनंत नदी समुंदर की तरह मेरे सारे वजूद पर छा जाती है। बच्चों की वे सुनहली झांकियां बिजली की तरह मेरे मानस आकाश को व्याप जाती हैं। तब घर में, गांव में जंगली जानवर और जहरीले सांप अक्सर घुस आते थे। तराई आबाद होने से पहले कोटद्वार से लेकर टनकपुर खटीमा और चंदिया हजारा टाइगर प्रोजेक्ट, माला टाइगर प्रोजेक्ट का समूचा इलाका विश्व प्रसिद्ध जिम कार्बेट पार्क से जुड़ा हुआ था।बच्चे खूब होते थे, जिंदा बचते थे बहुत कम।कुपोषण,बीमारी,महामारी, गरीबी, भूख, सर्पदंश और जंगली जानवरों की भेट चढ़ जाते थे।तराई आबाद होते वक्त जन्मे जो बच्चे जिंदा रह गए,जिनमें हम भी एक हैं,अगर आज जिंदा हैं तो इन्हीं अदम्य स्त्रियों के अनंत स्नेह,प्रेम और नेतृत्व से। डोडो की आंखों से जेठी मां और उन सभी दिवंगत स्त्रियों की छवियां साफ नजर आती हैं। आपदाओं के बीच हमर बच्चों बहुत आजाद था। दिन में जंगल,खेत और पेड़ों पर बसेरा, चरवाहा बनकर पढ़ना लिखना,अनिवार्य कृषि के अलावा असंख्य पहाड़ी नदियों में छलांग लगाकर तैरना सीखना और इन सबके बावजूद जो भी इक्के दुक्के स्कूल थे,उनके शिक्षकों के निरंतर प्रयास से मनुष्य होने का अभ्यास करते थे हम। जिंदगी बीत चली,लेकिन पता नहीं चला अभीतक कि कितना मनुष्य हो सका अंततः जेठी मां कहती थी कि पलाश का मन बहुत नरम है। किसी का दुख दर्द कष्ट देख नहीं सकता। रोग शोक मृत्यु की स्थिति में मुझे बहुत कष्ट होता था बचपन में। इन स्थितियों में गांव घर से दूर खेत और जंगल में भाग कर हरियाली की शरण लेता था। डोडो भी अत्यंत संवेदनशील है। शायद बचपन में मैं भी इतना ही संवेदनशील रहा हूं। वक्त की मार ने संवेदनाओं के समुंदर को सूखा कर दिया।अब वह जंगल, वे खेत और हरियाली भी नहीं है,जहां आत्मा को चैन मिल सके। एक उजाड़ रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग की जिंदगी जी रहा हूं। यह जिंदगी भी कोई जिंदगी है? महकना था नहीं। दहकना था, दहक नहीं सके। शुतुरमुर्ग बन गया आखिरकार।

Tuesday, November 25, 2025

व्हील चेयर वाले बाल साहित्यकार अनुभव राज

#मुजफ्फरपुर,#बिहार में #प्रेरणा_अंशु ये चित्र बहुत खास हैं। जुलाई 2025 में #दिनेशपुर_उत्तराखंड में प्रेरणा अंशु और अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz की ओर से आयोजित #लघु #पत्र_पत्रिकाओं के अस्तित्व संकट पर राष्ट्रीय संवाद में कोई लेखक संगठन शामिल नहीं हुआ।क्योंकि हमने #बुक_पोस्ट सेवा बहाल करने के लिए स्थानीय #जनप्रतिनिधि के मार्फत #भारत सरकार को हर जिले से ज्ञापन देने का प्रस्ताव रखा था। इस सम्मेलन में पढ़ने लिखने की संस्कृति बहाल करने के लिए बड़े पैमाने पर बच्चों को शामिल किया गया था।रंगयात्रा आयोजित की गई थी। #देशभर से प्रतिनिधि आए थे। Pankaj Bisht जी आए थे। #बंगाल,#बिहार और #त्रिपुरा से भी साहित्यकार आए थे। बड़ी संख्या में स्त्रियों की भागेदारी थी और #उत्तर_प्रदेश #उत्तराखंड से नए युवा रचनाकार आए।#रंगकर्मी भी।#ऑपरेशन_सिंदूर के दौरान अनेक राज्यों के साथ ट्रेन विमान और बस सेवा बंद होने से नहीं आ पाए। चार पांच दशक पुराने हमारे #वैचारिक_मित्र नहीं आए। ऐसी स्थिति में मुजफ्फरपुर से किशोर बाल साहित्यकार Anubhav Raj wheel chair पर पिता के साथ दिनेशपुर आए और छ गए। हम उसे बचपन से छापते रहे हैं।व्हील चेयर में सीमाबद्ध यह अत्यंत मेधावी किशोर #हिंदी_भाषा और #साहित्य में चमकता हुआ सितारा है। उसने हम सभी को रोशन कर दिया।उसकी रचनाएं परिपक्व हैं और विषयवस्तु आधुनिक है। उसमें शारीरिक सीमाओं के बावजूद संवाद की जबरदस्त चाह है।जबकि बोलने में उसे तकलीफ होती है।वह खूब लिखता है। ये चित्र अनुभव ने भेजे हैं।जो हमें भावुक किए जाते हैं। मेरी पत्रकारिता अविभाजित मुजफ्फरपुर से हुई #झारखंड के #धनबाद से। लेकिन पूरे बिहार में हमारे अनेक मित्र हैं चार पांच दशक के।खासकर #पटना और #मुजफ्फरपुर से। Madan Kashyap ,#विजयकांत ,# #नचिकेता और कितने ही मित्र हैं। अब अनुभव के अलावा मुजफ्फरपुर में मेरा कोई मित्र नहीं है। जबकि झारखंड के हर कोने से हमें सहयोग और समर्थन मिलता है। इन चित्रों में अनुभव अपने कॉलेज के प्राध्यापकों को प्रेरणा अंशु की प्रतियां दे रहे हैं।साथ में दिनेशपुर सम्मेलन की कुछ तस्वीरें भी हम साझा कर रहे हैं। इस युवा पीढ़ी के सहारे हैं हम अब।

Monday, November 24, 2025

विस्थापित अपने पुरखों को भूल गए,डोडो को याद हैं पुलिनबाबू

कोई याद करें, न करें, #डोडो #पुलिनबाबू को याद ही नहीं करता,उनसे मिलता भी है डोडो का जन्म महामारी के दौरान 6 जून 2022 को हुआ तो मेरे पिताजी पुलिनबाबू का निधन इससे ठीक इक्कीस साल पहले 14 जून 2001 को हो गया था। डोडो ने पुलिनबाबू को नहीं देखा, फिर भी वह अक्सर पुलिनबाबू को याद करता है। स्मृति व्यक्तिगत नहीं है। स्मृति एक सतत् प्रवाहमान अनंत नदी है जो अनंतकाल से बहती है।यही विरासत है। यही इतिहास है। यही मनुष्यता है।यही सभ्यता है। देश भर में और सरहद के उसपार भी इस महादेश के करोड़ों विस्थापितों के पुनर्वास की लड़ाई आखिरी सांस तक लड़ते रहे पुलिनबाबू।विस्थापन के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे। हमेशा सोचा कि हम रहें या न रहें, हम सही सलामत रहे या न रहे, हमारे लोग हमेशा सही सलामत रहे।हमारे करोड़ों आत्मीय जन। कभी अपने लिए नहीं सोचा। हर विस्थापित की चिंता उन्हें थी। इसीलिए उत्तराखंड की कड़ाके की सर्दी में बिना कमीज धोती और चादर में उन्होंने आधी सदी का पुनर्वास संग्राम किया। रुद्रपुर से रानाघाट, बंगाल, ओडिशा से लेकर समूचे दंडकारण्य और अंडमान तक हजारों लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था संवाद और संघर्ष के रास्ते की। पूर्वोत्तर भारत से मध्यभारत में विस्थापितों के संकट के दौरान उनके साथ खड़े रहे।जैसे असम में।किसान आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे। हमने उनके संबंधों को नकदी नहीं बनाया और न उन्होंने अपने लिए कुछ किया या बनाया। उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के विस्थापितों के साथ तो वे हर वक्त रहे।उन्हें कितने लोग याद करते हैं? परिजनों और नाते रिश्तेदारों को हमेशा अफसोस रहा कि उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया। इन लोगों में से किसी की पुलिनबाबू की संघर्ष महागाथा, विभाजनपीड़ितों के नए जीवन के महासंग्राम में वैसे ही कोई दिलचस्पी नहीं है,जैसे शक्तिफार्म और दिनेशपुर के विस्थापित समाज की नहीं है।विस्थापितों के किसी नेता ने पुलिनबाबू पर लिखी मेरी किताब देखने तक की जहमत नहीं उठाई। डोडो ने पुलिनबाबू को नहीं देखा।लेकिन उन पर लिखी किताब पढ़ना चाहता है।वह बेहद चंचल है। मेरे साथ बैठकर लिखने पढ़ने की कोशिश जरूर करता है। उसके माता पिता के पास वक्त नहीं है। स्कूल में शिक्षक भी उसकी कोई मदद नहीं करते। लेकिन डोडो को मेरा लिखा पढ़ना जरूर है। उसे जैसा भी हूं मैं मुझ जैसा बनना है और अपने बूढ़े बाबा का जैसा बनना है।उन्हें जानना समझना है। यह उसका कहना है। उसने मुझसे वायदा किया है कि वह खूब लिखेगा।खूब पढ़ेगा।खूब सीखेगा। लेकिन उसका साथ कौन देगा? मुझे सबसे बड़ी चिंता यह है। स्मृतियां की हजारों सालों की अनंत नदी जो उसके मांस में उमड़ घुमड़ रही है,हिंसा,घृणा और स्वार्थ के जहरीले परिवेश में कब तक बची रहेगी? स्मृतियां उनके लिए सहेजने, अपने पुरखों की विरासत से उन्हें जोड़ने और आगे की लड़ाई के योग्य बनाने के लिए क्या हम कुछ कर पाते हैं। रविवार को मैं घर पर हुआ तो वह नदी या खेतों के पास जाने की जिद करता है। कल दोपहर बाद चार बजते न बजते उसने कहा,दादा,चलो घूरे आसी। मेरे तैयार होने से पहले वह घर से निकलकर सड़क पर जाकर खड़ा हो गया।ठंड हो रही थी।इसलिए मेरी टोपी भी पहन रखी थी। मैं उस तक पहुंचा तो फौरन मुझसे कहा, चलो बूढों बाबर काछे जाई।पुलिनबाबूर साथे देखा कोरबो। गांव के श्मशान घाट में आंदोलनों और संघर्ष के अपने बसंतीपुर के साथियों के साथ पुलिनबाबू विश्राम कर रहे हैं। वहां उनका स्मृति स्थल है।जैसे दिनेशपुर में उनकी मूर्ति है।दिनेशपुर में वह अक्सर जाता है। मूर्ति से मिलकर आता है। गांव का श्मशान घाट भूमिहीन नदी किनारे के मोहल्ले के अंत में अर्जुनपुर गांव के इस पर घर से एक किमी दूर है। जहां वह दो तीन बार गया है हमारे साथ। आज वह मुझे रास्ता दिखाते हुए उस स्मृति स्थल ले गया। वहां पानी की बड़ी टंकी है।पिताजी की समाधि के आस पास कीचड़ है। उस कीचड़ के पार जाकर उसने मत्था टेका।आहिस्ते से पुलिनबाबू को संबोधित करते हाय पूछा, बूढ़ों बाबा, भालो आछो? श्मशान घाट से सटा हुआ नया आंगनबाड़ी भवन बना है। हम पहली बार देख रहे थे।श्मशान घाट पर एक वट वृक्ष है।उसकी दलों पर मोहल्ले के बच्चे खेल रहे थे। डोडो ने उस पर पहले चढ़ने की कोशिश की।चढ़ नहीं सका तो मैने नीचे की डाल पर उसे बैठा दिया। उसने ऐलान किया,अपने घर में ट्री हाउस बनाएंगे।असीम हम रहेंगे। बाहर निकलकर आंगनबाड़ी के सामने खेलने लगा डोडो।मुझे नदी के पास ले गया जो मरणासन्न है और श्मशान के क्रिया कर्म, कर्मकांड के लिए ही शायद जिंदा रखी गई है।डोडो ने पूछा, नदी क्यों मर रही है? मुहल्ले के एक बुजुर्ग का घर ठीक आंगनबाड़ी के सामने है तो उन्होंने हमें बैठा लिया।डोडो नहीं बैठा। वह चिड़ियोंसे बतियाने लगा। तभी बुजुर्ग के आर्किटेक्ट बेटा ने कहा कि थोड़ा रुकिए, चाय पीकर जाए। मैने कहा,फीकी। बहू ने कहा, खजूर के गुड़ की बना रहे हैं।उन्होंने खजूर का गुड़ अलग से डोडो को दी। बुजुर्ग को एस आई आर और दूसरी समस्याओं पर चिंता है तो इन सभी मुद्दों पर बात होने लगी। चाय मिली तो डोडो ने कहा,बिस्किट भी चाहिए। बिस्किट के साथ चाय पीकर डोडो ने घर की राह पकड़ी।तब तक अंधेरा हो गया। फिरभी हर रोज सूरज उगता है। घने कोहरे में भी सूरज उगता है। क्या सूरज के उगने से ही अंधेरा दूर होता है? फिर हमारे दिल और दिमाग में इतना अंधेरा क्यों है?, बच्चों की आंखों में समूचे ब्रह्मांड का प्रकाश है। लेकिन हम यह प्रकाश मिटाकर उन्हें अंधेरे में क्यों धकेल रहे हैं? नोट: कुछ साथी विस्थापन के यथार्थ,पुनर्वास की लड़ाई पर केंद्रित मेरी किताब लेना चाहते हैं। यह किताब Amazon स्टोर में उपलब्ध है और दिल्ली से वितरित हो रही है।इच्छुक साथ इस लिंक पर जाकर किताब के लिए सीधे ऑर्डर कर सकते हैं। https://www.amazon.in/Pulinbabu-Visthapan-Yatharth-Punarvas-Ladai/dp/9364073428 इसके अलावा सीधे प्रकाशक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से भी प्राप्त कर सकते हैं। उनका फोन नंबर 8750688053 है।

Sunday, November 23, 2025

पोहा में बुढ़ापे का बचपन

पोहा और बुढ़ापा का बचपन आज अरसे बाद सविता जी ने नाश्ते में पोहा बनाया। Nityanand Mandal आ गए।उनके साथ बचपन के साथी विवेक दास भी थे। बाद में बागेश्वर के रिटायर्ड सीएमओ डॉ Jagdish Chandra Mandal भी भतीजा व पत्रकार Prakash Adhikari के साथ आ गए।भाई पद्योलोचन भी घर में ही था। आज विधायक शिव अरोरा ने बसंतीपुर नेताजी मंच पर नेताजी की मूर्ति की स्थापना की।कवरेज के लिए अनसुनी आवाज़ Ansuni Awaaz के हमारे साथी Kashmir Rana भी रुद्रपुर से मीडिया टीम के साथ आ गए।लिहाज हमने मीडिया के साथियों और विधायक जी को घर चलने को कहा।वे नहीं आ सके। कश्मीर बसंतीपुर आया और घर नहीं आया, अफसोस। Rupesh Kumar Singh दोपहर दो बजे शक्तिफार्म के प्रहलाद पलसिया गांव में लाइव थे। वहां भी अनसुनी आवाज़ की टीम थी। विवेक, पड़ोलोचन और नित्यानंद मास्टर प्रताप सिंह के संघर्ष के साथी रहे हैं।जब मैं मेरठ और बरेली में था, तबतक मास्साब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और राममंदिर आंदोलन में सक्रिय थे।मेरे कोलकाता जाने के बाद आम जनता के हक हकूक की लड़ाई लड़ते हुए संघ से उनका मोहभंग हो गया और वे कट्टर वामपंथी हो गए। उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में तमाम जन आंदोलनों का नेतृत्व किया,जिसमें नित्यानंद, पद्मलोचन और विवेकदास उनके साथी थे। शक्तिफार्म में बेदखली के खिलाफ रूपेश की लगातार मोर्चाबंदी की चर्चा के सिलसिले में विवेक ने कहा कि रूपेश बिल्कुल मास्टर साहब की तरह हैं।मास्टर साहब भी इसी तरह लड़ते थे। वे भी सत्ता से टकराने में पीछे हटते नहीं थे। पोहा खाते हुए ये लोग मास्टर साहब की चर्चा करते रहे। विवेक भी हमारे बचपन के दोस्त हैं।हमारी स्मृतियां साझा हैं। लंबे अरसे से वह बीमार चल रहा है।अरसे बाद हमारे यहां आया तो जाहिर है कि बचपन को भी बुढ़ापे में याद किया। सीएमओ साहब के बड़े भाई डॉ अरविंद मेरे मित्र थे।दोनों हमसे जूनियर थे दिनेशपुर स्कूल में।उनके घर खूब आना जाना था।जाहिर है कि स्मृतियों का सफर लंबा चला। विभिन्न मुद्दों पर भी खूब चर्चा हुई। पोहा लोकप्रिय नाश्ता है।महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में हम जहां भी गए नाश्ते में पोहा जरूर मिला। गुजरात में भी।जैसे दक्षिण भारत में इडली डोसा मिलता है। उबालकर तथा कुछ-कुछ नम अवस्था में ही किसी चीज से 'पीटकर' या दबाकर चिवड़ा (Flattened rice या beaten rice) बनाया जाता है। चिवड़ा को कुछ अन्य चीजों के साथ मिलाकर नमकीन पोहा बनाया जाता है। चिवड़ा को उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में दही के साथ खाया जाता है। बिहार में चिवड़ा को चुडा के नाम से बोला जाता है| बंगाल और ओडिशा में भी पोहा जनसंवाद का अंग है। लेकिन आज पोहा बुढ़ापे का बच्चों बन गया।

Saturday, November 22, 2025

जल जंगल जमीन का कथासंसार

कथाकार नारायण सिंह नहीं रहे। रेखांकन के संपादक और धनबाद में अस्सी के दशक में अंतर्गत, कतार और श्रमिक सोलीडीयरिटी में हमारे साथी Anwarshamim के फेसबुक पोस्ट से खबर की पुष्टि हो गई। धनबाद से गहराई से जुड़े कथाकार नारायण सिंह से कोलकाता में भी लगातार संपर्क बना रहा। कोयलांचल ने अनेक कथाकार, कवि दिए हैं।झारखंड, बिहार और बंगाल का सेतुबंधन था धनबाद। हिंदी, बांग्ला, खोरठा, कुड़माली, कुड़ुख, मुंडारी, संथाली जैसी भाषाओं की साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत का आधार,धारक वाहक। बांग्ला के बड़े कथाकारों की जड़ें भी यहीं थी। शरत चन्द्र, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, प्रफुल्ल राय, बुद्धदेव गुहा और कितने ही लोगों ने लाल माटी की कथा लिखी। ताराशंकर बंदोपाध्याय की सारी कथायत्रा में यह आदिवासी जमीन हंसुली बांके र उपकथा है। नागिनी कन्या है। कमललता है। पथेर पांचाली और आरण्यक की जमीन भी यही है, जहां गगन घटा गहरानी है। महाश्वेता देवी का सारे कथा संसार इसी जल जंगल जमीन की लड़ाई है। हम साहित्यकार नहीं हैं लेकिन आदिवासी जरूर है, जिनकी मौत नहीं आती दबे पांव, मौत को हम मुकाबले के लिए दावत देते हैं। कुछ सदियों पहले भी हमारे पुरखे आदिवासी थे। जड़ों में हम एक रहे हैं।लेकिन आदिवासियों की तरह हम अपनी बेदखली के बावजूद जल,जंगल,जमीन की लड़ाई में नहीं हैं। हमने अपनी आदिवासियत खो दी है। हम अब लड़ने लायक नहीं बचे।आदिवासी लड़ाई खेत होते हैं,पीठ नहीं दिखाते। फिरभी,जड़ें और जमीन एक है। इसी जमीन के कथाकार हैं मनमोहन पाठक, संजीव, श्रृंजय, रणेंद्र, श्याम बिहारी श्यामल,पंकज मित्र और नारायण सिंह। अब नारायण सिंह नहीं रहे। शाम से सूचना मिल रही थी। इन दिनों बिन मरे लोग मारे जा रहे हैं। जिंदा भी मरे हुए हैं। यकीन ही नहीं हो रहा था। सच शायद दुःख भी है और शोक भी। सच अक्सर सदमा बनकर आता है।जैसे प्रिय जन के न होने का समाचार। अनवर शमीम ने लिखा है: धनबाद पहुंचते ही प्रसिद्ध कथाकार,उपन्यासकार,आलोचक एवं अनुवादक नारायण सिंह जी के निधन की दु:खद सूचना 'रेखांकन' के संपादक एवं आलोचक कुमार अशोक ने दी।उनके निधन की ख़बर से मर्माहत हूँ।नारायण सिंह जी पिछले कई महीनों से बीमार थे और फिलहाल अपने छोटे बेटे के साथ पूणे (महाराष्ट्र) में रह रहे थे।अपनी कहानी 'अजगर' जो प्रतिष्ठित पत्रिका 'हंस' में छपी थी से उनको अपार ख्याति मिली।उनके तीन कहानी संग्रह क्रमशः 'तीसरा आदमी',पानी तथा अन्य कहानियां' और 'सुनो वासुदेव' और उपन्यास 'मुसलमान' तथा 'ये धुआं कहाँ से उठता है' के अलावा आलोचना की तीन पुस्तकें भी छपी हैं जिनमें 'सीता बनाम राम', सुन मेरे बंधु रे तथा 'फुटपाथ के सवाल' उल्लेखनीय हैं।उन्होंने ने गांधीवादी श्रमिक नेता कांति मेहता की जीवनी का अनुवाद 'मेरा जीवन,मेरी कहानी' नाम से अनुवाद किया है।वे 73 वर्ष के थे।बीसीसीएल से 2012 में सेवानिवृत्त होने के बाद स्वतंत्र लेखन में व्यस्त थे।कोयलांचल में उनके निधन से शोक व्याप्त है।जनवादी लेखक संघ से भी वह बरसों जुड़े रहे।हमारी यादों में अपनी कहानियों के साथ वे हमेशा जीवित रहेंगे।उनके निधन पर मैं अपनी भावभीनी श्रधांजलि अर्पित करता हूँ। विनम्र प्रणाम।

मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला हिंदुत्व की राजनीति से नहीं किया जा सकता।

In conversation with Palash Biswas

Palash Biswas On Unique Identity No1.mpg

Save the Universities!

RSS might replace Gandhi with Ambedkar on currency notes!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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