स्पार्टाकस थे विद्यासागर नौटियाल
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 14 || 01 मार्च से 14 मार्च 2012:: वर्ष :: 35 :March 16, 2012 पर प्रकाशित
राजकुमारी पांगती
टिहरी में सरकारी नौकरी करने के दरम्यान 1977 से मैं विद्यासागर नौटियाल जी को पूरे कुनबे सहित जानती रही हूँ। अन्तिम मुलाकात देहरादून में उनके निवास पर 2007 में हुई थी। तब अपनी लिखी पुस्तकों का एक बड़ा बण्डल बाँध कर उन्होंने मुझे दिया। मेरे द्वारा दी गयी पुस्तकों के मूल्य की राशि उन्होंने मेरे ही बैग में ठूँस दी। उनकी मृत्यु का समाचार सुन कर मैं धक्क सी रह गई।
आज भले ही साहित्य जगत से जुड़े हुए लोग उन्हें 'पहाड़ का प्रेमचन्द' कह रहे हों, किन्तु 80 के दशक में लघु पत्रिका 'सर्वनाम' में लेखक-सम्पादक विष्णु दत्त शर्मा ने उन पर 'टिहरी का स्पार्टाकस विद्यासागर नौटियाल' विशेषांक निकाला था। हावर्ड फास्ट की 'स्पार्टाकस' का हिन्दी रूपान्तरण 'आदि विद्रोही' जिस किसी ने पढ़ा हो, वह उस लौह पुरुष के जीवट को भूल नहीं सकता। 'स्पार्टाकस' की तुलना नौटियाल जी से करना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
टिहरी राजशाही के खिलाफ संघर्ष, बनारस में उच्च शिक्षा के साथ छात्र राजनीति में घुसपैठ और लेखन में 'भैंस का कट्या' जैसी कहानी की रचना, जो कि रूस में वहाँ की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ायी जाती थी। ऐसे अद्भुत काम एक साथ विद्यासागर जी ही कर सकते थे। वर्तमान में उत्तराखण्ड (एन.सी.आर.टी.) के कक्षा 9 की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में उनकी 'माटी वाली' कहानी पढ़ाई जाती है। उसमें का 'सेमल का तप्पड़' अब कभी देखने को नहीं मिलेगा। 'गरीब आदमी का श्मशान नहीं उजड़ना चाहिए' कहानी का अन्त आदमी को (यदि उसने विस्थापन की उस पीड़ा को सहा है) 'सुनामी' की तरह झकझोर देता है। टिहरी की जनता के 'टिहरी बाँध विरोध' का स्वर अन्ततः दबा ही दिया गया। टिहरी बाँध बन ही गया।
'भीम अकेला', 'फट जा पंचधार', 'सूरज सबका है', 'बागी टिहरी गाता जाये' जैसी रचनाएँ विस्थापन के इसी दर्द से उपजी हुई हंै। 'सूरज सबका है' में उनकी भाषा-शैली अद्भुत है। वाक्य छोटे, स्पष्ट और अपने आप में पूर्ण। वह अलौकिक काव्य की अनुभूति देता है, किन्तु, परन्तु 'लेकिन' और 'जैसे' शब्दों का प्रयोग उसमें नहीं है। कारण पूछने पर वे बताते थे अर्नेस्ट हेमिंग्वे भी इसी शैली में अपनी रचनाएँ लिखते थे।
विज्ञान के इस युग में हम आसमान की चाहे कितनी भी ऊँचाई छू लें, या नाप लें, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज्ञान को कितना ही विस्तार दे दें, जीवन तो आखिर जड़ों में ही है। ''साहित्य और संगीत के अभाव में मानव की मृत्यु नहीं होती, किन्तु ये दोनों मृतक को भी जीवनदान देते हैं'', ऐसा किसी कवि ने कहा है। धरती पर बोया बीज अपने समय पर ही उगेगा, पनपेगा, फूलेगा, फलेगा। ये बात नौटियाल जी भली भाँति जानते थे। सबसे बड़ी पुत्री की असमय निधन की पीड़ा में भी उनका लेखन रुका नहीं।
जो रचेगा, वही बचेगा। साहित्यकार मरा नहीं करते। समय बीतने के साथ-साथ अब लोग उनके कलम की ताकत को और ज्यादा महसूस करेंगे, टिहरी के लोग विशेष तौर पर।
मेरा उस महामानव को प्रणाम!
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