घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी . 8
लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 14 || 01 मार्च से 14 मार्च 2012:: वर्ष :: 35 :March 15, 2012 पर प्रकाशित
शहर में दो तेल की मिलें हुआ करती थीं। वर्मा जी की नैनी ऑयल मिल और साह जी की दुर्गा ऑयल मिल। काशीपुर के सेठ व्यापारी लाला व्रन्दावन का तम्बाकू का काफी फैला हुआ कारोबार था। बाद में सेठ ने कारोबार बन्द कर दिया, लेकिन ज्वालादत्त जी के पिता जी की लालमणि-खीमदेव फर्म तम्बाकू के लिये प्रसिद्ध हो गई। गुड़-तेल का व्यापार तो चलता रहा। ज्वालादत्त जोशी बताते हैं कि तब शहर में साल भर भजन-कीर्तन, सत्संग और भजन की महफिलें हुआ करती थीं। पूस के प्रथम रविवार से होने वाली होली की बैठकों में महादेव गिरी, सोमेश्वर के तिलगिरी, मोहन बाबा आदि साधु-संन्यासी भी इनके घर आते थे। 'लालमणि-खीमदेव' फर्म शहर के विशेष लोगों और तम्बाकू पीने के शौकीनों के बैठने का अड्डा थी। यह तराई-भाबर और सीमान्त के व्यापारियों का मिलन केन्द्र भी थी। सीमान्त के प्रमुख भोटिया व्यापारी भेड़-बकरियों में आलू, सूखे मेवे, खुमानी, अखरोट व तिब्बत से सुहागा, गरम कपड़े लाकर आढ़तियों को बेचते थे। इन शौकाओं को लोग आग्रह के साथ अपने खेतों में ठहराते, ताकि उनकी सैकड़ों बकरियाँ खेतों में चुगान के एवज में कीमती खाद दे सकें। ईमानदारी इतनी थी कि व्यापारी आते-जाते में बगैर रसीद के ही उनके पास अपना धन जमा कर जाते थे। तब लम्बे सफर में चाँदी के भारी रुपयों को ढोना असुविधाजनक था। बाद में कागज के नोटों से सुविधा हो गई। शौका व्यापारी सौ के बड़े नोट के दो टुकड़े कर अलग-अलग डाक द्वारा दो भागों को भेजते थे, एक टुकड़ा खो जाने की स्थिति में दूसरे से रुपया मान लिया जाता था। पहाड़ जाते समय व्यापारी हल्द्वानी से नमक ले जाते थे। नमक की गाड़ी उतरते ही सड़क पर नमक के ढेर को चाटने के लिए गायें जुट जातीं, श्रमिक-पल्लेदार आवश्यकतानुसार नमक उठा लेते। कोई कुछ कहने वाला नहीं था। सदर बाजार में फैले ढेले वाले नमक का बड़ा कारोबार अब सिमट चुका है। नेतराम, शंकरलाल, बाबूलाल गुप्ता परिवारों के पुरखे बंशीधर ने 1930 के करीब इस कारोबार की शुरुआत की थी। एक रुपये में दस सेर नमक आता था। अब गद्दियों में बैठे, उस बाजार की रौनक होने वाले, भारी शरीर, मगर सरल स्वभाव के पुराने लाला कहीं दिखाई नहीं देते। गोवर्धन शिवनारायण, राधेश्याम-राजाराम, ओमप्रकाश जी की पुरानी फर्में अब घी-तेल, गल्ले का कारोबार करती दिखाई देती हैं। अलबत्ता ललिता प्रसाद गुप्ता इस कारोबार को जारी रखे हैं।
मुनगली गार्डन का मुनगली परिवार भी हल्द्वानी नगर के पुराने परिवारों में है। हल्द्वानी बसने की शुरूआत में ही भवानी गंज इस परिवार के मुखिया के नाम से बना। कला, संस्कृति और आध्यात्म में गहरी रुचि रखने वाले वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. निर्मल चन्द्र मुनगली कहते हैं कि नगर बसने से पूर्व प्रमुख बस्तियाँ बमौरी और मोटा हल्दू थी। 'गंज' शब्द का प्रयोग बस्ती के लिये होता है, जैसे लखनऊ में हजरतगंज। हल्द्वानी में भी पं. भवानीदत्त मुनगली के नाम से भवानी गंज, सखावत गुप्ता जी के नाम से सखावत गंज, महावीर जी के नाम से महावीर गंज बसे। मुनगली परिवार मूल रूप से अल्मोड़ा के ग्राम घुरसों (पातालदेवी मन्दिर के पास) का है। डॉ. मुनगली के दादा भवानीदत्त जी ने भाबर में आकर कारोबार जमाया और आमों से लदी रहने वाली, रुहेलखण्ड को पहाड़ से जोड़ने वाली सड़क के किनारे 1850-55 में भवानी गंज का पहला भवन बनाया। 2 अक्टूबर 1888 को नीलाम में रामपुर रोड स्थित जमीन, जिसे मुनगली गार्डन कहा जाता है, खरीदी। नैनीताल रोड में मंगल पड़ाव से लेकर रामपुर रोड तक का क्षेत्र भवानी गंज कहलाया जाने लगा। यह सब प्रक्रिया म्युनिसिपल बोर्ड बनने से पूर्व हो चुकी थी। पहाड़ के बड़े मालदार दान सिंह बिष्ट की तरह भाबर में पं. भवानीदत्त मुनगली जंगलात के कंट्रक्टर थे। वे ब्रिटानी कम्पनी 'इंडियन उड प्रोडक्ट', इज्जतनगर (बरेली) को खैर की लकड़ी सप्लाई करते थे।
बाबा नीमकरोली महाराज के प्रति इस परिवार में अगाध श्रद्धा है। बाबा के आदेश पर भवानीदत्त मुनगली ने सन् 1953 में हल्द्वानी के उस समय के मशहूर कारीगर, खिचड़ी मोहल्ले के रियासत मिस्त्री से नैनीताल का हनुमानगढ़ी मंदिर बनवाया। रियासत ने बीमार होने के बावजूद बिना फीते की नपाई के पहला निर्माण किया। मक्खन लाल शर्मा नामक कारीगर ने हनुमान जी की मूर्ति बनाई।
सदर बाजार से पूर्व की ओर मंगल पड़ाव से नया बाजार की ओर जाने वाली सड़क पियरसनगंज और उससे अगली गली महावीरगंज के नाम से जानी जाती है। पियरसनगंज वाली सड़क के छोर पर, मंगल पड़ाव में आजकल जहाँ दुमंजिले में डॉ. बिपिन चन्द्र पन्त का डेंटल क्लीनिक और निचले तल पर पोस्ट आफिस है, उसमें पियरसन नामक अंग्रेज रहा करता था। पियरसनगंज व महावीरगंज में पहले फल व मावे का कारोबार होता था। नवीन मंडी बन जाने के बाद फल आढ़तियों का कारोबार स्थानान्तरित हो गया है। पियरसनगंज की अब मीरा मार्ग के नाम से नई पहचान बनी है। मीरा नाम की एक महिला यहाँ निशुःल्क सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण देती थीं। वह चाहती थीं कि महिलायें स्वावलम्बी बन कर कुछ करें। इसी के चलते यह नया नामकरण हुआ।
कारखाना बाजार, जिसे पहले लोहारा गली कहा जाता था, और सदरबाजार के बीच वाली बाजार को नल बाजार के नाम से जाना जाता है। यहाँ एक घना छायादार वृक्ष था। बाजार में पालिका द्वारा सात नल जनसुविधा के लिए लगाए गए थे, जिनमें शीतलाहाट का स्वच्छ व ठंडा पानी आता था। तब बहुत ही कम घर थे, जहाँ निजी कनेक्शन थे। शहर में यत्र-तत्र लगे इन नलों से ही आम लोग पानी लिया करते थे। नल बाजार से आसपास की बाजारों व घरों को पानी मिलता था। यहाँ पालिका ने एक प्याऊ भी लगाया था, जहाँ गर्मियों में पानी पिलाने के लिए एक कर्मचारी नियुक्त किया जाता था। इस बाजार में सब्जी की दुकानें लगा करती थीं, जो बाद में मंगलपड़ाव स्थानान्तरित हो गयीं। तेल के थोक व फुटकर व्यापारी बहुत बाद तक इस बाजार में बैठा करते थे। 1962 में लगी आग ने इस बाजार का स्वरूप ही बदल दिया।
रानीबाग में चित्रेश्वर शिवालय के नाम से एक पुराना मंदिर है। इसे 25 जनवरी 1880 में रामगढ़ के चतुर सिंह द्वारा बनवा कर प्रतिष्ठित किया बताया जाता है। यहाँ जसुली बूड़ी की भी एक धर्मशाला है। पिथौरागढ़ में पंचचूली पर्वतमाला के नीचे स्थित 'दर्मा दाँतो गबला' के नाम से जाने जाने वाले दाँतू गाँव में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में जन्मी, अत्यन्त धनी महिला जसुली शौक्याणी की दानवीरता प्रसिद्ध है। उनके द्वारा यात्रियों के ठहरने के लिए बनाई गई लगभग 300 धर्मशालाओं में से अनेक के अवशेष आज भी पुराने मार्गों पर मिलते हैं। रानीबाग में बची धर्मशाला के अवशेष से सट कर एक चाय की दुकान खुल गई है। रानीबाग में ही मिलट्री की छावनी भी है। ब्रिटिश काल में काठगोदाम से लगे दमुवाढूँगा ग्रामसभा क्षेत्र के ब्यूरा खाम में सिपाहियों के आवास तथा घुड़साल हुआ करते थे। इसी से लगे क्षेत्र को चाँदमारी कहा जाता था, जहाँ सिपाही गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे।
रानीबाग के चित्रशिला घाट का अपना एक बहुत बड़ा धार्मिक महत्व भी है। कहा जाता है कि पुष्पभद्रा, गार्गी, कमलभद्रा, भद्रा, सुभद्रा, वेणुभद्रा, शेषभद्रा ये सात धारायें चित्रशिला में सम्मिलित होती हैं। रानीबाग नाम से लगता है कि यहाँ कभी बड़ा बाग होगा। किंवदन्ती है कि कत्यूरी राजा धमदेव व ब्रह्मदेव की माता जिया रानी यहाँ निवास करती थीं। उत्तरायणी के पर्व पर दूर-दूर से ढोल-नगाड़ों व हुड़के की थाप के साथ 'जै जिया', 'जै जिया' के गगनभेदी नारों के साथ हजारों लोग दूर-दूर से रात्रि में यहाँ पहुँचते हैं और जिया रानी का जागर लगाया जाता है। जिया रानी को कुछ लोग अपनी कुलदेवी के रूप में भी पूजते हैं। गौला नदी के किनारे कई रंगों का एक बहुत बड़ा पत्थर है। लोग इसे जिया रानी का घाघरा भी कहते हैं। इसे ही चित्राशिला के नाम से जाना जाता है और इसकी पूजा होती है। इसी स्थान पर गौला नदी के उस पार चट्टान पर एक बहुत बड़ सब्बल ठुका हुआ था। सम्भवतः वह आर-पार जाने के लिए किसी जमाने में डाला गया होगा। तेज बहाव के कारण अब वह चट्टान टूट कर बह गई है। रानीबाग में दूर-दूर से लोग शवदाह के लिए आते हैं। शवदाह के लिए लकड़ी का प्रबंध वन निगम द्वारा किया जाता है। अब नदी घट जाने के कारण शवदाह के बाद बची लकडि़यों का ढेर पड़ा रह जाता है और जल प्रदूषित हो जाता है। यही प्रदूषित जल हल्द्वानी के नागरिकों तक पहुँचता है। इस कारण यहाँ विद्युत शवदाह गृह की माँग भी उठ रही है। रानीबाग के आसपास का क्षेत्र गिरि व नाथों का बताया जाता है। यहाँ उनकी समाधियाँ बनी हुई हैं।
रानीबाग से काठगोदाम गौला बैराज तक अब काफी बसासत है। यह स्थान पिकनिक स्पॉट के रूप में भी अच्छा है। रानीबाग-काठगोदाम पहाड़ से लगा होने के कारण हल्द्वानी की बनिस्बत कम गर्म है। रानीबाग में तो गौला के किनारे बहुत तेज हवा चलती है।
काठगोदाम में नरीमैन बिल्डिंग में कुमाऊँ मोटर ओनर्स का मुख्य कार्यालय अब भी है। रानीबाग में, जहाँ से भीमताल का मोटर मार्ग है, 1985 में एचएमटी का घड़ी कारखाना खोला गया था। कुछ ही वर्षों में यह राजनीति का अखाड़ा बन कर बीमार पड़ गया। इस कारखाने के लिए कर्नल मथुरालाल साह से भूमि खरीदी गई थी। तब यह जंगल जैसा ही था। भीमताल रोड भी बाद में बनी। उससे पहले भवाली होकर ही भीमताल जाना होता था। नैनीताल में जन्मे, मिलनसार व हँसमुख कर्नल मथुरालाल साह दूसरे विश्वयुद्ध के जाँबाँज सैन्य अधिकारी रहे थे। बहादुरी के लिये अनेक तमगे हासिल करने वाले कर्नल साह जिम कार्बेट के भी अनन्य मित्र रहे। हल्द्वानी में अब अवकाश प्राप्त फौजियों की संख्या भी कम नहीं है। मगर इनमें कर्नल मथुरा लाल साह जैसा सामाजिक कार्यों में लगा रहने वाला शायद ही कोई हुआ हो।
'संगीत कला केन्द्र' शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में हल्द्वानी की पहली संस्था मानी जा सकती है। यही सन् 1957 में 'सांस्कृतिक कला केन्द्र' में रूपान्तरित होकर 1965 में अनिरुद्ध कुमार गुप्ता के अधिकार में चली गई। अब यह उनके तिकोनिया स्थित आवास पर प्राचार्य अजय गुप्ता की देखरेख में संगीत प्रचार में जुटी है। सन् 1980 में 'हल्द्वानी संगीत समिति' का गठन हुआ, जिसने सुप्रसिद्ध धमार गायक पं चन्द्रशेखर पन्त की स्मृति में गायन तथा वादन की प्रतियोगितायें कीं और देश के प्रसिद्ध कलाकार हल्द्वानी बुलाये।
10 जून 90 को 'हल्द्वानी संगीत समिति' के संयोजक मनोहरलाल साह 'मुन्ना काकू' का निधन हो जाने से संस्था को बहुत बड़ा धक्का लगा। नैनीताल में 1927 को जन्मे, म्युनिसिपल टौल सुपरवाइजर प्रेमलाल साह के पुत्र मनोहर लाल साह हॉकी के एक अच्छे खिलाड़ी भी रहे। डी. पी. मुखर्जी और लहरी दादा से तबलावादन सीखने के उपरान्त उन दिनों नैनीताल आते रहने वाले पं. चन्द्रशेखर पन्त और अहमदजान थिरकुवा से भी उन्होंने संगीत के गुर सीखे। कुमाउनी होली की महफिलों को लेकर उनका जनून इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि होली के दिनों में वे अपने मित्र भवानीलाल साह के साथ नैनीताल से रात में ट्रक में हल्द्वानी पहुँचकर होली की बैठक करा कर अगली सुबह फिर से नैनीताल पहुँच जाते थे। हल्द्वानी की मुख्य रामलीला के अलावा सुभाष नगर में रामलीला के आयोजन में सक्रिय थे। 1982 से 1987 तक चन्द्रशेखर जयन्ती समारोह करवाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। विख्यात गायकों, एल.के. पण्डित, प्रो. नाडकर्णी व विद्या कातगड़े, तबलावादक मुन्ने खाँ, रामस्वरूप राव व शीतल प्रसाद, सरोदवादक सुप्रभात पाल, सितारवादक नवीन चन्द्र पन्त जैसे कलाकारों की प्रस्तुतियों से वे किशोर एवं युवाओं में संगीत के प्रति रुझान पैदा करना चाहते थे।
समारोह के लिए प्रकाशित होने वाली स्मारिका के सिलसिले में मेरा परिचय संगीत के मौन साधक राजेन्द्र तिवारी से हुआ। उन्होंने संगीत की प्राथमिक शिक्षा अपने पिता सितार व सुरबहार वादक विष्णुदत्त तिवारी से प्राप्त करने के बाद पं. चन्द्रशेखर पन्त के सान्निध्य में संगीत साधना की। अभी भी वे प्रचार से दूर साधनारत हैं। इसी समारोह के बहाने मेरा परिचय गजवाद्य पर मीठी धुनें छेड़ने वाले महेश सिंह नेपाली के साथ भी हुआ। कमिश्नरी में कार्यरत होने के नाते वे जाड़ों में कमिश्नरी के खाम बंगला स्थित कैम्प में आ जाते थे। उन्होंने मुझे एक वायलिन देकर सीखने को प्रेरित किया, मगर मैं अभ्यास जारी नहीं रख सका। वायलिन की खूँटियाँ कसने में तार टूट जाते। जब तक नये तार लखनऊ या अन्यत्र से आते, तब तक पिछला अभ्यास खत्म हो जाता।
संगीताचार्य चन्द्रशेखर पन्त के शिष्य जगदीश चन्द्र उप्रेती के गायन के आगे बड़े-बड़े गायक मौन हो जाया करते थे। लेकिन नशे की लत ने उनका रास्ता हमेशा रोके रखा। 26 जनवरी 1984 को हीरानगर में एक और संस्था 'स्वर संगम' की स्थापना हरीश चन्द्र पन्त व चन्द्रशेखर तिवारी द्वारा की गयी। चन्द्र शेखर तिवारी इस क्षेत्र के प्रथम सरोदवादक रहे हैं।
एक जमाने में हीरा बल्लभ पन्त नगर तथा आसपास के संगीतज्ञों को जोड़ कर होली से काफी पहले ही संगीत की महफिलें अपने आवास (सौरभ होटल से लगे मकान, तब सौरभ होटल नहीं था) पर आयोजित करते थे। नैनीताल के नाथलाल साह, हीरा बल्लभ जोशी रेंजर साहब, आनन्द लाल साह, भीमताल के तबलानवाज शेर राम इनमें प्रमुख थे। होलियों में उनके दिन और रातें सिर्फ संगीतकारों को जोड़ने, उन्हें सम्मान देने, नये कलाकारों को प्रोत्साहित करने व विभिन्न रागों की होलियों का परिचय देने में ही गुजरती थीं। वे न केवल होली गायन की विभिन्न विधाओं से परिचित थे एक अच्छे तबलानवाज भी थे। अल्मोड़ा के प्रख्यात होल्यार तारा प्रसाद जी भी कभी-कभी इन महफिलों में दिखाई देते थे। मूल रूप से चिटगल (गंगोलीहाट) के रहने वाले ठेकेदार हीरा बल्लभ पन्त को हवाई ग्राउंड बनाने में जबर्दस्त घाटा आया। गौला की बाढ़ से उनका कार्य बह गया और भुगतान नहीं हुआ। फिर हवाई अड्डा बनाने की योजना भी खत्म हो गई। अब वहाँ मिलिट्री बैठ गई है। इस आर्थिक झटके के बावजूद पन्त जी ने महफिलों का क्रम बनाये रखा। छरड़ी के दिन नगर वे उनकी महफिलों में शामिल होने वाले सभी होल्यारों के घरों में सामूहिक रूप से होली मिलने जाते थे। उस दिन विशुद्ध पहाड़ी खड़ी होली का आयोजन हुआ करता, जो भोटिया पड़ाव के शिवमंदिर में आशीर्वचन के साथ सम्पन्न होता था। उन दिनों मैंने होली कार्यक्रमों में किसी को शराब पिये हुए नहीं देखा। रात्रि की होलियों में जगन उप्रेती जरूर शराब के नशे में बेसुध रहते थे, हालाँकि जब गाने लगते, तो उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता था। हीरा बल्लभ पन्त की मृत्यु के बाद तो लगता है कि हल्द्वानी में होली का वह रंग अब नहीं लौट सकता।
(जारी है)
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