स्मृति शेष: केवल कृष्ण ढल, हरिदत्त भट्ट 'शैलेश' एवं राधाकृष्ण वैष्णव
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 06 || 01 नवंबर से 14 नवंबर 2011:: वर्ष :: 35 :November 15, 2011 पर प्रकाशित
पिछले लगभग डेढ़ माह में हमने साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े तीन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को खोया – नैनीताल समाचार की शुरूआत से जुड़े केवल कृष्ण ढल, वयोवृद्ध साहियत्यकार डॉ. हरिदत्त भट्ट 'शैलेश' तथा पत्रकारिता के भीष्म पीतामह राधाकृष्ण वैष्णव। नैनीताल समाचार परिवार की श्रद्धांजलि।
भाग जाओ, मुझे सोने दो
शायद यही उसके जीने का ढंग था। सिवाय मित्रों के उसने किसी की बात कभी सुनी हो, मुझे तो याद नहीं पड़ता। हो सकता है जो संघर्षमय जीवन उसने जिया उसकी कड़वाहट हर पल उसके साथ चलती रही हो, परन्तु सच यही है कि उसका स्वभाव एकदम आक्रामक और प्रतिक्रियावादी रहा है। ऐसा क्यों हुआ इसका विश्लेषण करना बहुत कठिन है। उसकी बड़ी बहन होने के नाते मैं उसे इतना ही कह सकती हूँ, ''तुम बहुत थक गए हो, अब सो जाओ केवल, मैं तुम्हें लोरी सुनाऊँगी।'' पाकिस्तान बनने के समय वह मात्र एक वर्ष कुछ महीने का था। मुझे याद है, 1946 का कार्तिक मास, उस दिन हमारे ननिहाल के घर हरिपुर हज़ारा में (जहाँ उसका जन्म हुआ था) उस दिन खूब पटाखे और फुलझडि़याँ चलाई गई थीं, क्योंकि उस दिन गुरु नानकदेव जी का जन्म दिन मनाया जा रहा था। हम दो जीवित बहनों (और कुछ मृत संतानों) के बाद पुत्र प्रप्ति से घर में खुशियाँ मनाई जा रही थीं, परन्तु पाकिस्तान बनने के बाद तो विस्थापितों का जीवन संघर्षों की गौरवगाथा ही बन गया था। जिस दिन मेरी विदाई हिमाचल के लिए हुई तो वह बेहद रो रहा था, तब वह मात्र साढ़े नौ वर्ष का था। एक दिन मैं जब मायके आई तो मैंने ऐसे ही कह दिया कि ''मैंने एक औरत के पास हिरन की खाल की अटैची देखी है, बहुत सुन्दर थी।''
''तुझे अच्छी लगी क्या?'' वह एकदम मेरे पास आ गया, ''निकाल पाँच रुपए।''
''क्या करेगा, तू पाँच रुपयों का?''
''अरे दे तो सही।'' और वह पाँच रुपए लेकर चलता बना। माँ ने कहा भी, ''क्यों दिए, पता नहीं क्या करेगा। इस लड़के का कोई अंत नहीं पा सकता।'' पर वह तो उसके बाद पूरी रात घर नहीं लौटा। माँ मुझे कोसती रहीं और मैं स्वयं को। सुबह आठ बजे करीब वह लम्बा-चौड़ा मृत हिरन लेकर मेरे सामने हाजिर था। ''देख, मैं रात को तेरे दिए हुए पाँच रुपए से एक रौंद खरीद कर लाया और यह रहा हिरन। खाल तेरी और माँस हमारे कर्मचारी खाएँगे।'' वह बहुत खुश था और मैं ऐसे सुन्दर मृग को मृत देखकर हतप्रभ। परन्तु हम दोनों की उम्र ही जीवन और मृत्यु को समझने की नहीं थी। तब वह मात्र चौदह वर्ष का था और मैं अट्ठारह की। घर में माँस वर्जित था और उसने स्वयं भी जीवन भर कभी माँस नहीं खाया, परन्तु मेरे लिए वह हिरन मार लाया था। माँ अवश्य भुनभुनाती रहीं। ''कर दी न जीव हत्या। ऐसा भी क्या बहन का प्यार कि उसके मुँह से बात निकली और एक जीवन शान्त कर दिया। नालायक कहीं का।'' लेकिन उस पर कोई असर नहीं था। फिर आई उसके जीवन में जसवंती। पता नहीं किसने उस सुन्दर-सुकुमार सी थारू लड़की जसवंती का नाम शोभा रख दिया और वह हमारे घर की शोभा बन गई। एक दिन उसने मुझे पत्र में लिखा, ''मैं अखबार निकालने लगा हूँ। तू अपनी कविताएँ भेज दे।'' वह बड़ा हो गया था। थोड़े ही दिनों बाद मेरे पास डाक में 'लघु भारत' की प्रति आई। तब मुझे पता चला कि मेरा अल्हड़, खिलन्दड़ा भाई कितना बड़ा हो गया है। कितनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगा था वह। अब उसके पूरे नाम से पत्रकारिता की दुनिया को परिचित होने का अवसर आ गया था, 'सम्पादक लघुभारत, श्री केवल कृष्ण ढल।'
इसके बाद की यात्रा से तो उसका मित्रमण्डल अधिक परिचित है। तीन बच्चियों को छोड़कर असमय विदा लेने वाली शोभा ने केवल कृष्ण ढल के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। शोभा का स्वभाव बहुत शान्त था और वह केवल कृष्ण ढल के हर उग्र स्वरूप को हँसी में ही निपटा देती थी, परन्तु शोभा के बाद तो उसके जीवन में संघर्ष ही संघर्ष बाकी बचा था। घर में भी और बाहर भी।
उसके संघर्ष को आर्थिक विसंगतियों की देन तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह तो हवा में से पैसा बनाना जानता था। फिर भी परिवार में आपसी तालमेल के सही न होने के कारण वह चिड़चिड़े स्वभाव का हो गया। समाज में होने वाली किसी भी विसंगति से वह विचलित हो उठता था। अन्याय के विरोध में लड़ने के लिए सदैव तत्पर केवल कृष्ण ढल ने जीवन पर्यन्त लेखनधर्मियों को रास्ता दिखाने का अपना लक्ष्य नहीं बिसराया। मेरे अस्त-व्यस्त लेखन को भी कहानी लेखन महाविद्यालय तक ले जाने में केवल कृष्ण का बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि मैं तो तब तक हिमाचल के एक दूर-दराज गाँव में ही रहती थी और वह बी.बी.सी. तक पहुँच चुका था। अपनी कलम के जोर पर लड़ी जाने वाली हर लड़ाई में केवल कृष्ण ढल ने हमेशा यह ध्यान रखा कि लड़ाई सार्थक और अर्थप्रद हो। सिर्फ विरोध के लिए ही विरोध न हो। ग़ज़ब का बल था उसकी लेखनी में। दिए हुए विषय पर तुरन्त ही उसकी लेखनी चल निकलती और एक सुन्दर रचना का जन्म हो जाता। पूरा जीवन अस्थिर रहने के कारण वह अपने लिए कुछ भी नहीं कर पाया। उसकी जेब में पैसा होने पर वह किसी के भी माँगने पर खुले हाथ बाँट देता और फिर जेब खाली होने पर तिलमिलाता रहता। बल्लीसिंह चीमा और पाश की तरह उसकी लेखनी ने भी समाज के दबे-कुचले वर्ग के लिए सदा ही संघर्ष किया है। मेरे पास उसकी ग़ज़लों की पाण्डुलिपि तैयार पड़ी है। मैं उसे हमेशा ही इसे प्रकाशित कराने के लिए उकसाती रही परन्तु वह ऐसा कर नहीं सका। दरअसल अपनी ऊर्जा और धन को उसने अपने लिए कभी भी इस्तेमाल नहीं किया। सदा ही परिवार और समाज के लिए सोचता रहा। अपने रोग को उसने कभी रोग मान कर गम्भीरता से नहीं लिया। हमेशा पेट दर्द से परेशान रहने पर भी कभी डाक्टर के पास नहीं गया और बस दर्द निवारक गोलियाँ खाकर काम चलाता रहा। एक दिन फोन पर कहने लगा, ''मैं सोचता हूँ, कुछ पैसे इकट्ठे करके किताब छपवा ही लूँ।'' पर वह ऐसा कर ही नहीं पाया और उसका बुलावा आ गया। 21 अक्तूबर की वह मनहूस रात उसे अपने साथ ले गई या जीवन के संघर्ष से थक कर वह सो गया है, सब को धता बताकर। हाँ, उसे अब सोने देना चाहिए, क्योंकि वह बहुत थक गया है। 'सो जा भैया, सो जा।
आशा शैली
सदाशयी साहित्यकार
डॉ. हरिदत्त भट्ट 'शैलेश' का जन्म चमोली (अब रुद्रप्रयाग) जिले के भटवाड़ा गाँव में हुआ था। मंदाकिनी का वह सुरम्य तट, हिमाच्छादित शिखर और निरभ्र आकाश बालक शैलेश को आह्लादित करते, पुचकारते, पुकारते। प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण परिवेश में हुई, तत्पश्चात दून में। शिक्षा पूरी कर वे दून स्कूल में हिन्दी अध्यापक के पद पर कार्य करते वहीं से सेवानिवृत्त हुए। अध्यापकी के साथ वे हिन्दी एवं गढ़वाली साहित्य के लेखन से जुड़े रहे। गढ़वाली भाषा के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। इसके अलावा उन्होंनेे गढ़वाली नाटकों और लोकगीतों पर भी काम किया। गढ़वाली रंगमंच तथा देहरादून की साहित्यिक गतिविधियों को उन्होंने नया रूप दिया। उन्होंने अपनी बेटी हिमानी की प्रतिभा की पहिचान कर उसे देहरादून के रंगमंच से जोड़ा। फिर उसका एनएसडी में दाखिला करवाया। आज हिमानी शिवपुरी प्रख्यात सिने कलाकार है। जवाहर लाल नेहरू से उनके प्रगाढ़ संबंध थे। दून स्कूल में वे इंदिरा गांधी के बच्चों, राजीव व संजय गांधी के संरक्षक रहे। राजीव को सत्ता के शीर्ष तक पहुँचते भी उन्होंने देखा। लेकिन इन संबंधों का कोई फायदा उन्होंने नहीं उठाया।
सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्होंने अपना आशियाना मसूरी में स्प्रिंग रोड स्थित 'शैल शिखर' के रूप में बनाया। यहाँ आकर वे साहित्यिक संस्था 'अलीक' से जुड़े तथा मसूरी का साहित्यिक सन्नाटा तोड़ा। अलीक में रहते हुए कई साहित्यकारों से मुलाकात तो उनके निवास पर ही हुई। किसी के घर में अलीक की बैठक हो, वे अपने उसी पुराने स्कूटर में बैठ कर वहाँ पहुँच जाते। जब भी मुझे मिलते तो कोई साहित्यिक आयोजन करने की ही बात करते। गोष्ठियों में अपनी कविताओं और कहानियों का पाठ करते और संस्मरण सुनाते। पर्वतारोहण के कई अनुभव उन्होंने हमें सुनाये थे। मसूरी में काफी समय रहे महापंडित राहुल सांकृत्यायन से उनका लगातार संपर्क था। चार साल पहले जब राहुल जी के हैप्पी वैली निवास को तिब्बतन केंद्रीय विद्यालय द्वारा तोड़ कर वहाँ नया निर्माण किये जाने की बात सुनी तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उत्तराखंड तथा भारत सरकार को पत्र लिखकर राहुल जी के निवास को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की माँग की।
डॉ. शैलेश मिलनसार, सरल हृदय और सब कुछ कर गुजरने को तत्पर रहते थे। वे कभी किसी को निराश नहीं करते थे। वे बड़ी सरलता से लोगों को साहित्य सौंप देते, मदद करते, सहयोगी बनते। उनकी जुबान पर ना शब्द कतई नहीं आता था। पिछले दिनों मेरे एक मित्र सुमेर चंद्र 'रवि' ने अपने काव्य संग्रह की भूमिका भट्ट जी से लिखवाने की इच्छा जाहिर की। मैंने भट्ट जी से निवेदन किया तो वे सहर्ष तैयार हो गये। हफ्ते भर बाद उनका फोन आया कि किताब की भूमिका एवं पांडुलिपि वीरेन्द्र कैंतुरा की दुकान जीत रेस्टोरेंट से उठा लेना।
पिछले साल 'बाल प्रहरी' की राष्ट्रीय संगोष्ठी केम्पटी स्थित 'सिद्ध' के परिसर में होनी थी। एक सत्र की अध्यक्षता तथा कई पुस्तकों का विमोचन शैलेश जी को करना था। वे इतनी उम्र में स्कूटर चलाते हुए केम्पटी पहुँच गए। वहाँ से एक पगडंडी के सहारे हाँफते हुए उन्हें सिद्ध में पहुँचते हुए देख हम आश्चर्यचकित रह गये। दिन भर वे वहाँ रहे और फिर उसी तरह वापस चल दिए। मैं उनका जीवट देखकर हतप्रभ रह जाता था। यह उनमें महत्वपूर्ण गुण था कि वे हमेशा दूसरों को प्रोत्साहन देते रहते थे।
वे पर्वतारोहण साहित्य को और विकसित रूप में देखना चाहते थे। उनका यह सपना कब पूरा होगा, मालूम नहीं। गढ़वाली भाषा को आठवीं सूची में दर्जा दिलाने के लिए भी उनके प्रयास लगातार जारी रहे। जब मैंने मसूरी छोड़ी तो वे जब भी मिलते तो कहते तुम्हें तो मसूरी से देहरादून आना है। मै चलूँगा मुख्यमंत्री के पास तुम्हारे स्थानान्तरण के लिए। उन्हें कई साहित्यिक सम्मानों से नवाजा गया। मगर वे कहते, ये पुरस्कार और सम्मान मेरे किस काम के ? मेरे लिए तो सबसे ज्यादा सम्मान वही है जो मेरी रचनाओं को पढ़े और उसे पढ़ कर क्या मिला यह बताए। आज हम सब मसूरीवासी उनके निधन पर अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
सुरेन्द्र पुंडीर
पत्रकारिता के भीष्म
10 अक्टूबर 2011 को राधाकृष्ण वैष्णव के ईश्वर में विलीन होने के साथ उत्तराखंड की पत्रकारिता का एक युग समाप्त हो गया। गढ़केशरी अनसूया प्रसाद बहुगुणा तथा गोविन्द प्रसाद बहुगुणा जैसे व्यक्तित्वों की जन्मस्थली तथा कार्यक्षेत्र रहे नन्दप्रयाग में राधाकृष्ण वैष्णव का जन्म एक जनवरी 1920 को गोपालदास व माता श्रीमती दीप के घर में हुआ। जब वे मात्र अढ़ाई वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई। पाँच भाइयों में सबसे ज्येष्ठ नारायणदास ने पिता के व्यवसाय को संभाल कर अपने भाई-बहिनों का भरण-पोषण किया। राधाकृष्ण ने घनानन्द हाई स्कूल मसूरी से हाईस्कूल किया ही था कि नारायणदास की भी मृत्यु हो गयी। राधाकृष्ण ने ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में हिन्दी साहित्य विशारद (प्रयाग) की डिग्री प्राप्त की और अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने लगे। 1938 में राधाकृष्ण का विवाह चन्द्रावती से हुआ।
मसूरी में पढ़ते हुए आपकी मित्रता हेमवती नन्दन बहुगुणा से हुआ।
इसी दौरान विश्वम्भर दत्त चन्दोला ('गढ़वाली' के सम्पादक) तथा त्रयम्बक दत्त चन्दोला (अंग्रेजी पत्रों के सम्वाददाता) के सान्निध्य में रहते हुए आपका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ। 16 मई 1937 के 'गढ़वाली' के अंक में आपका पहला लेख प्रकाशित हुआ और आप 'गढ़वाली' के संवाददाता बन गये। उसके बाद राधाकृश्ण वैष्णव सात दशकों तक शक्ति, समता, कुमाऊँ कुमुद, कर्मभूमि, सन्देश, नवप्रभात, सत्यपथ, साहित्यांचल आदि अनेक साप्ताहिक पत्रों से जुड़े रहे।
इन स्थानीय पत्रों के अतिरिक्त वे 'हिन्दुस्तान' (दिल्ली) के सन् 1939 से 2007 तक अनवरत संवाददाता रहे। वे नव भारत, अमृत बाजार पत्रिका, आज, नया भारत के भी संवाददाता रहे। गांडीव (वाराणसी) में उन्होंने 5 दशक तक नियमित लेख लिखे और आकाशवाणी को तीस वर्षों तक समाचार प्रेषित किये। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें 1960 में मान्यता प्राप्त पत्रकार का दर्जा दिया। सन् 1938 से लेकर 2007 तक राधाकृष्ण वैष्णव लगभग 70 दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ कर पत्रकारिता के एक विशाल सागर में तैरते रहे। जिस युग में न फोन थे, न फैक्स और न ही इण्टरनेट, तब दुर्गम बदरीनाथ यात्रा के एक छोटे से पड़ाव नन्दप्रयाग का नाम तमाम समाचार पत्रों में दिखाई देना एक आश्चर्यजनक बात लगती थी। स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े उत्तर प्रदेश के जिन 39 पत्रकारों को 1991-92 में सम्मानित किया गया, उनमें राधाकृष्ण वैष्णव भी एक थे। उन्हें इसके लिये पेंशन भी दी गयी।
राधाकृष्ण वैष्णव का सार्वजनिक कार्य का क्षेत्र व्यापक रहा। सन् 1943 में वे जिला बोर्ड पौड़ी गढ़वाल के सबसे कम आयु के सदस्य बने तथा से 1948 तक बोर्ड में रहते हुए जूनियर एवं सीनियर वाइस चौयरमैन भी बने। वे जनपद चमोली, उत्तराखण्ड तथा उत्तर प्रदेश की विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी समितियों, संस्थाओं, शिक्षण संस्थाओं के सदस्य, प्रतिनिधि या प्रबंधक रहे। सन् 1943 से होने वाले गौचर मेला के संस्थापक सदस्य भी रहे। उन्हें समय-समय पर 'नव राह नई चेतना' पौड़ी गढ़वाल (1982 में) पत्रकार, साहित्यकार समारोह (1984), चमोली जिला पत्रकार परिषद् (1990) वैकुण्ठ चतुर्दशी मेला समारोह श्रीनगर (1992) ऑल इण्डिया प्रगतिशील पत्रकार संघ की ओर से राज्यपाल उत्तरांचल द्वारा (जनवरी, 2001) ज्योति शिखा शिक्षा संस्था मुम्बई द्वारा (2002) में आयोजित समारोहों में सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया। 'पहाड़' ने अपने रजत जयंती वर्ष (मई, 2010) में गोपेश्वर में उन्हें सम्मानित किया। वे आजीवन गांधी विचार धारा के पोषक रहे। तीस के दशक में एक बार जो उन्होंने खादी का दामन थामा तो आजीवन खादी पहनते रहे।
पत्रकारिता के इस भीष्म पितामह का जाना उत्तराखंड के लिए एक अपूरणीय क्षति है।
लक्ष्मी प्रसाद मलगुड़ी
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