ग्रामीण भारत – महाधोखे के जाल में
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 14 || 01 मार्च से 14 मार्च 2012:: वर्ष :: 35 :March 15, 2012 पर प्रकाशित
…अभी नहीं तो, सदियों तक शायद उस का उपचार नहीं !!
औरंगजेब और उसके कुछ बाद तक भारत एक औद्योगिक शक्ति के रूप में विख्यात था। उस सोने की चिड़िया को देखने-समझने के लिये राजदूतों का ताँता युगों से लगा रहता था। हमारे यहाँ से धर्म-प्रचारक ही बाहर गये, कोई राजदूत नहीं गये। विश्व की सकल आय में 210वीं सदी तक भारत का हिस्सा 22 फीसदी था। ईस्ट इंडिया कम्पनी के सहयोगी के रूप में मैकाले ने बोर्ड को बताया कि उसने अपने लंबे दौरे में कहीं कोई भिखारी बेसहारा नहीं देखा था। इसलिये व्यापार और शिक्षा (चुने भारतीयों और शिक्षा में अंगरेजियत) से ही अपना वर्चस्व बनाया जा सकता था। उन्हीं कुनीतियों के खिलाफ 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ और भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना हुई।
अंग्रेजी राज का घोर शोषक दौर जिसकी तस्वीर आज भी चल रही है:
भारतीय परंपरा में धरती माता है और किसान उसके उपहार को प्राणिमात्र तक पहुँचाने का माध्यम है। इसीलिये खेती का सबसे ऊँचा दर्जा है। राजा को अपना काम काज निकालने के लिये फसल का छठा हिस्सा मिलता है। राजा के रूप में नहीं कामगार के रूप में। इसी क्रम में अन्य कामगारों के साथ चिडि़या-चिरिगुनी के अलावा चोरों का भी हिस्सा माना जाता है। जमीन पर उसकी संतति के अलावा किसी का अधिकार नहीं है। मगर यूरोप, यानि इंगलैंड में यह रिश्ता बिल्कुल अलग है। धरती का मालिक 'लार्ड' है। काम करने वाला 'गुलाम' (सर्फ) है। लोकतंत्र की बाढ़ में 'लार्ड' बह जाने पर जमीन का मालिक 'राज्य' हो गया। सबै भूमि गोपाल की बजाय राज्य की हो गई, सर्फ सर्फ ही बना रहा या राज्य की दया भिक्षा पर निर्भर हो गया। भारत में 1857 की जीत के बाद जब इंगलैंड का अधिकार हुआ तो पूरी धरती का मालिक सरकार या राज्य हो गया। भारत में नैसर्गिक संसाधनों पर समाज की प्रभुसत्ता का सोच ही खतम हो गया। आदिवासी इलाकों में उनकी परंपरा संसाधनों पर समाज की प्रभुसत्ता में छेड़-छाड़ नहीं हुई।
1857 की तरह विद्रोही की संभावना को जड़ से मिटाने के लिये गाँव के स्तर पर गाँव गणराज्य की पुरातन व्यवस्था को नकार कर उसके वजूद को ही खतम कर दिया गया। गाँव और समाज के हर काम के लिये सरकार का कानून और सरकारी व्यवस्था प्रभावी हो गयी। सर्व अधिकार संपन्न राज्य और सब अधिकारों से च्युत अवाम के बीच बिचौंलियों का राज हो गया। खेती की जमीन पर नकद लगान की ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसान को लगभग तीन-चौथाई फसल सरकार को दे देना पड़ती थी। यही, नहीं, उसके अदा न करने पर उनकी कुर्की की जा सकती है, उन्हें गिरफ्तार कर सिविल जेल भेजा जा सकता है। जेल और सिविल जेल में एक बुनियादी अंतर है। परन्तु सिविल जेल होने पर उसको पकड़ने और जेल में ठूँसने का खर्च स्वयं अपराधी को उठाना पड़ता है। यही नहीं सिविल जेल इतनी सिविल है कि गिरफ्तारी के खाने-पीने का खर्च भी 'अपराधी' को ही उठाना पड़ता है। और अगर सब व्यवहार में उसे शर्मिन्दिगी उठाना पड़े तो शर्मसार होने की बजाय 'अपराधी' आत्म हत्या कर बैठता है।
कर्ज का मामला उस दौर में सबसे भयावह होता था। कृषि के काम पर अध्ययन के लिये कमीशन बने। उन्होंने तो यहाँ तक कह डाला कि 'किसान कर्ज में जनमता है, किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मरता है।' लगान न अदा करने पर खेत छोड़ कर भाग जाता था। इस हालत को देखते हुए सन् 1883-4 में कानून बने जिनके तहत सरल ब्याज पर कर्ज देने की व्यवस्था की गई। यही नहीं, जमीन के विकास के लिये दी जाने वाली रकम की वापसी के लिये आम तौर पर '35 साल से अधिक' की किश्त आम तौर पर न दी जाने की व्यवस्था थी। उसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता था कि साहूकारी का त्रास खतम हो गया। उसी को देखते हुए सन् 1937 में जब उस समय के सूबों के लिये देश में पहली बार सूबों की विधान सभायें बनी तो उन ने साहूकारी पर नियंत्रण के लिये कानून बनाये। उनमें चक्रवृद्धि ब्याज लगाने को अपराध माना गया। यही नहीं, कर्ज पर ब्याज मूल से दूना नहीं हो सकता था। सबसे खेद की बात तो यह हुई कि सामान्य कर्ज की इन शर्तों को बैंक और सहकारी समितियों से हटा लिया गया। किसानों का शोषण यथावत जारी रहा।
आजादी के बाद दो व्यवस्थायें चलती रहीं। नकदी इत्यादि पर सरल ब्याज परन्तु साहूकार द्वारा मनमाने ब्याज पर कोई अंकुश नहीं लग पाया। बैंकों के निजीकरण के बाद नकदी की व्यवस्था लगभग समाप्त हो गई। परन्तु न रिजर्व बैंक और न भारत सरकार ने सरकार के अपने कानून के अनुपालन की कोई व्यवस्था की। नतीजा यह हुआ कि हर तरह के कर्ज पर चक्रवृद्धि ब्याज धड़ल्ले से लगाया जा रहा है और निजी तौर पर कर्ज पर उसका आकार कुछ भी हो सकता है – 2 फीसदी या 10 फीसदी प्रतिमाह देना पड़े तो कोई अचरज की बात नहीं होगी। खेती-किसानी के बारे में इससे अधिक धोखाधड़ी की बात सोची भी नहीं जा सकती है।
एक चिन्तित नागरिक द्वारा जनहित में जारी
'गाँव गणराज्य' 16-31 जनवरी 2012 से साभार
सम्पादक डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, 11 ए, निजामुद्दीन, नई दिल्ली – 13
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