"If you don't have time to read, you don't have the time (or the tools) to write. Simple as that." ― Stephen King
बाबा साहेब डॉ आंबेडकर तथाकथित रूप से कोई पेशेवर लेखक नहीं थे ! बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने वैसे तो मूलनिवासी बहुजन समाज कि सम्पूर्ण आजादी हेतु बहुत सारे जानकारी भरे ग्रन्थ लिखे, लेकिन उनमे से जिन मूलनिवासी लोगों ने भी बाबा साहेब का 'Annihilation of caste', 'Philosophy of Hinduism' and 'Who were Shudras' नाम की कोई भी किताब अगर इमानदारी से अच्छी तरह से समझ कर पढ़ी होगी, तो वह मूलनिवासी बहुजन समाज की मुक्ति के लिए 'दीवाना' अर्थात समझदार पागल हो जाता है, और जब तक ऐसा आदमी अपने मूलनिवासी बहुजन समाज की मुक्ति के लिए कार्य नहीं करता तो उसको रात-दिन चैन नहीं मिलता - नीद ठीक से नहीं आती ! लेखक के तौर पर ये क्रांतिकारी चमत्कार है बाबा साहेब की किताबों में है !
वहीँ दूसरी और आज इस मूलनिवासी बहुजन समाज के जो लेखक हैं उनके अन्दर केवल इतनी बुद्धिमता है कि वो इतना भी नहीं जानते हैं कि अपनी पहचान के लिए वो जिस शब्द 'दलित लेखक' का प्रयोग करते हैं वह मूलनिवासी बहुजन समाज के अन्दर 'हीनता' का भाव निर्माण करने के लिए कांग्रेस पार्टी के द्वारा बाबु जगजीवन राम के माध्यम से प्रचारित किया हुवा षड्यंत्रकारी शब्द है ! 'दलित लेखक' इस पहचान को अपनाकर जिन लेखकों ने भी साहित्य का सर्जन किया उसमे 'दरिदर्द्ता'के अलावा कुछ भी मूलनिवासियों के लिए क्रांतिकारी नहीं है ! ऐसे 'दलित लेखकों'की किताबों को पढ़कर भारत में कोई संघठन खड़ा हुवा हो या फिर कोई आन्दोलन निर्माण हुवा हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है और यदि ऐसा हुवा है तो कृपया मुझे भी जानकार बनाए !
आधुनिक भारत में जितने भी मूलनिवासियों के मुक्ति के आन्दोलन निर्माण हुवे हैं या फिर हो रहे हैं उनकी विचारधारा का साहित्यिक श्रोत ज्योतिबा राव फुले और डॉ आंबेडकर द्वारा लिखित क्रांतिकारी साहित्य ही है ! उनके लेखों में जो अनुसंधान,तथ्य, अनुभूति का पुट और भविष्य दर्शन देखने को मिलता है वह आज के 'दलित लेखकों' के साहित्य में कहीं भी देखने को नहीं मिलता है ! आज के 'दलित लेखकों'का साहित्य बाबा साहेब का 'कोपी-पेस्ट' के अलावा कुछ भी नहीं है ! अगर आज के तथाकथित 'दलित लेखकों' को अपनी लेखनी में क्रांतिकारी धार लगानी है तो ऐसे समस्त लेखकों को बाबा साहेब के द्वारा लिखित ऊपर बताये गए मूल अंग्रेजी ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए और उनको स्वाभिमानी लेखन के लिए अपने आप को'दलित लेखक' कहना छोड़कर 'मूलनिवासी लेखक' या फिर 'बहुजन लेखक' इस शब्द को अंगीकार कर लेना चाहिए ! ऐसा करने से इन लेखकों को ज्यादा से ज्यादा नुक्सान यह हो सकता है कि भारत सरकार 'दलित लेखकों' के दरिद्र साहित्य का अवलोकन करके जो उनको 'डा आंबेडकर पुरस्कार' देती है, वह पुरस्कार इनको इनके क्रांतिकारी शब्द को अंगीकार करने से मिलना बंद हो सकता है ! मूलनिवासी समाज में अगर आप इमानदारी से परिवर्तन का माध्यम बनना चाहते हैं तो यह त्याग करना ही होगा अन्यथा मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग आपका घिसा-पीटा साहित्य पढ़कर आपको खुद ही गर्त कर देंगे !
No comments:
Post a Comment