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Tuesday, March 19, 2013

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं



अगर आप लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखते हैंतो अंबेडकर आपके लिये हर मायने में प्रासंगिक हैं

 हिन्दुत्व और कॉरपोरेट राज का वर्चस्व इतना प्रबल है कि विचारधारा को राजनीति से जोड़कर हम शायद ही कोई विमर्श शुरू कर सकें

भारतीय यथार्थ के वस्तुवादी विश्लेषण करने के लिये वामपन्थी के अंबेडकरवादी होने या किसी भी अंबेडकरवादी के वामपन्थी बनने में कोई दिक्कत नहीं

पलाश विश्वास

`हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!' शीर्षक आलेख मेरा आलेख छापते हुए हस्तक्षेप के संपादक अमलेंदु उपाध्याय ने खुली बहस आमंत्रित की है। इसका तहेदिल से स्वागत है। भारत में विचारधारा चाहे कोई भी होउस पर अमल होता नहीं है। चुनाव घोषणापत्रों में विचारधारा का हवाला देते हुये बड़ी-बड़ी घोषणायें होती हैंपर उन घोषणाओं का कार्यान्वयन कभी नहीं होता।

विचारधारा के नाम पर राजनीतिक अराजनीतिक संगठन बन जाते हैं, उसके नाम पर दुकानदारी चलती है। सत्ता वर्ग अपनी सुविधा के मुताबिक विचारधारा का इस्तेमाल करता है। वामपन्थी आन्दोलनों में इस वर्चस्ववाद का सबसे विस्फोटक खुलासा होता रहा है।सत्ता और संसाधन एकत्र करने के लिये विचारधारा का बतौर साधन और माध्यम दुरुपयोग होता है

इस बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं। हमारे पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है। हमने ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता साहित्यकार और अकार के संपादक गिरिराज किशोर के निर्देशानुसार इसी सिलसिले में अपने अध्ययन को विचारधारा की नियति शीर्षक पुस्तक में सिलसिलेवार लिखा भी है। इसकी पांडुलिपि करीब पाँच-छह सालों से गिरिराज जी के हवाले है। इसी तरह प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर मैंने रवींद्र का दलित विमर्श नामक एक पांडुलिपि तैयार की थी, जो उनके पास करीब दस साल से अप्रकाशित पड़ी हुयी है।

भारतीय राजनीति पर हिन्दुत्व और कॉरपोरेट राज का वर्चस्व इतना प्रबल है कि विचारधारा को राजनीति से जोड़कर हम शायद ही कोई विमर्श शुरू कर सकें। इस सिलसिले में इतना ही कहना काफी होगा कि अंबेडकरवादी आन्दोलन का अंबेडकरवादी विचारधारा से जो विचलन हुआ हैउसका मूल कारण विचारधारासंगठन और आन्दोलन पर व्यक्ति का वर्चस्व है। यह बाकी विचारधाराओं के मामले में भी सच है।

कांग्रेस जिस गांधी और गांधीवादी विचारधारा के हवाले से राजकाज चलाता है, उसमें वंशवादी कॉरपोरेट वर्चस्व के काऱण और जो कुछ है, गांधीवाद नहीं है। इसी तरह वामपन्थी आन्दोलनों में मार्क्सवाद या माओवाद की जगह वर्चस्ववाद ही स्थानापन्न है। संघ परिवार की हिन्दुत्व विचारधारा का भी व्यवहार में कॉरपोरेटीकरण हुआ है। कॉरपोरेट संस्कृति की राजनीति के लिये किसी एक व्यक्ति और पार्टी को दोषी ठहराना जायज तो है नहींउस विचारधारा की विवेचना भी इसी आधार पर नहीं की जा सकती।

बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है। सत्ता में भागेदारी अंबेडकर विचारधारा में एक क्षेपक मात्र हैइसका मुख्य लक्ष्य कतई नहीं है। अंबेडकर एकमात्र भारतीय व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने भोगे हुये अनुभव के तहत इतिहासबोध और अर्थशास्त्रीय अकादमिक दृष्टिकोण से भारतीय सामाजिक यथार्थ को सम्बोधित किया है। सहमति के इस प्रस्थान बिन्दु के बिना इस सन्दर्भ में कोई रचनात्मक विमर्श हो ही नहीं सकता और न निन्यानब्वे फीसद जनता को कॉरपोरेट साम्राज्यवाद से मुक्त करने का कोई रास्ता तलाशा जा सकता है।

गांधी और लोहिया ने भी अपने तरीके से भारतीय यथार्थ को सम्बोधित करने की कोशिश की हैपर उनके ही चेलों ने सत्ता के दलदल में इन विचारधाराओं को विसर्जित कर दिया। यही वक्तव्य अंबेडकरवादी विचारधारा के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है। उन्होंने जो शोषणमुक्त समता भ्रातृत्व और लोकतान्त्रिक समाजजिसमें सबके लिये समान अवसर हो,की परिकल्पना कीउससे वामपंथी वर्गविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है। अन्तर जो है, वह भारतीय यथार्थ के विश्लेषण को लेकर है।

भारतीय वामपन्थी जाति व्यवस्था के यथार्थ को सिरे से खारिज करते रहे हैं, जबकि वामपन्थी नेतृत्व पर शासक जातियों का ही वर्चस्व रहा है। यहाँ तक कि वामपन्थी आन्दोलन पर क्षेत्रीय वर्चस्व का इतना बोलबाला रहा कि गायपट्टी से वामपन्थी नेतृत्व उभारकर भारतीय सन्दर्भ में वामपन्थ को प्रासंगिक बनाये रखे जाने की फौरी जरूरत भी नज़रअंदाज़ होती रही हैजिस वजह से आज भारत में वामपन्थी हाशिये पर हैं। अब वामपन्थ में जाति व क्षेत्रीय वर्चस्व को जस का तस जारी रखते हुये जाति विमर्श के बहाने अंबेडकर विचारधारा को ही खारिज करने का जो उद्यम है, उससे भारतीय वामपन्थ के और ज्यादा अप्रासंगिक हो जाने का खतरा है।

शुरुआत में ही यह स्पष्ट करना जरुरी है कि आरएसएस और बामसेफ के प्रस्थान बिन्दु और लक्ष्य कभी एक नहीं रहे। इस पर शायद बहस की जरुरत नहीं है। आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के प्रस्थान बिन्दु से चलकर कॉरपोरेट हिन्दू राष्ट्र की लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। वहीं जाति विहीन समता और सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों के आधार पर सामाजिक बदलाव के लिये चला बामसेफ आन्दोलन व्यक्ति वर्चस्व के कारण विचलन का शिकार जरूर है, पर उसका लक्ष्य अस्पृश्यता और बहिष्कार आधारित समाज की स्थापना कभी नहीं है। हम नेतृत्व के आधार पर विभाजित भारतीय जनता को एकजुट करने में कभी कामयाब नहीं हो सकते। सामाजिक प्रतिबद्धता के आधार पर जीवन का सर्वस्व दाँव पर लगा देने वाले कार्यकर्ताओं को हम अपने विमर्श के केन्द्र में रखें तो वे चाहे कहीं भीकिसी के नेतृत्व में भी काम कर रहे होंउनको एकताबद्ध करके ही हम नस्ली व वंशवादी वर्चस्व,क्रयशक्ति के वर्चस्व के विरुद्ध निनानब्वे फीसद की लड़ाई लड़ सकते हैं।

प्रिय मित्र और सोशल मीडिया में हमारे सेनापति अमलेंदु ने इस बहस को जारी रखने के लिये कुछ प्रश्न किये हैं, जो नीचे उल्लेखित हैं। इसी तरह हमारे मराठी पत्रकार बंधु मधु कांबले ने भी कुछ प्रश्न मराठी `दैनिक लोकसत्ता' में बामसेफ एकीकरण सम्मेलनके प्रसंग में प्रकाशित अपनी रपटों में उठाये है, जिन पर मराठी में बहस जारी है। जाति विमर्श सम्मेलन में भी कुछ प्रश्न उठाये गये हैंजिनका विवेचन आवश्यक है।

य़ह गलत है कि अंबेडकर पूंजीवाद समर्थक थे या उन्होंने ब्राह्मणविद्वेष के कारण साम्राज्यवादी खतरों को नज़रअंदाज़ किया।

मनमाड रेलवे मैंस कांफ्रेंस में उन्होंने भारतीय जनता के दो प्रमुख शत्रु चिन्हित किये थे, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद। उन्होंने मजदूर आन्दोलन की प्राथमिकताएं इसी आधार पर तय की थीं। अनुसूचित फेडरेशन बनाने से पहले उन्होंने श्रमजीवियों की पार्टी बनायी थी और ब्रिटिश सरकार के श्रममंत्री बतौर उन्होंने ही भारतीय श्रम कानून की बुनियाद रखी थी। गोल्ड स्टैंडर्ड तो उन्होंने साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के प्रतिकार बतौर सुझाया था। बाबा साहेब के अर्थशास्त्र पर एडमिरल भागवत ने सिलसिलेवार लिखा है, पाठक उनका लिखा पढ़ लें तो तस्वीर साफ है जायेगी।

न सिर्फ विचारक बल्कि ब्रिटिश सरकार के मन्त्री और स्वतन्त्र भारत में कानून मन्त्री, भारतीय संविधान के निर्माता बतौर उन्होंने सम्पत्ति और संसाधनों पर जनता के हक-हकूक सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक रक्षा कवच की व्यवस्था की, नई आर्थिक नीतियों और कॉरपोरेट नीति निर्धारण, कानून संशोधन से जिनके उल्लंघन को मुक्त बाजार का मुख्य आधार बनाया गया है। इसी के तहत आदिवासियों के लिए पाँचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत उन्होंने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे कॉरपोरेट राज के प्रतिरोध के लिये अचूक हथियार हैं। ये संवैधानिक प्रावधान सचमुच लागू होते तो आज जल-जंगल-जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का अभियान चल नहीं रहा होता और न आदिवासी अँचलों और देश के दूसरे भाग में माओवादी आन्दोलन की चुनौती होती।

शास्त्रीय मार्क्सवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध है, लेकिन वहाँ पूंजीवादी विकास के विरोध के जरिये सामन्ती उत्पादन व्यवस्था को पोषित करने का कोई आयोजन नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकर ने भी पूँजीवादी विकास का विरोध नहीं किया तो सामन्ती सामाजिक व श्रम सम्बंधों के प्रतिकार बतौरप्रतिरोध बतौरपूँजी या पूँजीवाद के समर्थन में नहीं। वरना एकाधिकार पूँजीवाद या कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था उन्होंने नहीं की होती।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

अंबेडकर विचारधारा के साथ साथ उनके प्रशासकीय कामकाज और संविधान रचना में उनकी भूमिका की समग्रता से विचार किया जाये, तो हिन्दू राष्ट्र के एजंडे और कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में लोक गणराज्य भारतीय लोकतन्त्र और बहुलतावादी संस्कृति की धर्मनिरपेक्षता के तहत भारतीय संविधान की रक्षा करना हमारे संघर्ष का प्रस्थानबिन्दु होना चाहिये। जिसकी हत्या हिन्दुत्ववादी जायनवादी, धर्मराष्ट्रवाद और मुक्त बाजार के कॉरपोरेट सम्राज्यवाद का प्रधान एजंडा है।

समग्र अंबेडकर विचारधाराजाति अस्मिता नहींजाति उन्मूलन के उनके जीवन संघर्षमहज सत्ता में भागेदारी और सत्ता दखल नहींशोषणमुक्त समता और सामाजिक न्याय आधारित लोक कल्याणकारी लोक गणराज्य के लक्ष्य के मद्देनजर न सिर्फ बहिष्कार के शिकार ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजातिधर्मांतरित अल्पसंख्यक समुदाय बल्कि शरणार्थी और गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगतमाम घुमंतू जातियों के लोग और कुल मिलाकर निनानब्वे फीसद भारतीय जनता जो एक फीसद की वंशवादी नस्ली वर्चस्व के लिए नियतिबद्ध हैं, उनके लिये बाबासाहेब के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

इसलिए अंबेडकरवादी हो या नहीं, बहिष्कृत समुदायों से हो या नहीं, अगर आप लोकतान्त्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखते हैं,तो अंबेडकर आपके लिये हर मायने में प्रासंगिक हैं और उन्हीं के रास्ते हम सामाजिक व उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा बनाकर हिन्दुत्व व कारपोरेट साम्राज्यवाद दोनों का प्रतिरोध कर सकते हैं।

विचारधारा के तहत आन्दोलन पर व्यक्ति, वंश, क्षेत्रीय व समुदाय विशेष के वर्चस्व को खत्म करना इसके लिए बेहद जरूरी है। विचारधारा, आन्दोलन और संगठन को संस्थागत व लोकतान्त्रिक बनाये जाने की जरुरत है। बामसेफ एकीकरण अभियान इसी दिशा में सार्थक पहल है जो सिर्फ अंबेडकरवादियों को ही नहीं, बल्कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद व हिन्दुत्व के एजंडे के प्रतिरोध के लिये समस्त धर्मनिरपेक्ष व लोकतान्त्रिक ताकतों के संयुक्त मोर्चा निर्माण का प्रस्थान बिन्दु है। पर हमारे सोशल मीडिया ने इस सकारात्मक पहल को अंबेडकर के प्रति अपने अपने पूर्वग्रह के कारण नजरअंदाज किया, जो आत्मघाती है। इसके विपरीत इसकी काट के लिए कॉरपोरेट माडिया ने अपने तरीके से भ्रामक प्रचार अभियान प्रारम्भ से ही यथारीति चालू कर दिया है।

अमलेंदु के प्रश्न इस प्रकार हैः

'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर चंडीगढ़ के भकना भवन में सम्पन्न हुये चतुर्थ अरविंद स्मृति संगोष्ठी की हस्तक्षेप पर प्रकाशित रिपोर्ट्स के प्रत्युत्तर में हमारे सम्मानित लेखक पलाश विश्वास जी का यह आलेख प्राप्त हुआ है। उनके इस आरोप पर कि हम एक पक्ष की ही रिपोर्ट्स दे रहे हैं, (हालाँकि जिस संगोष्ठी की रिपोर्ट्स दी गयीं उनमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, प्रोफेसर तुलसीराम और प्रोफेसर लाल्टू व नेपाल दलित मुक्ति मोर्चा के तिलक परिहार जैसे बड़े दलित चिंतक शामिल थे) हमने उनसे (पलाश जी) अनुरोध किया था कि उक्त संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उस पर अपना पक्ष रखें और यह बतायें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता आखिर था क्या और उनके अनुयायियों ने उसकी दिशा में क्या उल्लेखनीय कार्य किया।

मान लिया कि डॉ. अंबेडकर को खारिज करने का षडयंत्र चल रहा है तो ऐसे में क्या अंबेडकरवादियों का दायित्व नहीं बनता है कि वह ब्राह्मणवादी तरीके से उनकी पूजा के टोने-टोटके से बाहर निकलकर लोगों के सामने तथ्य रखें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता यह था। लेकिन किसी भी अंबेडकरवादी ने सिर्फ उनको पूजने और ब्राह्मणवाद को कोसने की परम्परा के निर्वाह के अलावा कभी यह नहीं बताया कि डॉ. अंबेडकर का नुस्खा आखिर है क्या।

हम यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर बामसेफ और आरएसएस में लोकेशन के अलावा लक्ष्य में मूलभूत अंतर क्या है।

पलाश जी भी "साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है" तो रेखांकित करते हैं लेकिन डॉ. अंबेडकर की सियासी विरासत "बहुजन समाज पार्टी" की बहन मायावती और आरपीआई के अठावले के "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर मौन साध लेते हैं।

हम चाहते हैं पलाश जी ही इस "नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व" पर भी थोड़ा प्रकाश डालें। लगे हाथ एफडीआई पर डॉ. अंबेडकर के चेलों पर भी प्रकाश डालें। "हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है" इस संकट में अंबेडकरवादियों की क्या भूमिका है, इस पर भी प्रकाश डालें। मायावती और मोदी में क्या एकरूपता है, उम्मीद है अगली कड़ी में पलाश जी इस पर भी प्रकाश डालेंगे।

बहरहाल इस विषय पर बहस का स्वागत है। आप भी कुछ कहना चाहें तो हमें amalendu.upadhyay@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। पलाश जी भी आगे जो लिखेंगे उसे आप हस्तक्षेप पर पढ़ सकेंगे।

-संपादक हस्तक्षेप

इन सवालों का जवाब अकेले मैं नही दे सकता। मैं एक सामान्य नागरिक हूँ और पढ़ता लिखता हूँ। बेहतर हो कि इन प्रश्नों का जवाब हम सामूहिक रुप से और ईमानदारी से सोचें क्योंकि ये प्रश्न भारतीय लोक गणराज्य के अस्तित्व के लिये अतिशय महत्व पूर्ण हैं। इस सिलसिले में इतिहासकार राम चंद्र गुहा का `आउटलुक' व अन्यत्र लिखा लेख भी पढ़ लें तो बेहतर। अमलेंदु ने जिन लोगों के नाम लिखे हैं, वे सभी घोषित  प्रतिष्ठित विद्वतजन हैं, उनकी राय सिर माथे। पर हमारे जैसे सामान्य नागरिक का भी सुना जाये तो बेहतर।

हमारा तो निवेदन है कि प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट खसोट पर अरुंधति राय और अन्य लोगों, जैसे राम पुनियानी और असगर अली इंजीनियर, रशीदा बी, रोहित प्रजापति जैसों का लिखा भी पढ़ लें तो हमें कोई उचित मार्ग मिलेगा। हम कोई राजनेता नहीं हैं, पर भारतीय जनगण के हक-हकूक की लड़ाई में शामिल होने की वजह से लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये ही आगे का रास्ता बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

भीमराव आम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिये कुछ बिन्दु ध्यान में रखना जरूरी है। सबसे पहले तो यह कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं। उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है। वे निरन्तर अपने अनुभव और ज्ञान से सीखते रहे। उनका जीवन दुख, अकेलेपन और अपमान से भरा हुआ था, परन्तु उन्होंने चिंतन से प्रतिरोध किया। बाह्य रूप से कठोर, संतप्त, क्रोधी दिखायी देने वाले व्यक्ति का अन्तर्मन दया, सहानुभूति, न्यायप्रियता का सागर था। उन्होंने हमेशा अकादमिक पद्धति का अनुसरण किया। वे भाषण नहीं देते थे। सुचिंतित लिखा हुआ प्रतिवेदन का पाठ करते थे। जाति उन्मूलन इसी तरह का एक पाठ है। वे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध थे लेकिन उनका ब्राह्मणों के खिलाफ विद्वेष एक दुष्प्रचार है। हमारे लिए विडम्बना यह है कि हम विदेशी विचारधाराओं का तो सिलसिलेवार अध्ययन करते हैंपर गांधीअंबेडकर या लोहिया को पढ़े बिना उनके आलोचक बन जाते हैं। दुर्भाग्य से लम्बे अरसे तक भारतीय विचारधारायें वामपन्थी चिन्तन के लिये निषिद्ध रही हैंजिसके परिणामस्वरुप सर्वमान्य विद्वतजनजिनमें घोषित दलित चिंतक भी हैंअंबेडकर को गैरप्रासंगिक घोषित करने लगे हैं।

अंबेडकर ने भाषा का अपप्रयोग किया हो कभी। मुझे ऐसा कोई वाकया मालूम नहीं है। आपको मालूम हो तो बतायें।अंबेडकरवादियों के लिए भाषा का संयम अनिवार्य है। वर्चस्ववादियों और बहिष्कारवादियों की तरह घृणा अभियान से अम्बेडकर के हर अनुयायी को बचना होगा। तभी हम भारतीय समाज को जोड़ सकेंगेजिसे वर्चस्ववाद ने खण्ड-खण्ड में बाँटकर अपना राज कायम रखा है।

आनंद तेलतुम्बडे का मत है कि निजी तौर मुझे नहीं लगता कि हिंदुस्तान में मार्क्स या आम्बेडकर  किसी एक को छोड़कर या कुछ लोगों की `मार्क्स बनाम आम्बेडकर` जैसी ज़िद पर चलकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जा सकती है। वैसे भी सामाजिक न्याय की लड़ाई एक खुला हुआ क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे छोड़ दिये गये सवालों को शामिल करना जरूरी है। मसलन,यदि औरतों के सवाल की दोनों ही धाराओं (मार्क्स और आम्बेडकर पर दावा जताने वालों) ने काफी हद तक अनदेखी की है तो इस गलती के लिए मार्क्स या आम्बेडकर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। आम्बेडकर और मार्क्स पर दावा जताने वाली धाराओं के समझदार लोग प्रायः इस गैप को भरने की जरूरतों पर बल भी देते हैं लेकिन बहुत सारी वजहों से मामला या तो आरोप-प्रत्यारोप में या गलती मानने-मनवाने तक सीमित रह जाता है। हमारे प्रिय फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने तो एक विचारोत्तेजक फिल्म जयभीम कामरेड तक बना दी।

हमारा तो मानना है कि भारतीय यथार्थ का वस्तुवादी विश्लेषण करने की स्थिति में किसी भी वामपन्थी के अंबेडकरवादी होने या किसी भी अंबेडकरवादी के वामपन्थी बनने में कोई दिक्कत नहीं हैजो इस वक्त एक दूसरे के शत्रु बनकर हिन्दू राष्ट्र का कॉरपोरेट राज के तिलिस्म में फंसे हुये हैं।

आज बस, यहीं तक।

आगे बहस के लिए आप कृपया सम्बंधित सामग्री देख लें। हमें भी अंबेडकर को नये सिरे से पढ़ने की जरूरत है।

सम्बंधित सामग्री बहस के लिये देखें -

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

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जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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