सामूहिकता बनाम वैयक्तिकता
सामूहिकता बनाम वैयक्तिकता
Saturday, 30 March 2013 11:24 |
संदीप कुमार मील जनसत्ता 30 मार्च, 2013: आज देश के आदिवासी नवउदारवादी नीतियों के पहले निशाने पर हैं। दोनों तरफ संघर्ष हो रहा है। ये नीतियां इन्हें नेस्तनाबूद करने के लिए संघर्ष कर रही हैं तो आदिवासी अपनी अस्मिता बचाने के लिए। आदिवासियों के इस खतरे का एक महत्त्वपूर्ण कारण है कि उनमें अब भी सामूहिकता बची है। वे सामूहिकता को नेस्तनाबूद करने वाली आंतरिक और बाह्य दोनों तरह की ताकतों को खटक रहे हैं। किसी भी समाज की मजबूती और उसकी पूंजी सामूहिकता में होती है और इसकी उत्पत्ति की धारणा ही समाज की उत्पत्ति का मूल रही है। लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक मूल्यों की संरचना का स्वरूप बदला जा रहा है, जिसमें सामूहिकता की जगह वैयक्तिकता को स्थापित किया जा रहा है। यह एक प्रक्रिया के तहत जीवन के सभी अंगों को एक खास धारणा की तरफ आकृष्ट करके किया जा रहा है। वह धारणा है सामूहिकता को ध्वस्त करना। इसके पीछे राजनीतिक कारण यह है कि मनुष्य की प्रकृति और मूल्यों में व्यक्तिवादी प्रवृत्ति बढ़े। यह धारा एक सांस्कृतिक मिशन के तहत भारतीय समाज में फैलाई जा रही है। तथाकथित पवित्रतावादी पश्चिमी मूल्यों के विरोध में चिल्ला रहे हैं, मगर वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज के इतिहास में भी एक वैयक्तिकता की धारा रही है। समाज अपनी भौतिक शक्तियों के द्वंद्व से विकास करता है, लेकिन जब बाहरी ताकतों का हस्तक्षेप उस प्रक्रिया को प्रभावित करने लगता है तब टकराहट पैदा हो जाती है। यही टकराहट आज भारत सहित दुनिया के तमाम विकासशील देशों में हो रही है। इस प्रक्रिया में सिर्फ शहरीकरण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि शहर के विकास की रफ्तार भी डगमगा रही है। एक शहर में भी कई वर्ग होने की वजह से उनके मूल्यों में भिन्नता होती थी। लेकिन अब वर्ग अलग-अलग होते हुए भी मूल्य एक हैं, क्योंकि हर कोई अपना वर्ग बदलना चाहता है। उदारवाद का मुख्य एजेंडा यही है कि वर्ग बदलते जरूर रहें, लेकिन मिटे नहीं और यह इन व्यक्तिवादी मूल्यों से ही संभव है। शहरों से गांवों तक विभिन्न माध्यमों के तहत वैयक्तिकता को जायज और विकास के लिए जरूरी ठहराया जा रहा है। लेकिन समाज में सामूहिकता के महत्त्व पर कोई बात नहीं की जाती। एक समय ग्रामीण समाज में सामूहिकता का स्तर यह था कि रात के समय देखा जाता था कि गांव में कोई भूखा तो नहीं सो रहा है। उनके सुख-दुख में सबकी भगीदारी होती थी, क्योंकि उनके हित एक दूसरे से जुड़े हुए थे। हित वैयक्तिकता वाले समाज में एक दूसरे से जुड़े होते हैं, पर उनकी नींव सहयोग न होकर लाभ पर आधारित होती है। यह लाभ का विचार भारतीय मिथकों में भी पर्याप्त मात्रा में है, जिस पर शुभ-अशुभ के तमाम विश्वास टिके हैं। सामूहिकता का दूसरा कारण यह था कि प्रकृति और इंसान के बीच एक मजबूत रिश्ता था, जो लाभ पर आधारित न होकर जरूरतों पर आधारित था, जिससे प्रकृति भी बची रहती और सामाजिक संवेदनाएं भी। लेकिन जब इंसान के इस रिश्ते में जरूरत की जगह पूंजी आ गई तो पर्यावरण और समाज दोनों के लिए खतरा पैदा हो गया। यही फर्क आदिवासी समाज में है। वहां पर मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते में लाभ नहीं आया है। सामूहिकता से वैयक्तिकता तक का सफर भारतीय समाज ने अपनी ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया के तहत नहीं किया है, बल्कि उस पर बाहरी मूल्य थोपे गए हैं। एक तरफ बाहरी मूल्यों का दबाव और दूसरी तरफ आंतरिक अंतर्द्वंद्व, इन दोनों के बीच ही समाज अपना नया स्वरूप नहीं बना पा रहा है। कभी वही समाज परंपरा के नाम पर आदिवासी समाज के मूल्यों का समर्थन कर देता है तो कभी आधुनिकता के बहाने उनकी आलोचना करने लगता है। लेकिन आदिवासी समाज में परंपरा के अलावा जीवन पद्धति की कहीं कोई चर्चा नहीं होती है। वैसे भी उनकी परंपराएं थोपी हुई न होकर सामूहिकता का ही परिणाम होती हैं। उनकी एक परंपरा है कि वे किसी भी निर्णय में सर्वसम्मति को मानते हैं, किसी के भी असहमत होने पर वह निर्णय नहीं किया जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि आदिवासियों की सर्वसम्मति संयुक्त राष्ट्र की वीटो शक्ति से अलग है। इन दोनों के मूल्यों में भिन्नता यह है कि वीटो अपने या अपने गुट के हितों के लिए प्रयुक्त होने वाला विशेषाधिकार है, जबकि आदिवासियों की सर्वसम्मति सामूहिकता के लिए दी जाने वाली सहमति। यानी समाज में अपनी भागीदारी दर्ज कराने का अधिकार। इसलिए स्वतंत्र रूप से बिना किसी द्वंद्व के निर्णय किए जाते हैं न कि संयुक्त राष्ट्र की तरह वीटो करने की होड़ मची रहती है। देखें तो आज प्रकृति का संरक्षक वही समाज बचा है, जिसमें अब भी सामूहिकता के मूल्य बचे हैं। राजस्थान का विश्नोई समाज पर्यावरण के संरक्षक के रूप में खड़ा है, क्योंकि उस समाज के लोगों के मूल्यों में पेड़ों का नुकसान पूरे समाज का नुकसान माना जाता है। उसे बचाना दलित-आदिवासी समाज अपनी सामूहिक जिम्मेदारी मानता है। जहां वैयक्तिकता केवल अधिकार सिखाती है वहीं सामूहिकता अधिकारों के साथ कर्तव्यों को भी महत्त्व देती है। यही कारण है कि एक समाज केवल उपभोग करता है और दूसरा उपभोग के साथ संरक्षण भी करता है। अधिकार नष्ट करते हैं तो कर्तव्य उसका सृजन करके संतुलन करते हैं। जब अधिकार का उपयोग लाभ के लिए किया जाने लगता है तो विनाश की गति तेज हो जाती है, इसलिए आज वैयक्तिकता वाले समाज में प्रकृति तेजी से नष्ट हो रही है। जबकि आदिवासी कर्तव्य के साथ प्रकृति के विकास में सहयोग करते हैं। प्रकृति की यह संपत्ति छीनने के लिए आदिवासियों के जीवन मूल्यों को नष्ट करने के तरह-तरह के उपाय अपनाए जा रहे हैं। आदिवासियों की यह सामूहिकता वैयक्तिकता के लिए खतरा है, इसलिए उनका अस्तित्व आज निशाने पर है। क्योंकि वैयक्तिकता के समाज की तथाकथित सामूहिकता तो असल में वैयक्तिकता को बचाने का दिखावा भर है। समाज के आपसी संबंधों में वैयक्तिकता की स्थापना तथाकथित नैतिकता के नाम पर हो रही है और इसी कारण सामूहिकता वाले समाजों को देश की मुख्यधारा से अलग रखा गया। आज जिस तरह बहस चलाने की कोशिश हो रही है कि भारत के लोग भोजन बनाने में काफी समय बर्बाद कर देते हैं, वह समय देश के विकास में काम आ सकता है। इसलिए रसोई रहित घरों का निर्माण होना चाहिए। यानी अब खाना बनाने और खाने की प्रक्रिया में जो सामूहिकता बची थी, उसे भी खत्म कर दिया जाए। हमारे देश में खाना बनाना और खाना केवल पेट भरने की प्रक्रिया न होकर समाज के लिए सूचना और ज्ञान के आदान-प्रदान का माध्यम भी है। खाना पकाने, बनाने और खाने की पूरी प्रक्रिया में भावनाओं का आदान-प्रदान होता है। लोग खाने के बहाने जो दुख-दर्द साझा करते थे, अब उसका विकल्प भी बंद हो जाए। जहां खाना नहीं बनता हो उसे घर कैसे कह सकते हैं? इसका संकट समाज के उस हिस्से पर नहीं है, जिसने वैयक्तिकता को अपने मूल्यों में समाहित कर लिया है, बल्कि वह समाज संकट में है जो सामूहिकता को अपनी विरासत और जीवन का सूत्र समझता है। जो कि आदिवासी और पिछड़ों का इतिहास भी है। इनके लिए तो मालिक और सामंतों के अत्याचारों को एक दूसरे को सुनाने का माध्यम भी खाना ही रहा है। वैयक्तिकता से सामूहिकता तक के मूल्यों का विकास मानवीय विकास की प्रक्रिया के तहत हुआ, मगर आज फिर से मनुष्य व्यवहार को आदिम अवस्था में पहुंचाना ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया का नुकसान है और मूल्यों के विकास का रास्ता भी बंद कर देता है। चूंकि एक मूल्य की जगह दूसरे मूल्य को स्थापित करने के लिए जीवन के मूल अर्थ की व्याख्या को भी बदलना पड़ता है। जिस मूल्य के तहत समाज में जन्म से मृत्यु तक लोगों में एक भावनात्मक संबंध था। लोग उन्हें केवल ढोते नहीं हैं, बल्कि आत्मसात करके जीते हैं। जब वैयक्तिकता होती है तो सबका अलग-अलग जीवन लक्ष्य भी होता है, लेकिन उनका कोई सामूहिक लक्ष्य नहीं होता। यानी भविष्य के व्यक्ति की संरचना तो इस विचार के पीछे है, मगर समाज की संरचना का विचार नहीं है और जो भविष्य के व्यक्ति की संरचना है वह भी अपनी अलग-अलग है। सामूहिक लक्ष्य न होने की वजह से व्यक्तिगत लक्ष्यों में टकराव होता है, जो आज दिखाई देने लगा है। पहले बच्चे साल भर स्कूल में जाते थे और फिर परीक्षा का एक पूरा माहौल होता था। अब दीजिए घर बैठ कर परीक्षा। वे सिर्फ किताबों में कहानियां बन जाएंगी कि लड़का और लड़की के बीच कॉलेज में प्यार हो गया। यही तो चाहता है उदारवाद, तभी तो बिक सकते हैं भारत में अरबों कंप्यूटर। वैयक्तिकता तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित न होकर एक श्रेष्ठता की अहम भावना से ग्रसित है। यही कारण है कि आदिवासी समाज की सामूहिकता की वैयक्तिकता से तुलना न करके स्वयं को श्रेष्ठ ठहरा दिया जाता है। मान लिया जाता है कि हमारा समाज कम से कम आदिवासियों से तो आगे निकल गया है। लेकिन क्या सचमुच हम आगे निकले हैं! मूल रूप से यही मूल्यों का टकराव है। यहां पर एक दिखावे की सामूहिकता का भी प्रचलन बढ़ रहा है। वैयक्तिकता वाले समाज के सामाजिक आयोजनों में देखें तो एक जैसे वस्त्रों में दिखने वाले लोगों का पूरा समूह दिख जाएगा। इनका प्रदर्शन यह होता है कि वैयक्तिकता में भी सामूहिकता है। लेकिन गौर से देखें तो इनमें हर कोई अपने को अलग दिखाना चाहता है। ये सबका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते हैं। इसमें कुछ हरकतें, आवाजें या कोई अन्य तरीका भी हो सकता है। इनके लिए समूह में दिखना इसलिए जरूरी है कि इसके साथ उनके निजी हित जुड़े होते हैं। इस मजबूरी के कारण समूह में आने वाला यह समाज यहां अपने संपर्क बढ़ा कर व्यावसायिक स्तर पर हित वृद्धि चाहता है। जबकि आदिवासी सामाजिक उत्सवों में लोग अलग-अलग नृत्य कर रहे होते हैं तब भी उनमें एकरंगता दिखाई देती है, क्योंकि यहां उनके निजी हित नहीं होते हैं। वैयक्तिकता वाले समाज में अक्सर हित एक दूसरे से टकराते हैं, तब समान हितों वाले कुछ लोग अलग समूह बना लेते हैं। इस प्रकार समूह लगातार उप-समूहों में विभाजित होते रहते हैं। यह वैयक्तिकता के विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया है और इसी से वह मजबूत होती है। यह समाज समूह बना कर दिखावा इसलिए करता है कि वैयक्तिकता की श्रेष्ठता साबित की जा सके। देखें तो सामूहिकता अधिकारों के संघर्ष की रीढ़ है, क्योंकि उसके पास अतीत का अनुभव होता है और भविष्य की रूपरेखा भी। वैसे तो सामूहिकता हर समुदाय के लिए जरूरी है, लेकिन भारतीय समाज के लिए तो यह आॅक्सीजन है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41533-2013-03-30-05-55-40 |
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