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Monday, February 18, 2013

यातना का कारोबार

यातना का कारोबार

Monday, 18 February 2013 11:07

रुचिरा गुप्ता 
जनसत्ता 18 फरवरी, 2013: पिछले साल सोलह दिसंबर को दिल्ली में बलात्कार की वीभत्स घटना के बाद महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के अलग-अलग स्वरूपों पर विस्तृत राय देने के लिए सरकार ने न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। अब इस समिति की सिफारिशों के आधार पर भारत देह व्यापार का संचालन करने वालों से निपटने के अपने कानूनी तौर-तरीकों में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाला है। वर्तमान दंड विधि (संशोधन) अध्यादेश- 2013 तथा दंड विधि (संशोधन) विधेयक में प्रस्तावित बदलावों और अनैतिक व्यापार रोकथाम अधिनियम के चलते आखिरकार भारत ने देह व्यापार की परिभाषा व्यापक कर दी है और अब इसमें दासता के सभी रूप, यानी गुलामी से लेकर वेश्यावृत्ति तक शामिल होंगे। इन संशोधनों के साथ ही भारत इंसानों, खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के व्यापार का अंत करने के मामले में संयुक्त राष्ट्र प्रोटोकॉल के समकक्ष आ जाएगा।
कानून में यह बदलाव अगर अपने वास्तविक रूप में जमीन पर उतरता है तो देह व्यापार में धकेली गई हजारों महिलाओं और लड़कियों के सपनों और उम्मीदों को हकीकत में बदलने का जरिया बनेगा। मानव तस्करी के खिलाफ मोर्चा संभालने वाले हम जैसे लोग लंबे अरसे से इस तरह के कानून की मांग करते रहे हैं। यहां मुझे देह व्यापार की गर्त से मुक्त कराई गई बिहार की जानकी के शब्द याद आते हैं। उसने कहा था कि अगर ग्राहक नहीं होगा तो देह व्यापार भी संभव नहीं हो सकेगा। हम चाहते हैं कि पुलिस देह व्यापार करने को मजबूर की गई हम जैसी महिलाओं को गिरफ्तार करने के बजाय ग्राहकों को गिरफ्तार करे। इसी तरह, इस अमानवीय धंधे से बाहर निकाली गई कोलकाता की कुमकुम छेत्री ने हाल ही में हमारे माननीय सांसदों से अपील की थी कि मानव तस्करों, चकलाघर चलाने वालों और गरीब या मजबूर लड़कियों का शोषण में मदद करने वाले किसी भी व्यक्ति को बेहद सख्त सजा दी जाए। अगर ऐसे आपराधिक तत्त्व सजा से बचे रहे तो लड़कियों और महिलाओं का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब देह व्यापार की परिभाषा में शोषण, शोषित और शोषकों की विस्तृत कानूनी व्याख्या की जाएगी। इस परिभाषा में बंधुआ मजदूरी या सेवाएं, दासता, अंगों का जबरन निकाला जाना और वेश्यावृत्ति या यौन शोषण के अन्य रूप भी शामिल हैं। शोषण करने वालों को स्पष्ट रूप से काम पर नियुक्ति, हस्तांतरित करने वाले, ठिकाना देने वाले या शोषण के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को अपने पास रखने वाले के रूप में परिभाषित किया गया है। इसके बरक्स शोषित के रूप में जिन लोगों की पहचान की गई है उनमें जबरन या बंधुआ मजदूर बनाए गए, घरेलू या किसी अन्य तरह की गुलामी में रखे गए व्यक्ति या वेश्यावृत्ति में लगाई गई महिलाएं और बच्चे शामिल हैं।
किसी भी तरह के शोषण के लिए पीड़ितों की सहमति को असंगत करार देते हुए इस परिभाषा ने वेश्यावृत्ति के घिनौने कारोबार में जबरन धकेली गई उन लाखों महिलाओं को दोषमुक्त कर दिया है, जिनके जीने के एकमात्र विकल्प और मजबूरी को उनकी इच्छा बताया जाता रहा है। देह व्यापार में लगी महिलाओं की सहमति के बगैर शारीरिक संबंध की शिकायतों को अब तक हमारे न्यायाधीश भी नजरअंदाज करते रहे हैं, क्योंकि इसके एवज पैसे चुकाए जाते हैं। इस मामले में ज्यादा दारुण स्थिति देह व्यापार में जबरन धकेली गई नाबालिग लड़कियों की होती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह अध्यादेश और नया कानून बचाव की इस खोखली दलील को स्वीकार नहीं करेगा।
अब तक पुलिस और न्यायपालिका देह व्यापारियों को पकड़ पाने में अक्सर नाकाम रहते थे, क्योंकि महिलाएं और लड़कियां अक्सर यह समझा पाने में असमर्थ होती थीं कि उन्हें बहकाया, ललचाया या बाध्य किया जा रहा है, जाल में फंसाया जा रहा है या अपना ही शोषण करवाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। दरअसल, ऐसी महिलाएं खुद या फिर उनके बच्चे घर में भूख से बिलखते होते थे और ऐसे में उनके हाथ में फैसले लेने का विकल्प नहीं होता था। सच तो यह है कि देह व्यापार में धकेल दी गई महिलाएं इसकी बड़ी कीमत चुकाती हैं। उनकी तकलीफ और दुर्दशा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उनकी 'आमदनी' में पैसे के साथ-साथ कई तरह की बीमारियां और हिंसा भी शामिल होती है। यह उन्हें पहले से ज्यादा गरीबी और बदहाल जिंदगी की दलदल में धंसा देती है। गरीबी की मार झेलती महिला देह व्यापार की त्रासदी में फंसने के बाद कभी भी अपनी दुर्दशा से उबर नहीं पाती और उससे होने वाली आमदनी से उसकी गरीबी दूर नहीं हो पाती। अगर इन महिलाओं की मृत्यु दर को कसौटी बनाया जाए तो बदहाली से उबरने का 'सौभाग्य' इन्हें मौत के बाद ही मिल पाता है।
देह व्यापार की प्रस्तावित परिभाषा महिलाओं को अपराधमुक्त करती है और दोष पीड़ित के बजाय अपराधियों पर डालती है। ऐसा करके कानून उस ऐतिहासिक गलती को सुधारेगा, जिसकी शुरुआत साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई थी। औपनिवेशिक शासकों ने संक्रामक रोग अधिनियम के जरिए लाइसेंसी वेश्यालय खोल कर ब्रिटिश सैनिकों और कर्मचारियों के यौन उपयोग के लिए रोग-मुक्त महिलाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की थी। इस अधिनियम में देह व्यापार की कोई परिभाषा नहीं दी गई और इसीलिए देह व्यापारियों के लिए किसी सजा का उल्लेख भी नहीं था। इसमें ग्राहकों और दलालों के लिए बेहद मामूली सजा का प्रावधान था और सार्वजनिक स्थानों पर यौन संबंधों के लिए उकसाने के आरोप में वेश्याओं के लिए दंड तय करके यह सुनिश्चित किया गया कि वे अदृश्य और सार्वजनिक स्थानों से दूर रहें।

चूंकि यह औपनिवेशिक अधिनियम हमारे देह व्यापार विरोधी कानून, यानी अनैतिक व्यापार रोकथाम अधिनियम- 1956 के लिए आधार बना, इसलिए यह भी उकसाने के आरोप में महिलाओं को दंड देता है और इसमें भी देह व्यापार या देह व्यापारी की परिभाषा नहीं दी गई है। यही नहीं, इसमें शोषकों के लिए बेहद मामूली सजा का उल्लेख है। अब देह व्यापार को पीड़ित-रहित अपराध नहीं कहा जाएगा, बल्कि इसमें इस बात को रेखांकित किया जाएगा कि वेश्यावृत्ति एक ऐसा धंधा है जिसमें निम्न वर्ग के लड़के-लड़कियों और महिलाओं को दलालों, वेश्यालय चलाने वालों और ग्राहकों द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
प्रस्तावित संशोधन में देह व्यापारियों और पीड़ितों का शोषण करने वालों के लिए कहीं अधिक कड़ी और निश्चित सजा है, जिसमें एक से अधिक बार दोषी पाए जाने वाले अपराधियों के लिए उम्रकैद और पहली बार यह अपराध करने वालों के लिए अपेक्षाकृत अधिक अर्थदंड सुनिश्चित किया गया है। इसमें शोषण के इस धंधे में किसी भी रूप में लिप्त पाए जाने वाले पुलिस अधिकारियों जैसे लोक सेवकों के लिए आजीवन कारावास की सजा का भी प्रस्ताव है। इस कड़ी सजा के चलते वे वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, जिनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं, इन अपराधों को दबाने की कोशिश नहीं करेंगे जो अब तक खुद ही इन देह व्यापारियों से दलाली ले कर उन्हें बख्श देते थे, वेश्याओं का उपयोग करते थे या बेनामी वेश्यालय चलाते थे। कानूनी तौर पर देह व्यापारियों या शोषण करने वालों को अपराधी ठहराए जाने और इनके लिए कड़ी सजा का प्रावधान होने से इस कारोबार में लोगों की मांग भी कम हो जाएगी। 
दरअसल, इस तरह के प्रावधानों की जरूरत तो लंबे समय से महसूस की जा रही थी, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जनतांत्रिक होने का दावा करने वाली सरकारें इसकी अनदेखी क्यों करती रहीं। जबकि स्वीडन और नार्वे में इसी तरह के कानूनों में सेक्स खरीदने को अवैध करार दिया गया है और लैंगिक असमानता को ध्यान में रखते हुए पीड़ित महिलाओं को सेक्स बेचने के अपराध से पूरी तरह मुक्त रखा गया है। इन दोनों ही देशों में सेक्स के क्रय-विक्रय की मांग और देह व्यापार में भारी गिरावट दर्ज की गई है।
समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अनेक कारकों और स्वरूपों की जड़ दरअसल पितृसत्तात्मक ढांचे में है। इसलिए समग्र नजरिया अपनाते हुए वर्मा समिति की सिफारिशों में बिल्कुल ठीक ही महिलाओं के बलात्कार और यौन शोषण के सभी रूपों का संज्ञान लिया गया है, चाहे वे व्यावसायिक हों या गैरव्यावसायिक।
सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ी पहल के तौर पर इन सिफारिशों में इस किस्म के अपराध को महिलाओं की दैहिक स्वतंत्रता का हनन मानते हुए गरीब, निचली जातियों और हाशिये पर पड़ी महिलाओं के साथ बलात्कार को पूरी तरह अस्वीकार्य माना गया है, भले ही उसके लिए आर्थिक भुगतान क्यों न किया गया हो। इन सिफारिशों में वेश्यावृत्ति में झोंकी गई महिलाओं और बच्चों को पुरुष हिंसा का शिकार समझा गया है, जिन पर कोई कानूनी दंड नहीं लगाया जाएगा। बल्कि ये मानव तस्करी, बलात्कार और वेश्यावृत्ति से निजात पाने में सहायता के हकदार हैं।
वर्मा समिति की सिफारिशें हमारे देश में सामयिक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करती हैं जिसमें महिलाएं और लड़कियों का अपने शरीर पर हक हो और वे पुरुष हिंसा से मुक्त जीवन जी सकें। ये सिफारिशें उस संकट की पहचान करती हैं, जिसमें भारत में आधिकारिक तौर पर हर रोज सत्रह महिलाओं का बलात्कार होता है। इसके अलावा, यह एक ऐसे विधान के लिए मंच तैयार करती हैं, जिसमें यह समझा जाएगा कि जो भी समाज महिलाओं और लड़कियों के कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता के सिद्धांत की रक्षा का दावा करता है, उसे यह बात कतई गवारा नहीं होगी कि महिलाएं और लड़कियां कोई वस्तु हैं, जिन्हें खरीदा या बेचा जा सकता है या फिर जिन्हें यौन शोषण का शिकार बनाया जा सकता है।
अगर ऐसा नहीं होता है तो इसका अर्थ है कि महिलाओं खासतौर से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई स्त्रियों और लड़कियों को एक अलग वर्ग में रखा जा रहा है, जो उनकी सुरक्षा के लिए उठाए जा रहे कदमों और साथ ही हमारे संविधान में उल्लिखित मानव गरिमा के सार्वभौमिक संरक्षण और पिछले साठ वर्षों के दौरान विकसित हुए अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रपत्रों से बाहर हैं।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39090-2013-02-18-05-38-04

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अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

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Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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