9 जून, 2016
पर्सनल लॉ में सुधार
-राम पुनियानी
सामाजिक असमानता को बढ़ावा देने वाली कई प्रथाओं को धर्म का चोला पहना दिया गया है। इससे, इन प्रथाओं में बदलाव लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। जब भी इन प्रथाओं का विरोध होता है, उसे धर्म के विरोध के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। भारतीय पर्सनल लॉ का निर्माण अंग्रेज़ों ने किया था। उन्होंने कई अलग-अलग स्त्रोतों से ली गई सामग्री को इनका आधार बनाया था। ''धर्म'' की व्याख्या मुख्यतः पुरूष करते आए हैं और वे ही यह तय करते आए हैं कि पूरे समाज के लिए क्या गलत है और क्या सही। सामाजिक कुप्रथाओं में बदलाव के प्रयास ब्रिटिश शासन में ही शुरू हो गए थे। समाज सुधारकों ने सती और बाल विवाह जैसी बुराईयों के विरूद्ध अभियान शुरु किए। इन समाज सुधारकों को दकियानूसी वर्ग के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। ये वर्ग, धर्म के नाम पर इन प्रथाओं को बनाए रखना चाहते थे।
इन दिनों हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों में समाज सुधार के कई अभियान चल रहे हैं। यह मांग की जा रही है कि उन हिंदू मंदिरों के द्वार महिलाओं के लिए खोले जाएं जिनमें अब तक उनका प्रवेश प्रतिबंधित है। इनमें शिर्डी का शनि शिंगणापुर मंदिर शामिल है। इसी तरह, मुस्लिम महिलाएं यह मांग कर रही हैं कि उन्हें मुंबई की हाजीअली दरगाह की ज़ियारत करने की इजाज़त दी जाए। वहां पिछले पांच सालों से महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण पहल में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण कर तलाक देने की प्रथा के विरूद्ध एक बड़ा अभियान शुरू किया है। बीएमएमए द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से यह सामने आया है कि करीब 92 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं तलाक की इस घिनौनी प्रथा के विरूद्ध हैं।
बीएमएमए ने अब तक इस तरह के तलाक और तलाक-ए-हलाला को समाप्त करने की मांग करने वाली याचिका पर 50,000 मुस्लिम महिलाओं के हस्ताक्षर करवा लिए हैं। तलाक-ए-हलाला की प्रथा के अंतर्गत, अगर कोई पुरूष, तीन बार तलाक कहकर घर से निकाल दी गई अपनी पत्नी से फिर से विवाह करना चाहता है तो उसके पहले, उस स्त्री को किसी दूसरे पुरूष से विवाह करना होता है और उसके साथ पति-पत्नि के संबंध स्थापित करने होते हैं। इसके बाद, दूसरा पति उसे तलाक देता है और तभी वह अपने पूर्व पति से फिर से विवाह कर सकती है। कई मौलाना ''अस्थायी पति'' के रूप में अपनी सेवाएं देने को तैयार रहते हैं!
बीएमएमए का कहना है कि ये दोनों ही प्रथाएं गैर-इस्लामी हैं और इनकी कुरान में कहीं चर्चा नहीं है। बीएमएमए द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग को दिए गए एक ज्ञापन में कहा गया है कि, ''इस तरह के तलाक को कुरान मान्यता नहीं देती। कुरान के अनुसार, तलाक के पहले, 90 दिन तक आपसी बातचीत और मध्यस्थों के ज़रिए पति-पत्नी के बीच सुलह कराने की कोशिश होनी चाहिए''। कई इस्लामिक विद्वान, इस मामले में बीएमएमए से सहमत हैं परंतु मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमायत-ए-इस्लामी बीएमएमए की मांग का विरोध कर रहे हैं। जमायत-ए-इस्लामी तो मुस्लिम महिलाओं के अभियान के विरूद्ध अपना अभियान शुरू करने को उद्यत है। जहां मुस्लिम पुरूषों के वर्चस्व वाली ये दोनों संस्थाएं बीएमएमए और अन्य मुस्लिम महिलाओं के संगठनों द्वारा समानता के लिए चलाए जा रहे अभियानों के खिलाफ हैं, वहीं कई प्रमुख मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक बीएमएमए के समर्थन में सामने आए हैं। जो महिलाएं समानता प्राप्त करने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं और जो पुरूष इस अभियान का समर्थन कर रहे हैं उनके बारे में यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि वे आरएसएस-भाजपा के समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग को अपरोक्ष समर्थन दे रहे हैं।
यहां यह महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान सहित 21 मुस्लिम बहुल देशों में मुंहजबानी तलाक की प्रथा प्रतिबंधित है। इस मामले में किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए हमें कुरान और भारतीय संविधान दोनों का सहारा लेना होगा। जहां अल्पसंख्यकों के अपनी संस्कृति की रक्षा करने और अपने धर्म का पालन करने के मूल अधिकार का प्रश्न है, उससे कोई समझौता नहीं हो सकता। परंतु इसके साथ ही, अगर अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर से ही सुधार की मांग उठती है तो नैतिक, सामाजिक और कानूनी आधारों पर उसे समर्थन देना भी उतना ही आवश्यक है। जो लोग बीएमएमए के अभियान का विरोध कर रहे हैं उनका यह भी कहना है कि मुसलमानों में तलाक की दर, अन्य धर्मावलंबियों से कम है। परंतु इस तर्क का इस्तेमाल मुस्लिम महिलाओं को समान हक न देने के लिए नहीं किया जा सकता।
जहां तक मुस्लिम महिलाओं के इस संघर्ष को आरएसएस से जोड़ने का प्रश्न है हमें यह समझना होगा कि आरएसएस मूलतः पितृसत्तात्मक संगठन है और वह समान नागरिक संहिता का नारा केवल अल्पसंख्यकों को आतंकित करने के लिए लगाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी आरएसएस ने अंबेडकर द्वारा तैयार किए गए हिंदू कोड बिल का कड़ा विरोध किया था। संघ, उन सामाजिक सुधारों के विरूद्ध था जो हिंदू कोड बिल में प्रस्तावित थे। यह भी सही है कि तत्कालीन शासक दल कांग्रेस के कई नेता भी इस बिल के खिलाफ थे और इसी कारण इस बिल में कई संशोधन कर उसे कमज़ोर कर दिया गया था।
आरएसएस के गुरू गोलवलकर भी समान नागरिक संहिता के विरोधी थे। परंतु आगे चलकर, विशेषकर शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय और उसका मुसलमानों के एक बड़े वर्ग द्वारा मुस्लिम पर्सनल लॉ को अपरिवर्तनीय बताते हुए किए गए विरोध के बाद से आरएसएस, समय-समय पर समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग करता रहा है। शुरूआती दौर में कई महिला आंदोलन भी समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे परंतु बाद में उन्हें यह एहसास हुआ कि समान नागरिक संहिता, दरअसल कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा लेकर एक नया कानून बनाने और उसे सब पर लादने का उपक्रम है। मूल मुद्दा यह है कि अधिकांश पर्सनल लॉ, सामाजिक पदक्रम की उस अवधारणा पर आधारित हैं, जो महिलाओं को द्वितीयक दर्जा देते हैं। इसलिए आज ज़रूरत ऐसे पर्सनल लॉ की है जो लैंगिक न्याय करता हो। मेरी यह मान्यता है कि अगर लैंगिक न्याय पर आधारित पर्सनल लॉ बनाया जाता है तो वह सभी समुदायों के लिए एक-सा होगा। समान नागरिक संहिता का आधार लैंगिक न्याय होना चाहिए। आंख बंद कर समान नागरिक संहिता लागू करना, महिलाओं के साथ अन्याय होगा।
क्या गैर-मुस्लिम भी मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुददे पर अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं? यह प्रश्न इस लेखक सहित अन्य उन सभी लोगों के सामने उपस्थित है जो हर प्रकार की सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं और जिनकी यह मान्यता है कि सभी देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। सभी सामाजिक व राजनैतिक मुद्दों पर सभी लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। जैसा कि कहा जाता है, एक स्थान पर अन्याय, सभी स्थानों पर अन्याय है। यहां प्रश्न केवल बीएमएमए जैसे आंदोलनों का समर्थन करने का नहीं है। कुरान में महिलाओं और पुरूषों की समानता के संबंध में जो बातें कहीं गईं हैं, कम से कम उन्हें तो लागू किया ही जाना चाहिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य धर्म ग्रंथों की तरह कुरान की भी कई अलग-अलग व्याख्याएं उपलब्ध हैं। बीएमएमए, इस्लाम की शिक्षाओं के मानवीयता और न्याय संबंधी पक्ष को उजागर करने का काम कर रहा है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम उन सभी आंदोलनों और अभियानों का समर्थन करें जो पितृसत्तात्मकता को चुनौती दे रहे हैं। सभी धर्मों की महिलाओं और पुरूषों को आगे आकर सभी धार्मिक समुदायों में लैंगिक समानता की स्थापना की पहलों का समर्थन करना चाहिए। बहुपत्नी प्रथा व मुंहजबानी तलाक कुछ ऐसी कुप्रथाएं हैं जिनका हर हालत में विरोध किया जाना चाहिए। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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