बंगलादेश में जन उभार और भारत में मुर्दा शान्ति
सन् 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन में उमड़े हजारों लोगों की तस्वीरें आज भी ज़ेहन में ताज़ा हैं। उन तस्वीरों को टी. वी. और अख़बारों में इतनी बार देखा था कि चाहें तो भी नहीं भुला सकते। लोग अपने-अपने घरों से निकल कर अन्ना के समर्थन में इकट्ठे हो रहे थे और गली मोहल्लों में लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे थे। इण्डिया गेट से अख़बारों और न्यूज़ चैनलों तक पहुँचते-पहुँचते सैकड़ों समर्थकों की ये तादात हजारों और हजारों की संख्या लाखों में पहुँच जाती थी। तमाम समाचार पत्र इसे दूसरे स्वतन्त्रता आन्दोलन की संज्ञा दे रहे थे और टी वी देखने वालों को लग रहा था कि हिन्दुस्तान किसी बड़े बदलाव की दहलीज़ पर खड़ा है और जल्द ही सूरत बदलने वाली है। घरों में सोयी आवाम अचानक जाग गयी थी और राजनीति को अछूत समझने वाला मध्यम वर्ग राजनैतिक रणनीति का ताना बाना बुन रहा था। यहाँ मैं आन्दोलन के राजनितिक चरित्र की बात नहीं कर रहा बल्कि ये याद करने की कोशिश कर रहा हूँ कि उस आन्दोलन को उसके चरम तक पहुँचाने वाला मीडिया अपने पड़ोस बाँग्ला देश में उठ रहे जन सैलाब के प्रति इतना उदासीन क्यों है और कुछ ही महीने पहले बढ़ी अवाम की राजनैतिक चेतना आज कहाँ है?
हमारे पड़ोसी मुल्क बाँग्ला देश का अवाम युद्ध अपराधियों और फिरकापरस्त ताकतों के खिलाफ आन्दोलन कर रहा है। यह आन्दोलन महज युद्ध अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही के लिये ही नहीं लड़ रहा बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतान्त्रिक समाज के लिये संघर्ष कर रहा है जो मजहबी कठ्मुल्लावादियों को मंजूर नहीं। वहाँ से मिल रही ख़बरों ( जो की अख़बारों और चैनलों में एकदम नदारद हैं) के अनुसार लाखों लोग दिन-रात शाहबाग चौक पर धरना दिये बैठे हैं और देश के अन्य भागों में भी लोग इस तरह के प्रदर्शनों में भाग ले रहे हैं। कई राजनैतिक विशेषज्ञ शाहबाग की तुलना तहरीर स्क्वायर से कर रहे हैं और वहाँ से आ रही तस्वीरों को देख कर लगता है कि ये तुलना बेवजह नहीं है। हैरानी की बात यह है कि इस आन्दोलन से जुड़ी ख़बरों के लिये हिन्दुस्तानी मीडिया के पास कोई जगह नहीं है। अमेरिका के चुनावों से काफी पहले हर हिन्दुस्तानी को ये पता होता है कि अमरीकी राजनीति में क्या खिचड़ी पक रही है। कौन से स्टेट में रिपब्लिकन्स आगे हैं और किसमें डेमोक्रेट्स। सट्टेबाज़ किस पर दाँव लगा रहे हैं, इसका सीधा प्रसारण चौबीस घंटे होता है पर पड़ोस में हो रहे इतने बड़े आन्दोलन की हमारे देश की जनता को सूचना तक नहीं है। पिछले दो महीनों में हिन्दुस्तान का मीडिया अपनी बहस और कवरेज नरेन्द्र मोदी और राहुल के इर्द गिर्द घूमा रहे हैं या इस गम में मातम मना रहें है कि आखिर शेयर बाज़ार इतना नीचे क्यों आ गया है या सोने के भाव गर्दिश में क्यों हैं। बाँग्ला देश की घटनायें किसी " न्यूज़ एट नाइन" या "बिग फाईट" का हिस्सा नहीं बन पायीं। सुना है आन्दोलन के पहले महीने में "हिन्दू" को छोड़ के किसी हिन्दुस्तानी अखबार का संवाददाता ढाका में मौजूद नहीं था और उसके बाद भी इस आन्दोलन की खबर ढूँढे नहीं मिलती। अन्ना आन्दोलन के समय का राजनैतिक तौर पर सजग समाज आज कहाँ चला गया? अमेरिका में अगला प्रेसिडेंट कौन होगा पर सम्पादकीय लिखने वाले अख़बारों को क्या हुआ? क्यों पड़ोस में हो रही घटनायें उनका ध्यान खींचने में नाकामयाब हैं?
शुक्र है बांग्लादेशी ब्लॉगर्स का और उन ब्लॉग्स के आधार पर कुछ जनवादी लेखकों द्वारा सोशल साइट पर किये गये अपडेट्स का कि हमें हिन्दुस्तान में शाहबाग आन्दोलन की कुछ खबरें मिल सकीं। लेकिन दुनिया को शाहबाग आन्दोलन की खबर देने की कीमतब्लॉगर अहमद रजिब हैदर को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के खिलाफ लिखने और युद्ध अपराधियों को कड़ी सजा की हिमायत करने के कारण उनकी हत्या कर दी गयी और अन्य चार ब्लॉगर जेल की सलाखों के पीछे हैं।
1971 में बाँग्ला देश के मुक्ति संघर्ष में भारत की अहम भूमिका रही थी और हम अक्सर इस बात पर अपनी पीठ भी ठोंकते रहते हैं। लेकिन आज भारत इस कदर कूटनीतिक चुप्पी साधे बैठा है मानो कि उसके पूर्व में कोई देश हो ही ना। भारत की तरफ से बाँग्ला देश की उथल पुथल पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी है। विदेश मन्त्री पर थोड़ा दवाब डाल के पूछोगे तो वो कहेंगे कि "यह उनका अन्दरूनी मामला है और भारत किसी के अन्दरूनी मामलों में दखल देना उचित नहीं समझता"। 1971 में बाँग्ला देश को पाकिस्तान से अलग करते वक़्त ये अन्दरूनी मामला नहीं था लेकिन आज है। हैरानी की बात यह है कि प्रगतिशील और जनवादी खेमे में भी इस आन्दोलन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। वामपंथी पार्टियों की चुप्पी चुभने वाली है। भारत का प्रगतिशीत तबका इस सवाल से मुँह नहीं मोड़ सकता और उसे तारीख को जवाब देना होगा कि वो बांग्लादेशी तहरीक के साथ एकजुटता क्यों नहीं जता सका। किसी पार्टी या संगठन ने बाँग्ला देश के जन आन्दोलन के समर्थन में कोई रैली, धरना या प्रदर्शन नहीं किया ( कुछ अपवादों को छोड़ कर)। हाँ, कोलकाता में दर्जन भर मुस्लिम संगठनों के लाखों समर्थकों ने शहीद मीनार पर प्रदर्शन जरूर किया था। लेकिन शाहबाग आन्दोलन के समर्थन में नहीं बल्कि उन युद्ध अपराधियों के समर्थन में जिन्हें युद्ध अपराधों के लिये सजा सुनायी गयी है। सुनने में आया है कि पाकिस्तान में भी इसी तरह के प्रदर्शन हुये जिसमें युद्ध अपराधियों को रिहा करने की माँग की गयी है। ये भी खबर है कि कुछ इस्लामी देशों की सरकारों ने भी युद्ध अपराधियों को रिहा करने की इल्तिजा की है। दुनिया की जनवादी ताकतें एक हो ना हो पर दुनिया भर की फिरकापरस्त ताकतें एक साथ खड़ी हैं।
शाहबाग आन्दोलन, धर्मनिरपेक्षता और लोकतन्त्र के मूल्यों में यकीन करने वाला एक ऐसा आन्दोलन है जो 1971 के युद्ध अपराधों के लिये जिम्मेदार गुनाहगारों को कड़ी से कड़ी सजा कि माँग कर रहा है। साथ ही उसके लिये जिम्मेदार जमात-ए-इस्लामी पर पाबन्दी लगाने कि माँग कर रहा है। 1971 में बाँग्ला देश की आज़ादी के आन्दोलन के समय जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनो ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और बाँग्ला देश में हुये नरसंहार में बराबर के भागीदार बने थे। इस नरसंहार में लगभग तीन से पाँच लाख मुक्ति संघर्ष के समर्थकों की हत्या की गयी थी। हालाँकि इस संख्या पर विवाद है पर इस बात पर कोई दो राय नहीं कि हजारों की संख्या में लोगों को मारा गया था। आज भी बाँग्ला देश में सामूहिक कब्रगाह मिल रहे हैं जहाँ नरसंहार के बाद लोगों को दफनाया गया था। इसके अलावा पाकिस्तानी सेना पर हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप है और एक घटना में तो पाकिस्तानी सेना ने ढाका विश्वविद्यालय और घरों से 500 से अधिक महिलाओं को अगवा करके अपनी छावनी में बंधक बना कर रखा था और कई दिनों तक उनके साथ बलात्कार किया था। बाँग्ला देश की फिरकापरस्त ताकतें नहीं चाहती थीं कि उनका देश इस्लामी राज्य पाकिस्तान से आजाद हो कर धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक राज्य बने। वो अखण्ड पाकिस्तान के हिमायती थे और आज़ाद बाँग्ला देश के विरोधी। इसी कारण उन्होंने पाकिस्तानी सेना और फिरकापरस्त ताकतों का साथ दिया और इस नरसंहार का हिस्सेदार बने।
सन् 2008 के चुनावों के दौरान अवामी लीग ने वादा किया था कि वह युद्ध अपराधियों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (International crime tribunal) का गठन करेगी और युद्ध अपराधियों के खिलाफ केस चलाएगी, जिसकी माँग सालों से चली आ रही थी। चुनाव जीतने के बाद सन् 2009 में अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ( ICT) की स्थापना हुयी और उन अपराधियों के खिलाफ केस शुरू हुआ जो युद्ध अपराधों में शामिल थे। फरवरी 2013 में युद्ध अपरधियों के खिलाफ सजा सुनायी गयी जिसमें जमाते इस्लामी के नेता हुसैन सैयदी भी शामिल थे। दो हफ्ते बाद एक और जमाते इस्लामी नेता, अब्दुल कादिर मुल्लाह, को सजा सुनायी गयी। इसके जवाब में जमाते इस्लामी के छात्र संगठन 'शिबिर' ने इस निर्णय की मुखालफत में जो कहर बरपाया उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलेगी। हिंसा के इस ताण्डव में एक ही दिन में 35 लोग मारे गये। दक्षिणी बाँग्ला देश में अल्पसंख्यकों के घरों और मन्दिरों पर भी हमला बोला गया। इसके साथ ही ढाका के शाहबाग इलाके में जमाते इस्लामी नेताओं के खिलाफ और युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की माँग करते हुये शाहबाग आन्दोलन शुरू हुआ जो कई पूर्णत: अहिंसक था। तब से लेकर आज तक ये आन्दोलन जारी है और फिरकापरस्तों के खिलाफ लड़ रहा है।
आज भी जमात-ए-इस्लामी के समर्थक शाहबाग आन्दोलन के खिलाफ यह दुष्प्रचार कर रहें हैं कि ये आन्दोलन नास्तिक युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है जो इस्लाम विरोधी है। सच्चाई यह है कि इस आन्दोलन में हर तबके और उम्र के लाखों लोग शामिल हैं। ढाका के शाहबाग इलाके से शुरू हुये इस आन्दोलन के समर्थक देश के कोने-कोने में है। इस्लाम में तहे दिल से यकीन करने वाले मुस्लिम भी इसका भाग हैं लेकिन वो जमाते इस्लाम जैसे संगठनों और धर्म पर आधारित राज्य का विरोध करते हैं। ये आन्दोलन न केवल युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की माँग कर रहा है बल्कि जमात-ए-इस्लामी जैसे दक्षिणपंथी संगठनों पर पाबन्दी की माँग भी कर रहा है। इस आन्दोलन की अपराधियों को फाँसी पर चढ़ाने की माँग पर मतभेद हो सकते हैं पर आन्दोलन के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर शक की गुंजाईश नहीं है।
हिदुस्तानी मीडिया की आन्दोलन के प्रति उदासीनता और हिन्दुस्तानी जनवादी ताकतों का आन्दोलन के समर्थन में ना आना हैरानी के साथ साथ चिंता का विषय भी है। खासकर जब दुनिया भर में कठमुल्लावादी राजनीति हावी हो रही है। मीडिया की बात समझ में आती कि इस आन्दोलन को कवर करने से उसके आर्थिक हितों की पूर्ति नहीं होती पर प्रगतिशील ताकतों की क्या मजबूरी है। शाहबाग आन्दोलन के समर्थन में कुछ इक्का दुक्का प्रदर्शन तो हुये हैं पर उनका अस्तित्व समुद्र में बारिश की बूँद सा है। आज बाँग्ला देश के लोग नया वर्ष मना रहे हैं, आओ मिलकर उन्हें शुभकामनायें दें कि उन्हें उनके मकसद में कामयाबी मिले और धर्मनिरपेक्ष और तरक्की पसन्द लोगों की जीत हो। साथ ही हम हिन्दुस्तानी ये संकल्प ले कि बाँग्ला देश के जनवादी आन्दोलन के प्रति जितना हो सके उतना समर्थन जुटायेंगे। शाहबाग आन्दोलन में जुटे लोगों को सलाम।
किशोर झा डेवलेपमेंट प्रोफेशनल हैं और पिछले बीस साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।
No comments:
Post a Comment