मोदीत्व की छांव में भाजपा की कांव कांव
मीडिया में मोदी की आलोचना होते ही मोदी समर्थक और भाजपा के नेता उनके बचाव में जिस तरह से उतरते हैं उससे मोदी का बचाव कम नुकसान ज्यादा हो जाता है। मोदी के समर्थक यह साबित कर देते हैं कि सचमुच मोदी के छांव में एक ऐसा फासीवादी नेतृत्व पनप रहा है जो मोदी की आलोचना भी बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हाल में ही मीडिया में मोदी के विकासगाथा की समीक्षा होनी शुरू हुई है। मोदी अपने हिन्दुत्व की पटरी छोड़कर विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ते हुए प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। लेकिन अगर स्वतंत्र और संप्रभु देश के नागरिक मोदी के विकास की कलई खोलते हैं तो उनके समर्थक आतंकवादी की तरह ऐसे नागरिकों और विचारकों पर हमला बोल देते हैं। भाजपा के नेता या समर्थक चाहे जो तर्क दें, काटजू की इस बात से हर कोई इत्तेफाक रखेगा कि मोदी पर लगा दंगों का दाग अरब के सारे इत्र से भी साफ नहीं किया जा सकता है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद मोदी पर पर गुजरात दंगों का दाग है। उन्होंने अभी तक दंगों के लिए 'माफी' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने दंगा के आरोपियों को बचाने की हर मुमकिन कोशिश की। यूरोपीय यूनियन के समक्ष उन्होंने दंगों को दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताया है, लेकिन यह नाकाफी है। गुजरात दंगों के अलावा फर्जी मुठभेड़ों का दाग भी उन पर है। सोहराबुद्दीन शेख की हत्या करने के आरोप में उनके वफादार आला पुलिस अधिकारी डीके बंजारा सहित कई अधिकारी जेल में बंद हैं। 2004 में इशरतजहां मुठभेड़ भी संदेह के दायरे में है। उनकी सरकार में गृहमंत्री रहे हरेन पांडया की हत्या को लेकर वह संदेह के घेरे में रहे हैं। वह दंगों की आरोपी और बाद में आरोप सिद्ध होने पर जेल जाने वाली माया कोडनानी को मंत्री पद से नवाजते हैं। सुप्रीम कोर्ट उन्हें अक्सर झटका देता रहता है। वह गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं करना चाहते। अमेरिका उन्हें अपने यहां आने के लिए वीजा प्रदान नहीं करता है। जो शख्स इतना विवादित हो, उसे प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या भाजपा ने यह सोचा है कि ऐसा करने पर भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या छवि बनेगी?
नरेन्द्र मोदी पर जिन दंगों के बदतरीन दाग हैं, उन्हें ढकने के लिए 'विकास' का मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की जा रही है। गुजरात में उनकी हैट्रिक को ऐसे पेश किया जा रहा है, जैसे ऐसा होना प्रधानमंत्री पद की अनिवार्य शर्त है। यदि ऐसा है तो शीला दीक्षित प्रधानमंत्री पद की दावेदार क्यों नहीं हो सकतीं। मोदी हैट्रिक बनाने में कामयाब हुए हैं, तो इसकी बुनियाद में 2002 के दंगे हैं। यदि दंगे नहीं होते तो उन्हें हैट्रिक करने का आधार नसीब नहीं होता। वैसे भी यदि बारीकी से देखा जाए, तो गुजरात में भाजपा कभी नहीं जीती, नरेंद्र मोदी जीतते रहे हैं। भाजपा और आरएसएस का एक धड़ा नरेंद्र मोदी को हराने पर तुला हुआ था। गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी को वोट देती है, भाजपा को नहीं। लेकिन सब कुछ जानते हुए भी भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए हिंदुत्व के वर्तमान पुरोधा मोदी पर दांव लगाना चाहती है। लेकिन भाजपा में यह मंथन जरूर चल रहा होगा कि यदि 'मोदी दांव' नहीं चला, तो क्या होगा? दांव उल्टा पड़ने पर वह न घर की रहेगी न घाट की.
वैसे भी नरेंद्र मोदी की राह इतनी आसान नहीं है, जितनी उन्हें राष्ट्रीय फलक पर बैठाने की कवायद करने वाले लोग समझ रहे हैं। नरेंद्र मोदी की राह में कई रोड़े हैं। सबसे बड़ा रोड़ा भाजपा का एक ऐसा धड़ा है, जो बिल्कुल नहीं चाहता कि नरेंद्र मोदी को गुजरात से उठाकर सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने की कवायद की जाए। वह ऐसा करने के खतरों को समझता है, जो गलत नहीं हैं। पूरी तरह से यह साफ होने के बाद कि नरेंद्र मोदी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार होंगे, सिकुड़ते राजग का अस्तित्व की खत्म हो सकता है। सिर्फ कांग्रेस की हालिया अलोकप्रियता भुनाने से बात नहीं बनने वाली। जब तक एनडीए का और विस्तार नहीं किया जाएगा, कुछ नहीं हो सकता। शिव सेना भाजपा से वैचारिक समानता के चलते राजग में बनी रह सकती है, तो अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल भी मोदी को पचा जाएंगे। यह पहले से ही साफ है कि नितीश कुमार मोदी को किसी हाल मंजूर नहीं होंगे। एनडीए के पुराने सहयोगियों में से जयललिता उनके साथ आ सकती हैं। लेकिन संप्रग से किनारा करने के बावजूद ममता बनर्जी मुसलिमों को नजरअंदाज करके राजग का हिस्सा बनने की जुर्रत शायद की कर सकें। नवीन पटनायक भी दूरी बना लेंगे। इस आलोक में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि राजग का विस्तार कैसे किया जाए?
गुजरात के हालिया नगर निकाय चुनाव में कुछ मुसलिम बाहुल्य वार्डों में भाजपा के उम्मीदवारों के जीतने को ऐसे पेश किया जा रहा है, जैसे मुसलमानों में भी मोदी की स्वीकार्यता बढ़ गई है। इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि जब पाकिस्तान में जनरल जिया-उल-हक की तानाशाही चलती थी, तो एक जनमत संग्रह कराया गया था कि देश में शरीयत कानून लागू होना चाहिए या नहीं? जवाब 'हां' या 'ना' में देना था। नतीजा आया तो, 99 प्रतिशत लोगों का जवाब 'हां' था। इस 'हां' की वजह समझना मुश्किल नहीं है। मोदी के दिल में मुसलमानों के प्रति कितना वैमनस्य है, यह इससे पता चलता है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए जारी की गर्इं केंद्र की उन 15 योजनाओं को लागू करने से इंकार कर दिया था, जिनमें मुसलमान छात्रों के लिए निर्धारित 53 हजार छात्रवृत्तियों दी जानी थीं। अब हाईकोर्ट ने उन्हें झटका देते हुए उनके उस फैसले पर फटकार लगाई है।
यूरोपियन संघ ने नरेंद्र मोदी का बहिष्कार खत्म करने के संकेत दिए हैं और अमेरिकी सीनेटर ने भी मोदी के विकास के गुणगान किए है। भाजपा इसे बड़ी उपलब्धि मानती है। लेकिन वह भूल रही है कि वे यूरोपियन देश हैं। अपने हित के लिए किसी को भी मंजूर या नामंजूर कर सकते हैं। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि यूरोपियन देशों के लोग भारत में वोट देने नहीं आएंगे। प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इसका फैसला भारत की जनता ही करेगी। भारत का एक बड़ा वर्ग समझता है कि मोदी आएंगे, तो देश विकास की राह पर सरपट दौड़ने लगेगा। प्रचारित किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता मे आने बाद गुजरात दुनिया में सबसे ज्यादा विकास करने वाला राज्य बन गया है। ऐसा कहने वाले जान लें कि गुजरात पहले से ही समृद्ध रहा है।
1992-93 में ही उसकी विकास दर 16.75 प्रतिशत थी। मोदी के सत्ता संभालने के बाद अधिकतम दर 12 प्रतिशत तक ही हो सकी है। 2001-2005 के दौरान गुजरात की विकास 11 प्रतिशत थी, जो 2006-2010 की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान घटकर 9.3 प्रतिशत की दर पर आ गई। इसी अवधि में बिहार की विकास दर 10.9 प्रतिशत रही, जो 2001-2005 में मात्र 2.9 प्रतिशत थी। अगर विकास के मुद्दे पर ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनती है, तो नीतिश कुमार भी इसके प्रबल दावेदार हैं। नरेंद्र मोदी आक्रामक और भ्रमित प्रचार शैली से अपने आपको ऐसा नेता प्रचारित करने में मशगूल हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त दावेदार है। इसमें दो राय नहीं कि उनकी शैली कामयाब भी होती दिख रही है। सवाल यह है कि क्या अगला लोकसभा चुनाव अकेले नरेंद्र मोदी लडेंÞगे या भारतीय जनता पार्टी, जिसमें उनकी दावेदारी के मसले पर घमासान मचा हुआ है?
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