अंतहीन जांच के रास्ते
अंतहीन जांच के रास्ते
Tuesday, 19 February 2013 10:55 |
कुमार प्रशांत जनसत्ता 19 फरवरी, 2013: सीबीआइ आज भ्रष्टाचारियों का राजनीतिक इस्तेमाल करने में, शासक दल की मदद करने वाली, रीढ़विहीन संस्था में बदल गई है। 2-जी घोटाले से जैसे ही परदा उठा, हमें यह देखने का मौका मिला कि अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक सरकार की दुम इसमें फंसी है। दूरसंचार विभाग के तब के मंत्री ए राजा सहित कितने ही अधिकारी जेल पहुंचाए गए, तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को जेल हुई। ऐसा लगा कि पहली बार भ्रष्टाचार के मामले में वे लोग पकड़े गए हैं जो सारी व्यवस्था को भ्रष्ट बनाते हैं, नौकरशाही के साथ मिल कर गंदी कमाई करते हैं। तिहाड़ जेल दिल्ली में बनाने की सार्थकता भी तब समझ में आई। लेकिन ये सारी गिरफ्तारियां जैसे एक अर्थहीन नाटक में तब्दील हो गर्इं। सारे आरोपी एक-एक कर जेल से छूट आए। अब ये सारे लोग अपनी-अपनी जगह पर पहुंचने और अपना पुराना रुतबा वापस पाने की कोशिश में लगे हैं। सारे दागी सांसद, विभिन्न संसदीय समितियों में जगह पाने लगे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के घोटालेबाज भी अपने पुराने खेल में जुट गए हैं। मनमोहन सरकार के लिए एक ही भला हुआ कि तमिलनाडु के चुनाव में द्रमुक की पराजय हो गई। मनमोहन सरकार द्रमुक के जिस दवाब में दम तोड़ रही थी, तमिलनाडु की जनता ने उससे उसे बचा लिया। भ्रष्टाचार के नए-नए पन्ने रोज खुलते जाते हैं और हम समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या सरकारों का कोई भी काम ऐसा है कि जो सीधी राह से, सीधे मन से किया जाता है? जवाब जानना हो तो सड़क पर चलते किसी भी आदमी को रोक लीजिए और पूछ लीजिए। उसका जवाब ही सारे देश का जवाब है। अभी-अभी करोड़ों रुपयों का वह घोटाला फूटा है जो हेलिकॉप्टरों से संबंधित है। दुनिया के बेहद महंगे इन हेलिकॉप्टरों का सामरिक महत्त्व क्या है, यह हमें अब तक कोई नहीं बता रहा है। हमें बताया यह जा रहा है कि ये वीवीआइपी श्रेणी के लोगों को लाने-ले जाने वाले हेलिकॉप्टर हैं। अगर ऐसा है तो इनका रक्षा मंत्रालय से क्या संबंध है? इसे फौज से या हवाई सेना से क्यों जोड़ा जा रहा है? इस सौदे के तीन हेलिकॉप्टर हमारे पास आ भी चुके हैं और वे सब अब तक प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और इनके कृपापात्रों को आसमानी सैर कराने के काम ही आ रहे हैं। फिर आप इसे रक्षा सौदे के तहत क्यों बता रहे हैं? ये हेलिकॉप्टर इतने महंगे हैं कि अमेरिका ने जब इन्हें खरीदना चाहा था तब राष्ट्रपति ओबामा ने यह कह कर इनका पत्ता काट दिया था कि हमें इतने महंगे हेलिकॉप्टरों की जरूरत ही नहीं है! जो हेलिकॉप्टर खरीदना अमेरिका को महंगा लगा वह हमने थोक में खरीदने का सौदा किया। क्या 3,546 करोड़ का यह सौदा महज ऐयाशी और तामझाम के लिए किया गया? अगर नहीं, तो हमें इसकी सामरिक जरूरत के बारे में शिक्षित किया जाए! इसे खरीदना जरूरी समझा अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने। इसकी तकनीकी कुशलता का जो मानक वायुसेना ने तय किया था उसे उससे नीचे के पायदान पर लाया वाजपेयी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र ने। ब्रजेश मिश्र प्रधानमंत्री वाजपेयी के चाहे जितने निकट रहे हों, हेलिकॉप्टरों की तकनीकी कुशलता के कितने निकट थे? उन्हें यह अधिकार कैसे मिला और किसने दिया कि वे रक्षा सौदों की गुणवत्ता का निर्धारण कर सकें? फिर आता है प्रणब मुखर्जी का नाम, जो तब रक्षामंत्री हुआ करते थे। आप रक्षामंत्री को राष्ट्रपति बना दें, अपनी बला से, लेकिन हेलिकॉप्टर को बैलगाड़ी तो नहीं बना दे सकते न! प्रणब मुखर्जी कैसे हेलिकॉप्टरों की सामरिक क्षमता के विशेषज्ञ बन गए? वायुसेना प्रमुखएसपी त्यागी ने कैसे इसे कबूल किया? त्यागी ने क्या यह आपत्ति उठाना जरूरी नहीं समझा कि हेलिकॉप्टरों की तकनीकी कुशलता परखना सेना का काम है, किसी राजनीतिक का नहीं और इसलिए वायुसेना ब्रजेश मिश्र या प्रणब मुखर्जी का आकलन मान कर नहीं चलेगी बल्कि अपना आकलन खुद करेगी। सेना ने शुरू से ऐसा कोई रुख लिया होता तो राजनीतिक सुविधा वाले निर्णयों पर रोक लगी होती। लेकिन सेना के, नौकरशाही के अधिकतर प्रमुख लोगों का रवैया ऐसा ही होता है कि ऊंची कुर्सी वाला जिससे खुश रहे, वह करो और अपने घर चलो! देखना यह चाहिए कि क्या सेना के आवरण में यह सौदा इसलिए किया जा रहा था कि इसकी निरर्थकता की तरफ, इस फिजूलखर्ची की तरफ किसी का ध्यान न जाए! तत्कालीन वायुसेना प्रमुख अब कह रहे हैं कि उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि उनके रिश्तेदार हथियारों के दलाल हैं। तो हम उनसे कहना चाहते हैं कि वे वायुसेना प्रमुख बनने की बुनियादी योग्यता भी नहीं रखते हैं! अब तो यह बात भी खुल गई है कि वे एकाधिक बार इटली के दलालों से भी मिले। इस सारे परिदृश्य में सीबीआइ कहां खड़ी होती है? हाल के दिनों में कभी केंद्र सरकार ने किसी मामले को सीबीआई को सौंपने में ऐसी तेजी नहीं दिखाई होगी, जैसी इस मामले में दिखाई है। रक्षामंत्री एके एंटनी ने देखते-न-देखते इस घोटाले की जांच सीबीआइ को सौंप दी। सीबीआइ को किसी मामले की जांच सौंपने के दो मतलब होते हैं।अब आप इस मामले की जांच में कोई सार्वजनिक तमाशा मत खड़ा कीजिए, क्योंकि देश की सबसे ऊंची जांच एजेंसी अपना काम कर रही है। और दूसरा यह कि घोटाले के उन सारे पहलुओं को धो-पोंछ दिया जा सकेगा, जिनसे राजनीतिक परेशानियां खड़ी हो सकती हैं! अब तक सीबीआइ हर मामले में ऐसा ही करने का हथकंडा बनी रही है। जन लोकपाल की परिकल्पना में बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि सीबीआइ को सरकारी चंगुल से आजाद किया जाए और इसके नियमन और संचालन के लिए स्वतंत्र व्यवस्था बने। उसकी परिकल्पना ऐसी है कि सीबीआइ लोकपाल के अधीन हो और उसके प्रति उत्तरदायी हो। लोकपाल सर्वोच्च न्यायालय के प्रति उत्तरदायी हो। सत्ताधारी कांग्रेस से लेकर कोई भी राजनीतिक दल सीबीआइ की इस परिकल्पना से सहमत नहीं है। सभी सीबीआइ की स्वतंत्रता चाहते हैं लेकिन तब तक, जब तक वे विपक्ष में हैं। सत्ता में आते ही सभी सीबीआइ नाम का डंडा अपने हाथ में रखना चाहते हैं। सीबीआइ के कार्यकलापों में सत्तादल की कदम-कदम पर दखलंदाजी होती है और वह राजनीतिक हथियार के तौर पर काम करती है, ऐसा हर सीबीआइ निदेशक खुलेआम बताता है- लेकिन अवकाश प्राप्ति के बाद! नौकरी करने और उससे जुड़ी सारी सुविधाओं और सुरक्षा का पूरा का पूरा फायदा उठाने लेने के बाद। अगर कोई दूसरी राजनीतिक फायदे वाली जगह नहीं मिली है, तो हर सीबीआइ प्रमुख और उसका बड़ा अधिकारी आपको बताएगा कि कब, कहां, कैसे किस सरकार या मंत्री ने उसका कैसे इस्तेमाल किया! लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, सुखराम आदि सभी सीबीआइ के मारे हैं और यह देश इनका मारा हुआ है। सीबीआइ के बनने से लेकर आज तक मुझे किसी भी निदेशक की याद नहीं है कि जिसने अपने कार्यकलापों में राजनीतिक दखलंदाजी का खुलेआम, जोरदार खुलासा किया हो और फिर बात इस्तीफे तक पहुंचा दी हो! अपने पेशे के बारे में, अपनी जिम्मेवारियों के बारे में, अपने सम्मान के बारे में और देश के प्रति अपने दायित्व के बारे में अगर इतनी सावधानी किसी सीबीआइ प्रमुख की नहीं है तो क्या वह इस पद का अधिकारी है? सड़क-चौराहे पर खड़े पुलिस कांस्टेबल से हम कितनी सारी अपेक्षाएं करते हैं लेकिन उनके अधिकारियों से ज्यादा रीढ़विहीन कोई देखा नहीं है हमने! सीबीआइ की कार्यकुशलता और उसकी तटस्थता का एक ही उदाहरण देना हो तो हम आरुषि हत्याकांड का उदाहरण ले सकते हैं। मुझे इसकी शिकायत नहीं है कि आरुषि हत्याकांड की गुत्थी अब तक नहीं सुलझी है। मेरी शिकायत यह है कि उसकी सारी की सारी गुत्थी सीबीआइ की अबूझ अकुशलता के कारण उलझी है। आरुषि अपने माता-पिता की कम, सीबीआइ के भोंडेपन की कहानी ज्यादा कहती है। मुझे लगता है कि किसी पुलिस अधिकारी को इस मामले की जांच सौंपी गई होती और उसे स्वतंत्रता से काम करने दिया गया होता तो उसने अब तक सारे मामले की जांच-परख कर, इसे सुलझा भी दिया होता और अपराधी जेल पहुंच चुके होते। लेकिन सीबीआइ ने उस पूरे कांड को इतना अशोभनीय औरभद््दा स्वरूप दे दिया है कि वह हमारे वक्त की बेहद करुण, अमानवीय दास्तान बन गई है। इस तरह दो बातें बचती हैं- सामान्य मामलों में भी सीबीआइ की तटस्थता और कार्यकुशलता बहुत कम दिखाई देती है और आज के स्वरूप में, राजनीतिक मामलों में उसकी स्वतंत्रता संभव ही नहीं है। फिर इस सीबीआइ को खत्म ही क्यों न करें हम? यह जनता का पैसा फूंकने वाली, बेहद खर्चीली व्यवस्था है जो जनता के प्रति (संसद के प्रति!) उत्तरदायी भी नहीं है। भयादोहन की इसकी क्षमता असीम है। यह रीढ़विहीन अधिकारियों की पनाहगाह बन गई है। ऊपर से नीचे तक के न्यायालयों ने कई-कई बार, कई-कई मामलों में इसकी कार्यप्रणाली की, इसकी सुस्ती की, इसके राजनीतिक झुकाव की तीखी आलोचना की है। सीबीआइ के कारण हमारी सामान्य पुलिस-व्यवस्था का स्तर इतना गिरा है कि वह हफ्ता वसूलने वाली एक सरकारी मशीनरी से ज्यादा कोई मतलब नहीं रखती है। उस पर न सरकार भरोसा करती है न समाज करता है। आज जरूरत इस बात की है कि इस पुलिस-व्यवस्था को झाड़-पोंछ कर खड़ा किया जाए। पुलिस के बिना हमारा समाज चले, ऐसा जब होगा तब होगा, अभी तो इतना हो कि हम अच्छी, सक्षम, कुशल पुलिस-व्यवस्था बनाने का अभिक्रम खड़ा करें। एक लोकतांत्रिक देश के समाज को सुचालित, संयमित और अनुशासित रखने वाली पुलिस कैसी होगी, इसकी कल्पना करें और उसमें रंग भरें तो सीबीआइ की इस बदरंग व्यवस्था के बोझ और खर्च से छुटकारा पा सकेंगे। |
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