विजय बहादुर सिंह जनसत्ता 20 फरवरी, 2013: भारतीय समाज में सच्चा कवि और लेखक तो अब तक वही माना जाता रहा है जिसे लोक-हृदय और लोक-भाषा की न केवल गहरी पहचान हो, बल्कि जो लोकानुभवों की बहुरंगी कल्पनाओं और भाव-तरंगों को अपने काव्य-संगीत में साकार कर सके। साहित्य अगर संवेदना की भाषा है तो कवि की भाषा में यह संगीत प्रतिपल प्रतिध्वनित होता रहे। इस दृष्टि से देखें तो छायावाद और राष्ट्रीय काव्य और कवियों के बीच भवानी प्रसाद मिश्र अपना मौलिक कवि व्यक्तित्व लेकर आए थे। मौलिकता की पहली पहचान उसकी अद्वितीयता हुआ करती है। वह किसी अन्य द्वारा बनाए गए रास्ते पर नहीं चलती बल्कि अपनी ही बनाई राह पर चलती है। तमाम तरह के विचारों, वादों और दर्शनों के प्रति बाकायदा बाखबर रहते हुए उसकी दृष्टि उस अनुभव-सत्य पर टिकी रहती है जिसे अकेली उसकी काव्य-प्रतिभा ने नहीं, एक समूचे जमाने ने परस्पर के संवाद और सहयोग से अर्जित किया है। कई बार किसी एक द्वारा पाए या अर्जित किए गए इस सत्य का अनुगायन अनुकरणगामी कवि भी करते देखे गए हैं, पर बात तो कभी भी बनती दिखाई नहीं देती। नकल तो अंतत: नकल ही साबित होती है। जिन दिनों पल्लव, आंसू, झरना, लहर, जुही की कली, बादल राग, पुष्प की अभिलाषा, वीरों का कैसा हो वसंत या फिर कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जैसी रचनाएं वातावरण में थीं, उस समय जो एक अन्य मौलिक कवि 'मधुशाला' लेकर आया, वह अपनी अनुभव दृष्टि में और लोक-सत्य में मौलिक ही कहा जा सकता है। पर बाद के कवियों और रसिक समाजों ने इसी के अगल-बगल, आसपास रचित 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख' जैसी पंक्ति को अपने लिए कहीं अधिक सार्थक, मार्गदर्शी और महत्त्वपूर्ण अनुभव करना और मानना शुरू किया। 'मधुशाला' की व्यापक लोकप्रियता किसे नहीं मालूम। उसकी मस्ती, उसके मानव-बोध, उसकी कालांतरगामिता को चुनौती तो आज भी किसी स्थिति में नहीं दी जा सकती। वह हिंदी कविता की एक खूबसूरत उपलब्धि है। पर उन्नीस सौ तीस की जनवरी में सत्रह साल के किशोर-कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ने खुद अपने लिए जो चारित्रिक शील तय किया वह जमाने के सारे कवियों से कुछ भिन्न था- यह कि तेरी भर न हो तो कह/और सादे ढंग से बहते बने तो बह/जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी/हमसे बड़ा तू दिख। यों सादगी की कोई कमी तो मैथिलीशरण गुप्त में भी नहीं थी पर उनका काव्य-संगीत उतना बहावदार नहीं था। उसमें बहुत कुछ अटकता और खटकता भी था। शब्दों की सार्थकता तो अपनी जगह असंदिग्ध थी पर शब्द-संगीत का माधुर्य जब-तब खटक जाता था। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने इसमें उर्दू शायरी की रवानी जोड़ी। इसलिए उनकी कविता केवल हिंदी के तद्भव या तत्सम शब्दों की कविता नहीं है। उसमें मीर-गालिब का काव्य-संगीत भी बहुत सारा मिला हुआ है। यों भी कहना चाहें तो कह सकते हैं कि नजीर, मीर-गालिब या फैज और फिराक ने जिस तरह हिंदी भाषी समाज के मुहावरों को अपनत्व दिया, हिंदी कवि भवानी मिश्र ने उर्दू भाषी समाज के मुहावरों को उसी तरह आत्मसात करके रचा। 'जी हां हुजूर/मैं गीत बेचता हूं' (गीत-फरोश) की याद करें तो मेरे कहने पर अपने-आप भरोसा हो उठेगा। एक तरफ भारत की भारती, एक तरफ लहर-कामायनी, मधुशाला और मधुबाला तो दूसरी तरफ 'गीत फरोश' जैसे कि देवनागरी में छपी किसी उर्दू शायर की शायरी हो। कवि भवानी प्रसाद मिश्र भाषा के कथित सांस्कृतिक काव्य-पर्व में मिली-जुली सामासिक संस्कृति लेकर आ रहे थे। वह एक प्रकार से हिंदी कविता का नया लोकतंत्र था जो धर्मों और अनुदार, ठस्स और जड़ता की ओर मुंह किए खड़ी सांस्कृतिक चेतना को नई दिशाएं सुझा रहे थे। इसलिए उनके 'हम' में केवल भगतसिंह, आजाद, रानी लक्ष्मीबाई ही नहीं, बहादुरशाह जफर और अशफाक उल्लाह खान भी बराबरी से मौजूद थे। याद करें तो भवानी प्रसाद मिश्र के आदर्श कवि दादा माखनलाल चतुर्वेदी 'पुष्प की अभिलाषा' जैसी अमर कविता लिखते हैं। कवि भवानी मिश्र जब इस तरफ आते हैं तब कुछ इस तरह लिखते हैं- 'फूल लाया हूं कमल के, क्या करूं इनका।' आदि-आदि। यों 'फूल' भी है तो 'पुष्प' घराने का ही, पर 'हम' वाला समाज पुष्प नहीं, फूल चढ़ाया करता है। कवि भवानी मिश्र ने इस गैप या दूरी को बगैर किसी झिझक के पाट दिया। आश्चर्य नहीं कि इसीलिए एक कवि के रूप में श्रोता-समाजों के बीच पहले लोकप्रिय हुए, कवियों और आलोचकों तक तो उनका नाम लगभग बीस-इक्कीस साल बाद पहुंचा। बहुत कुछ कबीर की तरह जो जनता से होकर साहित्यिक दुनिया के बीच कदाचित कुछ देर से पहुंचे। आज स्थिति उलटी है। अव्वल तो कवि अपने जन-समाज के बीच पहुंचना ही नहीं चाहता और जो पहुंच गए हैं उन कवियों को संदेह की निगाह से देखता है, उनकी रेटिंग भी घटा देता है। हिंदी कविता और कवियों की इस मानसिकता ने दोनों के बीच दुर्गम खाइयां खोद दी हैं। उन्नीस सौ इक्यावन में अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक में पहले कवि के रूप में आकर भी भवानी प्रसाद मिश्र सगौरव अगर कवि-सम्मेलनों में जाते रहे, बुलाए भी जाते रहे तो इसलिए कि वे दोनों ही दायरों का अतिक्रमण कर सकने में सक्षम थे। उनका कवि-व्यक्तित्व न तो कवि-सम्मेलनों में सीमित हो पाता था न उस अति बौद्धिक कारोबार हो उठी काव्य-गोष्ठी में जहां ज्यादातर लोग एक दूसरे की देखा-देखी या फिर पश्चिम की चोरी करके लिख रहे थे। दुखद यह कि यह चोरी आलोचना में भी चल रही थी। ध्यान दें तो उन्नीस सौ पैंतीस-छत्तीस के बाद आई प्रगतिवादी आलोचना ने जिन काव्य-प्रतिमानों की चर्चा शुरू की उनमें दण्डी, भामह, आनंद वर्धन और अभिनवगुप्त के नाम तो गायब थे ही, रामचंद्र शुक्ल, नंद दुलारे वाजपेयी और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गज आलोचकों की भी कहीं-कोई चर्चा नहीं थी। साहित्य में यह एक अजीब प्रकार का नवजागरण था जिसे कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने नकार दिया। इस खूबी के साथ कि तुम जिस जनता की बात कर रहे हो वह किताबी है, पर मेरी जनता तो निरंतर संघर्षरत है- वह कमेली है और कामिल है- वह तो जहां चाहिए वहां है/याने खेत में खलिहान में है/पहाड़ पर बियाबान में/... है। कवि की यह पंक्ति बरबस हमारा ध्यान खींच लेती है- 'क्या कवि के दलदल में फंसने से जनता का कुछ बनता है।' कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं- 'वे कहते हैं आओ/इस दलदल में खड़े होकर गाओ' और 'मैं सोचता हूं क्या दलदल जनता है... जनता दलदल में कहां है/वह तो जहां चाहिए वहां है।' साहित्य का यह दल-दल इतना प्रबल था कि आज भी खत्म नहीं हो सका है। यह और बात है कि इसमें ढेर सारी अच्छी-भली प्रतिभाएं धंसकर और फंसकर रह गर्इं- एकाध कोई शमशेर, एकाध कोई नागार्जुन और एकाध कोई मुक्तिबोध ही सही साबुत बचीं। इनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। प्रयोगवाद के साथ भी, यहां तक कि नई कविता में भी यह दलदल कम नहीं था। वहां बौद्धिक चमत्कार की गूढ़ गांठें बहुत थीं। संघर्षशून्य जीवन का अवसरवाद बेहद चिकना और सयाना था। फलत: यों भी इसमें वैसा ताप और तेज नहीं आना था जैसा कि अपेक्षित था। अज्ञेय, भारती जैसी प्रतिभाएं ही अपनी सिद्धि पर पहुंच सकीं। भवानी प्रसाद मिश्र काव्य की इस चमत्कारवादी धारा से कभी भी सहमत नहीं हो पाए। बल्कि इसके विरुद्ध ही रहे। पिछली धारा के लिए जन-यथार्थ जहां बैनर और फैशन था, इस धारा के लिए एक बाहरी और उपेक्षणीय वस्तु। यहां काव्य-वस्तु से कहीं अधिक कवि-कथन की प्रबलता के साथ-साथ काव्येतर प्रतिमानों- यथा नयापन, आधुनिकता- का आग्रह अधिक था। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लगभग झटकेदार तेवर में कहा- कवि न नया होता है, न पुराना। वह तो केवल कवि होता है। और प्रत्येक स्थिति में उसके होने का सबसे बड़ा निर्द्वंद्व अर्थ होता है कि जब भय और स्वार्थ से तमाम अभिजात, अनभिजात बौद्धिक आवाजें जिस-तिस रणनीति के तहत चुप्पी साध लेती हैं या हामीकार बन जाती हैं, कवि की आवाज आर-पार के इस अंधेरे को चीरती हुई सुनाई देती है। मुक्तिबोध ने ऐसी ही आवाजों को नमन करते हुए अभिव्यक्ति का खतरा उठाने वाली आवाज कहा था। और भवानी प्रसाद मिश्र में यह बान बचपन से ही थी। इसका एक कारण शायद यह रहा हो कि वे कोई समतल जमीन पर पैदा हुए और पले-बढ़े कवि नहीं थे। उनका बचपन और कैशोर्य ऐसे ही अगम-दुर्गम इलाकों के साहचर्य में गुजरा था- नदी-नालों और निर्झरों के साथ। वनों-पर्वतों के बीच। ऐसा न होता तो वे सन्नाटा (1936- तेईस बरस में), सतपुड़ा के जंगल (1939- छब्बीसवें साल में) कैसे लिख पाते। ये उनकी नहीं हिंदी की कालजयी कविताएं हैं। पर इनसे भी पहले चौदह-पंद्रह की उम्र में उन्होंने लिखकर बता दिया था- 'मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए/मुझसे ऐसी रेख खिंचेगी/जिससे सोना भी शरमाए।' और यह रेख उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी खींची, ऐन पके हुए बुढ़ापे में भी, आपातकाल के विरुद्ध 'त्रिकाल-संध्या' की कविताएं लिखकर भी। हिंदी के पाठक शायद यह सीधा अर्थ लगा लें कि वे एक राजनीतिक कवि थे, जैसा कि आलोचक आंख मूंदे मानते और कहते रहे कि वे एक गांधीवादी कवि थे। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने इन दोनों ही कथनों को नकारते हुए कहा कि उनकी कविता बुनियादी तौर पर अहिंसा और प्रेम की कविता है, पर इस अर्थ में तो कदापि नहीं कि वह अपने आसपास घटित होते किसी अत्याचार को लेकर आंख मूंद लेगी। कवि के लिए यह प्राथमिक और बुनियादी कसौटी है, पर उसकी कविता की सहज प्रवृत्ति तो उस लोक के प्रति होनी चाहिए जिसमें धरती, आकाश, हवा-पानी और आग के साथ समूचा जीव-जगत सांस ले रहा है। जहां सन्नाटा भी है, शोर भी, नर्मदा का रव-संगीत है तो पहाड़ी नालों और निर्झरों का झर-झर गीत भी। ये तमाम ध्वनियां, ब्रह्माण्डीय अनुगूंजें उनकी कविता में जैसा स्वर-समारोह संयोजित करती हैं, वह समकालीन हिंदी कविता की एक दुर्लभ उपलब्धि है। इसलिए नहीं कि इसे भवानी प्रसाद मिश्र नामक कवि ने लिखा है, इसलिए कि इन नैसर्गिक अनुगूंजों ने भवानी प्रसाद मिश्र नाम के कवि को पहचान दी है। एक बात जिसकी ओर शुरू में भी इशारा किया गया है वह यह कि भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में उस क्रांतिकारी भारत को खोजते रहे जो पश्चिमी अंधड़ों में भूल-भटक गया है। याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी भी लड़ रहे थे। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है। मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था, भवानी प्रसाद मिश्र उनमें सबसे विरल योद्धा थे। उनकी कविता में उनकी यह मुद्रा कभी भी निस्तेज नहीं होती बल्कि रोज-रोज उसकी तेजस्विता का सौंदर्य बढ़ता ही जाता है। न उसके घुटने मुड़ते हैं, न रीढ़ झुकती है। न चित्त भयभीत होता है और न आंखें मुंदतीं या झपकती हैं। |
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