दस्तावेजः जन्मदिन पर विशेष
लेखक : रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' , प्रस्तुति: कमल किशोर गोयनका
[हिंदी के विख्यात किंतु चर्चा से हटा दिए गए लेखक 'पहाड़ी' के संबंध में समयांतर में सामग्री का छपना प्रसन्नता का विषय है। इससे मेरे जैसे पुरानी पीढ़ी के लेखक के मन में 'पहाड़ी' के साहित्य और व्यक्तित्व के संबंध में स्मृतियां जागृत हुई, और नई पीढ़ी को ज्ञात हुआ कि हिंदी के मठाधीशों ने उन्हें तथा उन जैसे कितने उच्च कोटि के रचनाकारों को साहित्यिक परिदृश्य से विलुप्त कर दिया है। 'पहाड़ी' और उनकी पीढ़ी के लेखकों के लिए साहित्य और जीवन एक था, यश और धन-पद के लिए आज जैसा पागलपन न था और न साहित्य दक्षिण-वाम में बंटा हुआ था। ऐसा नहीं था कि सब कुछ पवित्र और शुद्ध था, किंतु साहित्य कर्म में पूरी ईमानदारी, तटस्थता और समर्थता थी। मेरे लिए 'पहाड़ी' ऐसे ही लेखक थे जिन्होंने अपने साथ से पर्वतीय जीवन के नए द्वार खोले और पाठकों को मौलिक साहित्य प्रदान किया। प्रेमचंद जन्म -शताब्दी वर्ष 1980 में प्रेमचंद पर लिखे संस्मरणों को एकत्र कर मैंने उसे 'प्रेमचंद : कुछ संस्मरण' शीर्षक से उसी वर्ष प्रकाशित किया। प्रेमचंद के संस्मरणों की खोज में मुझे 'पहाड़ी' का भी एक संस्मरण मिला जो 'मानवता का प्रतीक: प्रेमचंद' नाम से छपा था। यहां प्रस्तुत है यह संस्मरण जो दो बड़े लेखकों के संबंधों को तो उजागर करता ही है साथ ही 'पहाड़ी' के व्यक्तित्व और विचारों को भी समझने का भी अवसर प्रदान करता है। - कमल किशोर गोयनका]
प्रेमचंद के व्यक्तित्व को मैं अतीत की एक याद मात्र नहीं स्वीकारता हूं। मुझे आज भी उनके अंतिम समय का साहित्य, एक सबल गति से जनपदीय भाषाई लेखकों की रचनाओं में झांकता हुआ मिलता है। मेरा विश्वास है कि अपने जीवनकाल में, अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने जिन मानवीय गुणों की स्थापना की, वे आज भी हमारे समाज का मनोबल बढ़ा रही हैं। मैं उनको उर्दू का लेखक मानता हूं और उनकी भाषा हिंदी नहीं है। उनका अधिकतर साहित्य उर्दू से अनूदित हुआ है। यही कारण है कि एक भी हिंदी की कहानियों की पांडुलिपि उपलब्ध नहीं है। उन्होंने अपने पत्रों में अनुवादकों को पारिश्रमिक देने की चर्चा की है। उनकी हिंदी की कहानियों की भाषा भी उनकी प्रतिनिधि भाषा नहीं है। उस युग के प्राइमरी तथा मिडिल पास लेखकों, जिनका संस्कृत से लगाव था, उनकी हिंदी में एक ओज और गति है, जिसका कि प्रेमचंद में सर्वथा अभाव है।
सन् 1950 ई. में एक नवयुवक साहित्यकार मित्र ने लेख लिखकर साबित करने की चेष्टा की थी कि उनकी मृत्यु के लगभग 14 साल बाद, हिंदी का कथा-साहित्य प्रेमचंद युग से हजार कदम आगे ही आया है। वस्तुस्थिति यह थी कि महायुद्ध के बाद हमारे सामाजिक जीवन में एक भारी ठहराव आ गया था। फिर स्वतंत्रता के बाद हमारे समाज ने जितनी मंजिलें पार कीं, हमारे पारिवारिक जीवन में जो परिवर्तन हुए, देश का जन-जन जिन सांस्कृतिक और आर्थिक संकटों से गुजरा; उस सबका प्रतिघोष, प्रेमचंद की रचनाओं में प्राप्त उद्घोष, हमें उनके बाद यशपाल को छोड़कर अन्य किसी मौलिक लेखक में नहीं मिलता है। हमारा लेखक पाश्चात्य शिल्प का अनुयायी, अपनी सामाजिक दुनिया में त्रस्त, अपनी साहित्यिक परंपराओं से अनभिज्ञ, अपनी ही धरती से कटा हुआ, साहित्याकाश में झूलता हुआ-सा लगता था। यह नगरीय साहित्यकार साहित्य में भटकाव लाया। प्रेमचंद के अंतिम संस्कारों के उत्कृष्ट, दीप्त और कीर्तिमान बलवान चरित्र मात्र जनपदीय लेखकों और किसान और मजदूरों के साथ सामंती समाज से जूझते हुए लेखकों में हमें यदाकदा मिले।
हिंदी का कथा-साहित्य सन् 1935 ई. तक तो स्वतंत्रता-आंदोलन के साथ भारतीय दर्शन और समाज से जुड़ा मिलता है, उस समय वह बोलियों के साहित्य के निकट था। नगरीय सभ्यता के साथ उस पर अंग्रेजी साहित्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि आज वह उसका अनुगामी हो गया। हमारी भावात्मक शब्दावली, प्रकृति चित्रण, मुहावरे, बोलचाल तक की भाषा पर अंग्रेजी का वर्चस्व छा गया। बंगाली, मराठी, मलयाली आदि इतर भाषाई साहित्य अपनी-अपनी रीति-नीति, परंपरा वाले संस्कार, विधि निषेध आदि से जुड़े रहे। आगे हिंदुस्तानी भाषा का जो असंतुलित गठन हुआ, उसने हिंदी की मौलिकता को नष्ट कर दिया। स्वतंत्रता के बाद से आज तक तो हिंदी का भारतीय रूप और संस्कार सर्वथा नष्ट हो गए हैं। यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि 'संसार की सर्वश्रेष्ठ कहानियां' के संपादक ने अपने संग्रह में भारत की प्रतिनिधि कहानी 'नल-दमयंती' चुनी है। हमारी प्राचीन कहानियों में जहां देश का सुख-दुख, आशा-निराशा आदि मिलती है और मानव को श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनाने का आह्वान है, क्या आज हमारी कहानियां वह दे पा रही हैं? मैंने भारतीय लोककथाओं को लगभग 100 चुनकर उनको नया परिधान पहनाया, उनको किसी प्रदेश में वहां की संस्कृति, भूगोल, समाज और मानवीय गुणों से जोड़ा और उनको सभी ने पसंद किया। वे अपने युग की मान्यता संजोए हुए मिलती हैं, जिनका कि आज की कहानी में सर्वथा अभाव-सा है। हिंदी आज हमारी आकांक्षाओं को पूरी नहीं कर पा रही है। इस पर हमें गंभीरता से सोचना है। प्रेमचंद शती पर इसीलिए हमें उनकी कुछ कहानियों को फिर पढऩा होगा। वे अपने समय के समाज के प्रति जागरूक हैं।
मैंने सन् 1922 ई. से उनकी कहानियां पढऩी शुरू की थीं। मेरे पिता उस समय सिटी मजिस्ट्रेट थे। वे एक साहित्यकार और कवि थे। उनका अपना पुस्तकालय था। वे उस समय के पत्रों में लिखते थे। हमारा एक विशाल बंगला देहाती क्षेत्र में था। मैं वहां साधारण किसान और कर्मकार को देखकर उनकी कहानियों से उसे जोड़ता था। ग्राम जीवन के मानव का कर्मशील जीवन होता है। उसका निराला व्यक्तित्व भी होता है। वहां की धरती सनातन रूप में फसलें उगाती है। खेत कटते हैं और आगे की फसल का क्रम चलता है। बीज नन्हें बचपन से युवा हो आगे अन्न का भंडार भरते हैं। वहां की प्रकृति का ऋतुचक्र भी उनके समान ही कौतुक लाता है। प्रेमचंद लगता है कि एक प्राइमरी पाठशाला के अध्यापक के समान ब्लैक बोर्ड पर उस धरती के लोगों का क्रियाकलाप, उल्लास, सुख-दुख, घृणा, संपात आदि सभी के रेखाचित्र खींचकर हमें समझा रहा हो। वह मानो कि हमें आगे जीवन में आने वाली कठिनाइयों से संघर्ष करने वाला साहस दे रहा हो। वह उन लोगों की भावना इस रूप में देता है कि किसी का दिल न दुखे। बड़ी ममता के साथ उनके हृदय की धड़कनों की व्याख्या करता है। उस युग के सामंती खंडहरों के अवशेषों में बची हुई मानवता के प्रति भी उदार मिलता है। वह निम्नमध्यवर्ग की तहों को उभारकर, बड़ी ही सहानुभूति के साथ अपनी रचनाओं में उनकी चर्चा करता है। कभी लगता है कि वह किसी चौपाल में बैठा हुआ कहानी सुना रहा हो और हम हुंकारे भर रहे हों। मैंने दो साल पूर्व 'हिंदी की कालजयी कहानियों' का एक संकलन किया तो कहानी की आज की परिभाषा ढूंढऩे में मैं भटक-सा गया और उस पर लिखते हुए बार-बार सोचता था कि आगे कहानी कहां हमें ले जा रही है।
'गुल्ली डंडा', 'बड़े घर की बेटी', 'सुजान भगत', 'पंच परमेश्वर', 'आत्मा राम', 'बेटों वाली बुढिय़ा', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'कफन' आदि रचनाओं में जीवन का पूर्ण उभार है। वे अपने समय और उससे पूर्व के समाज की सही व्याख्या करते हैं। सन् 1914 ई. के महायुद्ध के बाद समाज ने जो नया मोड़ लिया था संयुक्त परिवार ने अपनी जर्जर केंचुली उतार फेंकी, उसकी एक नई तस्वीर मिलती है। भले ही उनकी वह चेतना उर्दू कहानी की परंपरावादी हो, वह उससे हटकर एक नई चेतना का आभास देती है। गांधीजी की भारतीय राजनीति में तो वे हमें 'रंगभूमि' के सूरदास के समान गांधीवाद के अंधे भक्त-से लगते हैं और जीवन के अंतिम समय में हम उनका मोहभंग पाते हैं। प्रारंभिक रचनाओं में वे भारतीय चिंतन की परंपरा से अलग-थलग रहते हैं और गांधीजी के प्रभाव के मध्यवर्ग और किसान के निकट आकर उसे बूझते हैं। फिर भी वे गदर और क्रांतिकारी आंदोलनों को छूने में हमें सक्षम नहीं मिलते हैं। एक समाजचेता की यह कमी अखरती है।
प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के निकट एक मुंशियाना परिवार में हुआ। यह 1880 का समय है। उस समय भोजपुरी में गदर के सिपाहियों की देशभक्ति के गीत देहातों के घर-घर में गूंज रहे थे। 19वीं शती के अंतिम दशकों में कांग्रेस का जन्म हुआ, बंगाल में ब्रह्म समाज और महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज के साथ आर्य समाज भी एक नई सामाजिक चेतना लाया था। वाराणसी में भारतेंदु और उनके साथी स्वदेशी भाषा और भेष के भाव में डूबे थे; फिर इस राष्ट्रीय तूफान से प्रेमचंद अलग क्यों रहे हैं? मात्र इसीलिए कि वे शासकीय अधिकारी थे? उस समय बंकिमचंद्र भी तो शासन के प्रमुख पद पर थे। प्रेमाचंद का इस भांति दूर रहना उनके उर्दू भाषाई सामंती संस्कार थे। वे उस समय हिंदी से न जुड़कर अंग्रेजी से जुड़े हुए रहे। वे उपनिवेशवादियों के यात्रा-वर्णन, किपगिंग की गाथाएं, अंग्रेजों के भारत पर लिखे संस्मरण और उनकी हमारे समाज के संबंध के विचारों वाली पुस्तकों तक सीमित रहे। उनमें वर्णित समाज उनका प्रेरणास्रोत रहा है। हिंदी और इतर भाषाओं का ज्ञान न होने के कारण वे भारतीय चिंतन की परंपराओं से कटे-से रह गए। यदि गांधीजी ने उनका हृदय-मंथन न किया होता तो हमें एक सक्षम साहित्यकार न मिलता। गांधीवाद के जमींदार-किसान, मजदूर-मालिक के बीच के भाईचारे का वे इसीलिए अपनी रचनाओं में पक्ष लेते हैं। वे निरंतर लिखते थे। लिखना उनका पेशा हो गया। 'कलम के सिपाही' के समान वे निरंतर नियमित रूप से लिखते थे। उस समय हिंदी पत्रिकाओं और उर्दू के रिसालों में उनकी रचनाओं की मांग थी। उनकी उर्दू भाषा मंजी हुई थी। वे उसमें लिखते और उनके अनुवाद हिंदी में छपते थे। लोगों में भ्रम होता था कि वे हिंदी में लिख रहे हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में हम गोर्की के समान एक विराट भारतीय समाज की तसवीर नहीं पाते हैं।
प्रेमचंद ने पाश्चात्य से अपनाए गए बंगाली गल्प का अध्ययन भी नहीं किया। वह अपनी ही अरबी-फारसी की किस्सागोई तक प्रारंभ में सीमित रहकर 'आत्माराम' के समान चमत्कार हमारे आगे प्रस्तुत करते हैं। वे समाज के प्रति चेतनाशील होने के कारण यदाकदा लोककथा को आधार बना मानव के मान-अभिमान, ईष्र्या-द्वेष, छल-कपट, घृणा-ग्लानि, वैर-विरोध आदि के साथ मानव को प्रेरणा देते हैं। हमने प्राचीन काल से सत्य की विजय, अनाचार के आगे सिर न झुकाना, अत्याचारी का विरोध किया है। प्रेमचंद का सामाजिक 'कैनवास' बंगाली कथाकारों के समान बृहद् न होने पर भी अपने सीमित दायरे और अनुभवों की कसौटी पर उन्होंने एक नया मानदंड स्थापित कर हमारे कथा-साहित्य को ऐसी राह दी कि आगे का फनकार भटकना भी चाहे फिर अंत में उसी लीक पर चलने के लिए विवश हो जाता है।
हमारी पीढ़ी उनकी आभारी है। हम सदा उनके प्रति नतमस्तक रहेंगे। उन्होंने हमारा संरक्षण का भार लिया और हमें सिखा-पढ़ाकर बड़े दुलार के साथ साहित्य में प्रतिष्ठित करने का भार उठाया। उस काल में सक्षम कथाकार लिख रहे थे। नए लेखकों को आगे लाने वाली आज के समान पत्रिकाओं की बाढ़ भी नहीं थी! हम जिला स्तर पत्रों तक सीमित थे। तब मैं शौकिया कहानियां 'माया' में लिखता था। कथा साहित्य का मुखपत्र हंस निकला तो मुझे प्रेरणा हुई कि उसमें अपनी रचनाएं भेजूं, और सच ही यह बड़ा आश्चर्य हुआ कि वे छपी ही नहीं, उन्होंने तो साहित्यकार गुरु की जिम्मेदारी लेकर हमारा अपने पत्रों के माध्यम से परीक्षण भी शुरू कर दिया। यही नहीं, हम लगभग 20 लेखकों की चर्चा अपने व्याख्यानों और लेखकों के बीच भी करने लगे। उनकी सहृदयता का एक दृष्टांत दूं। मई मास, 1934 में मेरी कहानी 'प्रम्बुलेटर' हंस में छपी और जहां वह रचना समाप्त हुई, उसके अगले पन्ने पर उनकी 'रियासत के दीवान' श्रेष्ठ रचना छपी है। यह मुझे उत्साहित करने को किया गया था। वे तो पत्रों में निरंतर लिखने को उकसाते थे। अन्य पत्रों में छपी कहानियों के संबंध में सुझाव देते थे। मैं स्वयं आश्चर्यचकित रह जाता था कि उनको इतना समय कैसे मिल जाता था।
अब मैं अपने को लेखक मानने लगा था और सन् 1935 ई. में एक कहानी 'अधूरा चित्र', माधुरी में छपने को भेजी। संपादक का पत्र मिला कि वह कहानी अंक में छप रही है और उसका संपादन प्रेमचंद कर रहे हैं। गढ़वाल जनपद से लौटने पर मैंने नजीबाबाद स्टेशन पर उसकी एक प्रति क्रय की। जब लखनऊ पहुंचा तो कई स्थानों से भटकता हुआ उनका एक पोस्टकार्ड मिला :
''आपकी 'अधूरा चित्र' कहानी अगस्त की माधुरी में देखी और मुग्ध हो गया, सैकड़ों बधाइयां। विषय इतना मनोवैज्ञानिक है और उसे ऊपर से इतनी खूबसूरती से निभाया गया है कि पूरा चित्र करुणा और व्यक्ति कल्पना के साथ आंखों के सामने खिंच जाता है। अब आप गल्प-लेखकों के पहले सफे में आ गए हैं, बल्कि बहुतों को पीछे छोड़ गए।''
मैंने उनको लिखा कि मेरे तरुण भाई की मृत्यु की छाया उस रचना में है तो उनका तुरंत सहानुभूतिपूर्ण पत्र मिला कि लेखक जब तक पीड़ा का अनुभव नहीं करेगा तो लिखेगा कैसे। यही लेखक की सफलता है कि यह मानवीय अनुभूति को सफलता से आगे लाकर विकसित करता है।
वह कहानी के विकास का स्वर्णयुग था। प्रेमचंद नए लेखकों की एक बड़ी कतार आगे ला रहे थे। कथा-साहित्य का विकास हो रहा था। हिंदी कहानी परिपक्व हो रही थी। हम लोगों में भी होड़ लगी थी कि अच्छा लिखें। भय होता था कि प्रेमचंद पढ़ेंगे और कहीं उनको पसंद न आई तो हम उनकी नजरों में गिर जाएंगे। दिल्ली रेडियो पर उनकी वार्ता थी। वे जैनेंद्र के यहां टिके थे। मैंने उनसे यह बात कही तो वे ठहाका मारकर हंस पड़े। उनका भाषण भी एक गोष्ठी में सुना और दो दिन में ही लगा कि अरे वे तो बड़े सरल और विनोदप्रिय हैं। इतना गंभीर साहित्य कैसे लिखते होंगे? उस समय उनके पास अंग्रेजी में छपे कई उपन्यास और कहानी-संग्रह थे। मैं उनको पढ़ता हुआ ही पाता था। कथाकार प्रेमचंद और मानव प्रेमचंद में मुझे उस समय कोई अंतर नहीं मिला। कथा-साहित्य पर हम नए लेखकों से बातें करते समय वे अपना नियोजित कार्यक्रम तक बिसार देते थे।
यह बात सच है कि प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों के ढांचों पर अंग्रेजी में प्रकाशित साहित्य का बड़ा प्रभाव रहा है। मैं यह बात नहीं मानूंगा कि यह अचेतन हुआ है। कुछ कहानियां अविकल अनुवाद-सी लगती हैं। इसका कारण यह था कि पत्रिकाओं की रचनाओं की मांग बढ़ रही थी। वे उनकी आर्थिक समस्या सुलझाती थीं। इसीलिए यदि किसी कहानी का स्वरूप उनके मस्तिष्क पर छा जाता था तो वे मूल कहानियां आगे रखकर लिखते थे। मेरे पास 'रौजर वी गुडमैन' की पुस्तक 'सेवेंटी फाइव शार्ट मास्टर पीसेज' है, जिसका प्रकाशक बनटन बुक्स, न्यूयार्क है। 'द लाटरी टिकेट', 'ए विकेड ब्वाय', 'ए गेम ऑफ बेलयड्र्स' और 'द ज्वेल ऑफ एम. लानटेन' के अविकल अनुवाद उन्होंने किए हैं। 'इंडिया थ्रू इंगलिश फिक्शन'—डॉ. भूपसिंह (ऑक्सफोर्ड)—पढ़कर लगता है, इस पुस्तक में दिए गए विषयों की छाप उनकी रचनाओं में है। भले ही ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने उस समय प्रेचंद की कटु आलोचना की हो, वह कड़वा सत्य है। मात्र उनको कोसने से वास्तविकता पर आंच नहीं डाल सकता है।
उनके वृहद् उपन्यासों का ढांचा अंगे्रजी के उपन्यासों पर आधारित है। उस समय की परिस्थिति ही यह थी कि हमारे पास पौराणिक कथाओं का आधार बहुत पुराना था। मुगलकाल के दरबारी रहस्य उर्दू-फारसी में थे। 'चंद्रकांता संतति' में ऐयारी थी और उर्दू में बंगाली साहित्य की परंपराएं नहीं थीं कि रमेशचंद्र दत्त के जहांगीर काल के ऐतिहासिक उपन्यास से लेकर बंकिम के समय तक का इतिहास और समाज कथा-साहित्य में मिलता। वे बंगाली नहीं जानते थे, उसका अनूदित साहित्य भी हिंदी में नहीं पढ़ सकते थे। पश्चिम में फ्रेंच, अमेरिकी और इंग्लैंड का अंग्रेजी का साहित्य पढ़कर वे औद्योगीकरण के नए समाज की बातें जानते थे। वहां की मान्यताओं का आधार लेते थे और हमारे देश में जो सामंती और जमींदारी प्रथा थी, उसका ज्ञान भी अंग्रेजों के माध्यम से लिखी पुस्तकों में मिलता था। फिर उनका ध्यान कथा-साहित्य को आधुनिक रूप में निखारने की ओर था। अंग्रेजी में चीनी और रूसी साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद हमें देर से मिले। जब तक वे उस समाज को समझकर हमें नई सामाजिक चेतना देते, उनकी मृत्यु हो गई।
वे भारतीय कथा-साहित्य के जनक थे। सभी इतर भाषाई लेखकों ने बंगाली को छोड़कर उनसे प्रेरणा ली। उन्होंने विश्व-साहित्य के साथ हमें जोडऩे का प्रयास किया। भले ही वे उर्दू के लेखक थे, हिंदी के निकट आए और उनके साहित्य से हमारे साहित्य को बल मिला। जिस समय हम उपनिवेशवादियों के साथ आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, उन्होंने एक सामाजिक चेतना देकर साहित्यकार का दायित्व निभाया। उन्होंने अपना संकल्प पूरा कर विश्व साहित्य में अपना स्थान बनाया। वे यदि निरंतर न लिखते रहते और उनकी रचनाएं पत्रों में न छपती होतीं तो एक नई पीढ़ी आगे न आती।
प्रेमचंद विश्व-साहित्य के विकास की गति की नब्ज पहचानते थे। भारतीय राष्ट्र के प्रति उनकी अटूट आस्था थी। वे स्वयं पूर्णकालिक लेखक का धंधा अपना चुके थे। वहां की मुसीबतों से जूझ रहे थे। लेखकों का साहित्यिक संरक्षण करते हुए भी सदा यही सुझाव देते थे कि यह पूर्णकालिक रोजगार न माना जाए। साहित्य-सेवा करने में भूखों रहना होता है। परिवार की समस्याएं हल नहीं होती हैं। इसीलिए हमें सदा किसी नौकरी पर लगकर लिखते रहने की बात सुझाते थे। बात सच है। एकमात्र श्री भगवतीचरण वर्मा स्वतंत्र लेखन-कार्य कर अपनी मर्यादा बना सके। अन्य लेखक प्रकाशक बने और लिखते रहे। आज भी वही स्थिति है। आज भी अन्य देशों के समान लिखना एक स्वतंत्र धंधा नहीं है। हमारे पास वे साधन उपलब्ध नहीं हैं कि हम अपने लेखक को संरक्षण दे सकें। आज तो एक भयावह बात और सामने आई है कि अंग्रेजी पुस्तकों पर आधारित सस्ता प्रेम, हिंसा का साहित्य तो आसानी से बिक जाता है। मौलिक साहित्य की पुस्तकें मात्र पुस्तकालयों तक सीमित हैं।
मैं अंतिम बार प्रेमचंद से बनारस में मिला था। उस समय वे शिवरानीजी के साथ अपने बंबई के सिनेमा-जगत से लौटे थे। भाई चंद्रगुप्त विद्यालंकार भी उस समय वहां थे। वे हमें सिनेमा-जगत का रहस्य बताते रहे और फिल्म अभिनेत्रियों की बातें भी चुटकी लेकर सुनाते रहे। उनका विचार था कि हंस को भारतीय कथा साहित्य का प्रतिनिधि पत्र बनाया जाए। यह हुआ भी, पर फिर वही अर्थाभाव आगे आया। हम उनके पुत्रों से अपेक्षा करते थे कि हंस उनके जीवन का प्रतीक बनकर अमर हो, यह भी नहीं हुआ, स्थिति तो आज इतनी भयावह है कि साधारण पाठक उनकी पुस्तकें क्रय नहीं कर सकता है। वे मात्र पाठ्य-पुस्तकों के धंधे तक सिमटकर रह गई हैं। मेरे एक मित्र ने जब उनसे चर्चा की कि प्रेमचंद शती है। हंसकर कहा कि क्या आज उनके साहित्य की कोई उपयोगिता रह गई है? वे भारतीय संस्कृति के माने हुए विद्वान हैं और साहित्य में उनकी रुचि है। आज प्रेमचंद का साहित्य हमारे पाठकों को उपलब्ध न होने के कारण यह धारणा जड़ पकड़ती जा रही है कि वह साहित्य हमारे पाठ्यक्रम की एक लड़ी मात्र रह गई है। उसका मानो कि कोई उद्देश्य नहीं था। इसके लिए प्रेमचंद के प्रकाशक जिम्मेदार हैं कि वे आज उनको साहित्य के इतिहास में बंद कर, पाठ्यक्रम तक उसे ले आए हैं। क्या वे प्रेमचंद-शती पर उनकी कहानियों का एक मानक संग्रह लागत मूल्य पर उपलब्ध नहीं करा सकते हैं? क्या यह उनकी पिता के प्रति सही श्रद्धांजलि नहीं होगी? उनको अपनी रायल्टी का मोह इस अवसर पर बिसार देना चाहिए।
मुझे प्रेमचंद एक प्रगतिशील कथाकार लगता है। यही कारण था कि 'प्रगतिशील लेखक संघ' की पहली लखनऊ वाली बैठक की उन्होंने सदारत की थी। उस समय का उनका भाषण आज भी अक्षर-अक्षर सत्य है और हमें नया रास्ता दिखलाता है। आज उनके साहित्य का नया मूल्यांकन होना चाहिए। सभी पक्षों पर विचार-विनिमय होना चाहिए। संस्तुति गाकर नहीं, उनके जुझारूपन और उनकी सही सीमाओं का बोध हमें होना चाहिए। यह बात भी विचार में लानी होगी कि क्यों प्रेमचंद प्रारंभ में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव से दूर रहा है। ठाकुर श्रीनाथसिंह ने जो प्रश्न आज से 50 साल पूर्व उठाए, उन पर नए सिरे से बहस किए बिना सही मूल्यांकन नहीं हो सकता है। वे उनको घृणा का प्रचारक मानते हैं। आखिर वे क्या परिस्थितियां थीं कि बृहद् उपन्यास को समाप्त करने के लिए वे अपने पात्रों को मार डालते हैं कि उपन्यास का कथानक समाप्त हो जाए? उनकी बहुचर्चित रचना 'कफन', जिसे हमारे साथी प्रगतिशील क्या कहते हैं, मुझे उसका अंत कृत्रिम-सा लगता है। मैं हरिजनों के बहुत निकट रहा हूं। वे शराब पीते हैं और पिछड़े होने के कारण उस समाज में कई बुराइयां भी हैं, पर पत्नी के कफन का पैसा दारू में उड़ा देना मुझे मात्र नाटकीय लगता है। हमारा हरिजन समुदाय धर्मपरायण है और भारतीय संस्कृति की सबल परंपराओं से जुड़ा है। यह कहानी यदि उनका प्रतीक मान ली जाए तो यह चिंतनीय होगा। इसी भांति 'सवा सेर गेहूं' में वे एक वर्ग का उपहास उड़ाते हैं। उसे उस वर्ग का नमूना पेश करते हैं। आखिर वे इन वर्गों के प्रति एक हीनभावना के शिकार क्यों थे? वे कौन-सी सामाजिक परिस्थितियां थीं कि जिन्होंने उनको इस प्रकार की कई कहानियों को लिखने के लिए प्रेरित किया?
फिर मुझे उनका 'विक्टोरियन आदर्शवाद' भी समझ में नहीं आता है। वह हमारा देशज नहीं है। हमारी संस्कृति में नारी पूज्य है, पर उसमें नारी-पुरुष के संबंध में हमें कहीं भी पौराणिक कथाओं में एक थोथा आदर्शवाद नहीं मिलता है। उस साहित्य में भी सामाजिक मान्यताओं के प्रति अपनी सबल आस्था रखी है। प्रेमचंद के कथानकों के अपवादों पर भी हमें नए सिरे से मूल्यांकन करना है।
अभी हमारा कथा-साहित्य पनप ही रहा था कि प्रेमचंद चले गए। उसके बाद हमारे साहित्य में ठहराव आ गया। हमारे बीच कोई सही दिशा और नेतृत्व करने वाला व्यक्ति नहीं रह गया। जैनेंद्र अपने व्यक्तिवादी मनोविज्ञान का परीक्षण अपनी कथाओं में करने पर तुले और अपनी अहिंदी भाषा की परिपाटी अंगे्रजों के शब्दों को तोड़-मोड़कर उस आधार पर खड़ी की। अज्ञेय ने अनोखा पथ अपनाया और शिल्प और भाषा से मोहने वाला मायाजाल उभार अपने पात्रों को अपने अहम् के भार से इतना दबा दिया कि मानो वे पुतले हों। युद्धकाल आया, जिसने हमारे समाज को झकझोर दिया। आजादी के बाद गोरी नौकरशाही की जगह काली नौकरशाही ने ले ली। पहले साहित्यकार प्रथम श्रेणी का नागरिक था, अब राजनेता ने उससे वह स्थान छीन लिया। अफसर दूसरे श्रेणी के नागरिक बन गए। बेचारा बुद्धिजीवी यही तलाश करता रह गया कि उसकी कौन-सी श्रेणी है। कुछ बुद्धिजीवी शासन के दरबारों से जुड़ गए। ईमानदार मौलिक लेखक का जीना मुश्किल हो गया। पूंजीवादी पत्रों के मालिकों ने शृंखला पत्रों की लड़ी से साहित्य पत्र भी जोड़ लिए और साहित्यिक पत्र बंद हो गए। पूंजीवादी व्यवस्था ने नए रूप में नागफांस से समाज को जकड़ लिया।
यह एक ऐसा बिखराव था कि लेखक स्वयं अपनी पहचान कर नए-नए नारे देने लगा। दिशा भ्रम के इस दौर में आम आदमी की खोज हुई, समसामयिक कहानी की पहचान का सवाल उठा, अकहानी की व्याख्या हुई। लोगों ने प्रेमचंद की सामाजिक चेतना पर भी प्रश्नचिह्न लगाए। कथाकार कम आलोचक अधिक उछलकूद मचाने लगे। यही नहीं, छोटे-छोटे गिरोह बने और एक-दूसरे की तारीफ के पुल बांधने लगे। कहानी शिल्प तक रह गई और कुछ ऐसा लगा कि कई लेखक इंटरनेशनल कहानियां लिख रहे हैं। मात्र नाम बदल देने भर से उनका संबंध किसी देश के साथ स्थापित किया जा सकता है। नागरीय कहानी कमरे में बंद होकर लिखी गई, तो कस्बे की कहानी को दूर से झांककर देखा गया। फिर भी बोलियों के कथाकारों ने अपने इलाकों के चरित्र और वातावरण उभारकर रखे, मुख्य रूप से मध्यप्रदेश और राजस्थान के भाषा के जातीय कथानकों में मात्र मुझे प्रेमचंद झांकता हुआ मिला। लगा कि अब उसका युग आ गया और वही हिंदी की कथाओं में नए प्राण संचारित करेगा।
मैंने यह अनुभव भी किया कि कहानी की भाषा से भारतीय संस्कार एकदम लुप्त हो गए और विचारों और सामाजिक मान्यताओं में अंग्रेजी कथा साहित्य के पूर्ण अनुयायी होने के कारण हिंदी भारतीय नहीं रह गई। मैं गढ़वाली बोली के इलाके का लेखक हूं। मेरी सदा यह मान्यता रही है कि जब भी मैंने वहां के बारे में लिखा तो मेरी रचनाओं में एक प्रवाह आया और मेरे दिमाग से अंग्रेजी का कुहासा हट गया। इसीलिए मैंने अपने जनपद की कहानियों का संग्रह 'इंद्रधनुष' छपवाया। मैंने आज तक अपनी किताबें कहीं इनाम पाने के लिए नहीं भेजीं। मुझे उस पर विश्वास नहीं है। मेरे प्रकाशक ने समझा कि मैं बड़ा लेखक हूं, उन्होंने मुझसे पूछे बिना ही वह पुस्तक भेज दी। एक मित्र ने बताया कि हिंदी के दो प्रोफेसरों का मत था कि मैं कहानी लिखना तक नहीं जानता। पुस्तक निम्नकोटि की मानी गई। जबकि मेरे मित्र पीतर बारानोकोफ इलाहाबाद आए तो उन्होंने बताया कि वे मेरी श्रेष्ठ कहानियां हैं। आज कथा-साहित्य पर हमारे कुछ विद्वानों का क्या मत है, वह इससे जाना जा सकता है। तभी मुझे लगा, हिंदी साहित्य ही नहीं, भाषा में गहरा संकट आ गया है। 48 साल हिंदी में कहानी लिखने के बाद आज मैं गढ़वाली भाषा में कहानी लिख रहा हूं। मेरे जनपद के मासिक हिंलास में मेरी कहानी छपी तो मेरे पास पाठकों के पत्र आ रहे हैं। मुझे अनायास याद हो आया कि सन् 1936-37 में जब मेरी कहानी छपती थी तो पाठक मुझे पत्र लिखता था, मुझे गढ़वाली में लिखने में पात्र ढूंढऩे नहीं होते हैं और कथानक एवं वातावरण, चरित्र स्वयं उभरते हैं। मैं अपने भाषाई साहित्यकारों से अनुरोध करूंगा कि यदि वे प्रेमचंद की परंपरा को जीवित रखना चाहते हैं तो अपनी मातृभाषा में लिखें और उसके अनुवाद हिंदी में छपवाएं। हमारा दायित्व है कि हम कथा-साहित्य को आगे बढ़ाएं।
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