सूखी नदी में सपनों का पानी, तैर रही है विकास की जहाजरानी
भूमि अधिग्रहण एवं 'सार्वजनिक हित'
♦ नेसार अहमद
पिछले वर्षों में देश में भूमि अधिग्रहण का मामला काफी पेचीदा हो गया है। सरकार न केवल बुनियादी ढांचे, सड़कें, बांध तथा सरकारी कंपनियों द्वारा खनन के लिए भूमि अधिग्रहित करती है बल्कि निजी कंपनियों द्वारा खनन, उद्योग तथा रीयल स्टेट, बुनियादी ढांचा विकास आदि के लिए भी जमीन अधिग्रहित करती रही है। सरकार द्वारा किसानों की निजी भूमि का अधिग्रहण 'सार्वजनिक हित' के नाम पर किया जाता है। परंतु निजी सार्वजनिक भागीदारी के इस उदार समय में सार्वजनिक एवं निजी हित गड्डमड्ड हो गये हैं।
उदारीकरण से पहले की स्थिति में सरकार द्वारा देश के विकास के लिए उद्योग लगाने, खनन करने, बांध बनाने आदि के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाता था, जिसे आमतौर पर सार्वजनिक हित में मान लिया जाता था। हालांकि विरोध तब भी होते थे तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा पर बन रहे बांधों से होने वाले विनाश का हवाला देते हुए बांधों के विरोध के साथ-साथ विकास की पूरी अवधारणा को नये सिरे से समझने पर जोर दिया। परंतु अब आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में निजी कंपनियां, जिनका उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना है, खनन से लेकर उद्योग लगाने तक ही नहीं बल्कि बांध, सड़क (6-8 लेन उच्च राजमार्ग), से लेकर निजी विश्वविद्यालय खोलने तथा पांच सितारा अस्पताल चलाने में भी लग गयी हैं। और इन सबके लिए सरकार उन्हें किसानों की भूमि अधिग्रहित करके दे रही है। इसके अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्र हैं, जहां जमीन के साथ-साथ कंपनियों को कई विशेष छूट भी दी जा रही है।
जैसा कि हम जानते हैं सरकार द्वारा निजी भूमि के अधिग्रहण, विशेषकर निजी कंपनियों तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए किये जा रहे अधिग्रहण का देश भर में किसानों, आदिवासियों, मछुआरों द्वारा जोरदार विरोध हो रहा है। कई बार यह विरोध हिंसक रूप ले लेता है। सरकार भी बल प्रयोग कर विरोधों हिंसक अंहिसक सभी आंदोलनों को दबाने का प्रयास करती है। परंतु इन आंदोलनों ने सरकारों को अपनी नीतियों तथा कानूनों पर पुनर्विचार करने के लिए भी विवश किया है। भूमि अधिग्रहण के मामलों में यह एक बड़ा प्रश्न है कि 'सार्वजनिक हित' को कैसे पारिभाषित करें। इस मामले में पिछले महिने जारी हुए ग्रामीण विकास मंत्रालय से जुड़े स्थायी संसदीय समिति ने भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक 2011 पर दी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट राय दी है।
हालांकि, संसद में पेश किये गये भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक 2011 में भूमि अधिग्रहण के साथ-साथ विस्थापित एवं प्रभावित लोगों के पुनर्वास की कानूनी आवश्यकता बनाने, विकास परियोजना के सामाजिक प्रभावों का आकलन करने, अधिग्रहित भूमि का अधिक मुआवजा देने जैसे कई सकारात्मक प्रावधान हैं, परंतु यह विधेयक निजी कंपनियों तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाले परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की वकालत करता है। हालांकि इसके लिए 80 प्रतिशत प्रभावित आबादी की सहमति होना आवश्यक होगा।
परंतु भारतीय जनता पार्टी की सांसद सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली स्थायी संसदीय समिति ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि सरकार उद्योग लगाने के लिए आवश्यक दो अन्य महत्वपूर्ण साधनों-पूंजी तथा श्रम का अधिग्रहण नहीं करती है तो फिर उसे निजी कंपनियों के लिए भूमि का अधिग्रहण क्यों करना चाहिए। स्थायी संसदीय समिति ने 'सार्वजनिक हित' को केवल सरकारी खर्च पर बन रहे बुनियादी ढांचे, बहुद्देशीय बांध तथा सामाजिक बुनियादी ढांचे जैसे स्कूल, अस्पताल, पेयजल, स्वच्छता परियोजनाएं आदि तक सीमित रखने का सुझाव दिया है। स्पष्टतः संसदीय समिति यह मानती है कि निजी कंपनियों की परियोजनाएं चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हों, मुनाफा कमाने के लिए हैं और उन्हें 'सार्वजनिक हित' नहीं माना जाना चाहिए। संसदीय समिति ने इस विधेयक में से निजी कंपनियों तथा सार्वजनिक निजी भागीदारी के लिए जमीन अधिग्रहित करने के प्रावधानों को हटाने की सिफारिश की है। साथ ही संसदीय समिति ने सरकारी अधिकारीयों को 'सार्वजनिक हित' को पारिभाषित करने का असिमित अधिकार दिये जाने का भी विरोध किया है।
स्थायी संसदीय समिति ने इसके अलावा भी इस विधेयक के कई प्रावधानों में परिवर्तन की जरूरत बतायी है। जैसे इस विधेयक की अनुसूची – 4 में 16 ऐसे केंद्रीय कानूनों की सूची दी गयी है, जिनके अंतर्गत अगर सरकार भूमि अधिग्रहण करती है तो इस विधेयक के प्रावधान लागू नहीं होंगे। असल में भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक 2011, 1894 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के स्थान पर लाया जा रहा है। परंतु इस कानून के अलावा भी 18 ऐसे कानून हैं, जिनका उपयोग सरकार निजी भूमि अधिग्रहण के लिए करती है। ये कानून विशेष उद्देश्यों, क्षेत्रों जैसे खनन, कोयला खनन, परमाणु उर्जा संयंत्र, रेल मार्ग, उच्च राजमार्ग बनाये गये हैं तथा इनमें से कई कानून स्वतंत्रता के बाद बने हैं।
संसदीय समिति ने इस प्रश्न को उठाते हुए कहा है कि इस प्रकार 95 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण के मामलों में इस नये विधेयक के प्रावधान लागू नहीं होंगे। अतः सरकार द्वारा बनाये गये इस कानून का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। भारत सरकार के भूमि विकास विभाग, जिसने यह विधेयक तैयार किया है, ने इस मामले में समिति के सामने दलील दी थी कि नये विधेयक में यह प्रावधान है कि केंद्र सरकार एक अधिसूची में शामिल किसी भी कानून पर इस बिल के प्रावधानों को लागू कर सकती है। भूमि विकास विभाग के इस दलील को खारिज करते हुए संसदीय समिति ने इस विधेयक से अनुसूची 4 को हटाने की जोरदार सिफारिश की है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकसभा के समक्ष रखे जाने से पूर्व सरकार ने इस विधेयक का जो मसौदा चर्चा के लिए जारी किया था उसमें अनुसूची 4 नहीं थी। उस मसौदा की प्रस्तावना में ग्रामीण विकास एवं रोजगार मंत्री जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा था कि नये विधेयक के कानून बन जाने पर इसको भूमि अधिग्रहण के अन्य सभी कानूनों पर वरीयता मिल जाएगी तथा इसके प्रावधान ने उन कानूनों पर भी लागू होंगे। परंतु बाद में जो मसौदा लोकसभा के पटल पर रखा गया, उसमें चुपके से 16 कानूनों की सूची लगा दी गयी, जिन पर नये विधेयक के प्रावधान लागू नहीं होंगे। स्थायी संसदीय समिति ने स्पष्ट कहा है कि विधेयक में से इस सूची को हटाया जाना चाहिए।
उसी प्रकार समिति ने अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण भरसक नहीं करने तथा यदि आवश्यक हो तो ग्राम सभा या स्वायत्त परिषदों की सहमति के बिना अधिग्रहण नहीं करने के प्रावधान विधेयक में जोड़ने की अनुशंसा की है। संसदीय समिति अनुसूचित क्षेत्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी भूमि अधिग्रहण के पूर्व ग्राम सभाओं या शहरी निकायों की अनुमति लेने तथा उनकी अधिक सक्रिय भूमिका पर जोर देती है।
अतः स्थायी संसदीय समिति की इस रिपोर्ट के बाद 'सार्वजनिक हित' के विवाद पर विराम लग जाना चाहिए तथा केवल देश हित में सरकार द्वारा लायी जा रही परियोजनाओं को ही 'सार्वजनिक हित' के दायरे में रखा जाना चाहिए। निजी कंपनियों या निजी सार्वजनिक भागीदारी अथवा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे भूमि अधिग्रहण पर रोक लगानी चाहिए। इसके साथ ही निजी या सरकारी कंपनियों द्वारा खनन के लिए ली जा रही जमीन को खनन की समाप्ति के बाद पुनः पहले जैसी स्थिति में ला कर जमीन के वास्तविक मालिकों को वापस करने का प्रावधान होना चाहिए।
इस विधेयक को लाकर सरकार ने यह मान लिया है कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में कई खामियां हैं। यह पहला मौका नहीं है जब सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को हटा कर नया कानून लाने का प्रयास किया है। इसके पहले 2007 में सरकार दो विधेयक लायी थी, जो 2009 में लोकसभा में पारित हुए परंतु राज्य सभा में इन विधेयकों के पारित होने से पहले ही 14वीं लोकसभा भंग हो गयी तथा ये विधेयक भी स्वतः समाप्त हो गये।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दूसरे कार्यकाल में दोनों विधेयकों को मिलाकर यह नया विधेयक बनाया गया है। अतः संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही पुराने भूमि अधिग्रहण कानूनों की जगह नये कानून लाने की आवश्यकता मान ली थी। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने गैर कांग्रेस शासित राज्यों में भूमि अधिग्रहण को राजनैतिक मुद्दा बनाकर चुनावी लाभ लेने का प्रयास भी किया है। साथ ही कई बार भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास के लिए नया विधेयक जल्दी ही पारित करवाने का भरोसा दिया है। अतः कांग्रेस सरकार को इस नये विधेयक के पारित होने तक भूमि अधिग्रहण पर पूरी तरह से रोक लगानी चाहिए। ताकि स्वतंत्रता के बाद से अब तक नाम का मुआवजा देकर किसानों को उनकी भमि से बेदखल करने की अन्यायी नीति समाप्त हो तथा भूमि अधिग्रहण संसदीय समिति द्वारा सुझाये संशोधनों के साथ पारित नये कानून के अनुसार हो। देश के सभी भागों में सैकड़ों आंदोलनों के द्वारा विरोध प्रकट कर रहे किसानों, आदिवासियों, दलितों, मछुआरों को इंसाफ तभी मिल सकेगा।
(नेसार अहमद। सोशल रिसर्चर। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। फिलहाल बजट एनालासिस राजस्थान सेंटर से जुड़े हैं। उनसे ahmadnesar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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