मुलम्मा, महामहिम!
मुलम्मा, महामहिम!
Sunday, 24 June 2012 16:55 |
मधुकर उपाध्याय जनसत्ता 24 जून, 2012: सबसे बड़ा ढूह शायद वही होगा। आपादमस्तक कचरा। सरापा। गली-मोहल्ले से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर तक के कूड़े के ढेर खिसक कर अंतत: उसमें शामिल होते हुए। महानतम और निकृष्टतम के लगभग बराबर योगदान के साथ। आम आदमी भी उसी में। सबके लिए जगह। जैसे वह ढूह महा-समाजवादी हो। कोई दुराव-छिपाव नहीं। भेदभाव नहीं। सबको समेटता चलता। सारा इतिहास-भूगोल वहीं। अर्थव्यवस्था वहीं। नैतिक-अनैतिक उसी का हिस्सा। गरज यह कि उसे बनाया सबने मिल कर। सामूहिकता की अद्भुत भावना के साथ। फर्क इतना कि बाद में उसे उलट-पुलट कर किसने क्या पाया, जो अंत में फिर वहीं चला जाना है। उसी महा-ढूह में। ताकि आने वाली नस्लें उसे देखें, समझें और हो सके तो नए किस्म का कचरा उसमें डालें। आमतौर पर वह सिर्फ दो शब्दों का बना होता है। बाकी उसी के लपेटे में। कोई दीदावर हो तो खोजते-खाजते वहां आसानी से पहुंच जाएगा। अक्सर उसमें निर्णयात्मक शब्द ही होते हैं। अनिर्णय की भी जगह रहती है। खासी बड़ी मात्रा में, लेकिन बस कुछ प्रतिशत की भागीदारी। असल ढूह में तो 'हां' और 'न' ही पाए जाते हैं। आर-पार के संदर्भ में। उल्ली ओर या पल्ली ओर की हिकमतों सहित। दुनिया, जो इस ढूह की सड़ांध के बावजूद आज तक कायम है और सांस ले रही है, अपने सारे सूत्र वहां तक ढूंढ़ सकती है। अनिर्णय उस गंगोत्री को मैला करता होगा, पर इतना नहीं कि तलहटी में गिरा सिक्का साफ दिखाई न दे। उसकी चमक आकर्षित करती है। बची रह जाती है। रास्ता दिखाती कि कोई चाहे तो वहां से गिनती एक बार फिर शुरू कर ले। या कुछ न करे तो कम से कम खुद को समझ जाए बेहतर। कचरे की तमाम खूबियों में यह शुमार है कि वह कभी अपनी पहले वाली सूरत अख्तियार नहीं करना चाहता। बदलना चाहता है। ख्वाहिश होती है कि कोई आए तो उसे नए ढंग से देखे। एक नई शुरुआत उसकी दरकार होती है, लेकिन वह भविष्य की दिशा तय नहीं करता। यह नहीं बताता कि इस 'हां', 'नहीं' या 'अनिर्णय' को किस तरफ ले जाना है। ज्यादातर लोग घड़ी की सुइयों के कायल होते हैं। आगे चलते हैं। पर एक जमात घड़ी को उलटा घुमाने वालों की रहती ही है। ढूह के दरवाजे उनके लिए भी खुले रहते हैं। कतई बेपरवाह कि वहां से अपने मतलब का कचरा उठाने के बाद कोई प्रगतिकामी होगा या अधोगामी। दोनों सूरतों में कचरे की पहली शर्त पूरी होती है कि वह पहले जैसा नहीं रहेगा। जितना कचरा लोग ढूह से उठाते हैं, उससे कुछ अधिक उसमें डाल जाते हैं। जैसे अथर्ववेद की ऋचाओं को उन्होंने आत्मसात कर लिया हो। कि जीवन धरती पर आश्रित है। उससे कुछ लिए बिना बचा नहीं रह सकता। लेकिन धरती के संसाधन चुक न जाएं, उसे किसी शक्ल में उतना लौटाना भी अनिवार्य है। लौटाने की यह आतुरता देख कर कलेजे को ठंडक पहुंचती है। लोग कतारबद्ध खड़े रहते हैं कि उनकी बारी आए। कुछ कतार तोड़ कर आगे निकल आते हैं। किसी हड़बड़ी में। अतिविशिष्ट लोगों की कतार अलग होती है, यह जानने के बावजूद कि अंतत: उनका कचरा भी कचरा ही होगा। कुछ पल बाद ढूह में पहुंच कर उसका कोई दूसरा नाम नहीं रहेगा। उसे आम कचरे से अलग करने में पीढ़ियां गुजर जाएंगी। तब भी तय नहीं होगा कि वह दूसरे कचरे से वाकई अलग हो। सुनने में अजीब लगता है कि लोग किस हद तक जा सकते हैं कचरा बनने के लिए। ऐसी भागमभाग। मारामारी। तत्पर होते हैं। प्राय: अपनी ओर से प्रयास करते। कुछ उन मामलों को छोड़ कर, जहां दूसरे धकेल कर उन्हें ढूह तक विदा कर आते हैं। इस तत्परता में भी एक आखिरी कोशिश होती है कि किसी तरह कुछ और समय के लिए जीवन में 'सार्थक' बने रहें। अंत में तो कचरा होना है, पर तब तक कुछ कुर्सियां बची रहें। पद बचे रहें। नाम बना रहे। इसी ऊहापोह में ऐसी दुर्गति होती है कि न 'सार्थक' रह पाते हैं, न पूरा कचरा बन पाते हैं। कचरे को ऐसी हीला-हवाली पसंद नहीं आती। यह उसके साम्राज्य को लगभग चुनौती देने माफिक है। उसे, जिसे अपने एकछत्र राज के लिए कभी अश्वमेध यज्ञ करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। वह जानता है कि अगर सचमुच कोई अविनाशी है, कचरा ही है। कचरा बनने की सामान्य प्रक्रिया में समय लगता है। उसकी अपनी गति होती है, अगर बाहरी कारक उसमें बिना बुलाए कूद न पड़ें। पर लगता है, सब अपनी आदत से मजबूर। खासकर उन मामलात में, जहां इज्जत जुड़ी होती है। ओहदे जोड़ दिए जाते हैं। लोकप्रियता और स्वीकार्यता की छद्म छवियां गलबहियां करती हैं। हाथ में हाथ डाल कर घूमती। इसी में गुमान हो लेता है कि बस, एक और कोशिश में हर्ज ही क्या है। क्या पता यही सही मौका हो कि कचरागाड़ी की रफ्तार मद्धम पड़ जाए। तथाकथित सार्थकता कुछ दिन और बची रहे। उसके हवाले से घोषित अंत को, जब तक संभव हो, टाला जा सके। हालांकि ऐसी कोशिश अक्सर अंजाम तक नहीं पहुंचती, उलटे कचरागाड़ी की गति बढ़ा देती है। कथित महानता और निकृष्टता के बीच फासला वैसे भी कम होता है। जैसे 'हां' और 'नहीं' के दरम्यान। एक बारीक-सी रेखा उन्हें विभाजित करती है, जिसके लुप्त होने का खतरा हमेशा बना रहता है। इसलिए भी कि उस रेखा पर धूल की परत चढ़े, सिर पर महानता की गर्द का तसला लिए लोग ढेरों मिल जाते हैं। उनकी संख्या कभी कम नहीं होती। इतना कम तो कतई नहीं कि रेखा मिटा देने के हामी उन्हें अनदेखा कर सकें। ऐसे में बचता सिर्फ विवेक है, जो प्राय: दुर्लभ होता है। कम ही पाया जाता है, उस समय और कम जब आंख पर महानता का चश्मा चढ़ा हो। निकृष्टता जिस आसानी से चश्मा चढ़ाती, उतारती, बदलती है, महानता नहीं कर पाती। जाहिर है, यह चश्मे के वजन की वजह से नहीं होता। न ही शीशे के रंग के कारण। वजहें कुछ और होती हैं, कहीं अलग ठहरी हुई। जैसे लटें सिर्फ हवा चलने से झूल कर माथे पर नहीं आतीं। उन्हें लाना पड़ता है। अदा के लिए तैयारी करनी पड़ती है। तैयारी में कमी रह जाए तो बेतरतीबी बदसूरत लग सकती है। ठीक उसी तरह कि वक्त निकल जाए तो सही फैसला गलत हो सकता है। गलत न भी हो, उसके मानी बदल सकते हैं। अर्थहीन होने की हद तक। 'हां' या 'नहीं' कहने का एक समय मुकर्रर होता है। उसके आगे-पीछे जो भी है, बे-लगन की शहनाई है। क्योंकि अनिर्णय का मुख्य भोजन 'महानता' है। कुतरता चलता है उसे। इसी में वक्त निकल जाता है, निर्णय को बेमानी बनाता। कुछ हाथ नहीं आता। उलटे, जो है वह भी निकल जाता है। माया मिली न राम कह कर मुंह चिढ़ाता। एक बार हाथ से छूट जाए तो उसे पकड़ना और वापस वहीं ला खड़ा करना नामुमकिन हो जाता है। इससे ज्यादा नुकसान उस मुलम्मे को होता है, जो महानता दिलो-दिमाग पर चढ़ाए रहती है। जिसके गीत ढोलकिए गाते घूमते हैं। जो हकीकत से निहायत दूर हो सकता है। बकौल दुनियादारों के, असल तो मुलम्मा ही है। वही दिखता है। वही बिकता है। हकीकत को कौन पूछता है। एक बार मुलम्मा उतर जाए तो सब कांसा। यही छवि है और इसी की तूती बोलती है। जितने महानायक हैं या रहे होंगे, कोई सौ फुट का नहीं हुआ। ज्यादा से ज्यादा छह-फुटे रहे होंगे। यह तो छवि है कि रखरखाव की इतनी जरूरत पड़ती है। कोई आमादा हो छवि का लबादा उतार फेंकने पर तो उसकी मर्जी। यह निर्णय आखिरकार छवि को ही करना होता है। आखिरी फैसला ढोलकिए नहीं कर सकते। कचरागाड़ी जब इधर से गुजरेगी, लबादा उठा ले जाएगी। पहले लबादा उस ढूह में पहुंचेगा। फिर इज्जत जाएगी। कलई का सारा सामान जाएगा। पीछे से, धीरे-धीरे, असली कचरा वहां पहुंच जाएगा। तब तक विवेक बचा होगा तो शायद इस बात पर अफसोस करता हुआ कि उस एक फैसले में उसने ढोलकियों की क्यों सुन ली, जिन्हें मुलम्मे से ज्यादा कुछ चाहिए ही नहीं था। दो अक्षर का वह शब्द 'नहीं' बोलने में उसे इतना वक्त क्यों लगा। क्या इसलिए कि ढोलकिए वही धुन बजा रहे थे, जो उसका मन गा रहा था। आखिर बुरा भी किसे लगता है कि कुछ साल और 'सार्थक' बने रहें। चश्मा चढ़ा रहे। हवाएं लटों से खेलती रहें। |
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