बिनायक मामले की गलतियों से सबक लें सीमा के सरोकारी
सीमा की गिरफ्तारी सिर्फ मानवाधिकार का मसला नहीं
आज वक्त अपने-अपने सपनों से वशीभूत होकर जनपक्षीय ताकतों के बीच उभरती व्यापक एकता तो खंडित करने का नहीं है. आज वक्त है कि तमाम राजनैतिक बन्दियों की बिना शर्त रिहाई के लिए मुहिम शुरू करें...
अर्जुन प्रसाद सिंह
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के एक जिला एंव सत्र न्यायालय ने 8 जून को राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आजाद और विश्वविजय को आजीवन कारावास के साथ-साथ 75-75 रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुना दी.इस अन्यायपूर्ण 'न्यायिक फैसले' ने न केवल देश की जनवादी-क्रान्तिकारी ताकतों, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले समूहों/नागरिक अधिकार संगठनों को भी उद्वेलित कर दिया है.
करीब दो माह पूर्व 16 अप्रैल 2012 को बिहार के पटना उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने बथानी टोला के जघन्य जनसंहार के मामले में एक ऐसा ही अन्यायपूर्ण फैसला किया था, जिसमें 21 गरीबों की नृशंसतापूर्वक हत्या करने वाले कुख्यात रणवीर सेना के दरिन्दों को बरी कर दिया गया था.इस पक्षपातपूर्ण फैसला के खिलाफ भी मीडिया व राजनैतिक हलकों में काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई, जो अभी जारी है.
उसी प्रकार सीमा आजाद और विश्वविजय को उम्र कैद व जुर्माने की सजा सुनाने के बाद सामाजिक सरोकार से वास्ता रखने वाले लोगों और संगठनों/समूहों के बीच कई प्रकार के सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं.क्या किसी जनपक्षीय पत्रिका को सम्पादित करना औरजनवादी/ मार्क्सवादी साहित्य खरीदना व पढ़ना-पढ़ाना एक अपराध है? क्या छात्रों, मजदूरों, किसानों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों व आदिवासियों को संगठित करना और उनके ऊपर होने वाले शोषण-दमन के खिलाफ आवाज उठाना एक जुर्म है? क्या पुलिस-प्रशासन द्वारा चलाये जा रहे राजकीय दमन और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, ठेकेदारों व माफिया गिरोहों के लूट-खसोट के खिलाफ कलम उठाना राजद्रोह है? क्या मार्क्सवाद-लेनिनवाद या माओवाद में आस्था रखना और उसका प्रचार-प्रसार करना कोई गैरकानूनी गतिविधि है? और फिर क्या शासक-शोषक वर्गों की दमनकारी सत्ता व व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाने, यानी उसकी जगह एक न्याय संगत जनपक्षीय सत्ता व व्यवस्था स्थापित करने की बात करना कोई देशद्रोही कार्रवाई है?अगर हम सीमा आजाद व विश्वविजय की राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक गतिविधियों और इलाहाबाद पुलिस द्वारा उन पर लगाये गए आरोपों पर गौर करें तो उपर्युक्त सवालों के जवाब तलाशे जा सकते हैं.
विश्वविजय एक प्रतिबद्ध राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं.उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा 1992 में शुरू की जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे.उस वक्त वे 'समाजवादी क्रान्ति' के लक्ष्य को लेकर सक्रिय छात्रों की एक टीम के साथ इलाहाबाद की झोपड़पट्टियों में जाकर गरीब बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया करते थे.बी.ए. पास करने के बाद उन्होंने एम.ए. (हिन्दी) में दाखिला लिया और इलाहाबाद से निकलने वाली एक लोकप्रिय पत्रिका 'इतिहास बोध' से अपना रिश्ता बनाया.वे 'इतिहास बोध मंच' द्वारा आयोजित अध्ययन शिवरों व साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जोश-खरोस के साथ भाग लेने लगे.इसी दौरान मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति उनकी आस्था मजबूत हुई.1994 में उन्होंने एक पेशेवर राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय लिया और नौकरी के लिए आवेदन देना बंद कर दिया.
जब साम्राज्यवादी पूंजीवादी लूट-खसोट एवं सभी प्रकार के भेदभाव व शोषण-दमन को मिटाने की विचाराधारा के आधार पर उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में 'विकल्प छात्र मंच' का गठन हुआ तो उन्हें इलाहाबाद इकाई का संयोजक बनाया गया.फिर कुछ समय बाद 'इंकलाबी छात्र सभा' का गठन हुआ तो उन्हें उसका उपाध्यक्ष बनाया गया.इस छात्र संगठन में जब भारतीय व्यवस्था और शासक वर्ग के चरित्र को लेकर तीखी बहस हुई तो उन्होंने उस पक्ष को अपना समर्थन दिया जो मानते थे कि भारतीय समाज व्यवस्था पर साम्राज्यवाद-सामन्तवाद का व्यापक प्रभाव है और भारतीय शासक वर्गों का चरित्र 'दलाल' का है.
इस बहस का नतीजा यह हुआ कि 'इंकलाबी छात्र सभा' विभाजित हो गई और उसके बाद इलाहाबाद में एक नये छात्र संगठन के रूप में 'इंकलाबी छात्र मोर्चा' का गठन हुआ.इसके स्थापना सम्मेलन में विश्वविजय को ही इसका अध्यक्ष चुना गया.विश्वविजय के कुशल नेतृत्व में शीघ्र ही इंकलाबी छात्र मोर्चा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं के बीच अपनी अच्छी राजनैतिक पहचान बना ली.फलस्वरूप विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में भी इस छात्र मोर्चा के एक उम्मीदवार की जीत हुई.इसी दौरान विश्वविजय की पहल पर 'छात्र मशाल' नामक एक अनियतकालीन पत्रिका का प्रकाशन भी किया जाने लगा, जिससे इंकलाबी छात्र मोर्चा के बैनर तले छात्रों-छात्राओं की गोलबंदी और तेज हुई.जुलाई 2006 में 'भगत सिंह के सपनों के भारत के निर्माण में अपनी हिस्सेदारी निभाने' के लिए इंकलाबी छात्र मोर्चा 'भारत का लोक जनवादी मोर्चा' (पीडीएफआई) का एक घटक संगठन बन गया.
इन्हीं राजनैतिक गतिविधियों के दौरान विश्वविजय की दोस्ती सीमा से हुई जो जल्द ही प्यार में तब्दील हो गई.फिर 2002 में तमाम रूढिवादी मूल्यों को तोड़ते हुए दोनों ने एक छोटे व सादे समारोह में शादी कर ली.आगे चलकर विश्वविजय ने खेत मजदूरों व किसानों को भी संगठित करने का बीड़ा उठाया.फिर उन्होंने उत्तर प्रदेश में कार्यरत विभिन्न छात्र, युवा, महिला, किसान व अन्य जनवादी-क्रान्तिकारी संगठनों को मोर्चाबद्ध कर एक सशक्त जन आन्दोलन खड़ा करने की भी जिम्मेदारी ली.इसके पहले कि वे किसानों को संगठित और जनवादी- क्रान्तिकारी शक्तियों को मोर्चाबद्ध करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाने में सफल होते, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने उन्हें जेल की चहारदीवारी में बंद कर दिया.
इसी प्रकार विश्वविजय की हमसफर सीमा आजाद (जिसे लोग शादी के पूर्व सीमा श्रीवास्तव के नाम से जानते थे) का राजनैतिक जीवन भी काफी संघर्षशील व प्रेरणादायक रहा है.उन्होंने भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. (मनोविज्ञान) की डिग्री प्राप्त की.पढ़ाई के दौरान ही उनके अन्दर सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने की भावना पैदा हुई और वह 1995-96 से छात्र व महिला संगठनों की गतिविधियों में शामिल होने लगीं.वह 2001 तक नारी मुक्ति संगठन के बैनर तले कार्यरत रहीं.इसके बाद वह इंकलाबी छात्र मोर्चा की गतिविधियों में सक्रिय हुईं और इस छात्र संगठन से उनका घनिष्ठ लगाव 2004 तक बना रहा.फिर उसने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले अखबारों में जन सरोकार से जुड़े मुद्दों पर लिखना शुरू किया.बहुत जल्द ही वह इलाहाबाद में एक अच्छे पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हो गईं.
विश्वविजय जैसे एक पेशेवर क्रान्तिकारी कार्यकर्ता से प्रेम विवाह करने के बाद सीमा की राजनीतिक गतिविधियां और तेज हुईं.अब उसने संघर्षरत जनता की आवाज को बल देने और जन संघर्षों को सही दिशा प्रदान करने के लिए कई जनपक्षीय लोगों के साथ मिलकर 'दस्तक नये समय की' नामक एक द्वैमासिक पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन शुरू किया.ज्ञातव्य है कि इंकलाबी छात्र मोर्चा की तरह 'दस्तक' पत्रिका भी अपने लक्ष्यों को व्यापक आयाम देने के लिए पीडीएफआई में शामिल हुई और सीमा ने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद इलाहाबाद में आयोजित पीडीएफआई के सभी कार्यक्रमों को सफल बनाने में अपनी भूमिका अदा की.
दस्तक पत्रिका की ओर से 'गंगा एक्सप्रेस वे' परियोजना से होने वाली क्षति का मूल्याङ्कन के लिए एक सर्वेक्षण किया गया.इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को एक पुस्तिका के रूप में छापकर जनता के बीच वितरित किया गया.जब आजमगढ़ के कुछ मुस्लिम युवाओं को 'आतंकी गतिविधियों में शामिल होने' का झूठा आरोप लगाकर गिरफ्तार व प्रताडि़त किया गया तो इसके खिलाफ 'दस्तक' में एक विस्तृत रिपोर्ट छापी गई.इसी तरह सीमा आजाद ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार पर हो रहे पुलिसिया हमले, दलितों, विशेषकर मुसहर जाति की दुर्दशा, इन्सेफलाइटिस से हो रही मौतों, कानपुर के कपड़ा मजदूरों की दयनीय स्थिति, माफिया, राजनेता व पुलिस प्रशासन के गठजोड़ से चल रहे अवैध बालू खनन एवं उससे होने वाली लूट आदि के बारे में अपनी पत्रिका 'दस्तक' में काफी तथ्यपरक रपटें छापीं.साथ ही साथ, उसने केन्द्र सरकार के प्रत्यक्ष निर्देशन में नक्सलवादी/माओवादी आन्दोलनों को कुचलने के उद्देश्य से देश के विभिन्न राज्यों में चलाये जा रहे 'आपरेशन ग्रीन हंट' नामक विशेष राजकीय दमन अभियान को केन्द्रित करते हुए 'दस्तक' का एक खास अंक भी निकाला.
सरकार द्वारा पंजीकृत 'दस्तक' पत्रिका के नियमित प्रकाशन पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए हाल के वर्षों में सीमा ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में भी अपनी पहचान बना ली.मानवाधिकार पर हो रहे क्रूर राजकीय हमलों के खिलाफ एक जोरदार आवाज़ बुलन्द करने के लिए सीमा ने पीयूसीएल की वाजाप्ता सदस्याता ग्रहण कर ली और शीघ्र वह देश स्तर पर प्रतिष्ठित इस नागरिक अधिकार संगठन की उ.प्र. इकाई की सांगठनिक सचिव बन गई.इसके अलावा उसने क्रान्तिकारी महिला आन्दोलन को अग्रगति देने और उ.प्र. स्तर पर एक साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच का निर्माण करने में भी अपना योगदान देना शुरू किया.इस लक्ष्य के साथ उ.प्र. के कुछ जिलों में कई कार्यक्रम भी आयोजित किए गए.लेकिन इसके पहले कि वह अपने इन नये कार्यभारों को पूरा करने की दिशा में काई ठोस कामयाबी हासिल कर पाती उसे मनगढंत आरोपों में फंसाकर इलाहाबाद के नैनी केन्द्रीय जेल में विश्वविजय के साथ कैद कर दिया गया.
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विश्वविजय व सीमा आजाद के नेतृत्व में चल रही राजनैतिक-सामाजिक गतिविधियां उ.प्र. के शासकों और उनकी सेवा में लगे पुलिस-प्रशासनिक हुक्मरानों को नाराज करने के लिए काफी थीं.तथ्य तो यह है कि 2009 के अंत में उन्हें उ.प्र. के डी.जी.पी. की ओर से अप्रत्यक्ष रूप से धमकी भी मिल चुकी थी.आखिरकार विश्वविजय और सीमा आजाद को 6 फरवरी 2010 को पौने बारह बजे दिन में सादी वर्दी में खड़े एस.टी.एफ. द्वारा इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के पास गिरफ्तार कर लिया गया.
उस दिन सीमा दिल्ली पुस्तक मेला से कुछ जनवादी-माक्र्सवादी साहित्य खरीदकर रीवा एक्सप्रेस से इलाहाबाद पहुंची थी और विश्वविजय उसे लेने के लिए मोपेड से स्टेशन आये थे.जैसे ही वे दोनों स्टेशन से सिविल लाइन की ओर निकलकर अपने मोपेड के पास पहुंचे, एस.टी.एफ. द्वारा उन्हें मार-पीट कर एक गाड़ी में ढूंस दिया गया.उन्हें रात भर पुलिस लाइन में रखकर पूछताछ की गई और अगले दिन खुल्दाबाद थाना को सुपूर्द कर दिया गया.खुल्दाबाद थाना में इन दोनों प्रतिबद्ध राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ केस नं. 37 /2010 दर्ज किया गया और उन्हें 'माओवादी' करार देकर और गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) कानून (यूएपीए) और आईपीसी की कई संगीन धाराओं को लगाकर नैनी केन्द्रीय कारागार, इलाहाबाद भेज दिया गया.उन्हें वास्तव में पौने बारह बजे दिन में एसटीएफ द्वारा हिरासत में लिया गया लेकिन एफआईआर में गिरफ्तारी का समय रात में साढ़े नौ बजे दर्ज किया गया.
एक तो गिरफ्तारी के समय उच्चतम न्यायालय व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया और दूसरे उन्हें 24 घंटे के बाद कोर्ट में पेश किया गया.इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान भी कई प्रकार की गड़बडि़यां की गईं.दोनों को गैरकानूनी तरीके से पुलिस रिमांड में लिया गया, जबकि पहले अदालत द्वारा दो बार रिमांड की अर्जी खारिज कर दी गई थी.इस गैरकानूनी रिमांड के दौरान उनकी शिनाख्त पर कई ऐसी चीजों/दस्तावेजों की बरामदगी दिखाई गई जो उनके पास उपलब्ध नहीं थीं.
पुनः रिमांड के दौरान जो भी सामग्री मिली थी उन्हें विधिवत सीलबन्द किया गया था.लेकिन पुलिस स्टेशन में उसे बिना कोर्ट की अनुमति के 'अध्ययन के लिए' खोला गया और ट्रायल कोर्ट ने इस गैरकानूनी हरकत को आपत्तिजनक नहीं माना.इसी प्रकार पुलिस ने सीमा के केवल 5 फरवरी 2010 तक के मोबाइल काल डिटेल्स को कोर्ट में पेश किया.उसने जानबूझकर 6 फरवरी 2010 के काल डिटेल्स पेश नहीं किए ताकि इस तथ्य को छिपाया जा सके कि सीमा व विश्वविजय की गिरफ्तारी 11.45 बजे कर ली गई थी.इसके अलावा अभियोजन पक्ष कोर्ट में कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दे पाया जिससे यह साबित किया जा सके कि विश्वविजय व सीमा प्रतिबंधित सी.पी.आई. (माओवादी) पार्टी के सदस्य/कार्ड होल्डर हैं.
लेकिन अभियोजन की उपर्युक्त सारी कमजोरियों के बावजूद जिला एवं सत्र न्यायाधीश सुनील कुमार सिंह ने विश्वविजय व सीमा आजाद जैसे जनपक्षीय कार्यकर्ता को 8 जून 2012 को आजीवन कारावास व 75-75 हजार रुपये जुर्माना भरने की कठोर सजा सुना दी.वैसे यूएपीए की धारा 13 /18 /20 /38/39 एवं आईपीसी की धारा 120 बी/121 ए के तहत कुल मिलाकर दोनों को 45-45 साल के कठोर करावास की सजा सुनाई गई, हालांकि उक्त सभी सजाओं को धारा 121 के तहत दी गई आजीवन कारावास की सजा के साथ-साथ चलने का आदेश दिया गया.
ध्यान देने की बात है कि विश्वविजय व सीमा आजाद की गिरफ्तारी मायावती राज में हुई थी जबकि ये दोनों दलित-उत्पीड़त जनता की मुक्ति के लिए आवाज बुलन्द कर रहे थे और अभी इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा उस समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान सुनाई गई है जिसने दोनों की गिरफ्तारी का विरोध किया था.अजीब विडम्बना है कि उ.प्र. में एक ओर दर्जनों संगीन अपराधों का अंजाम देने वाले राजा भैय्या जैसे बाहुबली मंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं, अनाज माफियाओं को गेहूं की खरीद में अरबों रुपये (अखबारी आंकड़ा के मुताबिक 1600 करोड़ रुपये) का घोटाला करने और बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के ठेकेदारों व खनन माफियाओं को करोड़ों-अरबों रुपये का बंदरबांट करने की छूट मिली हुई है, दूसरी ओर विश्वविजय व सीमा आजाद जैसे देशभक्त व सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है.
इलाहाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने विश्वविजय व सीमा आजाद को प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) का सदस्य होने, इस संगठन की गतिविधियों में शामिल होने और माओवादी साहित्य रखने व उसका प्रचार-प्रसार करने का दोषी पाया है.लेकिन अगर हम उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए कुछ हाल के फैसलों पर गौर करें तो उक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश के फैसले की त्रुटियां स्पष्ट हो जायेंगी.अरूप भुईंयां बनाम असम राज्य के मामला (देखें ए.आई.आर. 2011 /एस.सी. 957) में उच्चतम न्यायालय ने साफ शब्दों में कहा है कि किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य होने मात्र से किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता.
इसी तरह का फैसला उच्चतम न्यायालय ने काफी पहले केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामला (देखें-ए.आई.आर. 1962, एस.सी. 955) में भी दिया है.माओवादी साहित्य के रखने/पढ़ने को भी उच्चतम न्यायालय कोई अपराधिक कार्रवाई नहीं मानता है.बिनायक सेन के मामले में इस कोर्ट ने कहा कि जैसे गांधी की पुस्तक पढ़ने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता, उसी तरह माओवादी साहित्य रखने की वजह से कोई आवश्यक नहीं है कि वह माओवादी हो.अमेरिका का उच्चतम न्यायालय तो 'राजनीतिक या औद्योगिक सुधार को पूरा करने के लिए हिंसात्मक तरीके अपनाने की वकालत करने' या एसे विचार को 'किताब या अखबार छापकर प्रचारित करने' या उक्त उद्देश्य से की गई 'किसी हिंसक कार्रवाई को सही बताने' जैसी कार्रवाइयों को अपने-आप में 'गैरकानूनी नहीं' मानती है.(देखें-क्लेरेन्स ब्रेंडनबर्ग बनाम ओहियो राज्य, 395 यू.एस. 444, 1969)
इसी प्रकार, व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्षरत हमारे देश व दुनिया के अन्य हिस्सों की जनवादी-क्रान्तिकारी शक्तियां संघर्ष के सभी रूपों (चाहे हिंसक हो या अहिंसक, कानूनी हो या गैर कानूनी) को मान्यता देती हैं और सशस्त्र क्रान्ति के जरिये लोकसत्ता की स्थापना करना चाहती है.उनकी गतिविधियों को 'देशद्रोही', 'आतंकवादी' या 'अपराधिक' कार्रवाई मानी जाती तो रूसी, चीनी व वियतनाम-कम्बोडिया जैसी हथियारबंद क्रांतियों को विश्वव्यापी समर्थन नहीं मिलता और फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को संयुक्त राष्ट्र संघ में सीट नहीं मिलती.(ध्यान देने की बात है कि रूस व चीन की सशस्त्र क्रान्तियों का भारतीय कम्युनिस्टों के साथ-साथ कांग्रेसियों ने भी समर्थन किया था.)
इसलिए विश्वविजय व सीमा आजाद को दी गई आजीवन कारावास की सजा को व्यापक परिपे्रक्ष्य में देखने की जरूरत है.यह केवल मानवाधिकार के हनन का मामला नहीं है और न ही सिर्फ पी.यू.सी.एल. (जिससे सीमा आजाद जुड़ी हुई थी) जैसे नागरिक अधिकार संगठन के लिए एक चुनौती है.इसी तरह का विभ्रम बिनायक सेन की रिहाई के लिए चल रहे अभियान के दौरान भी फैलाया गया था.दरअसल विश्वविजय व सीमा आजाद को सजावार बनाने का मामला एक सोची समझी रणनीति के तहत दमनकारी सत्ता व व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की उभरती आवाज को दबाने का मामला है.
आज देश के विभिन्न जेलों में विश्वविजय व सीमा आजाद जैसे हजारों क्रान्तिकारी कैद हैं.आज केन्द्र सरकार के निर्देश में देश के विभिन्न भागों में चल रहे जनवादी, क्रान्तिकारी व राष्ट्रीयता आन्दोलनों को संगीन के बल पर कुचला जा रहा है.दर्जनों संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया है.आये दिन संधर्षरत संगठनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं और उनके समर्थकों को देशद्रोही, राजद्रोही, आतंकवादी, नक्सलवादी व माओवादी कहकर गिरफ्तार किया जा रहा है और उनपर यूएपीए जैसे कठोर कानून भी लगाये जा रहे हैं.इतना ही नहीं, फर्जी पुलिस मुठभेड़ में की जारी हत्याओं का सिलसिला भी तेज हो गया है.सही मायने में केन्द्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारों के साथ मिलकर देश की व्यापक जनता के उपर एक किस्म का युद्ध थोप दिया है.इस तरह शासक वर्गों की केन्द्र व राज्य सरकारों ने तमाम जनपक्षीय ताकतों और खासकर जनवादी-क्रान्तिकारी शक्तियों के समक्ष एक गंभीर चुनौती पेश की है.
ऐसी स्थिति में तमाम जनपक्षीय ताकतों का दायित्व बनता है कि वे शासक वर्गों व उनकी दमनकारी सरकार की इस चुनौती को स्वीकार करें.वे तमाम प्रकार के पूर्वाग्रहों व संकीर्णतावादी विकृतियों को तिलांजली देकर व्यापक व फौलादी एकजुटता कायम करें.आज वक्त अपने-अपने सपनों को पूरा करने, यानी निहित स्वार्थ से वशीभूत होकर जनपक्षीय ताकतों के बीच उभरती व्यापक एकता तो खंडित करने का नहीं है.आज वक्त की मांग है कि विश्वविजय व सीमा आजाद की रिहाई के लिए एकताबद्ध आवाज बुलंद करें और साथ ही साथ तमाम राजनैतिक बन्दियों की बिना शर्त रिहाई के लिए एक देशव्यापी मुहिम शुरू करें.
आज हमारे देश में 'आन्तरिक सुरक्षा' की आड़ में अघोषित आपातकाल चल रहा है.इन्दिरा गांधी ने इसी तरह 1974 के आन्दोलन को दबाने और नक्सलवादियों को कुचलने के लिए 26 जून, 1975 को 'आन्तरिक आपातकाल' की घोषणा की थी.इसके बाद करीब दो दर्जन नक्सलवादी ग्रुपों को प्रतिबन्धित और करीब 38 हजार 'नक्सलवादियों' को गिरफ्तार कर जेलों में कैद कर दिया गया था.करीब 5,000 नक्सलवादियों की पुलिस मुठभेड़ में हत्या कर दी गई थी (इनमें से ज्यादातर फर्जी मुठभेड़ में मारे गए थे).
करीब-करीब उसी तरह का क्रूर राजकीय दमन (या यों कहिये कि उस समय से भी ज्यादा गहन और व्यापक स्तर पर) चलाया जा रहा है.जिस प्रकार उस समय नक्सलवादियों समेत तमाम राजनैतिक बन्दियों की रिहाई के लिए एक देशव्यापी अभियान चलाया गया, उसी तरह का एक सशक्त अभियान चलाने का वक्त आ गया है.1977-78 में देशव्यापी राजनैतिक बंदी रिहाई अभियान के दबाव में केन्द्र व राज्य सरकारों को करीब 35 हजार नक्सलवादियों को रिहा करना पड़ा था.इसी तरह अगर हम एक जोरदार देशव्यापी राजनैतिक बंदी रिहाई अभियान चलाने में सफल हुए तो निश्चय ही केन्द्र व राज्य सरकारों को झुकना होगा और विश्वविजय व सीमा जैसे हजारों राजनैतिक बंदी बिना शर्त जेल की सीकचों से आजाद होंगे.
अर्जुन प्रसाद सिंह भारत का लोक जनवादी मोर्चा के संयोजक हैं.
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