दोपहर के भोजन से पहले दें जीने का पोषण
भूख व कुपोषण से मरने वाले बच्चों की उम्र 0-6 वर्ष है जबकि दोपहर भोजन तो 6 वर्ष के बाद ही मिलना शुरु होता है. सरकार अपने देश के बच्चों की कुपोषण की समस्या से परेशान है तो उसे पहले 0-6 वर्ष के उन 5 करोड़ 50 लाख बच्चों के कुपोषण से लड़ना होगा जो जिंदा ही नहीं बचते...
गायत्री आर्य
सरकार के 'अक्षय पात्र' से जितना दोपहर का भोजन निकल रहा है उससे कहीं अधिक इस भोजन से जुड़े विवाद निकल रहे हैं. दोपहर के भोजन की विविधता की तरह इन विवादों, घपलों, घोटालों में भी बहुत विविधता है. कुरुक्षेत्र जिले के तीन गांवों के लगभग 100 बच्चों की हालत स्कूल में मिलने वाले दोपहर के भोजन को खाकर इतनी खराब हो गई कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. जांच में सामने आया कि किसी एक जगह के खाने में मरी हुई छिपकली थी और दूसरी जगह खाना सड़ा हुआ था.
कन्नौज के एक जूनियर हाईस्कूल में दलित रसोइया नियुक्त किये जाने के कारण गांव वालों ने इतना हिंसक विरोध किया कि हेडमास्टर ने खुदकुशी की कोशिश की और स्कूल पी.ए.सी की छावनी में तब्दील हो गया. मैनपुरी में सर्च नामक गैर सरकारी संस्था ने दोपहर के भोजन के 19 करोड़ रूपयों से न सिर्फ प्रोडक्शन हाउस खोला, बल्कि 'देख रे देख' और 'इम्पेशेंट विवेक' नामक दो फिल्में भी बना डालीं.
जालंधर में विद्यालयों में आवंटित किये जाने वाले गेहूं और चावल में कीडे़, फफूंदी और भूसी होने की बात सामने आई है. पचास किलो गेहूं में लगभग पांच किलो तो भूसी, फफूंदी और कीड़े ही हैं. पौड़ी जिले के एक प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर ने बच्चों में फिर से जात-पात के बीज डालने के लिए दोपहर का भोजन योजना का प्रयोग किया. माता-पिता के कड़े विरोध के बाद दलित रसोइये को हटाकर ब्राह्मण रसोइये की नियुक्ति की गई. ऐसे असंख्य विवादों से जुड़कर पहले से ही विशाल दोपहर का खाना योजना और भी विशालकाय रुप में सामने आती है.
भारत की दोपहर का भोजन योजना पूरी दुनिया में सबसे बड़ी 'मुफ्त स्कूली भोजन' वाली योजना है. इस योजना के तहत पहली से आठवीं कक्षा तक के 11.74 करोड़ बच्चों को एक वक्त का मुफ्त भोजन मुहैया कराया जाता है. तमिलनाडू व गुजरात में सबसे पहले शुरू हुई इस मुफ्त स्कूली भोजन योजना को 28 नवम्बर2001 को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद पूरे भारत में लागू किया गया.
भारत में सबसे पहले 1923 में मद्रास में एक निगम विद्यालय में बना हुआ खाना बच्चों को दिया गया. उसके बाद 1960 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस योजना को और भी बड़े पैमाने पर लागू किया. उसके बाद 1982 में मुख्यमंत्री डा0 एम.जी.रामचन्द्र ने इसे पूरे राज्य में लागू किया. तमिलनाडू की दोपहर भोजन योजना आज देश का सबसे बेहतर मुफ्त स्कूल खाद्य कार्यक्रम है जिसमें 10वी तक के बच्चों को शामिल किया गया है.
'दोपहर का भोजन' योजना की शुरुआत के पीछे एक रोचक कहानी है. तमिलनाडू के मुख्यमंत्री के. कामराज को तिरुलवल्ली जिले के एक गांव में यात्रा के दौरान गाय और बकरियां चराता हुआ एक बच्चा मिला. जब मुख्यमंत्री ने उससे पूछ तुम इन गायों के साथ क्या कर रहे हो? स्कूल क्यों नहीं गए? तो जवाब में बच्चे ने सवाल किया ''यदि मैं स्कूल जाऊंगा तो क्या खाना तुम मुझे दोगे?'' उस बच्चे द्वारा किया गया ये सवाल दोपहर का भोजन योजना का आधार बना.
सरकार द्वारा दोपहर भोजन शुरू करने के पीछे प्रमुख उद्देश्य स्कूल में दाखिलों और हाजरी में वृद्धि करना, बच्चों में कुपोषण कम करना, जातिभेद खत्म करके बच्चों में परस्परता बढ़ाना है. इतने बड़े और व्यापक उद्देशयों को लेकर शुरु हुई ये योजना आज सिर्फ घोटालों और अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ रही है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए कुछ शोध अध्ययनों में सामने आया है कि स्कूल में खाना उपलब्द्व कराके 28 प्रतिशत तक बच्चों के दाखिले बढ़ाए जा सकते हैं.
यह सच है कि विद्यालयों में मुफ्त भोजन योजना के बाद स्कूलों में दाखिलों की संख्या बढ़ी है. लेकिन उद्देश्य सिर्फ दाखिले व हाजिरी बढ़ाना है या फिर शिक्षा का स्तर बढ़ाना? शिक्षा का स्तर बढ़ाने की बजाए दाखिले बढ़ाने का लक्ष्य एक शर्मनाक उद्देश्य है. 'प्रथम' नामक संस्था ने उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के गांवों में चल रहे विद्यालयों में एक सर्वेक्षण कराया. सर्वेक्षण में सामने आया कि सरकार की तमाम योजनाओं खासतौर से दोपहर के भोजन की योजना के कारण स्कूलों में बच्चों के दाखिले बढ़ गए हैं. उत्तर प्रदेश में 6 से 14 साल के करीब 95 फीसदी बच्चों का स्कूल में नामांकन हैं यह अलग बात है कि इनमे केवल 57 फीसदी बच्चे ही स्कूल आते हैं और आते भी हैं तो दोपहर भोजन के बाद घर लौट जाते हैं.
सरकार के विद्यालयों में दाखिलों व हाजिरी में वृद्धि के उद्देश्य को तो दोपहर भोजन योजना ने निःसंदेह पूरा किया है लेकिन शिक्षा स्तर में वृद्धि के कहीं कोई संकेत यह योजना नहीं दे रही. आज दोपहर भोजन योजना को पूरे देश में लागू हुए एक दशक बीत चुका है. लेकिन कड़वा सच यह है कि पूरी दुनिया में कुपोषित बच्चों की मौत में आज भी भारत दूसरे स्थान पर है.
ये दोनों आंकडे एक साथ और भी शर्मनाक लगते हैं कि एक तरफ तो विश्व का सबसे बड़ा मुफ्त दोपहर भोजन का कार्यक्रम और दूसरी तरफ 5 करोड़ 50 लाख बच्चों की भूख व कुपोषण से प्रतिवर्ष मौत. असल में भूख व कुपोषण से मरने वाले बच्चों की उम्र 0-6 वर्ष है जबकि दोपहर भोजन तो 6 वर्ष के बाद ही मिलना शुरु होता है. यदि सरकार वास्तव में अपने देश के बच्चों की कुपोषण की समस्या से परेशान है तो उसे पहले 0-6 वर्ष के उन 5 करोड़ 50 लाख बच्चों के कुपोषण से लड़ना होगा जो खाने के अभाव में जिंदा ही नहीं बचते.
गायत्री आर्य को हाल में ही नाटक के लिए मोहन राकेश सम्मान मिला है
गायत्री आर्य
सरकार के 'अक्षय पात्र' से जितना दोपहर का भोजन निकल रहा है उससे कहीं अधिक इस भोजन से जुड़े विवाद निकल रहे हैं. दोपहर के भोजन की विविधता की तरह इन विवादों, घपलों, घोटालों में भी बहुत विविधता है. कुरुक्षेत्र जिले के तीन गांवों के लगभग 100 बच्चों की हालत स्कूल में मिलने वाले दोपहर के भोजन को खाकर इतनी खराब हो गई कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. जांच में सामने आया कि किसी एक जगह के खाने में मरी हुई छिपकली थी और दूसरी जगह खाना सड़ा हुआ था.
कन्नौज के एक जूनियर हाईस्कूल में दलित रसोइया नियुक्त किये जाने के कारण गांव वालों ने इतना हिंसक विरोध किया कि हेडमास्टर ने खुदकुशी की कोशिश की और स्कूल पी.ए.सी की छावनी में तब्दील हो गया. मैनपुरी में सर्च नामक गैर सरकारी संस्था ने दोपहर के भोजन के 19 करोड़ रूपयों से न सिर्फ प्रोडक्शन हाउस खोला, बल्कि 'देख रे देख' और 'इम्पेशेंट विवेक' नामक दो फिल्में भी बना डालीं.
जालंधर में विद्यालयों में आवंटित किये जाने वाले गेहूं और चावल में कीडे़, फफूंदी और भूसी होने की बात सामने आई है. पचास किलो गेहूं में लगभग पांच किलो तो भूसी, फफूंदी और कीड़े ही हैं. पौड़ी जिले के एक प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर ने बच्चों में फिर से जात-पात के बीज डालने के लिए दोपहर का भोजन योजना का प्रयोग किया. माता-पिता के कड़े विरोध के बाद दलित रसोइये को हटाकर ब्राह्मण रसोइये की नियुक्ति की गई. ऐसे असंख्य विवादों से जुड़कर पहले से ही विशाल दोपहर का खाना योजना और भी विशालकाय रुप में सामने आती है.
भारत की दोपहर का भोजन योजना पूरी दुनिया में सबसे बड़ी 'मुफ्त स्कूली भोजन' वाली योजना है. इस योजना के तहत पहली से आठवीं कक्षा तक के 11.74 करोड़ बच्चों को एक वक्त का मुफ्त भोजन मुहैया कराया जाता है. तमिलनाडू व गुजरात में सबसे पहले शुरू हुई इस मुफ्त स्कूली भोजन योजना को 28 नवम्बर2001 को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद पूरे भारत में लागू किया गया.
भारत में सबसे पहले 1923 में मद्रास में एक निगम विद्यालय में बना हुआ खाना बच्चों को दिया गया. उसके बाद 1960 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस योजना को और भी बड़े पैमाने पर लागू किया. उसके बाद 1982 में मुख्यमंत्री डा0 एम.जी.रामचन्द्र ने इसे पूरे राज्य में लागू किया. तमिलनाडू की दोपहर भोजन योजना आज देश का सबसे बेहतर मुफ्त स्कूल खाद्य कार्यक्रम है जिसमें 10वी तक के बच्चों को शामिल किया गया है.
'दोपहर का भोजन' योजना की शुरुआत के पीछे एक रोचक कहानी है. तमिलनाडू के मुख्यमंत्री के. कामराज को तिरुलवल्ली जिले के एक गांव में यात्रा के दौरान गाय और बकरियां चराता हुआ एक बच्चा मिला. जब मुख्यमंत्री ने उससे पूछ तुम इन गायों के साथ क्या कर रहे हो? स्कूल क्यों नहीं गए? तो जवाब में बच्चे ने सवाल किया ''यदि मैं स्कूल जाऊंगा तो क्या खाना तुम मुझे दोगे?'' उस बच्चे द्वारा किया गया ये सवाल दोपहर का भोजन योजना का आधार बना.
सरकार द्वारा दोपहर भोजन शुरू करने के पीछे प्रमुख उद्देश्य स्कूल में दाखिलों और हाजरी में वृद्धि करना, बच्चों में कुपोषण कम करना, जातिभेद खत्म करके बच्चों में परस्परता बढ़ाना है. इतने बड़े और व्यापक उद्देशयों को लेकर शुरु हुई ये योजना आज सिर्फ घोटालों और अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ रही है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए कुछ शोध अध्ययनों में सामने आया है कि स्कूल में खाना उपलब्द्व कराके 28 प्रतिशत तक बच्चों के दाखिले बढ़ाए जा सकते हैं.
यह सच है कि विद्यालयों में मुफ्त भोजन योजना के बाद स्कूलों में दाखिलों की संख्या बढ़ी है. लेकिन उद्देश्य सिर्फ दाखिले व हाजिरी बढ़ाना है या फिर शिक्षा का स्तर बढ़ाना? शिक्षा का स्तर बढ़ाने की बजाए दाखिले बढ़ाने का लक्ष्य एक शर्मनाक उद्देश्य है. 'प्रथम' नामक संस्था ने उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के गांवों में चल रहे विद्यालयों में एक सर्वेक्षण कराया. सर्वेक्षण में सामने आया कि सरकार की तमाम योजनाओं खासतौर से दोपहर के भोजन की योजना के कारण स्कूलों में बच्चों के दाखिले बढ़ गए हैं. उत्तर प्रदेश में 6 से 14 साल के करीब 95 फीसदी बच्चों का स्कूल में नामांकन हैं यह अलग बात है कि इनमे केवल 57 फीसदी बच्चे ही स्कूल आते हैं और आते भी हैं तो दोपहर भोजन के बाद घर लौट जाते हैं.
सरकार के विद्यालयों में दाखिलों व हाजिरी में वृद्धि के उद्देश्य को तो दोपहर भोजन योजना ने निःसंदेह पूरा किया है लेकिन शिक्षा स्तर में वृद्धि के कहीं कोई संकेत यह योजना नहीं दे रही. आज दोपहर भोजन योजना को पूरे देश में लागू हुए एक दशक बीत चुका है. लेकिन कड़वा सच यह है कि पूरी दुनिया में कुपोषित बच्चों की मौत में आज भी भारत दूसरे स्थान पर है.
ये दोनों आंकडे एक साथ और भी शर्मनाक लगते हैं कि एक तरफ तो विश्व का सबसे बड़ा मुफ्त दोपहर भोजन का कार्यक्रम और दूसरी तरफ 5 करोड़ 50 लाख बच्चों की भूख व कुपोषण से प्रतिवर्ष मौत. असल में भूख व कुपोषण से मरने वाले बच्चों की उम्र 0-6 वर्ष है जबकि दोपहर भोजन तो 6 वर्ष के बाद ही मिलना शुरु होता है. यदि सरकार वास्तव में अपने देश के बच्चों की कुपोषण की समस्या से परेशान है तो उसे पहले 0-6 वर्ष के उन 5 करोड़ 50 लाख बच्चों के कुपोषण से लड़ना होगा जो खाने के अभाव में जिंदा ही नहीं बचते.
गायत्री आर्य को हाल में ही नाटक के लिए मोहन राकेश सम्मान मिला है
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