विमर्श
जातीय भेदभाव भी तो नस्लवाद है
समर
जातिवादी भेदभाव के खिलाफ संघर्ष में अभी हाल में मिली एक महत्वपूर्ण विजय में ब्रिटेन जातीय पूर्वाग्रहों को नस्ली भेदभाव का हिस्सा मानने वाला पहला देश बन गया है. ब्रिटेन की संसद के उपरी सदन हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स द्वारा सरकार को जाति को नस्ल के एक पहलू के रूप में स्वीकार करने की अनुमति देने वाले समानता विधेयक को मार्च 2010 में ही पारित कर देने के बाद इस विधेयक के कानून बनने में अब सिर्फ एक सीढ़ी बची है कि यह संसद के निचले सदन हॉउस ऑफ़ कॉमंस द्वारा पारित कर दिया जाय.
भारत सरकार और ब्रिटेन में बसे दक्षिणपंथी हिन्दू समूहों द्वारा इंग्लैण्ड सरकार को इस बिल को कानून ना बनाने के लिए डाले गए दबाव की रोशनी में विभेदकारी जातीय सरंचना के खिलाफ दलित समूहों द्वारा नागरिक समाज संगठनों के साथ लगातार लड़कर हासिल की गयी यह विजय बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए भी क्योंकि यह विजय संयुक्त राष्ट्र संघ के नस्ली, नस्लीय भेदभाव, के खिलाफ डरबन सम्मलेन, जहाँ दलित समूहों और अंतर्राष्ट्रीय समतावादी समूहों के गौरवशाली संघर्ष के बावजूद भारत सरकार जातिगत भेदभाव को एजेंडे से बाहर रखने में सफल रही थी, के ठीक एक दशक बाद मिली है.
तब जाति को भारत का 'आतंरिक मामला' बताते हुए भारत सरकार ने जोर दिया था कि वह इस कुरीति को समाप्त करने के लिए सभी संभव प्रयास कर रही है. यह और बात है कि जाति को अपना 'आतंरिक मसला' बताते हुए भारत सरकार नस्लभेद के खिलाफ महान संघर्ष की अपनी खुद की गौरवमयी परम्परा को ना सिर्फ भूल रही थी वरन उसका अपमान भी कर रही थी.
वैसे भी अगर जाति भारत का आंतरिक मसला है तो नस्लीय रंगभेद दक्षिण अफ्रीका की उस दौर की श्वेत सरकार का आंतरिक मुद्दा क्यों नहीं था? नस्लभेद के खिलाफ वैश्विक जनमत तैयार कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार को अलग-थलग करने में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली तत्कालीन भारत सरकार क्या एक संप्रभु देश के आतंरिक मसलों में हस्तक्षेप करने का अपराध कर रही थी? 2001 में इस तर्क का जवाब देने में असफल रही भारतीय सरकार ने जातिगत भेदभाव का अस्तित्व स्वीकार करते हुए भी जाति मुद्दे को अंतर-नस्लीय और अंतर्सांस्कृतिक बताते हुए खारिज करने की कोशिश की थी.
जाति के सवाल को सम्मलेन के एजेंडे से बाहर रखने की सरकारी जिद का बचाव करते हुए तत्कालीन महान्यायवादी सोली सोराबजी ने एक हास्यास्पद तर्क भी गढ़ा था कि इसके पीछे भारत की कुल जमा मंशा यह है कि सम्मलेन मुख्य मुद्दे नस्लवाद से भटक ना जाये. भारत में जातिगत भेदभाव की मौजूदगी स्वीकारते हुए भी उन्होंने जाति और नस्ल के पूरी तरह से अलग होने पर जोर दिया.
सवाल जाति और नस्ल के पूरी तरह से अलग होने का नहीं है. आखिरकार दुनिया में सामाजिक श्रेणीबद्ध विभेदन की कोई भी दो संरचनाएं पूरी तरह से समान नहीं हो सकती हैं. इन सरंचनाओं के पैदा होने से लेकर समाज में स्थापित होने तक की प्रक्रिया में उस समाज विशेष में मौजूद राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारक अपनी भूमिका निभाते हुए ख़ास किस्म की शक्ती विभाजन वाली संरचनाएं पैदा करते हैं. इसीलिये, अलग अलग समाजों में पैदा हुई संरचनाएं अपनी आंतरिक बुनावट में एक दूसरे से बिलकुल अलग हो सकती हैं. मगर मसला यहाँ इनके बीच अंतरों का नहीं वरन सामाजिक श्रेणीबद्धता को पैदा करने और बनाये रखने में उनकी सफलता का है.
इस सन्दर्भ में अपने ही समुदाय के ताकतवर सदस्यों द्वारा अन्यों को अमानवीय स्थितियों में रखने वाली जाति-व्यवस्था निस्संदेह सामजिक श्रेणीबद्धता की सफलतम और निर्ममतम संरचनाओं में से एक है. शोषित और वंचित तबकों को मानवीय गरिमा से वंचित कर जानवरों की तरह केवल श्रम के संसाधनों में तब्दील कर देने वाली ऐसी किसी व्यवस्था का अस्तित्व दुनिया में शायद ही कहीं और हो.
जाति को नस्लीय भेदभाव के अन्दर वर्गीकृत ना करने के समर्थन में भारत सरकार का दूसरा तर्क है कि संरक्षणात्मक कानूनों एवं सकारात्मक भेदभावपूर्ण नीतियों द्वारा जातिप्रथा के उन्मूलन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति कर रही है. सरकारी आंकड़ों की रोशनी में ही देखें तो यह तर्क भरभरा के ढह जाता है.
उदाहरण के लिए, गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नेशनल क्राइम रिकोर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक बीते साल से 2 प्रतिशत की वृद्धि के साथ अनुसूचित जातियों के खिलाफ हुए अपराधों की कुल संख्या 33615 तक पंहुच गयी है. यह आंकड़े सत्य से कितने कम हैं, यह जानने के लिए इसमें यह भी जोड़ लें कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) क़ानून के प्रावधान सामान्य घटनाओं को तो छोड़ें ही खैरलांजी जैसी लोमहर्षक घटनाओं को अंजाम देने वाले अपराधियों पर भी लागू नहीं किये जाते.
भारतीय सरकार का तीसरा तर्क, जिसका समर्थन कुछ महत्पूर्ण समाजशास्त्री भी करते हैं, वह यह है कि क्योंकि नस्ल भारतीय संदर्भों में एक अर्थपूर्ण जैविक श्रेणी नहीं है और भारत में समुदायों का नस्लीय आधार पर प्रोफाइल बनाने की तमाम कोशिशें नाकामयाब साबित हुई हैं, इसीलिये जाति नस्ल का एक एक पहलू नहीं हो सकती.
यह तर्क दावा करता है कि अगर जाति की उत्पत्ति मूलवंश की अवधारणा में है भी तो आज के सन्दर्भों में यह नस्ल से पूरी तरह से अलग हो चुकी है. पर असली मुद्दा यह है कि अगर दलितों के खिलाफ होने वाला भेदभाव अंतरनस्लीय भी हो तो भी इसके परिणाम नस्लवाद की तुलना में दलितों के लिए कम बर्बर नहीं होते. उससे भी ज्यादा बुनियादी स्तर पर, 'वैज्ञानिक' प्रमाण की अनुपस्थिति से नस्ल की अनुपस्थिति तो साबित हो सकती है पर 'नस्लवाद की नहीं.
नस्लवाद अपने मूल में एक विचारधारात्मक सरंचना है जो जन्म, मूलवंश या उत्पत्ति के आधार पर कुछ लोगों का अन्यों की तुलना में उच्च होने और उन्ही आधारों पर 'अन्यों' के नीचा होने का दावा करने से बनती है. भारत में नस्ल के वैज्ञानिक आधार के प्रमाण हों या ना हों, श्रेणीगत विभाजन पर आधारित भेदभाव की इस संरचना के लगातार मजबूत होने के प्रमाण रोज सुबह के अखबारों में भरे मिलते हैं. ऊपर से, इस 'कुरीति' को ख़त्म करने की पुरजोर कोशिशों के दावे के बावजूद जमीनी स्तर पर इस मुद्दे पर सरकारी अकर्मण्यता इसके अगंभीर रवैये का ही सबूत देती है.
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