दिहाड़ी की सरकार फिर भी जनता पर वार |
(04:11:31 AM) 24, Mar, 2012, Saturday |
सीताराम येचुरी |
यह तो नवउदारवाद और उसके आर्थिक सुधारों के तर्क में ही निहित है कि मजदूरों के लिए रोजगार की सुरक्षा घटायी जाती है। यह स्थायी मजदूरों की जगह पर ठेका मजदूरों या अति-अस्थायी मजदूरों या अस्थायी रोजगार को बैठाने के जरिए किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि रोजगार की प्रकृति में इस बदलाव से, मेहनतकशों की असुरक्षा बहुत बढ़ जाती है। बहरहाल, ऐसा लगता है कि नवउदारवादी सुधार के इस तर्क ने, जाहिर है कि इससे काफी भिन्न तरीके से, नवउदारवाद के रास्ते पर चल रही मनमोहन सिंह की यूपीए-द्वितीय सरकार को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। किसी दिहाड़ी मजदूर की तरह, इस सरकार को बराबर कल की चिंता करते रहना होता है और अपना अगले दिन बना रहना सुनिश्चित करने के लिए, लगातार तरह-तरह के सौदे-समझौते करने पड़ते हैं। राष्टï्रपति के परंपरागत अभिभाषण पर धन्यवाद का प्रस्ताव जिस तरह संसद के दोनों सदनों में पारित कराया गया है, इसी की ताजातरीन मिसाल है। यह प्रस्ताव पारित कराने के लिए, द्रमुक को खुश करने के लिए सरकार को यह आश्वासन देना पड़ा है कि भारत, तमिल आबादी के खिलाफ मानवाधिकार अपराधों के लिए, श्रीलंका की सरकार की निंदा के संयुक्त राष्टï्र संघ के प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालेगा। उसे रेल बजट के फौरन बाद, रेल मंत्री को हटाने की अभूतपूर्व मांग को स्वीकार करने के जरिए, तृणमूल कांग्रेस के साथ सौदा पटाना पड़ा है। यह भारत के संसदीय जनतंत्र के इतिहास में शायद पहली ही बार हुआ था कि संसद में मंत्री की हैसियत रेल बजट पेश करने वाले शख्श की इस बजट के लिए कोई प्रासंगिकता ही नहीं रह गयी थी क्योंकि न तो उसके अपने पेश किए बजट पर बहस का जवाब देना है और न बहस के बाद अनुमोदन के लिए बजट प्रस्तावों को पेश करना था। इस तरह, यूपीए की मौजूदा सरकार अब तक कदम-ब-कदम सौदे पटाने के बल पर कायम रही है। इससे आगे-आगे और भी टकराव उभरना तय है कि क्योंकि प्रधानमंंत्री भी नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए कमर कसे हुए हैं। उन्हें मजबूरी में खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने का अपना फैसला रोके रखना पड़ रहा है। याद रहे कि सरकार ने वामपंथी पार्टियों के कड़े विरोध तथा व्यापक विरोध कार्रवाइयों के बावजूद उक्त फैसला लिया था। नये बजट में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों को और आगे बढ़ाने का भी वादा किया गया है। इसकी डरावनी तस्वीरें पेश की जा रही हैं कि बढ़ता राजकोषीय घाटा, हमारी अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में ले सकता है। लेकिन, सचाई यह है कि उनकी सरकार ने पिछले बजट में ही नैगम खिलाडिय़ों तथा संपन्नों पर करीब 5.28 लाख करोड़ रु0 का अपना कर राजस्व छोंड़ दिया था, जबकि रोजकोषीय घाटा जो सकल घरेलू उत्पाद के 5.9 फीसद के स्तर पर था, 5.22 लाख करोड़ रु0 के स्तर पर ही था। दूसरे शब्दों में, अगर संपन्नों को ये रियायतें नहीं दी गयी होतीं, तो कोई राजकोषीय घाटा होता ही नहीं! बहरहाल, इस बार के बजट में राजकोषीय घाटे के बेकाबू होने का हौवा खड़ा करने के जरिए, सब्सीडियों में भारी कटौतियों की घोषणा की गयी है। ईधन सब्सीडी में ही 25,000 करोड़ रु. की और उर्वरक सब्सीडियों में 6,000 करोड़ रु. की कटौतियों का प्रस्ताव है। सब्सीडियों में इन कटौतियों से जनता पर सीधे-सीधे जो बोझ पड़ेगा वह तो अपनी जगह है ही, इसके अलावा इससे पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतों का बढऩा तय है। पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में इस बढ़ोतरी, जनता पर सीधे-सीधे तो असर पड़ेगा ही, इसके अलावा समग्रता में मुद्रास्फीति की स्थिति पर इसका चौतरफा असर भी पड़ेगा। सब्सीडियों में इस तरह की कटौतियों को उचित ठहराने तथा लागू कराने के इरादे से ही, योजना आयोग के माध्यम से सरकार ने गरीबी की रेखा का मानक ही बदलने के जरिए, जनता के साथ बहुत भारी धोखाधड़ी की है। इस धोखाधड़ी के जरिए, गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के अनुपात में भारी कमी दिखाने की कोशिश की गयी है। गरीबी की रेखा के नीचे मानी जा रही आबादी के अनुपात में इस तरह की फर्जी कमी के बिना, खाद्य सब्सीडी के बिल में भारी कटौती कैसे की जाएगी? याद रहे कि खाद्य सुरक्षा को, गरीबी की रेखा के नीचे आने वालों तक ही सीमित कर दिया गया है। इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित पोलिट ब्यूरो के बयान में इस धोखाधड़ी के निहितार्थों का खुलासा किया गया है। इस सबसे इसी सचाई की पुष्टिï होती है कि नवउदारवादी आर्थिक सुधार मेहनतकश जनता के बीच कहीं ज्यादा आर्थिक असुरक्षा पैदा करते हैं तथा उनकी रोजी-रोटी के लिए हर कदम पर खतरे के हालात पैदा करते हैं। दूसरी ओर यही सुधार, इसी प्रक्रिया में दूसरे छोर पर, बेतहाशा मुनाफे पैदा करते हैं। इसी तरह, यूपीए-द्वितीय की सरकार की यह असुरक्षा भी ऐसे और ज्यादा सुधारों का भी रास्ता बना रही है, जो एक ओर तो जनता पर ज्यादा से ज्यादा बोझ डालते हैं और दूसरी ओर, अंतर्राष्टï्रीय व घरेलू पूंजी के लिए अनाप-शनाप मुनाफे सुनिश्चित करते हैं। इस तरह, यूपीए-द्वितीय की सरकार संदिग्ध किस्म के सौदे पटाने तथा एमझौते करने के जरिए सत्ता में बने रहने के इस रास्ते पर चलते हुए ही, यह भी सुनिश्चित कर रही है कि नवउदारवादी आर्थिक सुधार के एजेंडा को और आगे बढ़ाया जाए। इसकी मार हमारी मेहनतकश जनता के प्रचंड बहुमत की जीवन-जीविका की दशा बद से बदतर ही बनाएगी। यह दिनों-दिन ज्यादा से ज्यादा स्पष्टï होता जा रहा है कि जन-गोलबंदियों की ताकत के बल पर ही इस सरकार को अपनी नीतियों की दिशा बदलने के लिए मजबूर किया जा सकता है। जनता को राहत दिलाने का एक यही रास्ता है। |
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