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Friday, November 18, 2011

मीडिया चालित समाज में लोकतंत्र April 27th, 2011 पृष्ठभूमि और परिदृश्य विपुल मुद्गल

मीडिया चालित समाज में लोकतंत्र

April 27th, 2011

पृष्ठभूमि और परिदृश्य

विपुल मुद्गल

मीडिया चालित समाज में लोकतंत्र

April 27th, 2011

पृष्ठभूमि और परिदृश्य

विपुल मुद्गल

हमने चर्चित कारपोरेट पीआर बॉस नीरा राडिया, मीडिया की नामवर हस्तियों और राजनीति के दिग्गजों की टेलीफोन की बातचीत के लीक हुए टेपों में जो कुछ सुना है वह एक मीडिया-चालित(मीडिया-आइज्ड) राजनीति की सटीक तस्वीर पेश करता है। इस प्रकरण से पता चलता है कि किस तरह से पेशेवर संवादकर्मी (प्रोफेशनल कम्युनिकेटर्स) महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में जनता की समझ को गढते या परिचालित करते हैं। निसंदेह नीरा राडिया की भूमिका और उनके असर का दायरा आम कवरेज को बहुत पीछे छोड़, राजनीतिक नियुक्ति, नीति-निर्माण और देश के साझे प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के इर्द-गिर्द अंधाधुंध मिथक पैदा करने की सीमा तक जा पहुंचा है। फिर भी, इससे हमें मीडिया द्वारा व्यापार और राजनीति पर की जाने वाली रोजमर्रा की रिपोर्टिंग के बारे में जितना पता चलता है वह कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है।
यह लेख नीरा राडिया के टेपों या उनके असर के बारे में नहीं है, लेकिन यह बतलाता है कि आम जनता जितनी निष्क्रिय और मीडिया-चालित होती चली जाएगी पेशेवर संवादकर्मियों (प्रोफेशोनल कम्युनिकेटर्स) द्वारा तथ्यों को अपने हिसाब से प्रस्तुत करने का दायरा उतना ही बढ़ेगा। इस आलेख में कोशिश रहेगी कि हम मीडिया को लेकर बने कुछ मिथकों का खंडन करें, कुछ विकल्प सुझाने का प्रयास करें और यह दिखलायें कि कैसे बहुलता, नागरिक समाज और लोकतांत्रिक लोकवृत (पब्लिक स्फिअर) जनता की निष्क्रियता और जनमत पर कारपोरेट के कब्जे के खिलाफ एक मुहिम के रुप में काम करते हैं।
भारत में इधर मीडिया पर कई तीखे हमले हुए हैं। इसे सनसनीखेज, लाभ-लोलुप, पक्षपाती और गरीब विरोधी कहा गया है। अक्सर इसकी आलोचना समाचारों को मनोरंजन के तौर पर परोसने और उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने के लिए हुई है।आम उपभोक्ता कभी मीडिया को दोस्त तो कभी दुश्मन मान कर चलता है मगर मीडिया के समाजशास्त्री मीडिया के समाज के साथ रिश्तों को समझने के लिए मीडिया-चालित राजनीति की परतें खोलने का प्रयास करते हैं। राज-सत्ता हासिल करना हो या नीतियां बनाना, राजनीतिक ताकत का बंटवारा करना हो या फिर संसाधनों का… राजनीति के असली धंधे को कुशल संचार की आवश्यकता होती है । आप इसे कला कहिए, विज्ञान की एक शाखा या प्रबंधन मगर राजनेताओं का काम जनता के विचारों को प्रभावित किए बगैर नहीं चलता और जिनका मीडिया पर नियंत्रण है उनपर राजनेताओं का दबाव हमेशा रहेगा चाहे उनकी विचारधारा कोई भी हो ।
आज का आधुनिक लोकतांत्रिक समाज दिन – प्रतिदिन पहले से ज्यादा मीडिया-चालित होता जा रहा है, इसलिए ऐसा हो रहा है। इसका मतलब यह कि जीवन के ज्यादातर टुकड़े जिन्हें हम अपने टीवी के पर्दे पर देखते या अखबारों में पढ़ते हैं वे बड़े जतन से गढ़े गए होते हैं, और इन्हें गढऩे वाले होते हैं संवादकर्म से जुड़े विभिन्न पेशेवर कलाकार। मीडिया के राजनीतिकरण की बात पुरानी हो चली, अब राजनीति के मीडियाकरण की दुनिया में आपका स्वागत है। हम अभी भी इस परिघटना को समझने में ही लगे हैं, लेकिन तय जानिए कि राजनीति के मीडियाकरण के बाद न तो पहले वाला मीडिया रहा न पहले वाली राजनीति।
मीडिया-चालित समाजों में राजनीति एक 'सेकेंड हैंड यथार्थ' बनती जा रही है, जिसमें जोड़-तोड़ के लिए काफी गुंजाइश है। चूंकि पढ़ा-लिखा मध्य वर्ग प्रत्यक्ष राजनीति जैसे कि मजदूर संगठन, विचारधारा को लेकर प्रतिबद्धता , राजनीतिक दलों की सदस्यता, आरडब्ल्यूए की कार्यकारिणी आदि से दूर रहना ही पसंद करता है और यहां तक कि वोट डालने से भी बचता है इसलिए जान पड़ता है कि हम किसी भी तरह के प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव से दूर होते जा रहे हैं।1
अधिकतर लोग राजनीति का अनुभव या 'उपभोग' सीधे-सीधे बातचीत, हस्तक्षेप या भागीदारी के जरिए से नहीं करते। राजनीति के उपभोक्ता के बतौर आम जनता ज्यादातर एक निष्क्रिय भागीदार है। राजनीति से उसकी रोज की मुठभेड़ टीवी चैनलों या अखबारों के जरिए होती है।2 मीडिया कहीं दूर किसी बैठक में जमे या फिर अलग-थलग पारिवारिक इकाइयों से जुड़े अणु-रुप व्यक्तियों का, औसतीकरण कर कृत्रिम 'जनता' का निर्माण करता है।3
इस तरह कह सकते हैं कि आधुनिक व्यवसायिक मीडिया उपभोक्ताओं को खबरें बेचने की जगह विज्ञापनदाताओं को दर्शक /श्रोता बेचने का धंधा करता है।
टीवी के अधिकतर दर्शक राजनीति का तमाशाई अक्स (कल्पना में दूसरे के किए को अपना मानकर) देखकर ही रोमांचित होते रहते हैं, खासकर तब, जब उन्हें टीवी पर एक सचमुच का राजनीतिक नाटक देखने को मिलता है। लेकिन हकीकत में उनकी मौजूदगी एक कृत्रिम और मीडियाकृत आभासीय (मीडिएटिड वर्चुअल) अखाड़े तक सीमित है। इस सेकेंड हैंड रिएलिटी के खेल में थोक में मिथक बनाने, छवि निर्माण और सनसनीखेज मुद्दे गढने का काम रोजमर्रा के ढर्रे पर चलता रहता है और इसका अधिकांश न्यूजरूम के बाहर घटित होता है।
औद्योगीकृत शहरी समाज अपेक्षाकृत सूचना संपन्न वातावरण में जीवन जीता है। ऐसे समाज में श्रोताओं की सूचनाओं तक न केवल आसान पहुंच होती है बल्कि वे हमेशा डिजिटल-दीवार(डिजिटल-डिवाइड) के उसी तरफ़ होते हैं जिधर सूचनाओं की आभासी नदी बहा करती है। ऐसे दर्शकों को अक्सर निष्क्रिय कहा जाता है क्योंकि वे आपस में अलग-थलग रहते हुए राजनीति का उपभोग केवल उसकी सूचना-निर्मित छवियों में करते हैं। ऐसे दर्शक-पाठक या श्रोताओं का एक-दूसरे से कोई भौतिक संबंध नहीं होता। इसी माहौल में मीडियाकरण साकार होता है- एक ऐसा माहौल जहां राजनेताओं की रोजमर्रा की बात, प्रस्तुति और यहां तक कि उनकी मौजूदगी भी एक पटकथा के हवाले होती है जिसे स्पिन-डाक्टर और इम्प्रेशन मैनेजर डिजिटली निखारते हैं।
मीडिया और राजनीति के आपसी सबंध, और जनमत- राजनीतिक संवादकर्म के ये दो मुख्य पहलू हैं। 21वीं सदी के एक गंभीर राजनेता के लिए मात्र अच्छा संवादकर्मी(कम्युनिकेटर) होना भर पर्याप्त नहीं है। उसके पास जनमत को अपने पक्ष में गढऩे की समझ होना भी जरुरी है। उसे अपनी राजनीति के बारे में बनी नकारात्मक धारणा कम से कम करने और सकारात्मक छवि को बढ़ाने का प्रबंध-कौशल भी आना चाहिए। राजनेता की इन्हीं जरुरतों के इर्द-गिर्द राजनीतिक जनसंपर्क, छवि-निर्माता(इमेजमेकर), ओपीनियन पोलस्टर और स्पिन-डाक्टर का पूरा उद्योग खड़ा होता है।

मीडिया के बारे कुछ मिथक
राजनीतिक-संचार(पॉलिटिकल कम्युनिकेशन) की ज्यादा महीन बातों की ओर बढने से पहले जरूरी है कि मीडिया और समाज के संबंधों के बारे में कुछ मिथकों को दूर कर लिया जाए। सबसे ज्यादा प्रचलित मिथक यह है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। राजनीतिक वाम से लेकर दक्षिण तक कोई भी भाषण लिखने वाला इस प्रचलित मुहावरे के बिना काम नहीं चला सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत सहित अधिकतर उदारवादी लोकतंत्रों में मीडिया के पास ऐसी कोई वैधानिक ताकत नहीं कि वह लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के कार्य की जांच-पड़ताल कर सके। अगर मीडिया के पास लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के कार्य की जांच-पड़ताल का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है तो फिर यह मीडिया का उत्तरदायित्व कैसे हो सकता है कि वह प्रशासन, नीतिगत राजव्यवस्था या सार्वजनिक जीवन की जांच करे? मीडिया की व्यवस्था-विरोधी फुटकल खबरों से, संभव है, ऐसी धारणा बनती हो, लेकिन कानून व व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों मसलन सीएजी या न्यायपालिका की तरह, मीडिया को राज-व्यवस्था के अंदर कोई वैधानिक भूमिका नहीं दी गई है। यहां तक की मीडिया की स्वतंत्रता भी बोलने की आजादी के प्रावधानों से ही आती है, न कि किसी विशेष संवैधानिक गारंटी से।
चौथे स्तंभ की बात हद से ज्यादा रोमानी और बस राजनीतिक भाषणों के लिए ही अच्छी है। यह धारणा मान कर चलती है कि आधिकारिक (शासन संबंधी) सूचना मीडिया कर्मियों को बिना किसी व्यवधान के मिल जाती है। आधुनिक उदारवाद के जनक और प्रवर्तक जॉन लॉक मानते थे कि शासन की अच्छाई को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है एक स्वतंत्र मीडिया की मौजूदगी जो निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के कार्यों की जांच-परख करे। लॉक का सिद्धांत सूचना पर पत्रकारों के अबाधित अधिकार पर आधारित था। पत्रकार राजनेताओं पर नजर रख सके, इसके लिए जरुरी होगा कि वह नीति निर्माण या संसाधनों के आवंटन के मामले में भीतरखाने का आदमी हो।लेकिन, ऐसा दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में नहीं होता।4 जॉन स्टुअर्ट मिल ने ऑन लिबर्टी में यह कह कर कि राजनेताओं द्वारा अपनी ताकत के संभावित दुरुपयोग, भ्रष्टाचार या निरंकुश प्रवृत्तियों के खिलाफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक कारगर औजार है, लॉक के सिद्धांत को ही मजबूत किया। बहरहाल यह एक राजनीतिक सिद्धांत ही रहा। व्यवहार की जमीन पर देखें तो उदारवादी लाकतांत्रिक राजव्यवस्थाओं ने कभी पत्रकारों को वह असली ताकत नहीं दी जिसके दम पर राजकाज की निगरानी को संभव बनाने के लिए जरुरी सारी सूचनाएं वे हासिल कर सकें।
नतीजतन, मीडिया लोकतंत्र के तीन अन्य स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह स्वायत्त नहीं है। उसके पास दूसरों की जांच-पड़ताल का अपना कोई कानूनी अधिकार नहीं है। सीएजी और न्यायपालिका की तरह, जो कि अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए अधिकार-पूर्वक जांच-पड़ताल के लिए सरकारी फाइलें मांग सकते हैं, मीडिया के पास कोई विशेषाधिकार या स्वायत्तता नहीं है। लीकस् के माध्यम से मिलने वाली छिटपुट जानकारी ही अधिकतर खोजी खबरों का स्रोत होती हैं अन्यथा मीडिया के लिए मांगकर जानकारी जुटा पाना कठिन काम होता है। इधर सूचना के अधिकार ने कुछ अंतर पैदा किया है लेकिन यह हथियार सभी नागरिकों को हासिल है और इससे मीडिया का वह भव्य रूप नहीं बनता जैसा लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने से जाहिर होता है।
दूसरा बड़ा मिथक यह है कि मीडिया समाज का आईना है। यह नफीस विचार मानकर चलता है कि सच्चाई तो सामने पड़ी है और मीडिया का काम बस उसे प्रतिबिंबित कर देना है। मीडिया को समाज का आईना मानने वाली धारणा यह भी मानती है कि एक बार खबर 'खोज' ली गई तो सच्चाई दिखाने के लिए उसे बस तटस्थता के साथ प्रस्तुत करना भर होता है। लेकिन, पत्रकार या कोई और मनुष्य न तो दर्पण है और न ही कैमरा। कैमरा कुछ अर्थों में जिस तरह सच्चाई को यथावत पकड़ सकता है, पत्रकार सच्चाई को उस तरह नहीं पकड़ सकता। सारे पत्रकार सच्चाई का अपना संस्करण अपनी संज्ञानात्मक क्षमताओं जैसे अनुभव, पूर्वाग्रह, ज्ञान, सांस्कृतिक आग्रह तथा समझ के अन्य रूपों के अनुसार पढते हैं। इसलिए वे जो भी प्रस्तुत करते हैं वह कोई यथावत तस्वीर नहीं होती बल्कि उन पर पड़े प्रभाव, मन में बैठी धारणा और उनकी निजी पृष्ठभूमि द्वारा रंगी होती है। निजी तौर पर पत्रकार खबर को यथासंभव सटीकता के साथ प्रस्तुत करते की कोशिश करते हैं किंतु ऐसी सजगता और पेशेवर दक्षता के जरिए आत्मनिष्ठता को केवल कम किया जा सकता है, खत्म नहीं।
एक और मिथक यह है कि पत्रकारिता ' हड़बड़ी में लिखा हुआ इतिहास' है क्योंकि मीडिया में रोजमर्रा की कवरेज 'आकस्मिक घटनाओं के प्रति आकस्मिक प्रतिक्रिया' के रूप में सामने आती है। लेकिन, मीडिया अपने संचार माध्यम से जिस वक्त किसी एक खबर को कवर कर रहा होता है उसी वक्त कई अन्य खबरों की अनदेखी भी कर रहा होता है । समाचारों के चयन की पूरी प्रक्रिया किसी की भर्ती तो किसी की छंटनी से भरी हुई है जिसमें एक दिन की कवरेज में बहुत सारी घटनाओं को खारिज कर दिया जाता है। जब आप अखबार पढ़ते हैं या टीवी पर समाचार बुलेटिन देखते हैं तो आप केवल उतना ही देखते हैं जितना उसमें दिखाया जाता है।
इसलिए मुख्यधारा की मीडिया में इतिहास का जो टुकड़ा पेश किया जाता है वह अकसर गरीब, हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों और कमजोर तबके की खबरों से खाली होता है। ठीक ऐसे ही मुख्यधारा की मीडिया जब अपना रोजमर्रा का इतिहास प्रस्तुत करता है तो उसमें सत्ता-प्रतिष्ठान या व्यापार में लगे लोगों या फिर रईस और संपर्कों के धनी लोगों के बारे में खबरों की भरमार होती है। अगर रोजमर्रा की पत्रकारिता किन्ही अर्थों में इतिहास का हड़बड़ी में लिखा हुआ टुकड़ा है तो फिर इस इतिहास के बारे में कहा जा सकता है कि इसका पलड़ा. ज्यादा पठनीय, ज्यादा मनोरंजक और ज्यादा बेहतर तरीके से प्रचारित वस्तु-तथ्यों की तरफ झुका होता है बनिस्बत परिणामजनक महत्वपूर्ण समाचार के।सार्वजिनक जीवन के इतिहास के इस पन्ने पर भारत की दो तिहाई जनता को कुल उपलब्ध स्थान का बीसवां हिस्सा भी कायदे से नहीं मिलता और फिर बढ़ते कारपोरेटीकरण की वजह से यह स्थान और भी कम होता जा रहा है।

मीडिया को देखने के कुछ वैकल्पिक तरीके
एथनोग्राफी से लेकर सिमियोटिक्स (लक्षण-विज्ञान) तक और डिस्कोर्स एनालिसिस (आख्यान-विवेचन) से लेकर कॉनकार्डेंस (संदर्भी पाठ-किसी पाठ को पढऩे का वह तरीका जिसमें शब्दों के अर्थ को उनके तात्कालिक संदर्भों के दायरे में पढ़ा जाता है) तक, ऐसे अनेक तरीके हैं जिनसे मीडिया की विषयवस्तु या उसकी रोजमर्रा की कार्यप्रणाली के बारे में जाना जा सकता है। लेकिन, राजनीति के मीडियाकरण की विवेचना के लिए हम यहां कुछ ही औजारों की चर्चा करेंगे जिससे जाहिर होगा कि मीडिया-चालित राजनीति में विभन्न हितों द्वारा तोड़-मरोड़ , जोड़-तोड़ , मिथक गढने और एजेंडा तय करने की बहुत गुंजाइश होती है।
मीडिया की विषय वस्तु का अध्ययन करने का वैज्ञानिक तरीका आलोचनात्मक विनिर्मितीवाद (क्रिटिकल कंस्ट्रक्टिविज्म) का है। यह मानता है कि सच्चाई का हर आख्यान जानी-पहचानी चीजों और कौशल से खुद में खंड-दर-खंड रचा जाता है। कोई संवाददाता मौका-ए-वारदात पर जो देखता है, मात्र उसे देखे को आधार मानकर वह समाचार नहीं लिख सकता। समाचार लिखने के लिए उसे कातिल-मकतूल के सिरे से अलग किसी तीसरे सिरे पर खड़े चश्मदीद गवाह के कथन , घटना के बारे में पुलिस और अस्पताल की तरफ से कही जा रही बातों, घटना से जुड़े संदर्भ और विशेषज्ञों की राय की जरूरत पड़ती है। पुरानी घटनाएं, तुलना, अपराध के आंकड़ों के ग्राफिक्स और तालिका आदि जिनका वास्तविक घटना से सीधे-सीधे कोई कोई लेना-देना न हो, वे भी समाचार लिखने के काम में आते हैं। प्रस्तुति को बेहतर बनाने और पठनीयता के लिहाज से एक संवाददाता या उप-संपादक समाचार का मुखड़ा(इंट्रो) या उपसंहार बदल सकता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कई बार कोई फिल्मकार फिल्म के दुखांत को सुखांत में बदल देता है।
इस सारी प्रक्रिया में बड़े पेशेवर हुनर और अभ्यास की जरूरत पड़ती है। संरचनावादी मानते हैं कि पर्यवेक्षक/संवाददाता के दिमाग में ज्ञान, अनुभव, समझ और पूर्वाग्रह जैसी व्यक्तिपरक चीजें पहले से ही मौजद होती है और घटना के अवलोकन और रिपोर्टिंग को निर्देशित करती हैं। संवाददाता का स्रोत का चयन अक्सर उसकी निजी विश्वदृष्टि को प्रतिध्वनि करता है। वैज्ञानिक तरीके से किसी समाचार के विखंडन से इस बात की बड़ी बारीकी से जांच हो सकती है कि किसी समाचार को बनाने में क्या-क्या शामिल है और मुख्य मुद्दे कैसे और किसके द्वारा परिभाषित किए गए हैं। मिसाल के लिए अगर मुद्दों और उनके कारणों का मुख्य कारक उस स्रोत को ही मान लें जिसके हवाले से समाचार प्रस्तुत किया जा रहा है तो फिर इस बात को जानने का बड़ा सरल तरीका मिल जाता है कि किसी खास छवि या मुद्दे को उठाने के पीछे कौन-से हित काम कर रहे हैं।
मीडियाकरण को समझने का एक और तरीका मीडिया के विमर्श को अंतर-सांगठनिक(इंटर-आर्गनाइजेशनल अप्रोच) दृष्टि से देखना भी हो सकता है। इससे यह समझने में करने में मदद मिलेगी कि समाज का संगठनपरक हिस्सा मीडिया से और आपस में कैसे व्यवहार करता है। दैनंदिन अंतर-सांगठनिक आदान-प्रदान (कम्युनिकेशंस) का अधिकांश हिस्सा मीडिया-संगठनों और समाचारों के स्रोत-संगठन (जिसे मीडिया की भाषा में सूत्र कहा जाता है) जैसे सरकार, राजनीतिक पार्टियां, नागरिक समाज आदि के बीच होता है। अंतर-सांगठनिक दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि समाज का हर संगठनपरक हिस्सा जब मीडिया से संवाद में जाता है तो क्यों और कैसे उन सभी बातों का ख्याल रखता है जो उसके हित से जुड़े हैं।
इस नजरिए से देखें तो पता चलेगा कि, समाचारों का अधिकांश हिस्सा उस अंतर-सांगठनिक संवाद की देन है जो जो एक मीडिया संगठन और जमे-जमाये स्रोत-संगठन के बीच होता है। यही नियम राजनीतिक दलों पर भी लागू होता है, जो पुलिस, फौज और यहां तक कि कारपोरेट इकाइयों के मुकाबले भी ज्यादा खुले और मुखर माने जाते हैं। खोजबुद्धि से सक्रिय कोई पत्रकार समाचार की तह तक जाने के लिए अनधिकृत स्रोतों (सूत्रों) को ढूंढता है, लेकिन स्रोत-संगठन अमूमन मीडिया से ऐसी रीति से बात करते हैं कि उनके संगठन का हित बेहतर तरीके से सध सके। मीडिया भी किसी घटना पर पहली प्रतिक्रिया प्रवक्ताओं (स्पोक्सपर्सन्स) या आधिकारिक पदाधिकारी जैसे स्रोतों से लेना अधिक पसंद करता है।
अपना उत्कृष्टतम् प्रस्तुत करने की आधुनिक संगठनों की जरुरत की स्वाभाविक परिणति होती है स्पिन डाक्टर्स या जनसंपर्क एजेंसियों के विशेषज्ञों की सेवा लेने में।अधिकतर कारपोरेट और व्यापारिक इकाइयों के न केवल अपने पीआर डिपार्टमेंट हैं बल्कि वे समय-समय पर विशेष आवश्यकताओं के लिए बाहरी विशेषज्ञों की सेवा लेते रहते हैं। चीजों को बढाकर और चमका कर प्रस्तुत करने के उद्योग (स्पिन एंड हाइप इंडस्ट्रीज) के फलने-फूलने का कारण यही है कि लोग अपनी पसंद बनाने के लिए टेलीविजन द्वारा दिखाये जा रहे (सेकेंड हैंड) यथार्थ पर निर्भर रहने लगे हैं। स्टाक मार्केट की गतिविधि और चुनाव-प्रचार इसके सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। कोई कंपनी अपना इन्शियल पब्लिक ऑफरिंग (आईपीओ) लॉन्च करने वाली होती है तो इसके लिए उसे पेशेवर संवादकर्मियों (कम्युनिकेटर्स) की जरूरत पड़ती है क्योंकि हर हालत में कंपनी को सकारात्मक प्रचार ही चाहिए।
पश्चिम के अधिक विकसित लोकतंत्रों में सेकेंड हैंड यथार्थ का उपभोग ज्यादा है और ज्यदातर लोग राजनीति में बतौर दर्शक ही भागीदार हैं। कहा जाता है कि अमेरिका में हर राजनीतिक प्रक्रिया मीडियामय होती है। भारत में हम अभी 'वहां पूरी तरह से नहीं पहुंचे हैं' लेकिन हम उस दिशा में खतरनाक तेजी से कदम बढ़ा रहे हैं। भारतीय महानगर का समृद्ध मध्यवर्गीय नागरिक राजनीति से किसी छूत की बीमारी की तरह बचता है। वह बड़ी शिद्दत से यह मान लेता है कि बातें ज्यादा बिगड़ेंगी तो ठीक करने के लिए कोई और (यानी मीडिया या एनजीओ) उनकी ओर से सामने आएगा ही।

बहुलतावाद… जनमत को हांकने की प्रवृति के खिलाफ एक प्रतिरोध
जो बहुलतावाद की ताकत में विश्वास में करते हैं वे यह भी मानते हैं कि अडोस-पड़ोस में रहने वाले विभिन्न हितों के बीच आपसी होड़ लगी रहती है। बहुलतावाद का हामी नागरिक सक्रियता का विश्वासी होता है। वह नहीं मानता कि मीडिया-चालित समाज अनिवार्य रूप से जनता को निष्क्रिय ही बनाएगा। प्रतिस्पर्धी हित वाले समुदायों की मौजूदगी मीडिया को अधिक जीवंत बनाती है और निष्क्रियता के खिलाफ एक प्रतिरोधक का काम करती है। यदि सत्ताधारी पार्टियों और सरकारों के हित गोपनीयता बरतने में हैं तो विपक्ष और नागरिक-समाज के हित पारदर्शिता बढ़ाने में। तथ्य यह है कि संघीय ढांचे में सत्ताधारी पार्टियां और सरकार लगातार बदलते रहती है, जो कि बहुलतावाद के उद्देश्य को पूरा करता है। मिसाल के लिए सूचना के अधिकार, सोशल ऑडिट और खाद्य सुरक्षा विधेयक के मुद्दे पर जारी बहस को जन-आंदोलनों और नागरिक समाज की पैरोकारी की सफलता के रुप में देखा जा सकता है।
मीडिया और नागरिक समाज एक-दूसरे की मदद करने की स्थिति में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते और आपसी मेल से जनतांत्रिक लोकवृत्त (पब्लिक स्फीयर) को और मजबूत करते हैं। मीडिया के लिए, जिसे आमतौर पर समाचारों और सूचनाओं के लिए राज्य पर निर्भर रहना पड़ता है, नागरिक-समाज अक्सर वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करने वाला एकमात्र सक्षम और विश्वसनीय स्रोत साबित होता है। नागरिक समाज मूलत: स्वैच्छिक संस्थाओं, हित समूहों, और गिल्डों तथा जन-आंदोलनों से बना होता है। राजीव भार्गव और हेलमुट रायफेल्ड के अनुसार लोकवृत्त(पब्लिक स्फीयर) निर्वैयक्तिक होता है और इसमें निष्पक्षता का गहरा पुट होता है।5 लेखकद्वय का तर्क है कि लोकवृत्त का उद्देश्य सर्व-सामान्य के लिए बनायी जा रही नीतियों पर प्रभाव डालना होता है।
बहुलतावाद की मान्यता है कि समय के किसी भी मुकाम पर प्रतिस्पर्धी हितों और नजरियों की होड़ किसी एक को सतत रूप से प्रभुत्वशाली शासक वर्ग बनने से रोकती है।ढेर सारे प्रतिद्वन्द्वी समूहों की मौजूदगी और उनके हितों का आपसी टकराव लोकवृत्त को अधिक पारदर्शी और राजव्यवस्था को ज्यादा जिम्मेदार बनाने में सहायक होता है। वैयक्तिक व्यवहार(इंडिविज्युअल विहेवियर) और सामाजिक पसंद (सोशल च्वाईस) पर काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन यहां हमारा मुख्य जोर इस बात पर है कि आम जनता के जीवन से बंधनों को हटाना उतना ही जरुरी है जितना जरुरी स्वतंत्रता का मोल समझने वाले लोगों के लिए अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सकना।6 वैयक्तिक अधिकारों का सार्वजनिक पक्ष होता ही है और लोकवृत्त के सहारे इस पक्ष का विस्तार किया जा सकता है और सुरक्षा भी।
हालांकि पेशेवराना रवैये के दायरे में मीडिया हाउस के मालिकों, मालिकों की नजर में परम-पावन मान ली गई चीजों और विज्ञापनदाताओं के हितों से तालमेल बैठाना भी शामिल है, फिर भी ऐसे समाचारों की कमी नहीं जो इस नियम को तोड़ते है , नागरिक संगठनों के हवाले से प्रकाशित-प्रसारित होते हैं और उनका समर्थन भी हासिल करते हैं। बहुत सारे पत्रकार अपनी जान और जीविका का जोखिम उठाकर भी व्यवस्था- विरोधी समाचारों के पीछे डटे रहते हैं। हालांकि, दैनंदिन समाचार- उत्पादन के संदर्भ में ऐसे समाचार अपवादस्वरुप ही होते हैं, कोई रोजमर्रा की बात नहीं। चाहे साफ-सुथरी जीविका कमाने के भाव से अपनाये गए पेशेवराना रवैये के तकाजे हों या फिर व्याहारिक रुप से संभव वस्तुनिष्ठता की फिक्र, बात घूमकर यहीं आती है कि किसी से पक्षपात न किया जाय, संविधान-सम्मत रहा जाय, बहुलतावाद और जनहित का ध्यान रखा जाय और परस्पर विरोधी हितों के बीच एक संतुलन साधा जाय।7
नागरिक समाज को भी अक्सर राज्य और बाजार की ताकत पर निर्भर रहना पड़ता है, हालांकि फिर इसी अक्सरियत में उसे इनकी काट में भी खड़ा होना होता है। मिसाल के लिए उन्हें दूर-दराज के इलाकों में काम करना हो तो ऐसे इलाकों में कानून का राज होना जरुरी होता है, फिर उन्हें अकसर राज्येतर, निजी एजेंसियों तथा कारपोरेट कंपनियों के फाउंडेशनों से मिलनेवाली आर्थिक मदद पर भी निर्भर रहना पड़ता है। एक मजबूत और जीवंत नागरिक समाज ने न केवल जनपक्षी मुद्दों के इर्द-गिर्द सामाजिक आंदोलनों को जन्म दिया है बल्कि उसने उतने ही जीवंत और बहुविध मीडिया समुदाय की जरुरत को पूरा करने के लिए समाचार के वैकल्पिक स्रोत भी उपलब्ध कराए हैं।
एनजीओ और नागरिक-समाज के समूहों की मौजूदगी बहुलतावाद और लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत जरुरी है। इनकी मौजूदगी का अपरिहार्य रिश्ता लोकतांत्रिक संस्थाओं के सशक्तीकरण तथा पारदर्शिता, जवाबदेही और सामाजिक जीवन में पेशेवर नैतिकता के विस्तार के साथ है। यह बात सच है कि कुछ खास तरह के एनजीओ और नागरिक-संगठनों पर लगातार सरकार और किन्हीं निहित स्वार्थों द्वारा हमले होते हैं मगर समाज में उनकी उपस्थिति और नीति-निर्माण में उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है। भले ही नागरिक या बड़े नागरिक-संगठन मीडिया-स्वामित्व के रंग-ढंग न बदल सके हों, मगर बतौर पाठक और दर्शक उन्होंने मीडिया से सदा उत्कृष्ट पेशेवर मापदंड प्रस्तुत करने की मांग उठायी है। एकलौते श्रोता-दर्शक के रुप में कोई नागरिक भले ही निष्क्रिय कहलाये किंतु इस बात को नकारा नहीं जा सकता की उसके व्यक्तिगत अधिकारों का एक सार्वजनिक पक्ष भी होता है।
लोकतांत्रिक और उदार लोकवृत्त के स्वस्थ विस्तार के लिए लोकतंत्रिक माहौल, कानून का शासन, बहुलतावाद और सार्वजनिक जीवन में एक सीमा तक पेशेवराना रवैया का पालन आवश्यक शर्त माने जाते हैं। मीडिया और नागरिक समाज दोनों ही ऐसे लोकवृत्त(पब्लिक स्फीयर) के विस्तार में बहुत बड़ा योगदान देते हैं और दोनों ही उसकी उपस्थिति से लाभान्वित होते हैं।
अनु.: उषा चौहान

लेखक : सीएसडीएस के इनक्लूसिव मीडिया प्रोजेक्ट के अध्यक्ष

पाद-टिप्पणी
1. याद करे गुफा में बंद उस व्यक्ति की कहानी जिसकी चर्चा प्लेटो ने की है जिसमें (जनता का ) बोध प्रतिबिंबों(पढे टीवी की छवियों) के जरिए बनता है ना कि ठीक आंख के सामने घट रही घटना में भागीदार बनकर।
2. निम्मो और कॉम्ब्स (1990) का तर्क है कि ज्यादातर अमेरिकी नागरिक राजनीति के प्रत्यक्ष भागीदार नहीं हैं। सामान्यतया, जन-संचार के माध्यम निष्क्रिय जन-समुदाय तक राजनीति को माध्यमीकृत करते हैं और इस प्रक्रिया में कभी भी व्यक्तियों की सक्रिय भागीदारी राजनीति में नहीं होती।
3. एरिक लुव (2005) के अनुसार "एक-दूसरे से मेल-मिलाप की जगह मनुष्य अब , इकलौते व्यक्ति के रुप में एक छद्म मेल-मिलाप के अनुभव से गुजर रहे हैं, और यह अनुभव उन्हें जन-संचार के माध्यम द्वारा हासिल होता है, उसी की छवियों में बनता है। लोग व्यक्तिरुप में मीडिया-चालित अनुभव हासिल करते हैं..ऐसे माडिया-चालित(निष्क्रिय) दूरदेशी के अनुभव में घालमेल की असीमित गुंजाइश रहती है। ''
4. अक्सर जान पड़ता है कि संपर्क के धनी राजनीति के पत्रकार की राजपाट और नीति-निर्माण के तंत्र के भीतर पैठ है लेकिन व्यावहारिक धरातल की सच्चाई यह है कि वे पैठ तो क्या तंत्र के भीतर तनिक घुसपैठ करने की भी स्थिति में नहीं होते। वे पत्रकार की हैसियत से बस उतना ही देख पाते हैं जितना कोई तंत्र के भीतर नहीं बल्कि उसके घेरे के नजदीक जाकर देखने वाला आदमी । ऐसे पत्रकारों में कुछेक को अर्ध-अन्तर्वासी माना जा सकता है, वह भी हमेशा नहीं कभी-कभी। इसलिए मीडिया व्यवस्था का अंग जान पड़ सकती है लेकिन लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप में नहीं जैसा कि अक्सर उसके बारे में कहा जाता है या फिर जान पड़ता है।
5. भार्गव और रायफील्ड का तर्क है कि नागरिक संगठन में लोग तनिक बाधित और निजी किस्म के लक्ष्यों को लेकर आते हैं लेकिन पब्लिक स्फीयर में सबके सरोकारों की दखल होती है।
6. अमर्त्य सेन ने डेवलपमेंट ऐज फ्रीडम (ओयूपी 2000) में तर्क दिया है कि "अमूमन विकास के सर्वाधिक प्रधान लक्ष्य की तरह मानवीय स्वतंत्रता का अंदरुनी महत्व इस बात से जुड़ा रहता है कि कोई खास किस्म की स्वतंत्रता उपयोग के धरातल पर अन्य स्वतंत्रताओं को बढ़ाने में कितनी कारगर है।'' (यथातथ्य सूचना देने से इन्कार संवतंत्रता की राह में एक बाधा की तरह है- यहां इस पर जोर दिया गया है।
7. आधुनिक मीडिया-अध्ययन के क्षेत्र में वस्तुनिष्ठता की धारणा पर आलोचनाओं की भरमार है। ऐसे आलोचकों में सर्वाधिक जाना-माना नाम हरमन और चाम्स्की ( मैन्युफैक्चरिंग कन्सेंट, 1989); गे टचमैन (ऑब्जेक्टिविटी ऐज ए स्ट्रेटजिक रिच्युअल 1972); डैन शिलर (ऑब्जेक्टिविटी एंड न्यूज 1981) और बैग्दीयन ( मीडिया मोनोपॉली 1992) का है।
संदर्भ-सूची:
बी बैग्दीयन (1992), द मीडिया मोनोपॉली(चौथा संस्करण) बोस्टन, बेकन प्रेस.
राजीव भार्गव, हेलमुट रायफील्ड(संपादित) (2005) सिविल सोसायटी, पब्लिक स्फीयर एंड सिटीजनशिप: डायलॉग्स् एंड परस्पेक्टिव. सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली, थाऊजेंड ओक्स्, लंदन।
नोम चॉम्स्की (1989), नेसेसरी इल्युजन्स् : थॉट कंट्रोल इन डेमोक्रेटिक सोसायटिज. लंदन. प्लूटो प्रेस.
आर कॉलिन्स, जे क्यूरेन, एन ग्रान्हम,पी स्केनल; पी स्लेसिंगर और सी स्पार्क्स(संपादित) (1986),मीडिया कल्चर एंड सासायटी: अ क्रिटिकल रीडर. सेज, लंदन, बेवर्ली हिल्स्, न्यूबरी पार्क और दिल्ली
बरानेक इरिक्सन और चान (1987), विज्युलाइजिंग डेवियेंस: अ स्टडी ऑव न्यूज आर्गनाईजेशन, ओपन यूनिवर्सिटी प्रेस, मिल्टन कीन्स.
ग्रान्हम(1986), कंट्रीब्यूशन टू अ पॉलिटिकल इकॉनॉमिक ऑव मास कम्युनिकेशन- देखें आर कॉलिन्स, जे क्यूरेन, एन ग्रान्हम,पी स्केनल; पी स्लेसिंगर और सी स्पार्क्स(संपादित) (1986),मीडिया कल्चर एंड सासायटी: अ क्रिटिकल रीडर. सेज, लंदन, बेवर्ली हिल्स्, न्यूबरी पार्क और दिल्ली
पी गुहा ठाकुर्ता (2009) मीडिया एथिक्स: ट्रूथ फेयरनेस एंड ऑब्जेक्टिविटी, मेकिंग एंड ब्रेकिंग न्यूज, नई दिल्ली, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस.
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डी निम्मो और जे ई $कॉम्ब्स् (1990)मेडिएटेड पॉलिटिकल रियल्टिज, न्यूयार्क, लॉगमैन
ए सेन (2000) डेवलपमेंट ऐज फ्रीडम, ऑक्सफोर्ड, ओयूपी
डी शिलर (1981) ऑब्जेक्टिविटी एंड द न्यूज: द पब्लिक एंड द राईज ऑव कमर्शियल जर्नलिज्म, फिलाडेल्फिया:यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया प्रेस
जी टचमैन (1971), ऑब्जेक्टिव ऐज स्ट्रेटजिक रिच्युअल : ऐन एक्जामिनेशन ऑव न्यूजमेन्स नोशन ऑव ऑब्जेक्टिविटी, अमेरिकन जर्नल ऑव सोश्यॉलॉजी, खंड .77(4).660-679.
एल एस व्यगोत्स्की (1978) माइन्ड इन सोसायटी , कैम्ब्रिज, एमए, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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मैं नास्तिक क्यों हूं# Necessity of Atheism#!Genetics Bharat Teertha

হে মোর চিত্ত, Prey for Humanity!

मनुस्मृति नस्ली राजकाज राजनीति में OBC Trump Card और जयभीम कामरेड

Gorkhaland again?আত্মঘাতী বাঙালি আবার বিভাজন বিপর্যয়ের মুখোমুখি!

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जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

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अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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